‘अख़लाक़’ और ‘चिम्मा’ की याद में…….

दादरी की घटना ने हम सभी को स्तब्ध कर दिया है। दादरी की इस घटना को ‘गांधी जयंती’ के दिन एक 90 साल के दलित को हमीरपुर जिले में जिंदा जलाने की घटना से जोड़कर देखा जाना चाहिए। 90 साल के इस दलित ‘चिम्मा’ ने मंदिर में घुसने की जुर्रत की थी।
हिन्दुत्व के निशाने पर प्रगतिशीलों, मुस्लिमों, आदिवासियों के अलावा दलित भी हैं। यह समीकरण ही यह बता देता है कि इनका मुकाबला कैसे किया जा सकता है। लेकिन अभी तक दिक्कत यही रही है कि हम हिन्दुत्व की ताकतों से सिर्फ विचारधारा के स्तर पर ही लड़ते रहे हैं। यह लड़ाई बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन आज नाकाफी है क्योकि हिन्दुत्व आज महज विचारधारा नही है बल्कि मजबूत भौतिक शक्ति में बदल चुका है। और भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति से ही परास्त किया जा सकता है।
बहरहाल मशहूर इतिहासकार ‘डी एन झा’ उन चुने हुए इतिहासकारों में से एक हैं जिन्होंने हिन्दुत्व की विचारधारा को एकदम सामने से चुनौती दी है और उसकी कीमत भी चुकायी है। प्रस्तुत है उनका एक बेहद महत्वपूर्ण साक्षात्कार-

[साक्षात्कार के अन्त में मशहूर कवि ‘राजेश जोशी’ की दादरी की घटना पर लिखी एक बेहद महत्वपूर्ण कविता है।]

भारत में गोमांस के उपभोग के इतिहास पर अपने शोध के दौरान आपने किस तरह की दिक्कतें झेली?
2001 में जब मेरी किताब ‘Holy Cow: Beef in Indian Dietary Traditions’ प्रकाशित हुई तो मुझे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। हिन्दुत्व के एक गिरोह ने मेरे घर में तोड़फोड़ की, मेरी किताब की प्रतियां जलायी और मेरी गिरफ्तारी की मांग की। मुझे मौत सहित सभी तरह की धमकियां मिली।
मुझे दो साल तक पुलिस संरक्षण में रहना पड़ा। एक हिन्दू संगठन ने मेरे खिलाफ केस दायर कर दिया और मेरी किताब के प्रकाशन व वितरण पर रोक लग गयी। इस तरह से मेरी किताब प्रतिबंधित कर दी गयी।
मैंने इस प्रतिबंध को चुनौती दी और प्रतिबंध को हटवाने में मैं कामयाब रहा। मेरी किताब लंदन से भी प्रकाशित हो गयी।
इस तरह मैंने प्रतिबंध तो हटवा लिया लेकिन मुझे सालों तक पुलिस संरक्षण में रहना पड़ा।
गोमांस आज इतना बड़ा मुद्दा क्यों बन गया है?
मेरी किताब प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन पर आधारित है। यह दिखाती है कि वैदिक काल में गोमांस का उपभोग सामान्य बात थी। उस समय पशुओं की अक्सर बलि दी जाती थी। लेकिन ग्रंथों का बारीकी से अध्ययन करने पर पता चलता है कि धीरे धीरे ब्रह्मिनो ने गोमांस खाना बंद कर दिया। उन्होंने इसे अछूत जातियों की ओर हस्तान्तरित कर दिया। मध्यकाल में भोजन के लिए गाय मारने को मुस्लिमों से भी जोड़ कर देखा जाने लगा।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गाय को ‘हिन्दू’ पहचान के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। मुस्लिमों की पहचान गोमांस भक्षक के रुप में बना दी गयी। हिन्दू दक्षिणपंथी हमेशा यह दावा करते हैं कि गोमांस-भक्षण भारत में मुस्लिम लेकर आये। यह सरासर गलत है।
भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही समकालीन भारतीय राजनीति में गोमांस ने अभूतपूर्व महत्व ग्रहण कर लिया। गोमांस पर प्रतिबन्ध की राजनीति, भारत को शाकाहारियों के देश के रुप में दिखाने की भाजपा के प्रयास का ही एक हिस्सा है। शिक्षण संस्थानों में मांसाहार पर प्रतिबन्ध इसका एक उदाहरण है।
भारत के नेतागण अतीतग्रस्त क्यों रहते है? आखिर ये नेतागण हैं कौन?
इनका सम्बन्ध हिन्दू दक्षिणपंथियों से है। उनकी यह अतीतग्रस्तता समझ में आती है- चूंकि उन्होंने भारत के मुक्ति संग्राम में हिस्सा नही लिया था, इसलिए वे अतीत से अपने लिए वैधता चाहते हैं। इसी प्रक्रिया में वे अपने हिसाब से मनगढ़न्त इतिहास रच रहे हैं।
अतीत को जिस तरह से हिन्दू दक्षिणपंथी देख रहे हैं वह उस प्रगति का निषेध है जो आजादी के बाद भारतीय इतिहासलेखन ने अपनाया है। यह तार्किक व वैज्ञानिक तरीके से इतिहास पर शोध करने और इतिहास लेखन का नकार हैं।
प्लास्टिक सर्जरी, स्टेम सेल और वायुयान विज्ञान के क्षेत्र में प्राचीन इतिहास की उपलब्धियों की जोरशोर से घोषणायें की जा रही है, वेदों की प्राचीनता को और अधिक प्राचीन बताने का प्रयास किया जा रहा है, प्राचीन ऋषियों को वैज्ञानिक बताया जा रहा है, वेदों से रोबोट तक की एक निरन्तरता को दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। इतिहास पर उनके इस आक्रमण के ये चंद उदाहरण हैं। लेकिन उनका ‘इतिहास’ एक रहस्य है क्योकि यह किसी भी तार्किक विश्लेषण से अपने आपको दूर रखता है।
नेहरु मेमोरियल म्यूजियम एण्ड लाइब्रेरी (NMML) के प्रस्तावित बदलावों पर आपकी क्या राय है?
सम्मानित विद्वानों ने इस संस्था का नेतृत्व किया है। महेश रंगराजन का इस्तीफा शुभ संकेत नही हैं। इसे शासन प्रणाली के एक म्यूजियम में बदलने की घोषणा का मतलब यही है कि यह प्रचार का एक यंत्र बन कर रह जायेगा।
आइसीएचआर (ICHR) में जिस तरह के ‘बदलाव’ किये गये है, उसे देखकर किसी को भी यह सन्देह नही होना चाहिए कि एनएमएमएल (NMML) में किस तरह के बदलाव किये जायेंगे।
[Times of India, October 7 से साभार ]
अनुवाद – कृति

दादरी का अख़लाक़
-राजेश जोशी

हर हत्या के बाद
ख़ामोश हो जाते हैं हत्यारे
और उनके मित्रगण.

उनके दाँतों के बीच फँसे रहते हैं
ताज़ा माँस के गुलाबी रेशे,
रक्त की कुछ बूँदें भी चिपकी होती हैं
होंठों के आसपास,
पर आँखें भावशून्य हो जाती हैं
जैसे चकित सी होती हों

धरती पर निश्चल पड़ी
कुचली-नुची मृत मानव देह को देखकर
हत्या के बाद हत्यारे भूल जाते हैं हिंस्र होना
कुछ समय के लिए
वो चुपचाप सह लेते हैं आलोचनाएँ,
हत्या के विरोध में लिखी गई कविताएँ
सुन लेते हैं बिना कुछ कहे
यहाँ तक कि वो होंठ पोंछकर
दाँतों में फँसे माँस के रेशे को
खोदकर, थूककर
तैयार हो जाते हैं हिंसा की व्यर्थता पर
आयोजित सेमीनारों में हिस्सेदारी को भी
हर हत्या के बाद उदारवादी हो जाते हैं हत्यारे
कुछ समय के लिए

जब तलक अख़बार उबल कर शांत न हो जाएँ
जब तलक पश्चिम परस्त, पढ़े लिखे नागरिक
जी भरकर न कोस लें हत्यारों को
हमारे प्राचीन समावेशी समाज की इस स्थिति पर
जब तलक अफ़सोस जताना बंद न कर दें सर्वोदयी कार्यकर्ता

और जब तलक राइटविंग के उत्थान पर
छककर न बोल लें कम्युनिस्ट टाइप प्रोफ़ेसर
एनजीओ चलाने वाली सुघड़ महिलाएँ

जब तलक ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल
अपनी फैक्ट फ़ाइंडिंग पूरी न कर लें.

जब तलक हत्या के विरोध में सैकड़ों कवि
लिख न डालें अपनी अपनी छंद-मुक्त कविताएँ

तब तलक दयनीय बने रहते हैं हत्यारे.

“देखो – सब उन्हें ही घेर रहे हैं.
बुद्धिजीवी, मास्टर, पत्रकार, कवि और मानवाधिकार वाले
सभी हत्यारों को ही दोषी क्यों ठहरा रहे हैं?
यह कहाँ का न्याय है?
आख़िर जो मारा गया – उसका भी तो दोष रहा ही होगा?”

कोई भरी मासूमियत से सवाल करता है कहीं साइबर-स्पेस में
दूसरी आवाज़ एक माननीय सांसद की होती है:
आख़िर शांति-व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी
हत्यारों की ही क्यों होनी चाहिए?

फिर एक टेलीविज़न का एंकर
एत्तेहादुल मुसलमीन के नेता से पूछता है सवाल:
अब मुसलमानों को भी सोचना ही पड़ेगा
कि बार बार वो ही निशाना क्यों बनते हैं?

क्या आप नहीं मानते कि सिमी राष्ट्र-विरोधी है?
फिर आते है बाहर निकलकर हत्यारों के सिद्धांतकार
ले आते हैं आँकड़े निकाल कर पिछले बरसों के
कितने ख़ुदकुश हमलावर मुसलमान थे और कितने थे दूसरे.
चेचन्या से लेकर यमन और सोमालिया और नाइजीरिया तक
गज़ा पट्टी से लेकर सीरिया, इराक़ और ईरान तक
कश्मीर से लेकर हेलमंद तक –
कहीं पर भी तो चैन नहीं है इन लोगों को.

और फिर एक सहनशील समाज
कब तक बना रह सकता है सहनशील?
एक जागरूक समाज में खुलकर चलती है
हत्या के कारण और निवारण पर स्वस्थ बहस
बहुत से तर्क तैयार हैं कि
हत्या हमेशा नाजायज़ नहीं होती
बहुत से लोग सोचने लगते हैं –
अरे, ये तो हमने सोचा ही नहीं.

वकील अदालत में पेश करते हैं मेडिकल रिपोर्ट
मीलार्ड, हत्यारा धीरे धीरे अंधा हो रहा है,
उसके पेट में गंभीर कैंसर पैदा हो गया है,
उसकी माँ मर गई है – अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं.
मीलार्ड, हत्यारे को ज़मानत दी ही जानी चाहिए.
मुस्लिम्स हैव मूव्ड आन, मीलार्ड.
हत्यारा भी तो आख़िर इंसान है.

वैसे भी हत्या को अब बहुत वक़्त हो चुका है.
अब कब तक गड़े मुरदे उखाड़े जाएँ.
अब कब तक चलता रहेगा ब्लेम-गेम?
समाज में समरसता कैसे आएगी अगर
सब मिलजुलकर नहीं चलेंगे, मीलार्ड?

समझदार न्यायमूर्ति सहमति में हिलाते हैं सिर
वो कम्युनिस्टों के प्रोपेगण्डा से, हह, भला प्रभावित होंगे?
न्याय सबके लिए समान है
और सबको मिलना ही चाहिए – चाहे वो हत्यारा ही क्यों न हो.

फ़ैसला आ गया है, हत्यारो !!!
सब नियम ख़त्म हुए,
सब किताबें हुईं बंद,
सभी आलोचनाएँ भी ख़त्म हुईं,
ख़त्म हुई टीवी की बहसें,
ख़त्म सब आलेख और बयान
ख़त्म हुआ कविता लेखन भी.

जब सब ख़त्म हो रहा होता है,
तब फिर से तुम्हारी तरफ़ देखता है ये उदार समाज
हमारी प्राचीनता और हमारी शुद्धता के रक्षकों,
ओ हत्यारो
[http://kabaadkhaana.blogspot.in/ से साभार]

This entry was posted in General. Bookmark the permalink.