करीब से……

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ज़ोहरा सहगल की 102 साल की भरीपुरी जि़न्दगी की एक झलक मिली उनकी आत्मकथा ‘क़रीब से’ में। हालांकि एक शतक की पूरी जि़न्दगी 241 पन्नों की किताब में समेट पाना बेहद मुश्किल है, वह भी तब जब जीवन में इतना कुछ घटित हो रहा हो। लेकिन उस जि़न्दगी को पढ़ कर एक सुकून मिला कि चलो कोई तो है जो जि़न्दगी को इतना सम्पूर्ण जीता है। थोड़ा सा गिला अपनी जि़न्दगी से हुआ कि काश हम थोड़ा सा भी ऐसा जी लेते। पर कोई भी पूरा कहां जी पाता है। ज़ोहरा को भी थोड़ा गिला रह गया – ‘‘सच बोलूं तो मैं बहुत कुछ और कर सकती थी। मुझमे कुछ हुनर था और मुझे वह मौक़े मिले जो मेरी पीढ़ी की बहुत सी औरतों को नहीं मिले।…………..हालांकि मुझे लगता है कि मुझे कुछ कम मिला, लेकिन मैंने अपने लिए थोड़ी सी पहचान बनाई, बहुत सारा तजु़र्बा कमाया और कड़ी मेहनत के बावजूद अपने काम से बेपनाह खुशियां र्पाइं। और क्या चाहिए, मैं इसे ऐसा चाहती थी।’’ ज़ोहरा की आत्मकथा की ये अन्तिम पंक्तियां हैं। जि़न्दगी को और क्या चाहिए। सारा जीवन अपनी मर्जी से जीना। यही तो एक व्यक्ति के जीने का मक़सद होता है। ज़ोहरा ने जीवन का एक-एक पल अपनी मर्जी से जिया।
मशहूर अदाकरा ज़ोहरा सहगल का जन्म 27 अप्रैल 1912 में उत्तरप्रदेश के सहारनपुर में हुआ था। उनके अब्बा एक पठान सरदार थे। उनके पुरखे 1761 में हिन्दुस्तान में आए और बाद में वे रामपुर में बस गए। उनकी मां नजीबाबाद रियासत के नवाबी खानदान की थीं जो बाद में मुरादाबाद में बस गया। इस तरह ज़ोहरा को विरासत में नवाबी और रईसी मिली थी जिसकी ठसक उनकी पूरी जि़न्दगी में देखने को मिलती है। हालांकि अपने पैशन, थिएटर के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की और पृथ्वी थिएटर के दौरों के दौरान सभी के साथ ज़मीन पर भी सोती थीं और अपने कपड़े खुद धोती थीं। बकौल जोहरा ‘दौरों की इस ‘कैम्प’’ की सी जि़न्दगी ने मेरे अन्दर की अभिजात ठसक को काफ़ी हद तक चकनाचूर कर दिया था।’
सबसे महत्वपूर्ण है कि उस वक्त 20वीं शताब्दी के पहले दशक में पैदा होने के बावजूद उनकी परवरिश अपेक्षाकृत एक उदारवादी माहौल में हुयी। उन्होंने लाहौर के विख्यात क्वीन मैरी’ज़ कालेज में ऐडमिशन लिया और होस्टल में रहते हुए तालीम हासिल की। यह काॅलेज विशेषतौर पर रईस खानदान की लड़कियों के लिए बनाया गया था। यहां मध्यम वर्ग के बच्चों को भी ऐडमिशन नहीं दिया जाता था। स्वयं ज़ोहरा बताती हैं कि उनके स्कूल में एक बार एक ठेकेदार की बेटी पढ़ने आई तो उन लोगों ने बहुत नाकभौं सिकोड़ा और व्यंग्य किया। ज़ाहिर है अभिजात्यता उनके रग-रग में थी। बहरहाल उस ज़माने में एक लड़की को ऊंची शिक्षा दिया जाना विरली ही बात थी। यही नहीं उन्हें अपनी मर्जी से जीवन तय करने की भी छूट थी। क्वीन मेरी’ज़ कालेज में शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होंने अपनी इच्छा ज़ाहिर की कि वे मंच की कलाकार बनना चाहती हैं तो उन्हें फौरन इसकी इजाज़त मिल गयी। यूरोप की यात्रा के दौरान उन्होंने इज़ाबेला डंकन से प्रभावित होकर नृत्यांगना बनना चाहा और उन्हें फ़ौरन इसकी भी इजाज़त मिल गयी। इसके बाद उन्होंने जर्मनी में रह कर नृत्य सीखा। इस तरह उनकी अदाकारी की शुरुआत नृत्य से हुयी।
भारत लौटने के बाद वह उदयशंकर की नृत्य मण्डली के साथ संयुक्त हो गयीं । 1939 में उदयशंकर द्वारा अल्मोड़ा में खोले गए सांस्कृतिक केन्द्र में वह शुरू से ही सम्बद्ध रहीं। यहीं उनकी मुलाक़ात एक अन्य ज़हीन कलाकार और उनके शिष्य कामेश्वर सहगल से हुयी। यह मुलाकात पहले दोस्ती फि़र प्यार और फि़र शादी में तब्दील हो गयी। 1943 में दोनो ने अल्मोड़ा छोड़ दिया और लाहौर में अपनी नृत्य अकेडमी खोल ली -ज़ारेश डांस इन्स्टीट्यूट।
1945 में सहगल दम्पत्ति बाॅम्बे शिफ्ट हो गए। उस ज़माने की रवायत के हिसाब से वह फौरन इप्टा से जुड़ गयीं। लेकिन इप्टा उनके व्यक्तित्व पर विचारधारात्मक असर छोड़ पाने में नाकामयाब रहा। सम्भवतः इप्टा आन्दोलन की यह सबसे बड़ी कमी रही कि इससे जुड़े अधिकांश लोगों की विचारधारात्मक परिपक्वता एवं वर्ग चेतना कभी भी बहुत तीखी नहीं रही। शायद इसी लिए वह ज़ोहरा पर भी अपना ज़्यादा असर नहीं डाल सका। हालांकि वह कहती हैं कि उस दौर का हर वह कलाकार जिसका थोड़ा भी नाम हो, इप्टा में शामिल था। कलाकार इप्टा की ओर ऐसे खिंचे चले आते थे जैसे मधुमक्खियां शहद की ओर। इप्टा को लेकर उनकी समझ यह थी कि 1947 के बाद इसका असर कम होता गया, शायद इसलिए कि इसके बहुत से कलाकार फि़ल्मी दुनिया में मशहूर हो गए और बिना कुछ लिए इप्टा के कामों में खटने का जज़्बा उनमें बाकी नहीं रहा। कुछ कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ न रखने कारण इसे छोड़ कर चले गए। और अन्त में उन्हें लगता है कि आज़ादी मिलने के बाद विदेशी हुक्मरान चले गए तो शिकायत करने की कोई वजह नहीं रह गयी।
इसके बाद वह पृथ्वी थिएटर में शामिल हो गयीं। और 1960 में इसके बन्द होने से कुछ पहले इसे छोड़ दिया। उन्होंने बहुत ही तफ़सील से पृथ्वी थिएटर की गतिविधियों एवं उसके विभिन्न नाटकों और उनके साथ अपने जुड़ाव को क़लमबद्ध किया है। पृथ्वीराजकपूर के साथ उनका काफ़ी क़रीबी सम्बन्ध था। इस तरह वे अपने दो गुरुओं को रेखांकित करती हैं। नृत्य के लिए उदयशंकर दादा और थिएटर के लिए पृथ्वीराज कपूर पापा। पृथ्वीराज कपूर के बराबरी के जज़्बे और कड़ी मेहनत की वह क़ायल थीं। उन्होंने ताउम्र इसे क़ायम रखा।
1959 में उनके पति कामेश्वर सहगल की मौत हो गयी। इसके बाद ज़ोहरा ने बाॅम्बे छोड़ दिया और लगभग पागलपन की स्थिति में दिल्ली आ गयीं और बाद में नाट्य अकादमी का कार्यभार संभाला और प्रशासनिक काम देखने लगीं। इसी दौरान उन्होंने रूस सहित यूरोप के विभिन्न देशों का दौरा किया। प्रशासनिक काम करने से ऊब कर एक बार फि़र वह लंदन मे रहने लगीं। यहां उन्होंने आजीविका के लिए छोटे बड़े बहुत से काम किये। इसमें ड्रेसर की नौकरी भी शामिल है। यहां रहते हुए वह विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों एवं बीबीसी से जुड़ी रही।
1989 में अन्ततः वह दिल्ली, अपने वतन, अपने लोगों के साथ रहने के लिए आ गयीं। यहां आने के बाद उन्होंने अपने लिए एक बसेरे का इन्तज़ाम किया और अब वहीं रह रही हैं। यहां आने के बाद भी अभी हाल तक ज़ोहरा सहगल अभिनय की दुनिया से जुड़ी रहीं। अप्रैल 2012 में उन्होंने अपने जीवन का शतक पूरा किया।
कुल मिला कर इस किताब के हर पन्ने से वही जि़न्दगी छलकती हुयी मिलती है जो इस किताब के कवर पर छपे ज़ोहरा के जीवन्त चित्र से छलकती है। जैसा कि हर किताब के पढ़ने के पूर्व एक प्रत्याशा होती है, मेरी इस किताब से भी थी। मैंने सोचा था कि इस किताब के माध्यम से इप्टा को क़रीब से जान पाउंगी। पर ज़ोहरा शायद विचारधारात्मक रूप से इप्टा से कभी नहीं जुड़ीं। फि़र भी उनके द्वारा अल्मोड़ा स्थित उदयशंकर के सांस्कृतिक केन्द्र एवं पृथ्वी थिएटर के विषय में किया गया बारीक विवरण एक कलात्मक अभितृप्ति देता है।
किताब का अनुवाद किया है -दीपा पाठक ने। उन्होंने किताब और ज़ोहरा के जीवन के मर्म को समझा है और विषयवस्तु के अनुरूप हिन्दी उर्दू शब्दों प्रयोग करते हुए बेहतरीन अनुवाद किया है।

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