गेहूं काटते-काटते अचानक रीता की नज+र सामने बैठे कक्का पर पड़ी। उनकी नज+रें उसकी खुली हुयी पिण्डलियों पर टिकी हुयी थी। गेंहूं काटने में मगन रीता को इस बात का ख्याल ही नहीं रहा कि कब उसकी साड़ी सरक कर घुटनों तक पहुंच गयी थी और कक्का उसे घूरे जा रहे थे। वह सबेरे से सामने मेड़ पर डेरा जमाए बैठे थे। बहू-बेटियां चैन से काम भी नहीं कर सकती थीं। एक तो सिर पर सूरज तप रहा था। गर्मी के कारण जी बेहाल था। सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। ऊपर से सामने बैठै कक्का के कारण घंूघट और निकालना पड़ रहा था। घंूघट के कारण पिसिया (गंेहूं) के साथ हंसिया मुट्ठी पर लगने का खतरा हमेशा बना रहता। काम बहुत साध कर करना पड़ता था नहीं तो पिसिया के साथ-साथ उनके कटे हाथ का लहू भी उस बामन के परिवार के पेट में चला जाए। इसी चक्कर में रीता की सिन्थेटिक साड़ी न जाने कब सरक कर घुटने पर पहंुच गयी और कक्का मुसलसल उसे घूरे जा रहे थे।
घूंघट में से ही उनकी उस नज+र को देख कर रीता बमक कर खड़ी हो गयी और हाथ का हंसिया नचा कर बोली-‘हे डोकर का घूर रहे हो तुम। इसी पिसिया की तरह तुम्हाओ मूड़ भी उतार लेंगे हम।……… तुम्हारे खेत में मजूरी कर रहे हैं तो ये मत समझना कि बिक गए हैं हम।……. अरे तुम्हारे बाप-दादा ने हमारी जमीन न हड़प ली होती तो आज हम भी तुम्हारे घर की जनानियों की तरह रानी बन कर बैठे होते।…..यूं धूप में न खट रहे होते…..’ चैत की धूप की सारी प्रचण्डता मानो उसकी आवाज+ में उतरती जा रही थी। इससे पहले कक्का सम्हलते आस-पास के खेतों में काम कर रहे सारे लोग वहां इकट्ठे होने लगे थे। …‘का हुआ….का हुआ….’ लोग पूछने लगे। रीता की आवाज और भी तीखी और कर्कश हो उठी-‘अरे अपने घर की बहू-बेटियों को सात तालों में बन्द करके रखत हैं और गरीबों की बहू-बेटियों पर बुरी नज+र रखत हैं ये लोग’….।
बात बढ़ती देख कक्का ने वहां से सरक लेने में ही भलाई समझी। रीता गुस्से से वही मेड़ पर बैठ गयी। बारह तेरह साल की उसकी बेटी पूजा उसके लिए पानी लेकर आयी -‘लो मम्मी पानी पी लो। अच्छा किया तुमने आज कक्का को सुना दयी। बे अच्छे आदमी नहीं। कई बार बे हमें भी घूरन लगत हैं।’ ‘न मोढ़ी, डरियो न किसी से….तुम्हारे ऊपर बुरी नज+र डालें तो मूड़ उतार लेय हम इसी हसिया से हां…….’- रीता की आंखों में खून उतर आया था। पूजा सिर हिलाते हुए अपनी मां के बगल में बैठ गयी। पानी पी कर रीता ने पूजा से कहा-‘चल बेटा कटाई कर लें। घाम तेज होन से पहले कछु काम निपटा लें…..’। मां-बेटी दोनो फिर कटाई में लग गयी थी। इस बार रीता के तमतमाये मुंह पर घूंघट नहीं था……।
सांझ को रीता के घर पहंुचने से पहले ही उसकी कक्का से लड़ने की खबर पहुंच गयी थी। रीता का निकम्मा पति मोहर सिंह वहीं पीपल तले गांव के जुआरियों के साथ लकडि़या खेल रहा था। तभी कक्का अपनी धोती पकड़े तेज गति से चले जा रहे थे। मोहर सिंह ने वहीं से आवाज+ लगायी-‘पांय लगूं कक्का …अरे हम कही, कहां भागे जाय रहें हैं, जा बखत धोती संभाल के।’ कक्का ठहर गए..। जो बात रीता से कहने की हिम्मत नहीं हुयी थी। वह तमतमा कर मोहर सिंह को अर्ज कर दी-‘बहुत लम्बी जबान हो गयी है तेरी बहू की…..। तूने उस पर कन्ट्रोल नहीं रखा है तनिक भी….’। फिर तो कक्का ने खूब नमकमिर्च लगा कर बतायी उसकी बहू की करतूत।
आज से दस साल पहले मजाल थी कोई कक्का लोगों (पंडितोंे) और बाबू साहब (ठाकुरों) लोगों के सामने नीची जाति के लोग बैठे रहें और उनके सामने नज+र उठा सकें। पर आज हालात बदल गए हैं। आज कल के नौजवान लड़के उनको नहीं सेटते। वहीं पीपल के नीचे बैठ के लकड़ी खेलते रहते हैं और कक्का और बाबूसाहब के गुजरने पर अपनी जगह से नहीं हिलते। बाबू साहब लोग तो कतरा कर निकल जाते हैं। हां कक्का लोग थोड़े लचीले होते हैं। समय के साथ चलने वाले। वे अपनी बोली में बनावटी मिठास लाकर बोलते हैं-‘का रे कलुआ कैसा है रे तू? कब आया दिल्ली से कमा के?’ इतना कहते हुए वे उसके जवाब का इन्तज+ार नहीं करते। यह अलग बात है कि दोनो के ही दिलों में इन नीची जाति के लोगों के लिए नफरत पहले से कहीं ज्यादा है।
कक्का ने रीता की शिकायत मोहर सिंह से कर के अपने मन की भड़ास निकाली। लेकिन क्या करता मोहर सिंह। उसकी हिम्मत नहीं थी कि वह आज रीता को कुछ बोलता। आखिर वही घर संभाले हुए थी इस वक्त। एक ज+माना था कि वह घर में उस खम्भे पर बांध कर रीता को पीटता था जिस पर घर की छाजन टिकी हुयी थी। वह गांव के लड़कों के सामने अपने अतीत की डींग हांकने लगा। ‘………घंटो पीटत रहे हम वाको….पर मजाल कि चूं निकल जाए….।’ मोहर सिंह मर्दानगी हांक रहा था। पर आज तो रीता खुद वह खम्भा बन गयी थी जिस पर पूरा घर टिका हुआ था।
थकी हारी रीता पूजा के साथ घर लौटी। अभी सबके लिए रोटी भी पकानी थी। आंचल से पसीना पोछते हुए वह भीतर वाले कमरे में घुसी। आज सुबह की घटना से उसका सिर अभी तक भन्ना रहा था। चारपाई पर बैठते हुए उसके दिमाग में अपना पिछला जीवन कौंध गया।
अपने बाप के घर की हज+ार रोटी मुश्किल से खा पायी होगी कि उसके बाप ने उसे यहां ढकेल दिया था। उससे तो बेहतर वे छिरियां थीं जिन्हें बहुत प्यार से पाला जाता था उनके घर। उनका भी कुछ मोल था। पर उसके बाप ने सोचा ‘ये मोढ़ी की जात… जाने कहां से पैदा होय जाती हैं जे…। इससे तो अच्छा पहले था। पैदा होते ही चरपाइयन के पावा के नीचे धर के बैठ जाओ। बस्स छुट्टी…..। छुट्टी तो आज काल भी मिल जाए है। पर शहरन मा….। बहरहाल, 11 साल की अबोध रीता ब्याह कर आ गयी मोहर सिंह के घर।
मोहर सिंह 20-22 साल का बांका था उस वक्त। काम-धंधा कुछ नहीं। आवारा लड़कों के साथ खुद भी आवारा। सांझ ढलते ही वे हाईवे पर बैठ जाते थे अपना अपना मुंह ढांक कर। आने वाले मोटरसाइकिल सवारों को रोक कर लूटपाट करते। अगर माल देने में कोई हिचकता तो मार पीट करते लेकिन कभी जान से नहीं मारते थे। कौन पुलिस के चक्कर में आए। रोज सौ-पचास हाथ लग जाते सबके। अपने बीड़ी-गुटका के लिए बहुत थे। कभी ज्यादा हाथ में आते तो अम्मा के हाथ में भी रख देते और ढेरों असीस लेते।
ज+मीन के नाम पर एक टुकड़ा भी नहीं था उनके पास। बब्बा यानी डोकर, बाबू साहब के पशुओं की देखभाल करते और बदले मे खाने-पीने को कुछ मिल जाता था। बड़े भइया खेतों में मजूरी करते। इस तरह घर चल रहा था। कहते हैं इनके पुरखों के पास कुछ ज+मीन थी। 10-12 बीघे। पर सब ठाकुर, बामन को होम चढ़ गयी। सम्पत्ति के नाम पर एक टूटा फूटा घर था। जिसमें दो दालान थे। बाद में भइया महान सिंह, मोहर सिंह का घर बस जाने के बाद, उसके निकम्मेपन के कारण तथा रोज-रोज चोरी की शिकायत आने के कारण नाराज होकर अलग हो गए। एक दालान की तरफ का हिस्सा उन्होंने अपने लिए ले लिया और अलग पकाने-खाने लगे। उन्होंने ब्याह नहीं किया था। कहते हैं गांव की एक विधवा से उनके सम्बन्ध थे। इसके विषय में जानते सभी थे पर कहता कोई कुछ नहीं था। बस अम्मा को वो बुआ फूटी आंख नहीं सुहाती थीं।
इस दालान में टी के आकार में दो कमरे थे। एक कमरा बेड़ा लम्बा जिसके बीचों बीच दरवाजा था। उसी दरवाजे से जुड़ा हुआ एक अन्य कमरा लम्बाई में था। दरवाजे की ओर मुंह करके खड़े हो जाएं तो वह अंग्रेजी के टी अक्षर की तरह लगता था। भीतर वाले कमरे में एक ओर वाई आकार का एक मोटा सा पेड़ का तना था जिस पर छत टिकी हुयी थी। छत क्या खपरैल थी। बरसों से जिसकी मरम्मत नहीं हुयी थी। बरसात मंे घर मंे इतना पानी टपकता था कि समझ मंे नहीं आता था कि कहां बैठें, कहां सोएं और कहां पर चूता हुआ पानी बटोरें। घर में सामान के नाम पर कुछ नहीं था। एक चारपाई, कुछ टूटे हुए थरिया गिलास और कुछ ओढ़ने बिछाने के कपडे+ बस्स। कमरे की फर्श भी सीधी नहीं थी। ऊबड़-खाबड़ थी। भीतर वाले कमरे की फर्श तो ढलान लिए हुए थी। रात में सोओ तो ढनक जाओ एक ओर। सुबह सोकर उठो तो करिआंह पिराने लगती थी।
इसी मड़ैया मंे ढकेल दी गयी थी छोटी सी अबोध रीता। गेहुंए रंग की दुबली-पतली रीता की नाक जितनी पतली नुकीली थी, कमर उससे भी पतली थी। उससे न तो कमर में साड़ी सम्भलती न सिर पर घूंघट। लेकिन रात में दारू पीकर लौटे मोहर सिंह ने जब उसे दबोचना चाहा तो उसे धक्का देकर वह तेजी से भागती हुयी अम्मा के पीछे जा छिपी। हंसती हुयी अम्मा ने उसे वापस कमरे में ढकेल दिया। इस बार मोहर सिंह ने जैसे ही उसकी साड़ी खींच कर निकाली तो जैसे उसे मुक्ति मिल गयी। ब्लाउज पेटीकोट में ही वह सरसरा कर कमरे में छत को संभाले उस वाई आकार के खम्भे पर चढ़ गयी और सबसे ऊपर जाकर दुबक गयी। नीचे से मोहर सिंह उसे बुलाता रहा। अन्त दारू के नशे मंे धुत्त मोहर सिंह सो गया। पर वह खम्भा आखिर उसे कहां तक पनाह देता। बाद में कई बार इसी खम्भे से बांध कर उसे मोहर सिंह ने बडी बेरहमी से पीटा था। साढ़े तेरह, चैदह साल की उम्र में रीता पहली बार मां बनी। पूजा की मांं।
चैदह साल की रीता अब अपना सारा प्यार अपनी बेटी पर उड़ेलने लगी। पर मोहर सिंह के लिए उसके मन में अभी भी धिक्कार की भावना थी। क्योंकि वह कुछ करता धरता नहीं था। वे उसके बूढे+ ससुर और बड़े भइया की कमाई पर पल रहे थे। यह बात उसके स्वाभिमानी मन को कभी स्वीकार नहीं थी। इसके अलावा उसके पति की चोर उचक्के होने से सभी पीठ पीछे उसकी निन्दा करते। कल को उसकी बेटी बड़ी होगी तो चोर की बेटी कहलाएगी, यह बात उसे बहुत अखरती। इसलिए उसकी निगाह में हमेशा मोहर सिंह के लिए तिरस्कार होता। यह तिरस्कार मोहर सिंह को बहुत नागवार गुजरता। सारी दुनिया उसकी ‘मर्दानगी’ का लोहा मानती है और ‘जे औरत…जे हमें कुछ समझे ही न है……।’ फिर तो एक रोज उसके सब्र का बांध टूट ही गया। उसने रीता के सिर के बाल पकड़ लिए और हाथों और लातों से कर दी उसकी धुनाई। पर रीता की आंख से आंसू नहीं निकले। ‘जब अपने ही बाप ने रहम नहीं किया और ढकेल दई इस घर में तो इस कसाई से क्यू रहम की भीख मांगूं’ रीता ने सोचा। वह चुपचाप सारे प्रहार सहती रहती। मोहर सिंह को लगता जैसे वह किसी लाश को पीट रहा हो। वह जितना अधिक उसे पीटता उसका पौरुख मानो उतना ही घटता जाता। फिर एक दिन तो उसके उसके हाथ पैरों ने जवाब दे दिया। ये ऐसे नहीं मानेगी। मोहर सिंह ने सरसरा कर उसकी साड़ी खींच कर उतार दी और उसे निर्वस्त्र करके उस वाई आकार के खम्भे पर बांध दिया और लगा पीटने। वह उसे पीटता जाता और गाली देता जाता। तीन साल की नन्ही पूजा खम्भे के नीचे खड़े होकर अपनी पूरी ताकत लगा कर चीख रही थी। वह उसे तब तक पीटता रहा जब उस दलान से भाग कर उसकी मां ने आकर उसका हाथ नहीं पकड़ लिया।‘…… अरे क्या जान से मार डालेगा।’ अम्मा ने धोती उठाकर रीता पर डाल दी और खम्भे में बंधे उसके हाथ पैर खोल दिये। रीता निढाल होकर उसी ढलान वाली फर्श पर लुढ़क गयी।
अपनी जि+न्दगी में रीता कई बार उस खम्भे से बांध कर पीटी गयी। हर बार पूजा कातर भाव से अपनी मां को पिटते देखती। हर बार वह पहले से ज्यादा लम्बी हो जाती। आखिरी बार जब मोहर सिंह ने रीता को खम्भे से बांध कर मारने का प्रयास किया तो उसने आगे बढ़ कर अपने पति का हाथ कस कर पकड़ लिया। ‘खबरदार जो आगे बढ़े…. हाथ तोड़ कर रख दूंगी…हां…..।’
इस बीच रीता तीन और बच्चों की मां बन गयी थी और काफी मजबूत और समझदार हो गयी थी। अब सारा घर उसकी मेहनत से चल रहा था। वह घर की बहू जरूर थी पर खेतों में काम करने जाती। अपने बच्चों का पेट भरने के लिए मेहनत मजूरी करने में कोई हर्ज नहीं है। वह जितना मेहनत करती उसकी आन्तरिक ताकत उतनी ही मजबूत होती जाती। उधर निकम्मा मोहर सिंह भीतर ही भीतर और अधिक कमजोर होता जा रहा था। आज उसकी हिम्मत नहीं थी कि वह रीता की ओर आंख उठा कर देख ले।
पर पूजा आज भी भीतर वाले कमरे में जाने से डरती। ‘मम्मी जा खम्भा निकरवा देओ या घर मा से। हम जब देखत हैं हमे डर लगन लगत है….जामे ही तो बांध के पापा तुम्हे मारत हते……..। मम्मी जाके निकरवा देओ…..।’ पूजा अकसर अपनी मां से इसरार करती। उसकी मां हंस के रह जाती। ‘….. अरे खम्भा निकरवाए दंे तो छत कामे टिकी रहे…..।’ लेकिन पूजा देर तक सिहरती खड़ी रहती।
‘……..मम्मी आज पापा नहीं देखाय दे रहे। कहां चले गए…………‘ शाम को स्कूल से लौट कर पूजा ने रीता से पूछा। ‘कहीं रिस्तेदारी में गए हैं…कह रहे थे कोउ ने बुलाओ है किसी काम से..’ रीता ने जवाब दिया। ‘जे पापा कबसे काम करन लगे..’ पूजा ने हंसते हुए कहा। ‘अब भगवान जाने….’ कहकर रीता अपने काम में लग गयी। पूजा भीतर वाले कमरे में स्कूल की ड्रेस बदलने चली गयी।
रात को रोटी बन जाने के बाद मोहर सिंह घर वापस लौटे और भीतर के कमरे में पड़ी चारपाई पर जाकर बैठ गये। पूजा बाहर वाले कमरे में ढिबरी की रोशनी में पढ़ाई कर रही थी। उसने झांक कर देखा उसकी मां नल से लोटे में ठण्डा पानी भर कर उसके पापा को पकड़ा रही थी। पानी पीते हुए मोहर सिंह ने रीता से कहा-‘लाओ मुंह मीठा कराओ, हम तुम्हारी मोढ़ी की बात पक्की कर आए हैं।’ ‘का ऽ ऽ ऽ……’ रीता को तो जैसे करेंट लग गया। ‘पर अभी तो वह छोटी है। पढ़ रही है स्कूल में। अभी इतनी जल्दी का हती तुम्हें….।’
बाहर पूजा ने सुना तो चैंक पड़ी। ये उसके पापा क्या कह रहे हैं। कापी किताब उसके हाथ से छूट गयी। उसके ज+हन में खम्भे से बंधी उसकी मम्मी की तस्वीर घूमने लगी। वह एक दम से लपक कर भीतर आयी और ज+हर बुझे स्वर में अपने पापा से कहा-‘…का कह रहे हो पापा…हमारे लिए रिस्ता पक्का कर आए? घर द्वार खूब अच्छी तरह से देख लयी है के नहीं? कितने खम्भे हैं उनके घर में, जामे बांध कर बे तुम्हारी मोढ़ी को स्वागत करैंगे?’
मोहर सिंह के हाथ से लोटा छूट गया और कमरे की ढलान वाली फर्श पर लुढ़कता हुआ जा कर खम्भे से टिक गया………….।
कृति