आपने अपने टीवी स्क्रीन पर ‘दो बूंद जिंदगी की’ का प्रचार जरुर देखा होगा। यह प्रचार ‘पोलियो’ के टीके का है। ‘अमिताभ बच्चन’ इसके ब्राण्ड अम्बेसडर हैं। भारत में और पूरी दुनिया में टीकाकरण का बहुत ही आक्रामक प्रचार किया जाता है और निश्चित समय पर टीकाकरण अभियान भी लिया जाता है। ऐसा लगता है कि यही एक काम सरकार बेहद ईमानदारी से करती है। और इससे किसी को दिक्कत भी नही है। सभी लोग अपने नन्हे मुन्ने बच्चों को भावी बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण के लिए सरकारी अस्पतालों में लाइन में लगे रहते हैं और जिनके पास पैसा है वे निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं। यह सब सामान्य गति से चल रहा है। लेकिन यदि कोई आपसे पूछे कि क्या टीकाकरण का कोई गम्भीर साइड इफेक्ट्स भी है तो 99 प्रतिशत लोग यही कहेंगे कि ‘नहीं’। यदि आप भी इन 99 प्रतिशत लोगों में शामिल है तो आपको Silence, on Vaccine: Shots in the Dark नामक डाकूमेन्ट्री जरुर देखनी चाहिए। फिल्म देखकर आपको यह जरुर लगेगा कि 99 प्रतिशत लोगो की यह राय, ‘नोम चोम्स्की’ की भाषा में कहें तो ‘मैनुफैक्चर्ड कन्सेन्ट’ है।
दरअसल पिछले 15-20 सालों की ‘स्वतंत्र शोध’ यह साबित करती हैं कि टीकाकरण के गम्भीर साइड इफेक्ट्स हैं। विशेषकर दिमाग सम्बन्धी ज्यादातर रोगों का सम्बन्ध टीके में पाये जाने वाले तत्वों से है। इस फिल्म में विभिन्न वैज्ञानिकों, वरिष्ठ डाक्टरों और प्रभावित बच्चों के अभिभावकों के हवाले से बताया गया है कि टीकाकरण के ज्यादातर साइड इफेक्ट्स कुछ समय बाद (कभी कभी 15-20 सालों बाद भी) सामने आते हैं। इसलिए ज्यादातर सामान्य डाक्टरों और अभिभावकों के लिए इसे टीके के साइड इफेक्ट के रुप में देखना संभव नही होता। दरअसल ज्यादातर टीकों में ‘मर्करी’ और ‘एल्यूमिनियम’ जैसे हानिकारक तत्व होते हैं, जो शरीर के लिए बेहद हानिकारक होते है। वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों का दावा होता है कि ये हानिकारक तत्व इतनी कम मात्रा में होते है कि शरीर पर इनका कोई बुरा असर नही होता है। लेकिन इस फिल्म में बहुत साफ और सरल तरीके से यह बताया गया है कि भले ही शरीर पर इस अल्प मात्रा का असर उतना ना होता हो, लेकिन हमारे दिमाग के न्यूरान्स को प्रभावित करने के लिए यह ‘अल्प मात्रा’ काफी है। न्यूरान्स के प्रभावित होने से ‘सर दर्द’ से लेकर ‘autism’ ‘मिर्गी’ और ‘अल्जाइमर’ जैसे अनेक रोग हो सकते है। दरअसल मर्करी, एल्यूमिनियम जैसे हानिकारक तत्व दिमाग की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देते है या खत्म कर देते है।
फिल्म में इस पर भी सवाल उठाया गया है कि एक दो साल के बच्चे को जब उसकी प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह विकसित नही हुई होती है तो उसे लगातार टीके की इतनी खुराक देना क्या ठीक है। अमरीका में बच्चे के डेढ़ साल का होते होते 38 टीके लगा दिये जाते है। और कुल टीकों की संख्या वहां करीेब 70-80 के आसपास है। हमारा देश भी इससे ज्यादा पीछे नही है।
फिल्म में एक चार्ट के माध्यम से साफ दिखाया गया है कि जैसे जैसे टीकों की संख्या बढ़ रही है वैसे वैसे विभिन्न तरह की दिमागी बीमारियां बढ़ रही हैं। आज अमरीका में हर 6 बच्चों पर 1 बच्चा किसी ना किसी तरह की दिमागी बीमारी से पीडि़त है। फिल्म में बच्चों को दिये जाने वाले कुछ टीकों को एकदम अनावश्यक बताया गया है। जैसे ‘हेपेटाइटिस बी’ का टीका। जब यह बात सिद्ध है कि हेपेटाइटिस बी रक्त हस्तान्तरण से और सेक्स सम्बन्धों से ही हो सकता है तो फिर इस टीके को बच्चे को देने की क्या जरुरत है।
टीकाकरण का प्रचार सरकारें इस तरह से करती हैं कि सभी देशों में टीकाकरण का कार्यक्रम किसी धार्मिक आयोजनों की तरह होता है। कुछ देशों और उनके राज्यों में तो टीकाकरण कानूनन अनिवार्य है। अमेरिका के कुछ राज्यों में टीकाकरण न कराने वाले अभिभावकों को ‘child abuse’ की धारा में जेल जाने का भी प्रावधान है। योरोप में कुछ स्कूल ऐसे है जो उन बच्चों को अपने यहां एडमिशन ही नही देते जिनका उपयुक्त टीकाकरण नही हुआ है।
टीकाकरण के इस आक्रामक अभियान से टीके से मरने वालों की संख्या भी बढ़ने लगी है। इसके कारण से टीका बनाने वाली कंपनियों पर क्षतिपूर्ति के लिए मुकदमों की संख्या भी बढ़ने लगी थी। इसी कारण इन बड़ी कंपनियों के दबाव में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘रोनाल्ड रीगन’ ने 1986 में एक बिल लाकर टीका बनाने वाली कंपनियों को इससे बरी कर दिया। यानी अब टीके से होने वाली मौतों और उनके साइड इफेक्ट्स के लिए टीका बनाने वाली कंपनियों को जिम्मेदार नही माना जायेगा। (अभी हाल में ‘ओबामा’ की भारत यात्रा के दौरान ‘न्यूक्लियर डील’ में भी ऐसा ही एक समझौता हुआ है। यानी कि यहां यदि कोई परमाणु दुर्घटना होती है तो इसके लिए परमाणु रिऐक्टर बनाने वाली कंपनी जिम्मेदार नही होगी।) 1986 में आये इस बिल के बाद नये नये टीकों की बाढ़ सी आ गयी। अभी 200 और टीके इन कंपनियों के पाइप लाइन में हैं। मीडिया में ‘स्वाइन फ्लू’ का जिस तरह से हल्ला मचाया जा रहा है उसके पीछे भी दवा कंपनियों का हाथ हो सकता है। जो शायद स्वाइन फ्लू की टीके के ईजाद में लगी हों।
दवा कंपनियां और उनके फंड से चलने वाली ‘रिसर्च मैगजीनों’ का दावा होता है कि टीके से होने वाली मौतें और उनके साइड इफेक्ट्स इनसे होने वाले फायदों की तुलना में काफी कम है। सवाल है कि यह ‘काफी कम’ कितना है। कितनी मौतों और कितने साइड इफेक्ट्स के बाद यह ‘काफी कम’ की परिधि से बाहर निकलेगा। भारत में तो अभी तक ना ही इन चीजों पर कोई बहस है और ना ही टीकाकरण से होने वाली मौतों और उनके साइड इफेक्ट्स को नोटिस में लिया जाता है। इन खबरों को धार्मिक काम में व्यवधान की तरह देखा जाता है।
दरअसल इन सारी चीजों के पीछे जो चीज काम कर रही है, वह है दवा कंपनियों का अकूत मुनाफा। अनिवार्य टीकाकरण की नीति के कारण टीकों की सबसे बड़ी खरीददार सरकारें हैं। इसी कारण 2013 में विश्व भर में टीके का कुल कारोबार करीब 25 बिलियन डालर था। और इसके 90 प्रतिशत कारोबार पर सिर्फ 5 दवा कंपनियों (सानोफी, मर्क, फाइजर, ग्लैक्सो, नोवार्तिस) का कब्जा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के माध्यम से ये कंपनियां दुनिया भर की सरकारों की स्वास्थ्य नीतियों को अपने हित में प्रभावित करती हैं। अमरीका में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अमरीकी सदन में लाबिंइग में दवा कंपनियां तेल कंपनियों से भी ज्यादा पैसा खर्च करती है। यही नही दुनिया भर के प्रतिष्ठित जर्नल और शोध संस्थानों को ये दवा कंपनियां ही फंड करती हैं। दुनिया भर के डाॅक्टर एक तरह से इन दवा कंपनियों के क्लर्क की भूमिका में काम करते हैं। भारत में आप इसे डाॅक्टर, दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव और दवा की दुकानों के गठजोड़ में देख सकते हैं। इसी मजबूत गठजोड़ के कारण भारत में जेनेरिक दवाओं का अभियान हर बार दम तोड़ देता है।
इसी सन्दर्भ में यूरोप का ही एक उदाहरण पर्याप्त है। ‘Andrew Wakefield’ का एक रिसर्च पेपर प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘The Lancet’ में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होने टीके विशेषकर ‘चेेचक’ और ‘एमएमआर’ टीेके तथा एक दिमागी बिमारी ‘autism’ के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध दर्शाया था। यह शोध उन्होने उन बच्चों के सिम्टम का अध्ययन करके किया गया था, जिन्हे ये टीके लगे थे और तत्पश्चात उन्हे ‘autism’ की बीमारी का सामना करना पड़ा था। इस शोध पत्र के प्रकाशित होते ही दवा कंपनियां हरकत में आ गयी। पहले ‘The Lancet’ ने इस शोध पत्र से अपने आप को अलग कर लिया और कहा कि यह रिसर्च एक ‘फ्राड’ है। बाद में ब्रिटिश सरकार ने Andrew Wakefield पर तीन दर्जन मुकदमें ठोक दिये। और आश्चर्यजनक रुप से उन बच्चों के शोषण का आरोप उन पर मढ़ दिया जिन बच्चों पर डाक्टर ने अपना रिसर्च किया था। और अन्त मे ब्रिटेन के ‘मेडिकल काउन्सिल’ ने Andrew Wakefield का लाइसेन्स रद्द कर दिया। यानी अब वे ब्रिटेन में प्रैक्टिस नही कर सकते थे। फिल्म का यह हिस्सा काफी महत्वपूर्ण है।
मशहूर डायरेक्टर Lina B. Moreco की यह फिल्म शुरु में ही यह स्पष्ट कर देती है कि यह फिल्म सैद्धांतिक रुप से टीकाकरण के खिलाफ नही है। लेकिन मूल सवाल यह है कि टीका के साइड इफेक्ट्स के बारे में शोध ना के बराबर है। बल्कि ये कहना ज्यादा सही होगा कि अपनी मुनाफे की हवस के कारण ना सिर्फ ऐसे शोधों को हतोत्साहित किया जाता है बल्कि सरकारों और मीडिया के साथ गठजोड़ करके इन सवालों को ही ब्लैकआउट कर दिया जाता है। शायद उनकी मंशा एक ऐसे टीके का ईजाद करने की है जिसके लगने के बाद आदमी सवाल पूछना ही बन्द कर दे।
बहरहाल आप यह बेहतरीन फिल्म यहां देख सकते हैं।
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