आज से ठीक 30 साल पहले 1990 में जब पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण हुआ तो समाजवादी व्यवस्था के तहत लंबे समय तक रहे पूर्वी जर्मनी को और प्रकारान्तर से समाजवादी रहे देशों को नीचा दिखाने के लिए पश्चिमी जर्मनी और पूंजीवादी पश्चिमी जगत के तमाम अखबारों-पत्रिकाओं ने एक खुला युद्ध छेड़ दिया। पूर्वी जर्मनी की राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था के साथ ही उन्होंने पूर्वी जर्मनी के लोगो विशेषकर महिलाओं के सेक्सुअल जीवन पर भी हमला शुरू कर दिया और कैरीकेचर बनाया जाने लगा कि समाजवादी देशों में महिलाओं का सेक्सुअल जीवन बहुत शुष्क होता था और समाजवादी राज्य नागरिकों के सेक्सुअल जीवन का भी दमन करता था। जाहिर है कि लक्ष्य यह था कि ‘सेक्सुअल फ्रीडम’ और महिलाओं के ‘यौन सुख’ को पूँजीवाद की देन बताना और समाजवाद को सेक्स विहीन या सेक्स दमित नीरस व्यवस्था के रूप में पेश करना। यानी समाजवाद में सेक्स का मतलब समाजवाद के लिए सिर्फ मजदूर पैदा करना था।
लेकिन इसी समय कुछ स्वतंत्र शोधार्थियों ने (जिसमें से ज्यादातर पूंजीवादी पश्चिमी दुनिया के ही थे) सच का पता लगाने का बीड़ा अपने हाथ में लिया। सर्वे का नतीजा बेहद चौकाने वाला था। तमाम सर्वे में यह पुष्ट हुआ कि भूतपूर्व समाजवादी पूर्वी जर्मनी की 84 प्रतिशत से ज्यादा महिलायें ‘पूर्ण यौन सुख’ (orgasm) का आनन्द लेती रही हैं, जबकि पूंजीवादी पश्चिम जर्मनी की महिलाओं के लिए यह आंकड़ा महज 50 प्रतिशत था। [इसके अलावा सेक्स करने की फ्रीक्वेंसी भी भूतपूर्व समाजवादी देशों में पूंजीवादी देशों के मुकाबले ज्यादा रही है। यह भी सर्वे में स्पष्ट हुआ।] इसी सर्वे के आधार पर एक रिसर्च पेपर 2004 में प्रकाशित हुआ, जिसका नाम भी बेहद दिलचस्प था – The Sexual Unification of Germany [Ingrid Sharp], इसके बाद इस लगभग अछूते और आम तौर से टैबू माने जाने वाले विषय पर कई दिलचस्प और महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित हुई। 2005 में एक बेहद महत्वपूर्ण किताब Sex after Fascism: Memory and Morality in Twentieth-Century Germany [Herzog D] आई। 2011 में Love in the Time of Communism [Josie McLellan] आई। लेकिन 2018 में इसी विषय पर दो बेहद महत्वपूर्ण किताब आयी। Kateřina Lišková की Sexual Liberation, Socialist Style: Communist Czechoslovakia and the Science of Desire, 1945–1989 और Kristen Ghodsee की Why Women Had Better Sex Under Socialism इसके अलावा इसी विषय पर एक महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट्री 2006 में आयी- Do Communists Have Better Sex? इसे आप ‘यू ट्यूब’ पर देख सकते हैं। इसमें Sex after Fascism की लेखिका Herzog D का महत्वपूर्ण इंटरव्यू भी है।
इन किताबों-फिल्मों से गुजरना समाजवाद पर पड़ी धूल झाड़कर उसकी शानदार उपलब्धियों से रूबरू होना था। Kateřina Lišková समाजवादी चेकोस्लोवाकिया के बारे में लिखते हुए बताती हैं कि 1952 में ही चेकस्लोवाकिया के सेक्सोलाजिस्टों ने पूरे देश के पैमाने पर महिलाओं के आर्गज्म को लेकर एक शोध शुरू कर दिया था और इसमें पैदा होने वाली दिक्कतों को अपने अध्ययन का आधार बनाया था। Lišková कहती हैं-‘चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्ट-सेक्सोलाजी ने महिलाओं का मां और मजदूर के रूप में ही ध्यान नहीं रखा वरन् उनकी सेक्स संबधी बेहतरी का भी ध्यान रखा।’ 1961 में महिलाओं के आर्गज्म और इसमें आने वाली समस्याओं पर एक कांफ्रेंस का भी आयोजन किया गया, जिसमें चेकोस्लोवाकिया के बाहर के देशों के अनेक सेक्सोलाजिस्टों ने भी हिस्सा लिया, और टैबू माने जाने वाले इस सर्वथा अछूते विषय पर खुल कर चर्चा की। कान्फ्रेस की शुरूआत करते हुए चेकोस्लोवाकिया की प्रमुख गाइनोकोलाजिस्ट मिरोस्लाव वोज्ता (Miroslav Vojta) कहती हैं- ‘हम आमतौर पर अपेक्षाकृत सेक्स पर कम बात करते हैं क्योकि हमारे समाज को इससे ज्यादा ज्वलंत विषयों से जूझना पड़ रहा है। लेकिन जब किसी के सेक्स जीवन में असंतुष्टि या टकराव आता है तो वह उसके कार्य करने की क्षमता को प्रभावित करता है। इसलिए समाजवादी समाज उस वक्त मूकदर्शक बनकर नहीं खड़ा रह सकता, जब आम महिलाओं व पुरूषों के बीच उनका सेक्स-प्यार बाधित होता है। यह ना सिर्फ उस मजदूर के लिए नुकसानदेह होगा, वरन यह सामान्य हित को भी प्रभावित करेगा।’ यह था समाजवाद का सेक्स के प्रति नजरिया। इसी कांफ्रेंस में प्रमुख सेक्सोलाजिस्ट नोब्लोचोवा (Knoblochová) महिलाओं के आर्गज्म पर विस्तार से बात करते हुए कहती हैं- ‘जब महिलाओं को घर में रहने को बाध्य किया जाता है और वहां उन्हें बार-बार एक ही तरह का नीरस काम करना पड़ता है तो वे बोर हो जाती है जिसके प्रभावस्वरूप सेक्स में उनकी रूचि खत्म होने लगती है।’
चेकोस्लोवाकिया में 1963 में ही एक रेडियो प्रोग्राम ‘इन्टीमेट कन्वर्सेशन’ शुरू किया गया, जहां महिला पुरूष के सेक्स सम्बन्धी समस्याओं पर खुल कर चर्चा की जाती थी। और समाधान निकालने का प्रयास किया जाता था।
इन सभी अध्ययनों, शोधों व चर्चाओं से एक समीकरण निकल कर आया जो चेकोस्लोवाकिया में 1950 के दशक में सभी नौजवान महिलाओं पुरूषों के जेहन में था- समानता+ प्यार = यौन सुख (equality plus love would result in sexual happines)। इस समानता के लिए जरूरी था कि महिलाओं को सार्वजनिक जीवन व रोजगार में पुरूषों के बराबर अवसर दिये जाय और दूसरी तरफ पुरूषों को भी घर के कामों व बच्चों की परवरिश में बराबर का भागीदार बनाया जाय। बच्चों के पालन पोषण और घरेलू काम का बोझ हल्का करने के लिए समाजवादी राज्यों ने बड़े पैमाने पर बच्चों के लिए क्रैच और लांड्री जैसे सार्वजनिक उपक्रम शुरू किये। इसके अलावा विभिन्न सांस्कृतिक माध्यमों से पितृसत्तात्मक विचारों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी गयी।
यहां थोड़ा विषयान्तर करते हुए एक बात पर जोर देना जरूरी है कि महिला पुरूष समानता की जब बात हो रही है तो यहां पूरे समाज के सन्दर्भ में हो रही है। वर्तमान गैर बराबरी वाले समाज मे यदि कोई जनवादी पुरूष महिला का पूरा सम्मान करते हुए घरेलू कामों में हाथ बंटाता है और महिला भी सार्वजनिक जीवन में बराबरी से हिस्सा लेती है, तब भी दोनों के बीच समानता में कई अड़चने हैं। उसमें सबसे बड़ी अड़चन उनके आस पास से निरंतर गुजरती वे अनंत तस्वीरे हैं जिनमे महिलाएं-पुरूष अपनी परंपरागत जेन्डर भूमिका में है। ये कोई निष्क्रिय तस्वीरें नहीं होती जिनका काम महज आपके रेटिना तक पहुंच कर आपको सूचित करना होता है, बल्कि ये तस्वीरें हमारे रेटिना से आगे जाकर दिमाग में हमारे प्रगतिशील मानसिक संरचना से टकराती रहती है और उसे लहूलुहान कर रही होती है। इसलिए इसकी निरंतर रिपेयरिंग की जरूरत होती है। और इनकी रिपेयरिंग का एकमात्र तरीका यही है कि हम उन तस्वीरों को अपनी मानसिक संरचना के आइने में तोड़ने व बदलने का प्रयास करें। यानी समाज को प्रगतिशील दिशा में बदलने का प्रयास करें। सिर्फ तभी महिला और पुरूषों में सच्ची समानता स्थापित हो सकती है। यानी समानता कोई निष्क्रिय चीज नहीं है जो एक बार स्थापित हो जाने पर हमेशा बनी रहती है। यदि ऐसा होता तो समाजवाद का पतन ही क्यों होता।
‘यौन सुख’ के लिए जिस समानता को आधार माना गया था, वह समानता समाजवादी क्रान्ति में एक विस्फोट के रूप में सामने आयी।
1917 की सोवियत क्रान्ति और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप की समाजवादी क्रान्ति ने एक झटके में महिलाओं को वे सभी अधिकार दे दिये जिसके लिए पूंजीवादी देशों की महिलाएं आज तक संघर्षरत है। अपनी मर्जी से तलाक का अधिकार, अपनी मर्जी से गर्भपात का अधिकार, शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार का अधिकार तथा वोट डालने और खुद चुने जाने का अधिकार। अमरीका में महिलाओं को वोट डालने का अधिकार 1920 में मिला, जबकि सोवियत रूस में यह तीन साल पहले ही 1917 में मिल चुका था। इसके अलावा जब समूचे योरोप और अमरीका में होमोसेक्सुअलिटी कानूनन अपराध था तो सोवियत रूस वह पहला देश था जहां इसे मान्यता दी गयी।
समाजवाद के व्यापक असर को इस एक तथ्य से समझा जा सकता है कि अल्बानिया जैसे निहायत पिछड़े देश में जब 1945 में क्रान्ति सम्पन्न हुई तो वहां लगभग 95 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं अशिक्षित थी। महज 10 साल के अंदर 40 साल उम्र के अंदर की महिलाएं अच्छी तरह लिखने-पढ़ने लगी थीं। 1980 तक विश्वविद्यालय जाने वाले छात्रों में आधा महिलाएं थी। ये सभी महिलाएं शिक्षा, रोजगार व अन्य जनवादी अधिकारों से लैस होने के कारण जल्द ही खुद-मुख्तार हो चुकी थी। चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान इस नारे ‘जो काम पुरुष कर सकते हैं, वह महिलायें भी कर सकती हैं’, के साथ ये नारा भी उछाला गया की ‘जो काम महिलायें कर सकती हैं, वो पुरूष भी कर सकते हैं।’ इस तरह माओ के शब्दों में कहें तो महिलायें आधी जमीन और आधे आसमान को दखल कर चुकी थी। हजारों साल पहले निजी संपत्ति के आविर्भाव के साथ महिलाओं की जो ऐतिहासिक गुलामी शुरू हुई थी, उसका अब खात्मा हो चुका था। निजी संपत्ति के खात्मे के साथ हजारों साल बाद महिलायें एक बार फिर मुक्त होकर अपनी इमेज में समाज को आगे बढ़ाने के काम में लग गयी।
आप इसकी तुलना यदि सबसे विकसित देश अमरीका से करेंगे तो रोजगार, गरीबी, नस्लवाद की बात यदि छोड़ भी दे तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 1960 तक वहां कई राज्यों में यह नियम लागू था कि महिलाओं को जब बाहर कहीं काम करना होता था तो इसके लिए कानूनी तौर पर पति की मर्जी जरूरी होती थी।
समाजवादी राज्यों की महिलाओं ने विज्ञान, कला और खेल जैसे पुरुषों के दबदबे वाले क्षेत्रों में शानदार उपलब्धि दर्ज की। अन्तरिक्ष में जाने वाली पहली महिला सोवियत संघ की वैलेन्टीना तेरेस्कोवा (Valentina Tereshkova) थी। वैलेन्टीना तेरेस्कोवा ने पृथ्वी का 48 बार चक्कर लगाया। वैलेन्टीना तेरेस्कोवा ने अंतरिक्ष में इतना समय बिताया, जितना अमेरिका के सभी अंतरिक्ष यात्रियों ने मिलकर भी नहीं बिताया था। ओलंपिक खेलों में समाजवादी देशों का दबदबा खासकर उनकी महिला एथलीटों कारण ही था। बहुत कम लोगों को इस बात का अहसास है कि पूंजीवादी देशों में महिलाओं को जो अधिकार मिले और उन्होंने पुरुषों की दुनिया में अपनी जगह बनानी शुरू की, वह उनके अपने संघर्षों के अलावा शीत युद्ध के दौर में इन समाजवादी देशों के साथ प्रतियोगिता का दबाव भी एक कारण था।
लेकिन महिलाओं की स्थिति इन ‘समाजवादी’ देशों में 60 के दशक के बाद धीरे-धीरे गिरने लगी। इसका बहुत ही ग्राफिक चित्रण इन किताबों विशेषकर Kateřina Lišková ने अपनी किताब में किया है। समाजवाद के पतन के कारणों को इससे समझने में काफी मदद मिलती है। Kateřina Lišková ने बहुत विस्तार से बताया है कि जैसे-जैसे ‘समाजवादी’ सत्ता वर्ग विहीन समाज के स्वप्न को साकार करने के संकल्प से पीछे हटने लगी वैसे-वैसे महिलाओं की पुरुषों के बरक्स समानता भी घटने लगी। कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में एंगेल्स ने लिखा था कि बच्चों की जिम्मेदारी जब राज्य और समाज की होगी, तभी महिलाएं सही मायनों में मुक्त होगी। इसी कान्सेप्ट के साथ क्रान्ति के तुरन्त बाद समाजवादी देशों में बड़े पैमाने पर बच्चों के लिए क्रैच खोले गये जहां महिलाएं अपने बच्चों को छोड़ कर काम पर जाती थी और लौटते समय महिलाएं या पुरुष (जो भी पहले घर लौटता था) उन्हें घर लाते थे और फिर घर में उसकी देखरेख दोनो बराबरी से करते थे। 60 के दशक में जब ये ‘समाजवादी’ सरकारें क्रान्ति के रथ को धीमे-धीमे पीछे खींचने लगे तो इसका असर पूरे समाज पर नज़र आने लगा। इसी समय चेकोस्लवाकिया में कुछ मनोचिकित्सकों ने एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया और इसे राज्य की तरफ से व्यापक तौर पर वितरित किया गया। इसमें बताया गया कि क्रैच में पलने वाले बच्चों का विकास उन बच्चों के मुकाबले धीमा होता है जो अपना पूरा वक़्त मां के साथ बिताते हैं। पूरा वक़्त मां के साथ रहने वाले बच्चों को प्राकृतिक और क्रैच में रहने वाले बच्चों को अप्राकृतिक बताया जाने लगा। इसी दशक में एक डाकूमेन्ट्री आयी, जिसका जानबूझकर काफी प्रचार किया गया। इस डाकूमेन्ट्री फिल्म का नाम था- ‘चिल्ड्रेन विदआउट लव’। इसमें जानबूझकर कुछ उन क्रैचों को चुना गया जहां थोड़ी अस्तव्यस्तता रहती थी या पर्याप्त स्टाफ नहीं था। यहां कैमरा कुछ बच्चों पर फोकस करते हुए यह दिखाने की कोशिश की गयी इन बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया है। अगले कट में उन बच्चों पर फोकस किया गया जो मां की गोद में खिलखिला रहे है। इस तरह से समाज में एक माहौल बनाया गया और महिलाओं पर यह भावनात्मक दबाव बनाने का प्रयास किया गया कि वे अपनी मां की भूमिका को सबसे महत्वपूर्ण माने और समाजवाद के निर्माण की अपनी भूमिका और पुरुषों के साथ बराबरी के अपने संघर्ष को धीमा करें। कुल मिलाकर कहें तो ‘महिला सवाल’ को बहुत बारीकी से चुपचाप ‘बच्चों के सवाल’ में बदल दिया गया या यूं कहें की बच्चो के सवाल को महिला सवाल के बरक्स खड़ा कर दिया गया।
इसी के समानान्तर कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व-अवकाश को भी थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ाया जाने लगा। चेकस्लोवाकिया में 18 सप्ताह के मातृत्व अवकाश को पहले 1 साल तक और बाद में 4 साल तक वेतन सहित बढ़ा दिया गया। महिलाओं को यह अच्छा ही लगा कि उन्हें बच्चे के साथ घर पर रहने का ज्यादा से ज्यादा मौका मिल रहा है। लेकिन इसके पीछे की साजिश वे नहीं समझ सकीं कि इस तरह से धीरे-धीरे उन्हें सार्वजनिक जीवन से काटा जा रहा है और उन्हें परम्परागत मां की भूमिका में ढकेला जा रहा है, कि महिला-पुरूष की परम्परागत जेन्डर भूमिका को धीमे-धीमे मजबूत किया जा रहा है। जब तक वे इसे समझती, तब तक काफी देर हो चुकी थी। यह इतिहास की अजीब विडम्बना है की जिस ‘माँ अधिकार’ [mother right] के छिनने से हजारों साल पहले महिलाएं गुलाम हुई, उसी ‘माँ अधिकार’ [mother right] को देने के नाम पर महिलाओं को फिर से गुलामी की ओर धकेला जा रहा था।
1970 के दशक तक आते-आते परंपरागत जेन्डर भूमिका वाले परिवारों की तादात बढ़ने लगी और वे मजबूत होने लगे। जमीन पर आ रहे इस परिवर्तन का पुरुषों के मानस पर असर पड़ना लाज़िमी था। वे भी अब महिलाओं को पुरानी दृष्टि से देखने लगे। जेन्डर रिवोल्यूशन और सेक्सुअल रिवोल्यूशन के बीच का रिश्ता टूट चुका था।
चूंकि महिलाएं और समाज पुराने विचारों से पूरी तरह अभी आज़ाद नहीं हो पाये थे (यह प्रक्रिया तो अभी जारी ही थी। चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति इसी प्रक्रिया का हिस्सा था) इसलिए वे विशेषकर महिलाएं इस ट्रैप में फंस गयी। महिलाओं को धीमे-धीमे उनके परम्परागत भूमिका में धकेलने के लिए बच्चों की स्थिति का जमकर इस्तेमाल किया गया। इसी बदले माहौल में धीरे-धीरे क्रैच की संख्या भी कम की जाने लगी। बच्चों के पालन पोषण करने की वजह से सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की संख्या धीमे-धीमे कम होने लगी।
इसके साथ ही घर में महिलाओं के सेक्स जीवन पर भी असर पड़ने लगा। बच्चो की परवरिश और घर के बोरिंग रोजाना के कामों की वजह से महिलाओं की सेक्स में रूचि कम होने लगी। आर्थिक रूप से महिलाओं के पुनः पुरुषों पर निर्भर होते जाने से महिला-पुरुष समानता कम होने लगी। फलतः पुरुषों की नज़र में महिलाओं का सम्मान भी कम होने लगा। इसका परिणाम बेडरूम में भी दिखाई देना लगा और अब वे महिलाओं के ‘यौन सुख’ की परवाह कम से कम करने लगे।
इस बदलते परिवेश के अनुरूप ही तत्कालीन सेक्सोलाजिस्टों ने भी महिलाओं के यौन सुख के कारणो को बदलना शुरू कर दिया। क्रान्ति के शुरूआती वर्षों में महिलाओं के यौन सुख को एकमात्र महिला-पुरुष की बराबरी या समानता में देखा जाता था। लेकिन इसके बाद महिला-पुरूष बराबरी के अलावा दूसरे कारणों को भी इसमें शामिल किया जाने लगा। जैसे महिला का पुराना इतिहास, बचपन में कोई यौन दुर्घटना, शारीरिक स्वास्थ्य आदि। और फिर 70-80 के दशक में तो महिला-पुरुष बराबरी वाली बात पूरी तरह से गायब हो गयी और महिलाओं के यौन सुख को पूरी तरह तकनीकी, बायोलोजिकल और दवाई केन्द्रित बना दिया गया। और पूंजीवादी दुनिया के साथ इनके एकीकरण के बाद तो इस बेहद खूबसूरत, नर्म और आत्मीय रिश्ते पर पोर्न, सेक्स उपकरणों और सेक्स दवाइयों, नशीली दवाइयों का क्रूर हमला शुरू हो गया।
एक समय अंतरिक्ष में विचरण करने वाली महिला, ओलम्पिक में मेडल लाने वाली महिला, प्रयोगशालाओं में खोज करने वाली महिला, समाज को साम्यवादी भविष्य की ओर खींचने वाली महिला अब सड़कों पर ग्राहक के इंतजार में बैठने लगी। पश्चिमी पूंजीवादी देशों में अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में आया, दाई आदि का काम करने पर मजबूर होने लगी। समाजवादी राज्यों में विज्ञान, दर्शन और कला पढ़ने वाली लड़कियां ‘gold digging’ [अमीर पुरुषों से रिश्ता बनाने के तथाकथित गुर सिखाने के लिए रूस जैसे देशों में कई भूमिगत कोर्स चलते है] का कोर्स कर रही है। जो समाजवादी व्यवस्था महिलाओं के यौन सुख तक का ध्यान रखती थी वह अब पतित होकर विकृत पूँजीवाद में बदलकर उसके शरीर का ही व्यापार करने लगी।
उपरोक्त विवरण यह चीख-चीख कर कह रहे हैं कि समाजवाद महिलाओं का सच्चा दोस्त है। हमें इसे समझना होगा।
मशहूर राजनीतिक चिन्तक ‘तारिक अली’ कहते हैं की इतिहास का सबसे बड़ा दुरूपयोग इतिहास को भूल जाना होता है। और फिर महिलाओं का यह गौरवपूर्ण इतिहास तो उस रूप में इतिहास भी नहीं है। यह कुछ ही समय पहले तक हमारा वर्तमान था। आज हम जिस अभूतपूर्व संकट से गुज़र रहे है, वहां ‘अगस्त बेबेल’ के शब्दों में महिला मुक्ति का सवाल मानवता की मुक्ति के सवाल से जुड़ चुका है। और जैसा की ‘इनेसा अरमंड’ [Inessa Armand] कहती हैं – ‘यदि बिना साम्यवाद के महिला मुक्ति असंभव है तो यह भी उतना ही बड़ा सच है कि बिना महिला मुक्ति के साम्यवाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती।’
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