अब्बू की नज़र में जेल-3

Lucknow Jail

पहला भाग
गिरफ्तारी के 3 माह आज पहली बार अदालत जाने का दिन है। चन्द पैसे वालों के लिए यह दिन खास होता है। इस दिन वे पैसे के बल पर अदालत परिसर में दिन भर अपने परिवार मित्रों के साथ रुकते हैं और मनपसन्द खाना-नाश्ता करते हैं। बाकी लोगों के लिए यह एक नरक यात्रा होती है, जहां अदालत के रजिस्टर पर महज एक दस्तख़त करने के लिए घण्टों लाॅकअप में खड़े रहना और भूसे की तरह जाली वाली बन्दी-गाड़ी में सवार होकर थके हारे अपनी बैरक लौटना। कैदी कहते हैं कि जब आप बैरक में होते हैं तो घर की याद आती है, और जब आप अदालत की यात्रा पर होते हैं तो बैरक याद आती है। साथी कैदियों से इस नरकीय यात्रा के इतने किस्से सुन चुका था कि अदालत जाने के दिन मैं तनाव में आ गया। हालांकि अब्बू बेहद उत्साहित था। गाड़ी से मौसा का लखनऊ घूमना और थोड़ी देर के लिए जेल से बाहर होना अब्बू के खुश होने का बड़ा कारण था।
ख़ैर, नहा धो कर हम जेल के विशालकाय गेट पर आ गए। यहां आकर देखा तो लाइन में आगे तमाम चमकते चेहरे वाले नौजवान व अधेड़ उम्र के कैदी दिख रहे थे। ज़ाहिर है आगे वही लोग थे जिन्होंने गाड़ी में सीटेें ख़रीद रखी थीं। बाकी बुझे चेहरे वाले, फीके कपड़ों में तमाम नौजवान,अधेड़ और कुछ बुजुर्ग कतार में पीछे खड़े थे। ज़ाहिर है इन लोगों को गाड़ी में खड़े-खड़े ही यात्रा करनी थी। इनमें से दो बुजुर्ग तो मेरी ही बैरक के थे, जो अभी कल ही हास्पिटल से लौटे थे। इन दोनो ने सम्बन्धित जेल सिपाही से अनुरोध किया कि उन्हें पंक्ति में आगे कर दिया जाए क्योंकि वे बीमार हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सम्बन्धित सिपाही ने न सिर्फ उनके अनुरोध को ठुकरा दिया, बल्कि उनकी बीमारी का मज़ाक भी बनाया। बीच-बीच में सिपाही सभी को सामूहिक गालियां दे रहा था। सभी कैदी शायद यह सोच कर संतोष कर रहे थे कि उनका नाम लेकर गाली नहीं दी गई। अब्बू अब सवाल कम पूछने लगा है। शायद ‘न्यू कागनेटिव पैटर्न’ [new cognitive pattern] में ढलने लगा है। अचानक अब्बू ने अपने पैर उचकाए और दोनो हाथ ऊपर कर दिया। संकेत साफ था- ‘गोदी लो।’ बहरहाल हम जैसे तैसे गाड़ी में सवार हुए। एक छोटी सी 20 सीटों वाली गाड़ी में 54 लोग। हम पीछे की ओर खड़े थे। गाड़ी के हिचकोले खाते ही लोग बोरे की तरह एक दूसरे के साथ ऐडजस्ट होने लगे। तभी अचानक आगे से जबरदस्त धुंआ उठने लगा। अब्बू ने आश्चर्य से पूछा-‘मौसा इतना धुंआ, आग लगी है क्या।’ मैने कहा नहीं, लोग सिगरेट पी रहे हैं। दरअसल यह चरस-गांजे का धुंआ था। अब्बू को यह बताने का मतलब था उसके सवालों की झड़ी का सामना करना जिसके लिए मैं अभी तैयार नहीं था। कुछ देर बाद हम पसीने में भीगने लगे और कैदियों में भी आपस में जगह को लेकर कहासुनी होने लगी। अब्बू भी अब परेशान होने लगा था जो अभी भी मेरी गोद में ही था। अचानक मैंने देखा कि बगल में खड़ा एक कैदी अब्बू को लगातार देखे जा रहा है और मुस्कुराए जा रहा है। मैंने अब्बू से कान में पूछा क्या हुआ? अब्बू ने मेरे कान में कोई गुप्त संदेश जैसा सुनाते हुए कहा- ‘मौसा मैंने इनका सिर खुजा दिया। इतनी भीड़ में मैंने समझा कि ये मेरा सिर है। लेकिन ये गुस्साए नहीं।’ मुझे हंसी आ गयी।
अचानक सामने की सीट पर बैठा कैदी परिचित निकल गया और मैंने अब्बू को उसकी गोद में बिठा दिया जहां से वह बाहर का नज़ारा ले सके और मौसा का लखनऊ देख सके। कुछ देर बाद अचानक अब्बू मेरी तरफ मुड़ा और बोला -‘मौसा ये तो पूरा का पूरा भोपाल जैसा है।’ मैंने मन ही मन सोचा सभी शहरों का डीएनए एक जैसा ही तो होता है।
ख़ैर जैसे तैसे हम कोर्ट के लाॅकअप में पहुंचे। एक हाॅलनुमा कमरे में पहले से ही कैदी ज़मीन पर अखबार बिछा कर बैठे हुए थे। कुछ इधर उधर टहल रहे थे। चारों तरफ पान की पीक और कूड़े का बोलबाला था। चूंकि जेल में पान मसाले पर पाबन्दी है इसलिए यहां पर कैदी लोग किसी भूखे भेड़िये की तरह गुटका पर गुटका खाए जा रहे थे और चारों तरफ थूके जा रहे थे। कोने में खुला शौचालय था जो पेशाब से लबालब था और जिसकी बदबू पूरे हाॅल में समाई हुई थी। दो तीन कुत्ते भी लाॅकअप में खाने के बिखरे टुकड़ों को संूघ रहे थे।
लेकिन मेरे लिए सबसे भयावह दृश्य यह था कि इसी में कुछ लोग ज़मीन पर बैठ कर पूड़ी सब्ज़ी खा रहे थे। एक हाथ से खा रहे थे और दूसरे हाथ से उसी तरह कुत्तों को अपने खाने से दूर कर रहे थे जैसे अक्सर हम खाते समय मक्खियों को भगाते है। यह देख कर मुझे अपने छात्र जीवन में पढ़े जगदम्बा प्रसाद दीक्षित का उपन्यास ‘मुर्दाघर’ याद आ गया। मुझे उबकाई सी आने लगी। किसी तरह मैंने अपने आप को संभाला। यह सोच कर ही मेरा दिल बैठने लगा कि अभी शायद मुझे भी इसी परिस्थिति में घर से आया खाना खाना पड़ेगा और पेशाब की इस तलैया में डूब कर पेशाब करना पड़ेगा। अब्बू भी इस पूरे माहौल से विचलित था और मेरी गोद से उतरने को तैयार ही नहीं था। लगातार एक ही सवाल किये जा रहा था – ‘मौसा हम अपनी बैरक कब जाएंगे, यहां कितनी देर रहेंगे?’
बहरहाल दोपहर तीन बजे के बाद हमारी तलबी आई और एक सिपाही हमें कोर्ट रूम तक ले गया। वहां सीमा और विश्वविजय मुस्कुराते हुए खड़े थे। यही वह पल था जब हम सब कुछ भूल कर तरोताज़ा हो गए, मानो कीचड़ में कमल खिल गया हो। ख़ैर पांच मिनट की अति संक्षिप्त मुलाकात के बाद हम पुनः उसी कीचड़ में वापस आ गए। अब्बू मेरी बहन से मिल कर खुश हो गया और वापस लौटते हुए बोला- ‘मौसा मेरी बहन झिनुक इस समय क्या कर रही होगी। वह क्यों नहीं आई मुझसे मिलने?’ मैंने कहा -‘इसलिए’। मेरे और अब्बू के बीच यह अक्सर चलता है कि जब किसी को जवाब देने का मन नहीं होता तो दूसरा सिर्फ इतना बोलता है -‘इसलिए’। यह मैंने अब्बू से ही सीखा और आज अब्बू पर ही लागू कर दिया। अब्बू भी आसपास की चीज़ों में व्यस्त हो गया। वापस लाॅकअप में आकर हमें अब गाड़ी में बैठने के लिए लाइन लगानी थी। तभी अब्बू मेरा हाथ झटक कर बोला ‘मौसा उधर देखो। मैंने देखा कि एक अधेड़ उम्र का कैदी ज़मीन पर लेटा हुआ ऐंठ रहा है। मुझे समझते देर न लगी कि उसे दौरा पड़ा है। सभी कैदी उसे घेर कर खड़े हो गए। लेकिन कोई कुछ कर नहीं रहा था। मैं अब्बू को वहीं छोड़ भागकर लाॅकअप के सीखचे तक गया और बाहर खड़े सिपाही को बोला कि एक कैदी को दौरा पड़ा है, वह ज़मीन पर तड़प रहा है और उसके मुंह से झाग निकल रहा है। उस सिपाही के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। किसी रोबोट की भांति जेब से चाभी निकाल कर वह गेट तक आया, ताला खोला और लाॅकअप में घुसा। उसे देखकर घेरे में खड़े कैदियों ने उसे रास्ता दिया। सिपाही ने एक नज़र उस तड़पते व्यक्ति पर डाली और बिना कुछ बोले, बिना किसी भाव के रोबोट की तरह ही वापस चला गया और लाॅकअप में ताला जड़ दिया। यह देख कर मैं दहल गया। ख़ैर कुछ ही देर में वह व्यक्ति सामान्य हो गया और उठ कर बैठ गया। मैंने उसे पानी की बोतल दी। यहां लाॅकअप में इसके अलावा मैं उसे क्या दे सकता था? मैंने सोचा कि इस क्षण हम सब कुछ भी थे लेकिन ‘इन्सान’ नहीं थे। अब्बू के दिमाग में क्या चल रहा था, पता नहीं। लेकिन वह मेरा हाथ कस के पकड़े था और बेहद सहमा हुआ लग रहा था। उसकी तरफ देखते हुए मैंने सोचा -‘यदि अब्बू को कुछ हुआ तो?’ यह सोच कर ही मैं कांप गया और मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने अब्बू को तुरन्त गोद में उठा लिया। अब्बू भी मुझसे लिपट गया। शायद वह भी यही सोच रहा था कि मेरे मौसा को कुछ हुआ तो???

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