गिरफ्तारी के तुरन्त पहले की कहानी-
दिन भर की धमा-चौकड़ी के बाद अब रात में अब्बू को तेज नींद आ रही थी। लेकिन आंखो में नींद भरी होने के बावजूद वह अपना अन्तिम काम नहीं भूला-मुझसे कहानी सुनने का काम। कहानी का शीर्षक हमेशा वही देता था। उसी शीर्षक के इर्द गिर्द मुझे कहानी सुनानी होती थी। कभी उसकी फरमाइश होती कि ‘सफेद भूत’ की कहानी सुनाओ, तो कभी उसकी फरमाइश होती कि ‘कभी ना थकने वाली चिड़िया’ की कहानी सुनाओ। कभी कभी वह बड़े प्यार से कहता कि ‘अब्बू और मौसा’ की कहानी सुनाओ। आज उसके दिमाग में पता नही क्या आया कि उसने थोड़े चिन्तनशील अंदाज में कहा कि मौसा तुम मौसी से पहली बार कब मिले, इसकी कहानी सुनाओ। उसकी इस फरमाइश पर मैं और बगल में लेटी अमिता दोनो आश्चर्यचकित रह गये। खैर मैंने कहानी शुरू की-थोड़ी हकीकत थोड़ा फसाना। और हर बार की तरह इस बार भी वह बीच कहानी में सो गया। कहानी सुनाते हुए मैंने महसूस किया कि अमिता भी बड़े ध्यान से मेरी कहानी सुन रही है। मैंने अमिता को यह अहसास नहीं होने दिया कि अब्बू सो चुका है। और मैंने कहानी जारी रखी। लेकिन कहानी खत्म होने से पहले ही अमिता भी सो गयी। मेरे मन में ‘अरूण कमल’ की कविता की एक पंक्ति कौधी-‘नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है।’ इस खूबसूरत भरोसे को कैद करने के लिए मैंने दोनो को आहिस्ते से चूम लिया। किसी खूबसूरत फंतासी का इससे अच्छा यथार्थवादी अंत और क्या हो सकता है।
नींद मुझे भी आ रही थी। लेकिन आज रात मुझे ‘हिस्ट्री आफ थ्री इंटरनेशनल’ खत्म करनी थी। महज 9 पेज शेष रह गये थे। मैंने सोचा आज रात इसे खत्म कर देते है, क्योकि कल से एक जरूरी अनुवाद पर भिड़ना था। मनपसन्द किताब की ‘कैद’ और पढ़ चुकने के बाद ‘रिहाई’, दोनों का अहसास बहुत सुखद होता है। रात एक बजे के करीब ‘रिहाई’ के इसी सुखद अहसास के साथ मैं अपनी खुली छत पर टहलने आ गया। 7 जुलाई की यह रात बहुत शान्त थी। उस वक्त मुझे तनिक भी अंदाजा न था कि यह तूफान के पहले की शान्ती है। मेरे दिमाग में तो 1950 के दशक की उस दुनिया के चित्र आ जा रहे थे, जिसका विस्तृत वर्णन ‘विलियम जेड फोस्टर ने’ अपनी उपरोक्त किताब के अन्त में किया है। पृथ्वी का बड़ा हिस्सा लाल रंग में रंग चुका था और समाजवाद लगातार मार्च कर रहा था। तीसरी दुनिया के गुलाम देश एक एक कर अपनी जंजीरें तोड़ रहे थे। इसी सुखद अहसास के साथ मैं भी अब्बू और अमिता के बीच जगह बनाकर लेट गया और उन दोनों की तरह ही नींद के आगोश में समा गया।
देर से सोने के बावजूद आज भी रोजाना की तरह मेरी नींद सुबह 5 बजे खुल गयी और मैं दोबार छत पर आ गया। भोपाल की सुबह हमेशा सुहानी होती है। और फिर दो मंजिले पर स्थित मेरा कमरा एक तरफ छोटी पहाड़ी और दूसरी तरफ नहर से घिरा है। पहाड़ी पर अच्छी खासी हरियाली थी। मेरे मन में एक पुराना गीत चल रहा था-‘ये कौन चित्रकार है…..’ अचानक मेरे पीछे से ‘भो‘ की आवाज आयी। मैं चौक गया। यह अब्बू था। अपना यह प्रिय काम निपटा कर वह मेरी बाहों में निंदाया सा उलझ गया। मैंने उसे गोद में उठाया और रोज का डायलाग रिपीट किया-‘चल तुझे थोड़ी देर दुलार लूं। अच्छा बता दुलार करने से क्या होता है।’ अब्बू ने निंदाये हुए ही मेरी गोद में लगभग झूलते हुए अपना रोज का डायलाग दुहरा दिया-‘बच्चे में कान्फिडेन्स आता है।’
इसी बीच मेरी नज़र छत से नीचे सामने की सड़क पर गयी। मैंने देखा 4-5 सफारी जैसी गाड़ियों में करीब 15-20 लोग सिविल ड्रेस में बहुत आराम से उतर कर गेट खोल कर अन्दर आ रहे हैं। मैंने सोचा मकान मालिक के यहां लोग आये हैं, लेकिन इतनी सुबह इतने लोग? अगले ही क्षण उनके कदमों की आवाज तेज होने लगी यानी बिना रूके वे लोग सीधे ऊपर चले आ रहे थे। अगले ही क्षण मेरे अन्दर भय की लहर दौड़ गयी। मैं तुरन्त समझ गया कि वे लोग हमारे लिए ही आये हैं। मेरी धड़कन तेज हो गयी। अगले ही क्षण वे सब मेरे सामने थे। मेरे मुंह से कोई भी शब्द ना निकला। तभी उनमें से एक ने साफ्ट लेकिन आदेशात्मक स्वर में कहा-‘चलिए, अन्दर चलिए।’ मेरे अन्दर कमरे में घुसने से पहले ही उनमें से आधे अन्दर घुस चुके थे। अमिता अभी भी अन्दर सो रही थी। इस टीम की दो महिला कान्सटेबिलों ने अमिता को जगाया। इतने सारे लोगों को कमरे में देखकर वह हड़बड़ा गयी और बोली- क्या है, कौन हैं आप लोग। इस बीचे मैं शुरूआती शाक से उबर चुका था। उनके जवाब देने से पहले मैंने ही कहा-‘इधर आ जाओ, पुलिस वाले हैं।’ टीम को लीड कर रहे आफीसर ने व्यंग्य मिश्रित मुस्कान के साथ कहा-‘अच्छा तो समझ आ गया।’ मैंने कहा- हां। फिर भी उसने अपना आई कार्ड निकाल कर दिखाया। तब मुझे समझ आया कि ये यूपी एटीएस के लोग हैं। आश्चर्यजनक रूप से अमिता ने भी जल्दी ही अपने पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और चौकी पर मेरे बगल में आकर बैठ गयी। उसने धीरे से मेरा हाथ दबाया और मैंने धीमे स्वर उससे कहा- New struggle begins. पिछले 20 सालों की राजनीतिक जिंदगी में हमने सीमा-विश्वविजय सहित इतने सारे दोस्तो-परिचितों की गिरफ्तारियां देखी हैं कि हम अक्सर यह कल्पना करते थे कि हमारी गिरफ्तारी कब और कैसे होगी। मैं अक्सर मजाक में अपने दोस्त कार्यकर्ताओं से कहता-‘समय समय पर लिखा है, गिरफ्तार होने वाले का नाम।’ बिना गिरफ्तारी के हम जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं का बायोडेटा कहां पूरा होता है।
मेरे घर पर कब्जा जमाये वो 15-20 लोग पूरे घर को हमारे सामने ही उलट पुलट रहे थे। इस छोटे से एक कमरे के घर को अमिता ने बेहद करीने से सजाया था। उसकी आंखो के सामने इसका पूरा सौन्दर्य बिखर रहा था। इसी उठा पटक में अब्बू की नींद भी खुल गयी, जो दुबारा मेरी गोद में सो गया था। इतने सारे लोगों को कमरे में देखकर वह सहम गया और सहमते हुए बोला-‘ये लोग कौन हैं।’ मैंने धीमे से उसके कान में कहा-‘मोदी के दोस्त हैं ये लोग।’ उसने लगभग डरते हुए पूछा-‘तुझे और मौसी को पकड़ने आये हैं?’ मैंने कहा-‘हां।’ मुझे आश्चर्य हुआ कि इसके बाद उसने ना तो कुछ पूछा और ना ही कोई प्रतिक्रिया दिखाई। बस उन सभी को बारी बारी से ध्यान से देखता रहा, मानो उनके और मोदी के चेहरे में साम्य ढूंढ रहा हो। अपने और अपने काम के बारे में मैंने अब्बू को कई बार कहानियों के माध्यम से समझाया था। शायद यह उसी का असर था। शायद वह उन कहानियों और इस यथार्थ के बीच तुलना में तल्लीन था। अचानक अब्बू ने मेरे कान में शिकायती लहजे में कहा-‘मौसा वह आदमी मेरी कविता पढ़ रहा है।’ मैंने पहले ही गौर कर लिया था कि इन 15-20 लोगो में एक व्यक्ति ऐसा था जो इस उलट पुलट में शामिल ना होकर कमरे में लगे कविता पोस्टरों को बेहद ध्यान से पढ़ रहा था। मानो ब्रेख्त, नाजिम, मीर, गालिब की कविताओं में कोई गुप्त सन्देश छिपा हो। पता नही यह इन कविताओं का असर था या कुछ और- बाद में इस व्यक्ति ने मेरी महत्वपूर्ण मदद की। अचानक मैंने सुना कि अब्बू अपनी ही कविता मेरे कान के पास बुदबुदा रहा था-‘अब्बू की ताकत है मौसा, मौसा की ताकत है अब्बू, इन दोनो की ताकत है मौसी, हम सबकी ताकत है खाना।’
मैंने देखा कि अब उन्होंने सामान पैक करना शुरू कर दिया था। मेरा, अमिता का कम्प्यूटर, मेरी सारी किताबें, 3 हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव, तमाम कागज पत्र आदि। इसी में उन्होंने चुपके से बोस कम्पनी का स्पीकर भी रख लिया (इस चोरी का पता मुझे बाद मे चला)। मैं समझ गया, अब हमें जल्दी ही हमेशा के लिए यहां से निकलना था। मैंने मन ही मन कमरे की एक एक चीज से बिदा ली। विदा मेरे कम्प्यूटर, जिसकी स्क्रीन रूपी खिड़की से मैं दुनिया झांक लेता था। विदा मेरी प्यारी किताबें, जिन्हें ‘टाइम मशीन’ बनाकर मैं अतीत और भविष्य की सैर कर लेता था और मार्क्स, माओ, ब्रेख्त, हिकमत, भगत सिंह जैसे तमाम दोस्तों का हाल चाल ले लेता था। विदा मेरे गद्दे, जिस पर मैं अब्बू से कुश्ती लड़ता था और दुनिया का सबसे बड़ा आनन्द, एक बच्चे से हारने का आनन्द लेता था। विदा दरवाजे के पीछे वाले कोनो, जिसके पीछे छिपकर अब्बू मुझसे छुपन छुपाई खेलता था और जब प्यार से मैं पूछता था कि मेरा प्यारा अब्बू कहां है तो वह उतने ही मासूमियत से जवाब देता-मौसा मैं यहां हूं। विदा चाय के कप, जिसमें सुबह सुबह चाय बनाकर अमिता को जगाने का आनन्द ही कुछ और था। विदा प्यारी बाल्टियां, जिसमें मैं अपने कपड़े भिगोता और चुपके से अमिता उसमें अपना एकाध कपड़ा भिगो देती और धोते समय मैं उसे देखता और हमारा प्यारा झगड़ा शुरू हो जाता। विदा, अब्बू के प्यारे खिलौनों जो अब्बू के आते ही मानो जीवित हो उठते और उसके जाते ही दुःखी होकर निर्जीव हो जाते। तभी अचानक मेरी नज़र मेरी गोद में बैठे अब्बू पर गयी, जो अभी भी बड़े ध्यान से उनकी गतिविधियों पर नज़र रखे हुए था। मैंने मन ही मन कहा-‘विदा मेरे प्यारे अब्बू, अलविदा!’