एक वसीयत का पुनर्पाठ – सुधीर विद्यार्थी

उस संगोष्ठी में सिर्फ दस लोग थे, जिसे छोटे-से शहर शाहजहांपुर में शहीदे-आजम भगत सिंह की बहन अमर कौर की स्मृति में आयोजित किया गया था। वहां आयोजकों ने भगत सिंह और बीबी अमर कौर की तस्वीरें भी लगाई थीं। अमर कौर के नाम और काम को आमतौर पर लोग नहीं जानते। वे जब जीवित और सक्रिय थीं, तब भी उन्हें जानने वाले कम थे। उनका परिचय भगत सिंह की बहन के रूप में था, पर वे क्रांतिकारी चेतना से लैस एक लड़ाकू महिला थीं। अपने भाई से तीन वर्ष छोटी अमर कौर 23 मार्च 1931 को भगत सिंह की फांसी के बाद ‘झल्लों’ की तरह हुसैनीवाला में उस ओर दौड़ पड़ीं, जहां ब्रिटिश सरकार ने उनके ‘वीर जी’ (भाई) का अंतिम संस्कार कर दिया था। अपने शहीद भाई के शरीर की हर छोटी चीज को वे स्मृति के तौर पर उस स्थान से संजो लार्इं और उस रास्ते पर चलने की कसम खा ली जो भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का था।
1945 में ब्रिटिश सरकार के विरोध में भाषण देने के आरोप में अमर कौर डेढ़ साल कैद में रहीं। आजादी और विभाजन के बाद उन्होंने अपना अधिकांश समय शरणार्थियों और खासकर विस्थापित स्त्रियों के पुनर्वास में लगाया। 1956 में मजदूर-किसानों की मांगों के साथ उन्होंने पैंतालीस दिन की भूख हड़ताल की। फिर 1978 आया, जब पंजाब में ‘जम्हूरी अधिकार सभा’ में उनकी सक्रियता को हमने नए रूप में देखा। उन दिनों पुलिस दमन के विरोध में वे उग्र होकर लड़ रही थीं। पंजाब की धरती पर आतंकवाद के खिलाफ वे हिंदू-सिख सद्भाव की साझी विरासत का झंडा लेकर आगे बढ़ीं। मेरे देखते आठ अपै्रल 1983 को उन्होंने खतरा उठा कर सरकारी नीतियों के विरोध में संसद में घुस कर परचे फेंके। वहीं गिरफ्तार हुर्इं। 1929 में इसी दिन भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने तब दिल्ली की केंद्रीय असेंबली कही जाने वाली वर्तमान संसद में ‘बहरों के कान खोलने के लिए’ बम विस्फोट किया था। स्वतंत्र भारत में संसद के जनविरोधी चरित्र को उजागर करने के लिए एक महिला का जीवंत हस्तक्षेप वहां बैठे जन प्रतिनिधियों ने खुद देखा, पर उसे अनसुना कर दिया। इनमें वामपंथी भी थे। संसद में फेंका गया वह परचा आजाद हिंदुस्तान में किसी महिला की ओर से जनपक्षीय अधिकारों का मुखर दस्तावेज है, जिसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। बारह मई 1984 को जब अचानक अमर कौर का निधन हुआ तो कुछ ही लोगों ने जाना कि जनवाद की सशक्त पक्षधर एक औरत कितनी गुमनाम मौत मर गई।
उस संगोष्ठी में अमर कौर की याद के साथ उनकी वसीयत का भी पुनर्पाठ हुआ, जिसे वे देश के नौजवानों के नाम लिपिबद्ध कर गई थीं। उस ऐतिहासिक दस्तावेज में प्रचलित अर्थ में किसी संपत्ति की मिल्कियत की घोषणा नहीं है, बल्कि वहां देश और समाज की चिंता के साथ शहीदों के आदर्शों और भविष्य के क्रांतिकारी संघर्ष की एक संक्षिप्त, लेकिन विचारोत्तेजक अनुगूंज है जहां एक स्त्री जमीन-जायदाद के बंधनों और दुनियावी रिश्तों से मुक्त सिर्फ देश और समाज के नवनिर्माण के लिए क्रांतिकारियों के सपनों का ताना-बाना बुनती है और नई पीढ़ी के हाथों में इंकलाब की मशाल थमाना चाहती है। अपनी वसीयत में उन्होंने दर्ज किया है- ‘1929 में मजदूरों और किसानों को कुचलने के लिए अंग्रेज जिन कानूनों को लोगों पर थोपना चाहते थे, जिसके खिलाफ भगत सिंह और दत्त ने असेंबली में बम फेंका था, वही कानून आज श्रमिक और ईमानदार वर्गों पर थोपे जा रहे हैं। यही देखने मैं आठ अपै्रल 1983 को संसद में गई थी कि वहां क्या होता है। यह देख कर मुझे बहुत दुख हुआ कि संसद एक कबूतरखाना लगती थी।’ फिर भी अमर कौर के भीतर यह उम्मीद जिंदा थी कि कई बार चारों ओर अंधेरा फैला हुआ लगता है, लेकिन कुछ दृढ़ कोशिशें हमेशा आने वाले समय के लिए मददगार साबित होती हैं।
इस ऐतिहासिक वसीयतनामे के अंतिम शब्द उस क्रांतिकारी महिला के सोच और उनकी दृष्टि का अद्भुत साक्ष्य हैं- ‘मेरे मरने के बाद कोई धार्मिक रस्म न की जाए। प्रचलित धारणा है कि गांवों में मेहनतकश दलित लोगों को मुरदा शरीर को छूने नहीं दिया जाता, क्योंकि इससे स्वर्ग में जगह नहीं मिलती! इसलिए मेरी इच्छा है कि मेरी अर्थी उठाने वाले चार आदमियों में से दो मेरे इन भाइयों में से हों, जिनके साथ आज भी सामाजिक अत्याचार हो रहा है।’
‘मरने के बाद मेरी आत्मा की शांति के लिए अपील न की जाए, क्योंकि जब तक लोग दुखी हैं और उन्हें शांति नहीं मिलती, मुझे शांति कैसे मिलेगी!’
‘मेरी राख भारत की ही नहीं, इस द्वीप की साझी जगह हुसैनीवाला, सतलज नदी में डाली जाए। 1947 में अंग्रेज जाते समय हमें दो फाड़ कर खूनोखून कर गया था। पिछले समय मैं सीमापार के भाइयों से मिलने को तड़पती रही हूं, लेकिन कोई जरिया नहीं बन पाया। पार जा रहे नदी के पानी के साथ मेरी याद उस ओर के भाई-बहनों तक भी पहुंचे।’
क्या अमर कौर की इस वसीयत का पुनर्पाठ आज नई पीढ़ी के बीच संभव है? गौरतलब है कि दुर्गा भाभी और अमर कौर जैसी क्रांतिकारी महिलाओं का दृष्टिबोध और उनका सामाजिक हस्तक्षेप वर्तमान स्त्री-विमर्श से बाहर है। जानने योग्य है कि अमर कौर के लिए स्त्री-मुक्ति का रास्ता देश और समाज की मुक्ति के भीतर से ही जाता है। उनके सपनों में अकेले स्त्री की आजादी कहीं नहीं है।
‘जनसत्ता’ से साभार

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