पिछले दिनों खबर आयी कि महाराष्ट्र सरकार सूखे से निपटने के लिए कृत्रिम बारिश कराने जा रही है। इसके लिए उसने आवश्यक तकनीक भी आयात कर ली है। जिसका दाम निश्चित ही लाखों डालर में होगा। आपको शायद याद होगा कि बीजिंग ओलंपिक में चीन ने ‘क्लाउड सीडिंग’ तकनीक के माध्यम से ओपनिंग सेरेमनी से पहले ही बारिश करा दी थी ताकि सेरेमनी के दौरान बारिश का खतरा ना रहे। उस समय भी इस तकनीक की काफी चर्चा हुई थी।
प्राकृतिक घटनाओं की तरह ही न्यूज भी कार्य-कारण सम्बन्ध में बंधे होते हैं। उन्हे अलग अलग करके नहीं देखा जा सकता। हर समाचार किसी दूसरे समाचार से इसी रुप में जुड़ा होता है।
चलिए उपरोक्त सामान्य से लगने वाले समाचार को दूसरे समाचारों से जोड़ कर देखते हैं।
इस तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ सरकारें ही नहीं बल्कि प्राइवेट कंपनियां भी अपने हित में कर रही हैं। ऐसी ही एक कंपनी ‘अग्नि एरो’ ने ‘हिन्दोस्तान जिंक’ और ‘वेदान्ता’ के लिए राजस्थान में इनके साइट पर बारिश कराने का ठेका लिया हुआ है। महत्वपूर्ण बात है कि इस तकनीक में दूसरी जगह से बादल को खींच कर लाया भी जा सकता है और मनचाही जगह बारिश करायी जा सकती है। अब हम आप इसकी कल्पना ही कर सकते हैं कि वेदान्ता के साइट पर बारिश कराने के लिए किस-किस गांव के खेतों के ऊपर से बादलों को खींचा जायेगा। अब यह साइन्स फिक्शन की बात नही रही। यह यथार्थ बन चुका है। यह बात अलग है कि हमारे मुख्य धारा के मीडिया के लिए इसकी कोई ‘न्यूज वैल्यू’ नही हैं।
कमजोर मानसून से हम और हमारा किसान दुःखी होता हैं। लेकिन क्लाउड सीडिंग (कृत्रिम बारिश) कराने वाली एक कम्पनी ‘क्याथी’ (इसका प्रमुख अमेरिकी कम्पनी ‘वेदर माडिफिकेशन’ के साथ गठजोड़ है।) के डायरेक्टर ‘प्रकाश कोलीवाड’ का यह बयान देखिये- ‘‘कमजोर मानसून और क्लाउड सीडिंग की बेहतर तकनीक और लोगो की सजगता के कारण हमारा बिजनेस इस बार काफी अच्छा रहेगा। हमें उम्मीद है कि हमारा बिजनेस इस वर्ष 20-25 प्रतिशत तक बढेगा।’’
क्लाउड सीडिंग तकनीक से बारिश कराने का पहला दर्ज प्रयोग अमेरिका ने किया। लेकिन किसी खेत को सींचने के लिए नही बल्कि वियतनाम के गुरिल्लों को बारिश की बाढ़ में बहा देने के लिए। यह अलग बात है कि अमेरिका की इस बारिश में वे तो नही बहे लेकिन उनके गुरिल्ला संघर्षों की बारिश से अमरीका जरुर बह गया। खैर
क्लाउड सीडिंग, ‘वेदर माडिफिकेशन’ तकनीक का एक छोटा हिस्सा भर है। सच तो यह है कि वेदर माडिफिकेशन अपने आपमें एक वृहद प्रोजेक्ट है। वास्तव में यह जीओ इंजीनियरिंग (Geo Engineering) के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है। इस पर इस समय अब तक की सबसे बड़ी रिसर्च चल रही है। और हमेशा की तरह इसका अगुआ भी अमरीका ही है। कुछ लोग तो इसे ‘‘मैनहटन प्रोजेक्ट-2’’ (पहले मैनहटन प्रोजेक्ट मे परमाणु बम बनाया गया था।) की संज्ञा दे रहे हैं। पहले मैनहटन प्रोजेक्ट की तरह ही यह प्रोजेक्ट भी काफी गुप्त रखा गया है। आपको पता ही होगा कि परमाणु बम गिराने के बाद भी काफी समय तक अमरीका ने दुनिया से यह छुपाया कि यह परमाणु बम था। बहरहाल इस प्रोजेक्ट को ‘अमरीकी नेवी’ और ‘अमरीकी एयर फोर्स’, प्राइवेट डिफेन्स कम्पनियों के साथ मिलकर चला रही हैं। इसमें ‘रेथान’ (Raytheon) जैसी डिफेन्स सेक्टर की बड़ी प्राइवेट कम्पनियां हिस्सा ले रही है। इसके अलावा इनसे सम्बन्धित रिसर्च प्रोजेक्ट में ‘बिल गेट्स’ और ‘वारेन बफेट’ जैसे निवेशकों का काफी पैसा लगा हुआ है और ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ (Genetic Engineering) के क्षेत्र में कार्यरत ‘मोनसान्टो’ जैसी कुख्यात कम्पनियां भी इससे नाभिनाल बद्ध हैं।
आइये देखते हैं कि पूरा परिदृश्य क्या है।
‘ग्लोबल वार्मिंग’ के बढ़ते खतरे को देखते हुए पूरी दुनिया में इस पर चिन्ता जाहिर की जाती रही है। इस पर बड़े बड़े सेमीनार होते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी इससे निपटने के लिए समय समय पर कई रणनीतियां बनायी हैं। उनमें से एक है -‘क्योटो प्रोटोकाल’। 1992 में हुए इस करार पर अनेक देशों के हस्ताक्षर है, जिनकी प्रतिबद्धता है कि वे ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार गैसों का उत्सर्जन कम करेंगे। मजेदार बात है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार देश अमरीका ने इस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया।
अमरीका ने इसी समय दुनिया को बताया कि वह ऐसी तकनीक पर काम कर रहा है जिससे उद्योगों से बिना गैसों का उत्सर्जन कम किये भी ग्लोबल वार्मिंग को कम किया जा सकता है। इसमें से एक है- हमारे वायुमंडल के ऊपरी हिस्से (Ionosphere) में सूक्ष्म धातुओं (आमतौर से ‘अल्युमिनियम’-‘बेरियम’ के नैनो पार्टिकिल्स) का राकेटों या जेट के द्वारा छिड़काव। ये सूक्ष्म कण सूर्य से आने वाली किरणों की एक बड़ी मात्रा को वापस रिफलेक्ट कर देगे और जिससे सूर्य की गरमी नीचे नही पहुंच पायेगी और पृथ्वी गरम नही होगी। आपने अक्सर आकाश में जहाज के पीछे सफेद धूयें की एक लंबी लकीर सरीखी देखी होगी। इसके बहुत से कारण हो सकते है। लेकिन इसका एक बड़ा कारण अमरीका व उसके सहयोगी देशों का यह प्रयोग भी है। इसे ही ‘केमट्रेल’ (Chemtrail) कहते है यानी वायुमंडल के ऊपरी हिस्से (Ionosphere) में अल्यूमिनियम व बेरियम जैसे तत्वों का छिड़काव।
लेकिन दुनिया के बहुत से जनपक्षधर व गंभीर वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग की बात एक बहाना है। अमेरिका इसकी आड़ में ‘वेदर माडिफिकेशन’ या ‘जीओ इंजीनियरिंग’ तकनीक का इस्तेमाल अपने सैन्य हितो के लिए कर रहा है। और अब यह प्रयोग की स्थिति से निकल कर क्रियान्वयन की स्थिति मे पहुंच गया है। अब प्रयोग ‘वेदर माडिफिकेशन’ पर नही बल्कि ‘वेदर कन्ट्रोल’ पर क्रेद्रित हो गया है। और यह सब बहुत ही गुपचुप तरीके से हो रहा है। ठीक उसी तरह जैसे परमाणु बम का निर्माण बहुत गुपचुप तरीके से हुआ था।
यह बात और भी साफ हो गयी जब 1996 में अमरीकी रक्षा मंत्रालय ने एक दस्तावेज जारी किया-‘Weather as a Force Multiplier: Owning the Weather in 2025’ जैसा कि नाम से स्पष्ट है इसमें 2025 तक पृथ्वी के वायुमंडल और उसके मौसम पर अमरीका के पूर्ण नियत्रण के लिए वैज्ञानिक विधियों की एक रुपरेखा चित्रित की गयी है, जिस पर काम किया जाना है। इस नियंत्रण के असली निहितार्थो के बारे में भी इस दस्तावेज में पर्याप्त संकेत दिया गया है। दस्तावेज में एक जगह साफ साफ लिखा है-‘‘आर्थिक व सैन्य कारणों से वेदर में माडिफिकेशन करने की योग्यता की जरुरत पड़ सकती है।’’ अमरीका के आर्थिक व सैन्य हित क्या है, यह किसी से छिपा नही है। एक दूसरी जगह वेदर कन्ट्रोल के असली निहितार्थ को काफी खोल कर रखा गया है। इसका अनुवाद मुश्किल हो रहा है। इसलिए इसे मूल अंग्रेजी में ही दे रही हूं-‘‘ Prior to the attack, which is coordinated with forecasted weather conditions, the UAVs begin cloud generation and seeding operations. UAVs [unmanned aerial vehicles] disperse a cirrus shield to deny enemy visual and infrared (IR) surveillance. Simultaneously, microwave heaters create localized scintillation to disrupt active sensing via synthetic aperture radar (SAR) systems such as the commercially available Canadian search and rescue satellite-aided tracking (SARSAT) that will be widely available in 2025. Other cloud seeding operations cause a developing thunderstorm to intensify over the target, severely limiting the enemy’s capability to defend. The WFSE monitors the entire operation in real-time and notes the successful completion of another very important but routine weather-modification mission.’’ (उपरोक्त दोनो उद्धरण प्रसिद्ध पर्यावरण विद् और लेखक Peter A. Kirby के लेख ‘Chemtrails Exposed: A History of the New Manhattan Project’
से)
1992 में अमरीका के अलास्का शहर में HAARP (The High Frequency Active Auroral Research Program) की स्थापना उपरोक्त प्रोजेक्ट के तहत ही हुई थी जो अब पूरी तरह से सक्रिय है। इसकी स्थापना का ठेका डिफेन्स सेक्टर की सबसे बड़ी कम्पनी रेथान (Raytheon) को ही मिला था। यह 360 एन्टीना वाला एक ग्रिड है जहां से पृथ्वी के आयनोस्फीयर (वायुमंडल का ऊपरी हिस्सा) के किसी भी हिस्से को ‘हाई फ्रिक्वेन्सी इलेक्ट्रोमैगनेटिक रेज’ भेजकर गर्म किया जा सकता है और उससे अनुकूल परिणाम निकाले जा सकते है। वातावरण के ऊपरी हिस्से में सूक्ष्म तत्वो का छिड़काव भी वास्तव में इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। ग्लोबल वार्निंग तो बस बहाना है।
globalresearch.ca के संपादक और दुनिया के बड़े जन-बुद्धिजीवी ‘माइकल चसोदवस्की’ तो यहां तक कहते हैं कि पिछले 2 दशकों में दुनिया में मौसम जिस तेजी से बदल रहा है, उसका एक प्रमुख कारण अमेरिका व सहयोगी देशों की यह जीओ इंजीनियरिंग हैं। पिछले 2 दशकों में जितने भी भूकंप, सूनामी, बाढ़, सूखा आदि आये है, उनमें से कुछ इन प्रयोगों के कारण हुए है। वो तो यहां तक कहते हैं कि उनमें कुछ अमरीकी ने अपने राजनीतिक व आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए सचेत तरीके से कराये है। इसमें वे क्यूबा, अफगानिस्तान, ईरान, उत्तरी कोरिया, ईराक, चीन और कुछ अफ्रीकी देशों में आयी विपदाओं का विशेष हवाला देते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि उपरोक्त सभी देश अमरीका के किसी ना किसी रुप में विरोधी रहे हैं या हैं। इसी कारण माइकल चासुदोवस्की वर्तमान जीओ इंजीनियरिंग को ‘‘वेदर वारफेयर (weather warfare)’’ की संज्ञा देते हैं। वे यह महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं कि वर्तमान में जो भी पर्यावरण आन्दोलन है वो जलवायु परिवर्तन के कारण को सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग तक देख पाता है। उसने अपने एजेण्डे में अभी तक इस ‘वेदर वारफेयर’ या ‘जीओ इंजीनियरिंग’ को नहीं रखा है।
सच तो यह है कि अब साम्राज्यवाद के निशाने पर सिर्फ ओजोन लेयर ही नही है बल्कि हमारी पूरी पृथ्वी है। इसलिए पर्यावरण आन्दोलन के दायरे को अब बढ़ाना चाहिए।
बहरहाल माइकल चासुदोवस्की कोई वैज्ञानिक नही हैं। इसलिए हम शायद उनकी बातों को नजरअन्दाज कर दें। हालांकि उनके अध्ययन विभिन्न वैज्ञानिक शोधो पर ही आधारित हैं। लेकिन अमरीका की मशहूर वैज्ञानिक और पर्यावरण एक्टिविस्ट Dr. Rosalie Bertell (‘आइनोस्फीयर रैडियेशन’ पर ही इनका काम है और ये अमरीकी की कई सरकारी शोध संस्थाओं से जुड़ी रही हैं।) की बातों को हम कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। 2010 में दिये एक साक्षात्कार में (जून 2012 में इनकी मृत्यु हुई) उन्होने कहा-‘‘पिछले 60 साल के प्रयोगों से वेदर माडिफिकेशन की तकनीक विकसित हुई है। और अब हम देख रहे हैं कि कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ लोग इसका इस्तेमाल कर रहे है। निश्चित रुप से सभी तूफान (hurricane) मानव निर्मित नही हैं। लेकिन कुछ निश्चित रुप से हैं। और दोनों का अन्तर बताना मुश्किल है। इसी तरह सभी भूकम्प मानव निर्मित नहीं है लेकिन कुछ हैं। चीन में आया एक भूकम्प निश्चित रुप से कराया गया हैं। इसमें हजारों लोग मारे गये हैं। मुझे तिथि याद नहीं है, लेकिन यह 1980 के दशक में कभी हुआ था। यह बहुत भयंकर घटना थी, इसमें भूकम्प के पहले ऊपर प्लाज्मा का निर्माण हुआ था।’’ (25 मार्च 2014 को globalresearch.ca पर प्रसारित साक्षात्कार से)।
Rosalie Bertell ने इसी साक्षात्कार में कृत्रिम भूकम्प पैदा करने की तकनीक भी बहुत सरल तरीके से समझायी। इलेक्ट्रोमैगनेटिक वेव के माध्यम से पृथ्वी के मोल्टेन कोर (molten core) को डिस्टर्ब करके ऐसा किया जा सकता है। और HAARP के पास यह तकतीक है। दरअसल आयनोस्फीयर को गरम करने के लिए जो उच्च फ्रिक्वेन्सी वाली इलेक्ट्रोमैगनेटिक वेव भेजी जाती हैं वे वापस निम्न फ्रिक्वेन्सी वाली इलेक्ट्रोमैगनेटिक वेव के रुप में पृथ्वी पर वापस लौट आती है और जीवित-निर्जीव सभी चीजो को भेदकर पृथ्वी के अन्दर समा जाती हैं। इससे भी पृथ्वी के अन्दर हलचल पैदा होने की संभावना होती हैं। अमरीका और निजी कंपनियां इसका इस्तेमाल पृथ्वी को स्कैन करने के लिए करते हैं ताकि पृथ्वी के अन्दर तेल, गैस व अन्य खनिज चीजों का पता लगाया जा सके। लेकिन पौधों व जीवित प्राणियों पर इन तरंगों का बहुत ही गंभीर असर होता हैं। मनुष्यों में बढ़ रही ‘न्यूरोलाजिकल समस्या’ और कैंसर का इससे गहरा रिश्ता है। इस पर अनेक शोध मौजूद है।
2012 में इण्डोनेशिया में आयी सूनामी के बारे में बहुत से वैज्ञानिकों का मानना है कि इसी समय इण्डोनेशिया के निकट समुद्र में अमरीका अपना यही प्रयोग कर रहा था, जिसके कारण समुद्र के अन्दर पैदा हुए डिस्टर्बेन्स से यह भारी तबाही आयी। 2011 में जापान में आये विनाशकारी भूकंप के बारे में भी कुछ जानकार अमरीका पर सन्देह करते हैं। (इस भूकंप के कारण जापान का एक परमाणु रिऐक्टर तबाह हो गया और लाखों जापानी नागरिक विकिरण के दायरे में आ गये।) गौरतलब है कि अमरीका जापान के ईरान के प्रति दोस्ताना रुख से नाराज था। जापान ईरान को उसके परमाणु कार्यक्रम में भी मदद कर रहा था। 2010 में हैती में आये विनाशकारी भूकम्प के बारे में भी यही सन्देह है क्योकि हैती के निकट भी अमरीका ऐसे ही एक प्रयोग में लगा हुआ था। लेकिन विज्ञान पर कुछ देशों और कम्पनियों के एकाधिकार के कारण इसे ठीक ठीक साबित कर पाना बहुत कठिन हैं।
पूंजीवाद का विनाश के साथ गहरा रिश्ता है और अक्सर ही विनाश पूंजीवाद के लिए मुनाफा लेकर आता है। नोमी क्लेम ने इस रिश्ते को अपनी किताब ‘शाक डाक्ट्रिन’ में बहुत ही बेबाक तरीके से रखा है।
इस वेदर माडिफिकेशन के माध्यम से सम्बन्धित देशों के जलवायु में जो हानिकारक परिवर्तन हुए है उससे अमरीकी कम्पनियां सीधे सीधे लाभान्वित हुई है। इसलिए इन कम्पनियों की भी भूमिका ‘वेदर वारफेयर’ में जरुर होगी। हालांकि हमारे पास इसके स्पष्ट साक्ष्य नहीं हैं लेकिन ‘परिस्थितिजन्य साक्ष्य’ काफी मात्रा में मौजूद हैं। अफगानिस्तान में 1999-2000 में भीषण अकाल पड़ा और अमेरिका 2001 में अफगानिस्तान पर हमले के तुरन्त बाद अफगानिस्तान को जो ‘खाद्य मदद’ दी उसमें बड़ी मात्रा मोन्सान्टों द्वारा पैदा जीएम (genetically modified) अनाज या जीएम बीज था। इस भीषण अकाल में अफगानिस्तान के बहुत से परंपरागत बीज नष्ट हो गये और उन्हे जीएम बीज पर लगातार निर्भर होना पड़ रहा है। इस प्रक्रिया में वहां छोटे और लघु किसान किस मात्रा में बर्बाद हो गये, इसका कोई आकड़ा फिलहाल मौजूद नही हैं। अपने देश में विदर्भ के लगातार सूखे के बाद ही मोन्सान्टो का ‘बीटी काटन’ लाया गया और कहा गया कि ये बीज अकाल प्रतिरोधी हैं। यानी इन्हे बहुत कम पानी की जरुरत है। और नतीजा आप जानते है कि पिछले दशक भर में इन बीजों ने कितने किसानों की जान ली है। किसानों की आत्महत्या का आकड़ा लाख पर चुका था। और यह आज भी बदस्तूर जारी है। इसी तरह से इराक और अफ्रीका के कई देशों में भी अकाल या बाढ़ के बाद वहां जीएम बीज या जीएम खाद्य पहुंचाये गये। और कालान्तर में ये सभी देश अपने खाद्यान्य के लिए इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भर हो गये। यह महज संयोग नही हो सकता कि इसी समय मोन्सान्टो जैसी कम्पनियां अपने यहां ऐसे जीएम बीज तैयार कर रही हैं जो बाढ़ और सूखे के प्रति प्रतिरोधक हों । एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय अमरीका और ब्रसेल्स में करीब 500 ऐसे जेनेटिकली माडिफाइड बीज पेटेन्ट पाने की कतार में हैं, जिनके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि ये बाढ़ और सूखे दोनो मौसम में पूरी फसल देंगी।
यानी जीएम सीड बनाने वाली कम्पनियों का हित इसमें है कि निरंतर सूखे व बाढ़ से दुनिया के परम्परागत बीज नष्ट हो जाये और बीज पर तथा प्रकारान्तर से दुनिया के खाद्यान्य पर चंद कम्पनियों का नियन्त्रण हो जाये। पहले ही इसका जिक्र किया जा चुका है कि मोन्सान्टो जैसी कम्पनियों में बिल गेट्स व वारेन बफेट का काफी निवेश है। और यही लोग जिओ इंजीनियरिंग यानी वेदर माडिफिकेशन तकनालाजी या वेदर वारफेयर तकनालाजी के भी प्रमुख निवेशकों में से है।
‘बिल गेट्स’, ‘राकफेलर फाउन्डेशन’, ‘मोन्सान्टो’, ‘सिनजेन्टा’ कारपोरेशन और नार्वे सरकार मिलकर आर्कटिक समुद्र के पास एक बड़ा बीज बैंक बना रहे है जिसमें दुनिया की तमाम प्रजातियों के बीजों को संरक्षित किया जायेगा। यह बहुत ही सुनियोजित चाल है। एक तरफ ‘जिओ इंजीनियरिंग’ और ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ के माध्यम से जैव विविधता को खत्म किया जा रहा है वही दूसरी तरफ हजारों सालों में हमारे किसानों द्वारा विकसित किये गये बीजों को अपनी तिजोरियों में छुपाया जा रहा है ताकि ‘कयामत के दिन’ इनका इस्तेमाल किया जा सके। ‘कयामत’ शब्द का इस्तेमाल मैने यूं ही नही किया है। दरअसल इस प्रोजेक्ट का अनौपचारिक नाम ही है- ‘doomsday seed vault’
वातावरण में निरन्तर अल्यूमिनियम व बेरियम जैसे तत्वों के छिड़काव के कारण बारिश के साथ ये तत्व नीचे जमीन पर आ रहे हैं और पानी को दूषित कर रहे हैं। अमरीका में कैलिफोर्नियां में एक जगह पानी में एल्यूमिनियम की मात्रा सामान्य से 63 हजार गुना ज्यादा पायी गयी। एल्यूमिनियम का हमारे तंत्रिका तन्त्र पर और बेरियम का रक्त संचालन पर काफी बुरा असर पड़ता है। इससे ‘आटिस्म’ (Autism) ‘कैंसर’ व हृदय संबंधित गम्भीर बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। दूसरी ओर इसके कारण वहां पैदावार पर भी बुरा असर पड़ा है। इसी समय मोन्सान्टो ऐसे बीज मार्केट में उतार रही है जो एल्यूमिनियम प्रतिरोधी है। जीएम खाद्य व जीएम बीज का मानव जाति व पर्यावरण पर कितना खतरनाक प्रभाव पड़ रहा है, इसकी एक अलग ही कहानी है। इसी पृष्ठभूमि में दवा कम्पनियां भी नयी नयी दवाइयां व टीके लेकर मार्केट में उतर रही है। इनकी निगाह इन बीमारियों से अकूत मुनाफा कूटने की है। लेकिन यह कहानी फिर कभी।
‘वेदर वारफेयर प्रोग्राम’ से जुड़ी कुछ निजी कंपनियां ऐसी मशीन के निर्माण के शोध में व्यस्त हैं जो वातावरण में एक निश्चित क्षेत्र से एक निश्चित मात्रा में कार्बन सोख ले। सरल तरीके से यह समझ सकते हैं कि पानी शुद्ध करने की ज्यादातर मशीनें जैसे ‘केन्ट’ आदि की तरह इसे आप अपने घर में लगा सकते है जो आपके घर के आसपास कार्बन की मात्रा को कम रखेगा। इस शोध में भी बिल गेट्स का काफी निवेश है। और खबर यह है कि जल्द ही यह तकनीक पेटेन्ट होने जा रही है। वातावरण जितना प्रदूषित होगा ये मशीनें उतनी ही बिकेंगी। एकदम वाटर फिल्टर की तरह।
दरअसल युद्ध तकनीक और व्यवसाय का यह गठजोड़ काफी पुराना है। आज जो कंपनिया बीज व कीटनाशक क्षेत्रों में है उनमें से अधिकांश प्रथम व दूसरे विश्व युद्ध तथा वियतताम युद्ध में इस्तेमाल जहरीली गैसों के उत्पादन में लगी रही हैं। ‘डू पोन्ट’, ‘मोन्सान्टो, ‘डो केमिकल’ आदि कम्पनियां जहां अमरीका व सहयोगी देशों को जहरीली गैसों की सप्लाई करती थी, वही आज की ‘बायर’ जैसी कीटनाशक क्षेत्र की प्रमुख कम्पनी हिटलर को जहरीली गैस की आपूर्ति करती रही है। डो केमिकल और मोन्सान्टो ने वियतनाम युद्ध के दौरान कुख्यात ‘ऐजेन्ट ओरेन्ज’ गैस और ‘नापाम बम’ की सप्लाई अमरीकी सेना को की थी। ‘शान्तिकाल’ में अब यही कम्पनियां उन्ही जहरीले केमिकल का इस्तेमाल इस पर्यावरण के खिलाफ कीटनाशक के रूप में कर रही हैं। इसी तरह आज की तमाम दवा कंपनियां ‘बायलाजिकल वारफेयर’ में भी सक्रिय हैं और अमरीका व सहयोगी देशों को अपनी सेवायें उपलब्ध करा रही है। ‘इबोला’, ‘एड्स’ व ‘सिफलिस’ जैसी बीमारियां फैलाने में इन दवा कंपनियों की भूमिका अब कई दस्तावेजों में कैद हो चुकी है। इस पर एक लेख इसी ब्लाग के पिछले अंकों में है।
जीओ इंजीनियरिंग के क्षेत्र में आज जो प्रयोग किये जा रहे है, उसमें प्रयोगशाला पूरी पृथ्वी है और पूरी मानव जाति ‘गिनी पिग’। भारत इन प्रयोगों में किस हद तक शामिल है, यह स्पष्ट नही है। लेकिन प्रसिद्ध पर्यावरण विद् ‘वन्दना शिवा’ की माने तो भारत इन प्रयोगों में अमरीका के जूनियर की भूमिका मे पूरे तौर पर शामिल है।
मुनाफे और युद्ध की हवस में साम्राज्यवाद यह तथ्य भी भूल गया है कि अब तक ज्ञात ब्रहमाण्ड में सिर्फ पृथ्वी ही ऐसा ग्रह है जहां जीवन है।
आज से ठीक 99 साल पहले जर्मनी की मशहूर कम्युनिस्ट नेता ‘रोजा लक्जमबर्ग’ ने एक छोटी सी पुस्तिका लिखी थी- ‘समाजवाद या बर्बरता’। इसमें उन्होंने कहा था कि आज हम एक चैराहे पर खड़े है जहां से एक रास्ता बर्बरता की ओर जाता है और दूसरा समाजवाद की ओर। यह हमें तय करना है कि हमें किधर जाना है।
लेकिन आज 99 साल बाद एक दूसरा सवाल भी आ खड़ा हुआ है – अपनी इस पृथ्वी को साम्राज्यवादी चंगुल से छुड़ाने में कही इतनी देर ना हो जाय कि यह पृथ्वी हमारे रहने लायक ही ना बचे। इसलिए जल्दी करनी होगी, समय बहुत कम है।
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