पिछले माह ढाका में ‘राना प्लाजा’ नामक बिल्डिंग के ढहने से करीब 1300 मजदूर मारे गये। हजारों घायल हुए। कई मजदूरों के हाथ-पैर मलबे में इस तरह से फंसे थे कि उन्हे निकालने के लिए वहीं पर उनके हाथ-पैर काटने पड़े। बहुत ही ह्दय विदारक दृश्य था।
ये मजदूर इसी बिल्डिंग में कई गारमेन्ट फैक्टरियों के लिए काम करते थे। इसमें से ज्यादातर महिलाएं थी। इस घटना के ठीक पांच माह पहले ढाका में ही एक दूसरी गारमेन्ट फैक्टरी में आग लग गयी थी। इसमें झुलस कर करीब 150 मजदूर मारे गये थे। इसमें भी ज्यादा संख्या महिलाओं की ही थी।
इन घटनाओं के बाद ही गारमेन्ट फैक्टरी में मजदूरों की दयनीय हालत के बारे में कुछ रिपोर्टं प्रकाशित हुई। भारतीय अखबारों ने भी ढाका की इस दर्दनाक घटना की रिर्पोटिंग तो की, लेकिन यह बताने की जहमत किसी ने नही उठायी कि भारत में भी गारमेन्ट मजदूरों की वही स्थिति है जो बांग्लादेश में है। यह बात आपको विस्मय में डाल सकती है, लेकिन यह सच है कि भारत में गारमेन्ट उद्योग के प्रमुख केन्द्र ‘तिरपुर’ में हर साल एक ‘राना प्लाजा’ घटता है लेकिन कोई न्यूज नही बनती।
तमाम सरकारी-गैर सरकारी आंकड़े यह बताते है कि तिरपुर के गारमेन्ट मजदूर प्रतिदिन 20-25 की संख्या में आत्महत्या का प्रयास करते है। इस आत्महत्या का सीधा कारण गारमेन्ट फैक्टरियों में काम की बेहद अमानवीय स्थिति और बेहद कम वेतन है। 2007 से 2012 तक प्रतिवर्ष अमूमन 700-800 आत्महत्या के मामले दर्ज किये गये है। कितने मामले तो दर्ज भी नही हो पाते। यानी लगभग हर वर्ष एक ‘राना प्लाजा’। 2007 में आर्थिक मंदी के बाद यहा महज एक वर्ष में 80000 गारमेन्ट मजदूरों की छुट्टी कर दी गयी थी । इनमें से कई वापस अपने गांव लौट गये। और वहां पहुंच कर कुछ समय बाद खेती के संकट के कारण उन्होने आत्महत्या कर ली। उनका रिकार्ड उन लाखों किसानों की आत्महत्याओें के साथ जुड़ गया, जो भारतीय राज्य की गलत ‘कृषि नीति’ का शिकार हो गये।
तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए गारमेन्ट उद्योग डालर कमाने का प्रमुख जरिया है। यह बात समझना कठिन नही है कि क्यो तीसरी दुनिया का शासक वर्ग डालर के पीछे भाग रहा है। डालर पाने के लिए ही उसने अर्थव्यवस्था के सभी दरवाजें -खिड़कियां खोल रखे हैं । ‘देश का कर्ज’ चुकाने के अलावा अपने उद्योगों के लिए लगातार टेक्नोलाजी आयात करने और अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ाने और विदेशों में शापिंग के लिए उन्हे लगातार डालर की जरुरत है। अकेले ‘तिरपुर’ के गारमेन्ट उद्योग से ही भारत ने 2009 में 2.6 बिलियन डालर का राजस्व प्राप्त किया था। यानी भारतीय शासक वर्गो की डालर की हवस को यहां का मजदूर अपनी जान देकर पूरा कर रहा है।
आइये अब एक नजर गारमेन्ट उद्योग के पूरे ताने बाने पर डालते है। ग्लोबलाइजेशन के दौर में सभी साम्राज्यवादी देशों ने अपनी प्रोडक्शन यूनिटों को सस्ते श्रम की खोज में तीसरी दुनिया के देशों में हस्तान्तरित करना शुरु किया। गारमेन्ट उद्योग तो लगभग पूरे के पूरे बांग्लादेश, वियतनाम, चीन, भारत, अर्जेन्टीना, मैक्सिको, मेडागास्कर, कम्बोडिया, दक्षिण कोरिया, फिलीपीन्स, ताईवान, थाईलैण्ड, हांगकांग जैसे देशों को स्थानान्तरित कर दिये गये। लेकिन यह स्थानान्तरण एक नये किस्म का था। यानी इन देशों के उद्योगो पर साम्राज्यवादी देशों की कम्पनियो का स्वामित्व नही था, वरन उसी देशों के पूंजीपतियों का स्वामित्व है, लेकिन ये अपना ज्यादातर माल साम्राज्यवादी देशों की कम्पनियों के लिए ही बनाते हैं।
एक उदाहरण लेते हैं । एक ब्राण्ड है- ‘पीटर इग्लैण्ड’ [याद आया एक ‘ईमानदार शर्ट’?]। यह अपना प्रोडक्ट यानी शर्ट खुद नही बनाती। यह अपना शर्ट डिजाइन करके किसी ‘ट्रेडिंग कम्पनी’ को देगी। और उससे कहेगी कि उसे फला तारीख तक 1 करोड़ शर्ट चाहिए। यह ‘ट्रेडिंग कम्पनी’ तीसरी दुनिया के देशों में मौजूद तमाम ‘सप्लाई कम्पनियों’ से बात करके जो सबसे कम कीमत में और समय पर आर्डर पूरा करने का वादा करेगा, उसे यह आर्डर पास कर देगी। ज्यादातर मामलों में कच्चा माल भी ट्रेडिंग कम्पनी ही उपलब्ध कराती है। आगे सप्लाई कम्पनी पूरी शर्ट या तो खुद ही बनाती है या शर्ट के अलग अलग हिस्सों को या अलग अलग प्रक्रियाओं को पुनः ठेके पर बांट देती है। और काम पूरा होने पर सप्लाई कम्पनी में सिर्फ उन अलग अलग प्रक्रियायों को या अलग अलग हिस्सों को एक कर दिया जाता है। और वापस इसी चैनल से माल यानी शर्ट ब्राण्ड कम्पनी ‘पीटर इग्लैण्ड’ को चला जाता है, जो दुनिया भर में फैले अपने ‘रिटेल सेन्टरो’ और ‘शो रुमों’ के माध्यम से इसे बेचती है।
इस तरह आपने देखा कि यह पूरी व्यवस्था उपर से नीचे तक ‘ठेका प्रथा’ पर आधारित है। यानी जो सबसे कम बोली लगायेगा आर्डर उसी को मिलेगा। इसी प्रथा के कारण ब्राण्ड कम्पनियां भरपूर मुनाफा निचोड़ती है। जाहिर है कम से कम बोली लगाने के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा शोषण मजदूरों का ही होगा। यानी एक तरह से मजदूर भी अपने श्रम की बोली ही लगाते है। जो मजदूर अपने श्रम की सबसे कम बोली लगायेगा उसे ही मजदूरी पर रखा जायेगा। इसी कारण उनकी काम की परिस्थितियां भी निरन्तर खराब होती जाती है। क्योकि कम्पनियां आर्डर पाने के लिए बोली तो कम से कम लगाती है, लेकिन अपने मुनाफे के मार्जिन को गिरने नही देती।
यानी यह सारा खेल मजदूरों के खून और उसकी लाश पर खेला जाता है।
2007 के बाद जब तिरपुर गारमेन्ट उद्योग में मंदी आयी तो इसका एक कारण यह भी था कि बांग्लादेश के गारमेन्ट उद्योग भारत के गारमेन्ट उद्योग से कम में बोली लगा रहे थे और इसी कारण ब्राण्ड कम्पनियों ने अपने अपने आर्डर बांग्लादेश की तरफ स्थानान्तरित करना शुरु कर दिया। इसको लेकर संसद में भी उस वक्त काफी हो हल्ला हुआ था और बांग्लादेश से इस सम्बन्ध में बात करने की मांग की जाने लगी थी।
दुनियां के प्रायः हर देश के गारमेन्ट उद्योग में काम के घण्टे प्रायः औसतन 12 से ज्यादा ही है। और विशेष परिस्थिति में तो उन्हे बिना अतिरिक्त वेतन के 14 से 16 घण्टे तक काम करना पड़ता है। ये विशेष परिस्थिति क्या है? एक उदाहरण से इसे समझते है। मान लीजिए इस शुक्रवार को रणवीर कपूर की कोई फिल्म रिलीज होती है। और यह फिल्म जबर्दस्त हिट साबित होती है। इसमें रणवीर कपूर ने ‘आधे कालर’ की शर्ट पहनी हुई है। फिल्म के साथ साथ यह ‘आधे कालर की शर्ट’ भी जबर्दस्त हिट हो जाती है। तो अब जो ब्राण्ड कम्पनी इस शर्ट को सबसे पहले बाजार में उतारेगी, वह अकूत मुनाफा कमायेगी। फलतः सभी ब्राण्ड कम्पनियां अपने अपने सप्लायर पर दबाव बनायेगी कि वो जल्दी से जल्दी आर्डर पूरा करके दे, नही तो उनसे आर्डर वापस ले लिया जायेगा। अब सप्लायर कम्पनियां अपने मजदूरों पर दबाव डालेंगी कि वो ज्यादा से ज्यादा काम करके समय पर माल तैयार करे। जो ऐसा नही कर सकेगा उसे काम से निकाल दिया जायेगा। और इस तरह से तैयार होती है 14 से 16 घण्टे काम की परिस्थितियां। यानी मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग का फैशन के प्रति जो सनकीपन है, उसकी कीमत भी हमारा मजदूर ही चुकाता है।
राना प्लाजा में जो घटना घटी, उसका एक कारण यह भी था कि उन्हे ‘जो फ्रेश’ नामक ब्राण्ड के लिए जल्दी से जल्दी अपना आर्डर पूरा करना था। घटना के एक सप्ताह पहले ही मजदूरों ने बिल्डिंग में एक बड़ी दरार देख ली थी। और घटना की आशंका से बिल्डिंग से बाहर आ गये थे। लेकिन ठेकेदारों ने उन्हे नौकरी से निकालने की धमकी देकर वापस काम पर बुला लिया और इतनी बड़ी घटना घट गयी।
आइये एक बार फिर ‘तिरपुर’ की ओर लौटते है।
तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से 500 किमी दूर ‘तिरपुर’ आज भारत में गारमेन्ट उद्योग का प्रमुख केन्द्र है। गारमेन्ट के निर्यात से होनी वाली कुल आय का लगभग एक चैथाई तिरपुर से ही आता है। यहां छोटी बड़ी कुल मिलाकर लगभग 7000 यूनिटें है। यहां मुख्यतः Walmart, Primark, Diesel, ARMY, and Tommy Hilfiger नामक ब्राण्ड के लिए उत्पादन होता है।
इसमें करीब 4 लाख मजदूर लगे हुए है। और लगभग इतनी ही संख्या सिजनल मजदूरों की है। दोनो ही तरह के मजदूरों में प्रवासी और महिला मजदूरों की संख्या बहुतायत में है। प्रवासी मजदूरों में मुख्यतः बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, उड़ीसा से काफी मजदूर हैं । यहां के मजदूरों में अच्छी खासी तादाद श्रीलंका से आये तमिल शरणार्थीयों की भी है। चूंकि इनमें से ज्यादातर के पास कोई विधिक कागजात नही होते, इसलिए प्रशासन की नजर में इनका अस्तित्व ही गैरकानूनी हो जाता है। इसका फायदा कम्पनी के ठेकेदार उठाते है और इन्हे डराकर बहुत ही मामूली मजदूरी पर काम में रख लेते है।
यहां मजदूरों को काम पर रखने के मामले में मुख्यतः दो अनौपचारिक तरीके अपनाये जाते है। महिलाओें को काम पर रखने के मामले में इसे ‘सुमंगली प्रथा’ कहा जाता है। इस प्रथा के अनुसार 12 साल से 18 साल के बीच की अविवाहित लड़कियों को 3-4 साल के अनुबंध पर रखा जाता है। उनके खाने रहने की व्यवस्था सम्बन्धित कम्पनी ही करती है। इस दौरान उन्हे कोई वेतन नही दिया जाता। अनुबंध की समाप्ति पर उन लड़कियो के मां बाप को 30-40 हजार दे दिये जाते है। आमतौर पर इन्ही पैसों से इन लड़कियों की शादी में दहेज दिया जाता है। इसलिए इसे ‘सुमंगली प्रथा’ कहते है। पूंजीवाद कैसे पितृसत्ता का इस्तेमाल करता है, उसका इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। इसे समझना कठिन नही है कि यह एक तरह की बंधुआ मजदूरी है। तमिलनाडु हाई कोर्ट ने भी ‘सुमंगली प्रथा’ को बंधुआ प्रथा बताते हुए इस पर रोक लगायी हुई है। लेकिन फिर भी यह प्रथा दूसरे दूसरे नामों से लगातार जारी है। यहां महिलाओं को एक दड़बेनुमा हास्टल में कैद करके रखा जाता है। मां बाप के अलावा वे किसी से नही मिल सकती। मां बाप से भी मिलने का हफ्ते में एक समय तय होता है। ज्यादातर उन्हे आधे घण्टे के लिए ही मिलने दिया जाता है। और यदि कोई लड़की इस कैद से समय से पहले आजाद होना चाहती है तो उसे कुछ भी पैसा नही दिया जाता। ‘सुमंगली प्रथा’ में जाने वाली बहुत सी लड़किया इस अमानवीय माहौल में ज्यादा नही रह पाती और समय से पहले ही काम छोड़ देती है। फलतः उन्हे कुछ भी नही मिलता। यह भी शोषण का एक तरीका ही है। इसके अलावा इन महिलाओं का यौन शोषण ना होता हो, यह बात तो सोची ही नही जा सकती।
इसके अलावा प्रवासी मजदूरों को मुख्यतः ‘कैम्प कुली प्रथा’ के तहत काम पर रखा जाता है। इसके अनुसार मजदूरों को कम्पनी या ठेकेदार द्वारा उपलब्ध कराये गये आवास में ही रहना अनिवार्य होता है। इसमें काम के घण्टे तय नही होते। आवास आमतौर पर फैक्टरी के नजदीक ही होता है। और कम्पनी मालिक या ठेकेदार जब चाहे मजदूर को काम पर बुला सकता है और जितनी देर चाहे उससे काम ले सकता है। यानी यहां पूंजीपति ‘श्रम शक्ति’ नही ‘श्रम’ ही खरीद लेता है। ‘कैम्प कुली प्रथा’ पर भी हाई कोर्ट ने रोक लगायी हुई है, लेकिन जमीन पर यह धड़ल्ले से चालू है। इन हाड़तोड कामों और काम की अमानवीय परिस्थितियों से निकलने का कोई रास्ता ना सूझने पर कुछ मजदूर प्रायः शराब की शरण लेते है। और मुश्किल से कमाये गये अपनी थोड़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा शराब में उड़ा देते है। इसका फायदा उठाकर तिरपुर में बड़े बड़े शराब माफिया खड़े हो गये है। इनमें से कुछ सूदखोरी का काम शुरु कर देते है। और मजदूरों से कमाये गये पैसों को ही मजदूरों को सूद पर देने लगते है। और स्थिति यह आ जाती है कि उन्हे एक सूदखोर का उधार चुकाने के लिए दूसरे सूदखोर से उधार लेना पड़ता है। इस दुष्चक्र से निकलने का उन्हें एक ही रास्ता नजर आता है- आत्महत्या।
सच तो यह है कि मजदूरों को यहां इतना कम वेतन मिलता है कि सिर्फ अपने दैनन्दिन खर्च के लिए भी उन्हे उधार लेना पड़ सकता है। या उस समय भी उधार लेना पड़ता है जब उनकी किसी कारण नौकरी से छुट्टी कर दी जाती है। और ज्यादातर मजदूरों के भरोसे गांव में उनका पूरा परिवार पल रहा होता है।
हम यहां पर गारमेन्ट उद्योग के मजदूरों की बात कर रहे है। लेकिन सच तो यह है कि लगभग सभी उद्योगों में मजदूरों की ऐसी ही दयनीय स्थिति है। आज चीन का ‘उच्च ग्रोथ रेट’ भारत सहित सभी तीसरी दुनिया के देशों के लिए आदर्श सा बन गया है। लेकिन चीन यह ‘उच्च ग्रोथ रेट’ किस कीमत पर हासिल कर रहा है। चीन के खुद के आंकड़े यह बताते हैं कि चीन में हर साल औघोगिक दुर्घटनाओं में औसतन 1लाख मजदूर मारे जाते है। जिस साल चीन ओलम्पिक खेल आयोजित करके दुनिया को अपनी ताकत दिखा रहा था, उसी साल सिर्फ खदान दुर्घटनाओं में 10 हजार लोग मारे गये थे।
मोबाइल कम्पनियां अपने मोबाइल के लिए ‘कांगो’ के जिन खदानों से खनिज निकलवाती है, वहां ज्यादातर बच्चे काम करते है। जो वहां के स्थानीय हथियार बन्द गिरोहो की निगरानी में काम करते है। ये बच्चे अक्सर खदान में दब कर मर जाते है। और तुरन्त ही उनकी जगह दूसरे बच्चे ले लेते है। इसी विषय पर एक बहुत अच्छी फिल्म भी बनी है- ‘ब्लड इन मोबाइल।’
अपने देश में छत्तीसगढ़ का ही उदाहरण ले। यहां आये दिन कभी बायलर फटने से तो कभी चिमनी ढहने से मजदूरों की मौत होती ही रहती है। लेकिन सरकारों को इनसे फर्क नहीं पड़ता। वो तो डालर की महक में ही मदहोश हैं।
पूंजीवाद के इतिहास में जिस दौर को हम ‘आदिम पूँजी संचय’ के नाम से जानते है, वह दौर आज तीसरी दुनिया के देशों में बदस्तूर जारी है। पूंजी आज भी मजदूरों के खून और पसीने में लथपथ है।
तो अगली बार जब भी आप किसी चमकदार ब्राण्ड को हाथ लगाये तो उसमें छिपी पसीने और खून की चिपचिपाहट को जरुर महसूस करे।
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