
अभी-अभी रामचन्द्र गुहा की किताब ‘इन्डिया आफ्टर गांधी’ का हिन्दी अनुवाद ‘भारत गांधी के बाद, दुनिया के विशालतम लोकतन्त्र का इतिहास’….पढ़ कर खत्म की। पूरी किताब को पढ़ते वक्त दिमाग में अनेकों सवाल उमड़ते घुमड़ते रहे। हालांकि यह भी सही है कि पाठक की भी अपनी दृष्टि होती है और उसके सवाल भी उसी जमीन से उठते हैं।
मेरा मानना है कि कोई भी इतिहासकार इतिहास लिखते वक्त निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसके पूरे लेखन में उसकी विश्वदृष्टि अन्तर्निहित रहती है। उसी के हिसाब से वह तथ्यों के अम्बार से तथ्य चुनता है और अपने लेखन में उन तथ्यों को सजाता है। रामचन्द्र गुहा ने भी अपनी इस किताब में अपने चुने हुए तथ्यों को बहुत खूबसूरती से सजाया है। लेकिन उनकी इतिहास दृष्टि के विषय में कुछ चीजें बहुत साफ हैं और यह पूरी किताब में बिटवीन द लाइन्स चलती रहती हैं।
चूंकि यह किताब टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ी। इस लिए सिलसिलेवार इस पर कुछ लिखना सम्भव नहीं है। लेकिन कुछ बिखरे हुए नोट्स शेयर करना चाहती हूं।
इस किताब से यह स्पष्ट होता है कि गुहा की कांग्रेस और भारतीय लोकतन्त्र पर अतिरिक्त आस्था है। आज+ादी की लड़ाई के कुछ चुभते हुए सवाल उन्हें नहीं नज+र आते। आजादी की लड़ाई में कांगे्रस ने किस तरह एक सम्भावनाशील परिवर्तन को समझौते में तब्दील कर दिया और गांधी नेहरू समेत सभी कद्दावर नेता अन्त तक अंग्रेजों के साथ वार्ता की मेज पर बैठते रहे और समझौता करते रहे। अन्ततः भारतीय ‘आजादी’ ब्रिटेन की संसद में पारित एक अधिनियम के माध्यम से उपहार स्वरूप दी गयी। विभाजन की कीमत पर मिली ‘आजादी’ को उन्होंने स्वीकार किया। दूसरी तरफ इस देश की जनता तहे दिल से ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ रही थी। कुर्बानी दे रही थी। सन 1942 मंे शुरू हुए भारत छोड़ो आन्दोलन ने न सिर्फ अंग्रेजों बल्कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भी भयभीत कर दिया था। हालांकि सरकारी इतिहास में यह आन्दोलन कांग्रेस के नाम पर दर्ज है। जबकि सत्य यह है यह आन्दोलन कांग्रेस की गिरफ्त से निकल चुका था। कई जिलों ने स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया था। इन सबमंे कांग्रेस को सत्ता की जमीन सरकती नज+र आयी। इसके बाद लगातार हुयी घटनाओं ने अंग्रेजों को आक्रान्त कर दिया। उतने ही भयभीत थे कांग्रेस के नेता। जिन्हें जनता के क्रान्तिकारी हो जाने का ‘खतरा’ सता रहा था। 1946 में हुए नौसेना विद्रोह ने इसे और पक्का कर दिया। अंग्रेजों ने अपने असली वरिसों को सत्ता हस्तांतरित करके जाने में ही भलाई समझी। सम्राज्यीय भूख कभी शांत नहीं होती। इतने साल भारत की जनता को निचोड़ने के बाद अपना लाभ कांग्रसी नेतृत्व के हाथ मंे सुरक्षित करके वे यहां से चलते बने। बदले में छोड़ गये विभाजन का दंश जिसे आज भी भारत पाकिस्तान की जनता झेल रही है।
रामचन्द्र गुहा विभाजन के लिए स्पष्ट तौर पर जिन्ना, मुस्लिम लीग और मुसलमानों को दोषी मानते हैं।
जबकि हकीकत यह है कि मुल्क का विभाजन, यहां पर साम्राज्यवाद की जीत और कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन की सबसे बड़ी विफलता है। रामचन्द्र गुहा बेहद बारीकी से गांधी और नेहरू की वन्दना करते हैं और विभाजन के लिए कांग्रेस, गांधी, नेहरू और यहां तक कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद को कहीं से भी दोषी ठहराने की जहमत नहीं उठाते हैं। सच तो यह है कि विभाजन पर हुआ भारतीय इतिहास लेखन इतना अपर्याप्त है कि इतने सालों बाद भी हम उसकी पूरी हकीकत को कभी नहीं जान सकते। यहां तक कि भारत सरकार ने विभाजन से सम्बन्धित ढेर सारी सामग्री अभी भी बन्द रखी है। उसे इतिहासकारों तक के लिए भी सार्वजनिक नहीं किया गया है। आइए देखते हैं विभाजन के मद्देनज+र रामचन्द्र गुहा की इतिहास की हिन्दू दृष्टि-
‘‘सन 1946-47 में हुए खून खराबे ने यही जाहिर किया कि मुसलमान ही वह समुदाय था जो हिन्दुओं के वर्चस्व वाली कांग्रेसी सरकार के अधीन आराम से और शान्तिपूर्ण तरीके से रहने को तैयार नहीं था।’’
इस देशभक्त, हिन्दू इतिहासकार की कलम कभी भी बंटवारे के लिए बहुसंख्यक हिन्दू, कांग्रेस और उसके पैरोकार गांधी-नेहरू के प्रति कटु नहीं होती है। पंक्तियों के अन्तराल में यह पुस्तक अपनी अन्तर्वस्तु में बहुत बारीकी से साम्प्रदायिक है।
राष्ट्रभक्त गुहा की इतिहासदृष्टि राष्ट्रीयता का सम्मान करना नहीं जानती। इतिहास के सचेत पाठक इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि भारत एक राष्ट्र नहीं अनेकों राष्ट्र-राष्ट्रीयताओं का समुच्चय है। साम्राज्यवादियों ने बहुत चालाकी से इन राष्ट्रों के सामने विकल्प रखा कि वे या तो भारत या पाकिस्तान में विलय कर सकते हैं या आज+ाद मुल्क के बतौर रह सकते हैं। सत्ता हस्तांतरण के वक्त भारत में 500 से अधिक देशी रियासतें थींं। गुहा ने इन रियासतों की तुलना उन सेबों से की है जिसे ‘महान’ वल्लभभाई पटेल एक-एक करके भारत की टोकरी में सजाते जा रहे थे। वल्लभभाई पटेल का महिमामण्डन करने में कहीं-कहीं तो गुहा पटेल से भी ज्यादा राष्ट्रभक्त लगने लगते हैं। गुहा ने पटेल का जो तस्वीरांकन किया है, कहीं कहीं पर वह उनके नायक गांधी-नेहरू से भी विशाल हो जाती है। गुहा इतिहास की ऐसी तस्वीर पेश करते हैं जिसमें यह लगता है कि जो देशी रियासत भारत के साथ नहीं आना चाहती थी, वह गुनहगार थी।
कश्मीर एवं उत्तरपूर्व के प्रति भी गुहा की इतिहासदृष्टि एक हिन्दू राष्ट्रभक्त की कहानी ही कहती है। जैसा कि गुहा कहते हैं-‘यह किताब मानवता के छठे हिस्से की कहानी कहने का एक प्रयास भर है।’ गुहा जिस किस्सागोई के अन्दाज में इतिहास कहते हैं वह सचमुच अन्त तक बांधे रहता है।
आज जब सबाल्टर्न इतिहास या यों कहें कि इतिहास को नीचे से देखने की दृष्टि इतिहास की एक प्रमुख धारा बन चुकी है। ऐसे मंे इतिहास को ऊपर से देखने की या कहें तो शासक वर्ग की निगाह से देखने की रामचन्द्र गुहा की दृष्टि क्षुब्ध करती है।
कुल मिला कर रामचन्द्रगुहा के इतिहासलेखन की दृष्टि भारतीय मिथकों में प्रयुक्त विषकन्या सी प्रतीत होती है।