‘खीम सिंह बोरा’- एक राजनीतिक बंदी

आज जब हम वरवर राव व अन्य राजनीतिक बन्दियों के लिए अपनी आवाज उठा रहे हैं तो हमें यह नही भूलना चाहिए कि देश की तमाम जेलों में हज़ारो ऐसे कैदी बंद हैं जो अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण जेलो में है। एक अनुमान के अनुसार इस समय देश की जेलों में करीब 22 हजार ऐसे कैदी हैं जिन पर किसी ना किसी तरह से माओवाद-नक्सलवाद से सम्बन्धित केसेस हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये सभी राजनीतिक कैदी है। जाहिर है इनका बहुलांश छत्तीसगढ और झारखण्ड की जेलों में हैं। इनमे से अधिकांश ग़रीब, दलित व आदिवासी है। अपनी सामाजिक- आर्थिक स्थितियों की वजह से इनमे से ज्यादातर की कोई पैरवी करने वाला भी नहीं है। वरवर राव जैसे राजनीतिक बन्दी इन सबका प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए वरवर राव की रिहाई की मांग में इन सबकी रिहाई की मांग भी शामिल है।
ऐसे ही एक राजनीतिक कैदी ‘खीम सिंह बोरा’ लखनऊ जेल में मेरे साथ थे। आज से ठीक एक साल पहले जेल में मेरी उनसे मुलाक़ात हुई थी।


दरअसल एटीएस कस्टडी के दौरान ही मुझे पता चला कि बरेली से किन्ही बोरा जी को भी पकड़ा गया है। बोरा जी को मैं नाम से जानता था कि वे उत्तराखण्ड के आंदोलनकारी है, लेकिन कभी मिला नहीं था। एटीएस कस्टडी के बाद जब मैं वापस 15 जुलाई को जेल पहुंचा तो वहां बोरा जी से मेरी पहली मुलाकात हुई। वे भी मेरे नाम से परिचित थे और टीवी न्यूज के माध्यम से उन्हें मेरी गिरफ्तारी की खबर हो चुकी थी। सुबह की गिनती के बाद जब मैं अहाते में टहल रहा था तभी मेरे कानों के एक आवाज पड़ी- ‘यहां भोपाल से कोई मनीष नाम के कैदी आये है, जिन पर माओवादी केस डाला गया है?’ मैंने आवाज की दिशा में देखा और उनकी ओर इशारा करते हुए पूछा- ‘आप बोरा जी?’ एक क्षण को हमने एक दूसरे को देखा और ऐसा लगा कि हम एक दूसरे को कितने दिनों से जानते हैं। हम तुरन्त आगे बढ़कर गले मिले और कुछ देर तक हम यह भूले रहे कि हम जेल में हैं।
अब हमारे पास बातचीत का खजाना था- ‘ ग़में दौरा से लेकर ग़में जानां तक’। बातचीत में ही उन्होंने बताया कि उन्हें बरेली से नहीं बल्कि अल्मोड़ा से गिरफ्तार किया गया है, जब वे बस से कहीं जा रहे थे। उन्होंने बताया कि अल्मोड़ा में गिरफ्तारी के तुरन्त बाद उन्हें थोड़ी (?) यातना भी दी गयी। उन्हें कुछ समय तक एक खास कठिन पोजीशन में नंगे होकर खड़े होने को कहा गया। कस्टडी में व्यक्ति को नंगा करने के पीछे सुरक्षा एजेंसियों का जो ‘ओबसेशन’ है वह समझ से परे है। हालाँकि व्यक्ति को नंगा करने की प्रक्रिया में यह सिस्टम कितना नंगा होता जा रहा है, शायद उन्हें इसका अहसास नहीं है। बाद में पूछताछ के दौरान एक एटीएस के बन्दे ने उन्हें एक पैकेट दिया और कहा- ‘बोरा जी यह आपके लिए एक छोटा सा गिफ्ट है।’ पैकेट में 315 बोर का एक तमंचा था। यह बताते हुए बोरा जी खूब हंस रहे थे। एटीएस के उसी बन्दे ने आगे कहा कि खाली-खाली गिरफ्तार करना अच्छा नहीं लग रहा है। बोरा जी ने भी वह ‘गिफ्ट’ स्वीकार कर लिया। उनके पास चारा भी क्या था। पुलिस के दिए ऐसे असंख्य की ‘गिफ्टों’ के कारण ना जाने कितने लोग सालों साल जेल यातना भुगत रहे है।
बाद में जब उनकी चार्जशीट आयी तो उसमें कुछ मज़ेदार बातें लिखी हुई थी। अल्मोड़ा से गिरफ्तार करने के बावजूद चूंकि स्टोरी यह दिखानी थी कि इन्हें बरेली रेलवे स्टेशन से उस वक्त गिरफ्तार किया गया जब वे धनबाद जाने के लिए ट्रेन पकड़ने वाले थे। ऐसे में बोरा जी के पास उस ट्रेन का टिकट होना जरूरी था। लेकिन गिरफ्तार तो अल्मोड़ा से किया था तो टिकट कहां से लाते, तो इसका जो तर्क उन्होंने चार्जशीट में दिया वह और भी हास्यास्पद था। चार्जशीट में उन्होंने लिखा कि बरेली स्टेशन पर गिरफ्तार करने के बाद जब अभियुक्त से टिकट के बारे में पूछा गया तो अभियुक्त ने हाथ जोड़कर कहा कि ‘साहब मैं बहुत गरीब आदमी हूं, बिना टिकट के ही जनरल में यात्रा करता हूं।’ जेल में हमारे दोस्तो के बीच यह लाइन तकिया कलाम की तरह चल निकली। दिन भर में जिसको भी बोरा जी से मस्ती करनी होती वो बोरा जी के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता और यह लाइन दोहरा देता। यहां तक कि एक बार घर की मुलाकात आने के बाद जब सिपाही ने एक मजाकिया दोस्त कैदी से पैसे की डिमान्ड की तो उस कैदी ने बड़े ही मजाकिया अन्दाज में उसके सामने यही लाइन दोहरा दी। हम इस पर कितना भी हंसे लेकिन सच तो यही है कि इसी तरह के हास्यास्पद तर्क कैदी को सालों-साल जेल के अन्दर रखने की क्षमता रखते हैं। भीमाकोरेगांव वाले केसों में भी हम इसे साफ साफ देख सकते हैं। अमर उजाला ने उनके पास से जब्त प्रतिबंधित साहित्य की जो सूची जारी की, उस पर एक नज़र डालना रोचक होगा- ‘काले कानूनों से बिंसर जंगल कब्जाया 23 मार्च 2013, संसदीय चुनाव का बहिष्कार करो, शोषण, दमन, अन्याय जायज ठहराने का चुनाव है, यह दो अप्रैल 2014, सरकार, नौकरशाह, भ्रष्ट नेताओं और बड़े ठेकेदारों के लिए आपदा बनी वरदान, जनता के लिए अभिशाप, वोट का नहीं चोट का रास्ता अपनाओ क्रांतिकारी किसान संगठन एक फरवरी 2014, और जल, जंगल, जमीन व खनिज को लूटने से बचाओ । इसके अलावा संगठन से संबंधित चार पत्रिकाएं भी मिलीं, जिसमें से दो मुक्तिपथ जनवरी-मार्च 2013 और दो पत्रिकाएं जनहुकुमत मुखपत्र हैं। बरामद पंफ्लेटों और साहित्य का भी एटीएस की ओर से कानूनी परीक्षण कराया जा रहा है।’
57 साल के बोरा जी उत्तराखण्ड के पुराने आन्दोलनकारी हैं। पहली बार वे 1984 में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ के मशहूर आन्दोलन में शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव लोचन शाह जैसे वरिष्ठ आन्दोलनकारियों के साथ जेल गये थे। मार्क्सवाद के साथ उनका परिचय यहीं जेल में हुआ। उस समय शमशेर सिंह बिष्ट जेल में ही बोरा जी जैसे नौजवान आन्दोलनकारियों का क्लास चलाया करते थे। उसके बाद वे उत्तराखण्ड के सभी प्रमुख आन्दोलनों में शामिल रहे। 2017 में जब जिन्दल ने अल्मोड़ा के नजदीक रानीखेत में आम किसानों की जमीन पर कब्जा करके उस पर जिन्दल विद्यालय बनाने का प्रयास किया तो उसके खिलाफ हुए जबरर्दस्त आन्दोलन में भी इनकी भागीदारी रही और फलतः जिन्दल को अपना यह प्रोजेक्ट रोकना पड़ा।
मजेदार बात यह है कि उनके खिलाफ सभी 5 केसेस उत्तराखण्ड में हैं। लेकिन उन्हें लखनऊ में लाकर रखा गया है, ताकि उनकी पैरवी मुश्किल हो जाये और परिवार की उन तक पहुंच कठिन बनी रहे। फाइलेरिया ग्रस्त उनकी पत्नी साल में महज एक बार ही उनसे मिल सकी है। कोविड के दौरान जब जेल की मुलाकाते बन्द हैं और बाहर से जरूरत का कोई भी सामान अन्दर नहीं जा पा रहा है तो बोरा जी के लिए मुश्किलें और बढ़ गयी है। बोरा जी शुगर के मरीज हैं और जेल में मेरे रहते तीन बार उनका शुगर काफी डाउन हो गया था और वे बेहोशी के कगार पर पहुंच गये थे। लेकिन हम सबने मिलकर जल्द ही उन्हें संभाल लिया था।
मुलाक़ात और आवश्यक चीज़ों के अभाव में जेल में इस समय अधिकांश बन्दी भयानक डिप्रेशन में जी रहे हैं।
कल यानि 16 जुलाई को बोरा जी की बेल पर सुनवाई है। एक क्षीण सी उम्मीद तो है, लेकिन ये व्यवस्था इन तमाम उम्मीदों का क़त्ल करके ही तो जवान हुई है। ऐसे में इस व्यवस्था से कितनी उम्मीद की जा सकती है?

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