जेल में हर किसी को जिस एक चीज का बेसब्री से इन्तजार होता है वह है- ‘मुलाकात’। जेल की उमस भरी जिन्दगी में ‘मुलाकात’ ठण्डी बयार की तरह होती है। जिसके कारण कुछ समय तक बन्दियों को जैसे आक्सीजन मिल जाती है। हालांकि मुलाकात की प्रक्रिया अपने आप में बहुत यातनादायी होती है। तमाम अपमानजनक तलाशियों के गुजरते हुए छोटी छोटी जालियों से महज 20 मिनट की मुलाकात, जहां आप अपने मुलाकाती की महज उंगलियां ही छू सकते हैं। लेकिन साल में तीन बार ‘खुली मुलाकात’ का प्रावधान है। होली, दिवाली और ईद के दूसरे रोज बाहर की महिलाएं जेल के पुरूष बन्दियों से खुले में मिल सकती हैं। लेकिन जेल की महिला बन्दियों को इस खुली मुलाकात से बाहर रखा जाता है। तर्क यही रहता है कि महिला बन्दियों को भी खुली मुलाकात की अनुमति दी जायेगी तो वे बाहर से आने वाली महिला मुलाकातियों में शामिल होकर भाग सकती हैं। बहरहाल इस खुली मुलाकात का पुरूष बन्दियों को बेसब्री से इन्तजार रहता है, जब वे आमने सामने अपने लोगों के साथ विशेषकर बच्चों के साथ मानवीय स्पर्श के साथ समय बिता सकते हैं।
तो पेश है- ‘अब्बू की नज़र में जेल’ की दूूसरी किस्त
इसका पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।
सुबह सुबह मैंने अब्बू को जगाते हुए कहा-‘अब्बू उठ आज जेल में खुली मुलाकात है। जल्दी तैयार हो जा।’ अब्बू ने लगभग नींद में ही अंगड़ाई लेते हुए कहा-‘ये खुली मुलाकात क्या होती है?’ मैं कुछ बोलता इससे पहले ही उसने आंख खोल दी और तुरन्त उठ बैठा-‘हां मुझे पता है आज जेल के बीच वाले मैदान में ढेर सारे बच्चे और बड़े लोग आयेंगे बन्दियों से मिलने। मौसा तुरन्त चलना है?’ मैंनं कहा- ‘नहीं अभी टाइम है, चल तुझे तैयार कर दूं।’
मैंने अब्बू को तैयार किया और फिर अब्बू तैयार होकर मेरे साथ अहाते में घूमने लगा और बेसब्री से पूछने लगा-‘हम कब जायेंगे।’ मैंने उसे तसल्ली दी कि अभी हमारा नाम पुकारा जायेगा, हम तब जायेंगे। लाउडस्पीकर से मुलाकातियों के नाम लगातार पुकारे जा रहे थे। सभी बन्दियों के कान लाउडस्पीकर पर ही लगे हुए थे। आज सभी के लिए त्योहार जैसा दिन था। हां वे कैदी निश्चित ही बेहद मायूस थे जिनके यहां से किसी के आने की उम्मीद नहीं थी। अचानक हमारा नाम भी अहाते में गूंजने लगा और अब्बू मेरा हाथ खींचने लगा-‘चलो चलो जल्दी चलो।’ अब्बू मुझे लगातार खींचे जा रहा था और मैं उसे लगातार रोक रहा था कि कहीं कोई सिपाही हमें डांट ना दे।
जैसे ही हमने जेल के मैदान में प्रवेश किया अब्बू एकदम से ठिठक गया और सुखद आश्चर्य से चारो तरफ देखने लगा-‘रंग बिरंगी साड़ियों में महिलाएं और छोटे छोटे बच्चे बच्चियों का पूरा हूजूम उमड़ पड़ा था।’ जो लोग अपने बन्दियों को खोज चुके थे, वे किसी कोने में बैठ कर अपना सुख दुःख साझा कर रहे थे। बच्चे कैदियों के कन्धों पर, गोद में, इधर उधर चारो तरफ उधम मचा रहे थे। जो लोग अपने कैदियों को नहीं खोज पाये थे, वे बेसब्री से इधर उधर नज़र घुमा रहे थे, सिपाहियों से विनती कर रहे थे और थोड़ा बड़े बच्चे उदास नज़रों से मानों पूछ रहे हों-‘मेरे पापा तुम कहां हों।’ अब्बू अचानक मेरी तरफ मुखातिब हुआ और बोला-‘वाह इतने सारे बच्चे। इतने सारे बच्चे तो मेरे स्कूल में भी नहीं थे।’ फिर अब्बू पूरे नज़ारे का मजा लेने के लिए मेरी गोद में चढ़ गया और एक घुड़सवार की तरह मुझे एड़ मारते हुए मेरी आगे बढ़ने की गति निर्धारित करने लगा। अचानक वह उत्तेजित होकर बोला-‘मौसा रूको रूको, उधर देखो।’ फिर वह मेरी गोद से सरक कर मुझे एक दिशा में खींचने लगा। मैंने कहा-‘कहां ले जा रहा है।’ अब्बू ने कहा-‘वो देखो।’ मैंने कहा-‘क्या?’ ‘अरे वो शानू नम्बरदार’, अब्बू ने एक दिशा में इशारा करते हुए कहा। ‘हां तो, मैं तो उसे रोज देखता हूं।’ अब्बू की उत्सुकता मेरी समझ में नहीं आयी। अब्बू ने उसी आश्चर्य वाले भाव में कहा-‘अरे मौसा, वो हंस रहा है।’ अब मैंने ध्यान से देखा। एक 4-5 साल का बच्चा उसके कंधे पर चढ़कर उसके बालों से खेल रहा था और शानू नम्बरदार लगातार हंसे जा रहा था। बाद में मुझे पता चला कि वह उसका भांजा था। अब मुझे बात समझ आयी। पिछले 6 महीनों से हमने उसे कभी भी हंसते या मुस्कराते हुए नहीं देखा था। वह 12 साल से जेल में था। उसे आजीवन कारावास की सजा पड़ी थी। ऐसा लगता था कि उसके चेहरे पर बस एक ही भाव फेवीकोल से चिपका दिया गया हो। लेकिन इस वक्त ठठाकर हंसते हुए ऐसा लग रहा था कि उसके उस ‘स्थाई भाव’ की ऊपरी पट्टी चरचराकर नीचे गिर रही थी और अन्दर से एक नये शानू नम्बरदार का मासूम चेहरा निखर कर सामने आ रहा था। अब्बू के साथ मैं भी इस आध्यात्मिक दृश्य को मंत्र मुग्ध भाव से देखने लगा। अब्बू ने मुझे इस खुली मुलाकात रूपी मेले को देखने की एक नयी दृष्टि दे दी। अब मुझे इस मेले में परिचित कैदियों के एक नये रूप के दर्शन हो रहे थे। बच्चों के साथ खेलते-बात करते हुए कैदियों को देखते हुए मुझे ऐसा लग रहा था मानो चारो तरफ की ऊंची ऊंची जेल की दिवारें धीरे धीरे गिर रही हों और पूरा जेल किसी खूबसूरत पार्क में तब्दील हो रहा है। अब्बू भी शायद यही महसूस कर रहा था।
बैरक में कैदियों को देखते हुए अक्सर मेरे जेहन में गालिब का शेर गूंजा करता था-‘……………आदमी को भी मयस्सर नही इन्सां होना’। आज मुझे इस शेर का जवाब मिल गया। आदमी को ‘इन्सान’ बच्चे ही बनाते हैं।
अचानक से मेरा दिल यह सोच कर बैठने लगा कि अगले 2-3 घण्टे में यह खूबसूरत नजारा खत्म हो जायेगा और फिर से एक उजाड़ ‘बच्चों विहीन दुनिया’ अस्तित्व में आ जायेगी। लेकिन अब्बू सिर्फ वर्तमान में जी रहा था। शायद उसे पता था कि इस वर्तमान में ही भविष्य छिपा है।