प्रथम-विश्वयुद्ध की 100 वीं बरसी पर Dr. Jacques Pauwels की नई किताब “The Great Class War of 1914-1918” का सारांश
विश्व युद्ध 1914 की गर्मियों में अचानक शुरु नही हुआ। और ना ही यह कोई सामूहिक ‘मूर्खता’ का परिणाम था। इस युद्ध की पृष्ठभूमि पिछले कई वर्षो से बन रही थी और इस युद्ध की कामना की जा रही थी। यूरोप का अभिजात्य वर्ग इस युद्ध की कामना कर रहा था और वही इसे अनावश्यक रुप से छेड़ रहा था। इस अभिजात्य वर्ग में बड़े जमीन्दार, औद्योगिक और वित्तीय पूंजीपति सहित पूंजीपति का ऊपरी हिस्सा शामिल था। इस युद्ध की कामना ना सिर्फ जर्मनी का अभिजात्य वर्ग कर रहा था वरन् इस खूनी संघर्ष में शामिल सभी देशों के अमीर लोग कर रहे थे। ये ‘सज्जन’ लोग युद्ध में ‘नींद में चलते हुए’ नहीं आये थे, बल्कि खुली आंखों से और स्पष्ट उदद्ेश्य के साथ शामिल हुए थे। यूरोप के अभिजात्य वर्ग ने सोचा था कि यह युद्ध उनके लिए काफी लाभदायक सिद्ध होगा।
उनका सोचना था कि यह युद्ध, राजनीतिक-सामाजिक जनवादीकरण की उस प्रक्रिया को रोक देगा जो 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति से शुरु हुई थी। दूसरे शब्दों में कहें तो इस युद्ध के माध्यम से अभिजात्य वर्ग उस निम्न वर्ग पर लगाम लगाना चाहता था जो उनकी सत्ता, संपत्ति और विशेषाधिकार के लिए निरन्तर खतरा बनते जा रहे थे।
अभिजात्य वर्ग के दिमाग में यह भी था कि इस युद्ध के माध्यम से वे सामाजिक क्रान्ति के भूत को हमेशा-हमेशा के लिए दफ्न कर देंगे। पूंजीपति वर्ग के दिमाग में यह भी था कि इस युद्ध से उन्हे काफी आर्थिक फायदा मिलेगा, विशेषकर मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) का वह क्षेत्र जो तेल जैसे महत्वपूर्ण कच्चे माल का भंडार था।
यह इतिहास की एक महत्वपूर्ण विडंबना है कि चार साल के अप्रत्याशित खून खराबे के बाद विश्व युद्ध का जो परिणाम सामने आया वह अभिजात्य वर्ग की अपेक्षाओं व उनके सपनों के एकदम विपरीत था। विश्व युद्ध के बाद लगभग सभी युद्धरत देश क्रान्तिकारी सुनामी की चपेट में थे। रूस में क्रान्ति सफल हो चुकी थी। और दूसरी जगह इसे तभी रोका जा सका जब जल्दीबाजी में सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर वे जनवादी सुधार क्रियान्वित करने पड़े जिसके बारे में वे मानते थे कि युद्ध इनकी संभावना को खत्म कर देगा। जैसे- सार्विक मताधिकार और आठ घण्टे काम। बाद में इस जनवादी ज्वार को पलटने की कोशिश में ही फासीवाद का उदय हुआ जिसने एक नये विश्व युद्ध को जन्म दिया। इसे कुछ इतिहासकार 20वीं सदी के ‘तीस वर्षीय युद्ध’ का दूसरा भाग कहते हैं।
पहला विश्वयुद्ध 19वीं शताब्दी की संतान था और इस रुप में यह 20वीं शताब्दी के पिता के रुप में अपने आपको प्रकट किया।
[http://www.globalresearch.ca से साभार]