पिछले साल जबसे संजीव के उपन्यास ‘फ़ांस’ की चर्चा सुनी, तब से ही वह ज़हन में अटकी हुई थी. इत्तेफ़ाक से साल की शुरुआत में ही जैसे ही वह मुझ तक पहुंची उसे दो बैठक में ही पढ़ लिया. पढ़ते समय कई बार आंखें नम हुई. कई बार विवश ग़ुस्सा समूचे ज़हन पर तारी हो गया. लगा हम क्यों बार-बार किसानों की आत्महत्या-आत्महत्या दोहराते हैं जबकि ये तो विशुद्ध हत्या है हत्या….
क्या विडम्बना है कि एक तरफ़ इसी देश में अघाया हुआ धनाढ्य व नव धनाढ्य वर्ग है जिसके टैक्स सरकार सरेआम माफ़ कर रही है. वहीं कर्ज़ के बोझ में लदा किसान इस बैंक से उस बैंक, इस साहूकार से उस साहूकार के पास भटकता-भटकता न जाने कब गले में फ़ांसी का फ़न्दा डाल लेता है. और हम इसे एक और ख़बर मान कर नज़रअन्दाज़ कर देते हैं बस.
इस उपन्यास की भूमि है विदर्भ. विदर्भ पिछले डेढ़ दशक में तीन लाख से अधिक किसानों की ‘आत्महत्या’ की प्रेतभूमि बन चुका है. इस उपन्यास का नायक है – आत्महत्या करने वाला किसान. या यूं कहें कि आत्महत्या की ओर ढकेल दिया जाने वाला किसान. नायिका है आत्महत्या करने वाले किसान की पत्नी या पुत्री. उपन्यास की खलनायिका है ये व्यवस्था. इसी व्यवस्था ने 1990 के बाद से जिस आर्थिक नीति को अपनाया उसने खुले आम किसानों को तबाह कर दिया. (इसका अर्थ यह नहीं है कि 1990 से पहले किसान बहुत खुशहाल थे) पहले किसानों को लालच देकर बीटी काटन बीज खरीदवाया. पहले साल की बम्पर फ़सल ने किसानों में और अधिक का लालच भर गया. कर्ज़ लेकर किसान ने और अधिक बीज बोये. फ़सल चौपट हो गई. किसान लुट गया. बैंक और साहूकार सूद वसूलने के लिये सिर पे सवार हो गये. कहीं से कोई सूरत नज़र न आने पर किसान एक-एक कर के मरने लगे. सरकार की जीएम क्राप को उपजाने और बहुराष्ट्रीय निगमों को फ़ायदा पहुंचाने की नीति किसानों पर कीटनाशक की तरह छिड़क दी गयी. इसने ही विगत समय में लाखों किसानों के प्राण ले लिये.
संजीव इस उपन्यास ‘फ़ांस’ में किसान के जीवन का फ़ोटोग्राफ़िक चित्रण करने में पूरी तरह सफ़ल रहे हैं. उन्होंने बहुत संजीदगी से विदर्भ क्षेत्र में हो रही किसानों की हत्या या आत्महत्या को चित्रित किया है. उन्होने किसानों के जीवन से जुड़ी इस त्रासदी के विभिन्न आयामों को एक कथासूत्र में बखूबी पिरोने का प्रयास किया है. संजीव की यह ख़ासियत है कि वह अपनी रचनाऒं कॊ बहुत गुनतॆ हैं. इसके लिये बहुत शोध करते हैं. इस उपन्यास के लिये भी उन्होंने हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में साल भर का अध्ययन किया. उस इलाके में घूम कर उपन्यास के लिये सामग्री संकलित की. फ़िर भी न जाने क्यों कुछ कसक सी लगती है. लगता है कि संजीव किसानों की समस्या के हर ऐंगल को दिखा तो पाए लेकिन वह उपन्यास में किसान की आत्मा को नहीं उड़ेल पाये. वह खुद किसान की आत्मा में नहीं ढल सके. जिस तरह वह अपने नायाब उपन्यास ‘सूत्रधार’ में भिखारी ठाकुर में ढल गये थे. उन्होंने भिखारी ठाकुर के चरित्र को पूरी तरह से जीवन्त कर दिया था. सम्भवत: यह समस्या भी रही कि यह उपन्यास पढ़ने के पहले ही हमने ‘सूत्रधार’ की एक लम्बी लकीर खींच ली थी. हम इस उपन्यास के लिये उससे बड़ी लकीर की उम्मीद कर रहे थे. इस उपन्यास की विषयवस्तु इतनी व्यापक है कि कई बार कथासूत्र की रवानगी बिखर सी जाती है. वह संजीव की डायरी का पन्ना लगने लगता है, जिसमें उन्होंने बहुत श्रम से सामग्री जुटाई है और उसे उसी तरह से पेश कर दी है.
हालांकि इससे इस उपन्यास की महत्ता कम नहीं हो जाती है. दशकों तक चली किसानों की आत्म ‘हत्या’ के बाद किसी ने तो इस त्रासदी पर कलम चलायी. ये ही बहुत सुकून देता है. वरना देश में फ़ैशन वीक को कवर करने वाले मीडिया के लिये और उनक लुत्फ़ लेने वालों के लिये किसानों की आत्म ‘हत्या’ अब खबर भी नहीं रह गयी है.
एक बार किसान मर जाता है तो किसान का परिवार के सदस्य अपने हिस्से की मौत हर रोज़ मरते हैं. खासतौर पर किसान की पत्नी. सरकारी तन्त्र से मरे हुए किसान को ‘पात्र’ घोषित करवाने में उसकी चूलें हिल जाती है. उसके बच्चे दर-दर भटकने को बाध्य हो जाते हैं. जो किसान तो मर जाते हैं वो ‘मुक्त’ हो जाते हैं लेकिन अभी भी समूचे देश में लाखों किसान इस दयनीय हालत में हैं कि उनके जीने और मरने का फ़र्क ही मिट जाता है. विवशता में वो अन्धविश्वास से लेकर तरह-तरह के भ्रम में जीते हैं. कभी सूनी आंखों से वह बादल को निहारते हैं तो कभी सूखी धरती को. समस्या इतनी विकराल होती है कि बड़ी होती लड़कियां एक अतिरिक्त ‘फ़ांस’ लगने लगती हैं किसान को. पत्नी का अन्तिम ज़ेवर बिक जाने तक वह प्रयास करता है. बात नहीं बनती तो वह जीवन से हार जाता है. लेकिन उसकी बहादुर पत्नी और बेटी अन्त तक संघर्ष करती रहती हैं. जिस किसान ने अपना जीवन मर कर सिकोड़ लिया, वहीं उसकी पत्नी और बेटी अपने व्यक्तिगत संघर्ष को विस्तारित करके समष्टि की लड़ाई में खुद को समर्पित कर देती हैं. यही तो कथा है संजीव के इस उपन्यास की. यह कथा आश्वस्त करती है एक हद तक. अन्त में उपन्यास मन्थन करता है और ‘ग्राम स्वराज’ के माडल के साथ खत्म होता है. गढ़चिरौली का मेंडालेखा गांव देश का पहला ‘स्वायत्त’ गांव है जिसने वनोपज पर अपना अधिकार हासिल किया है. गूगल पर सर्च करने पर उस गांव का विवरण हूबहू सामने आ जाता है. उपन्यास के कई पात्र असली के पात्र बन जाते हैं. ऐसा लगता है मानो यह ग्राम स्वराज ही समस्या का हल है. इस माडल के बनने की प्रक्रिया क्या रही. यह अस्पष्ट है. पूरे देश में यह माडल कैसे लागू होगा, इसकी भी कोई बानगी नहीं.
फ़िर भी यह उपन्यास आज के दौर का एक ज़रूरी उपन्यास है. और प्रेमचन्द के बाद किसानो की त्रासदी कहता यह अपनी तरह का विलक्षण उपन्यास है. आज के बाद जब भी साहित्य समाज का आईना कहा जाएगा, संजीव के इस उपन्यास ‘फ़ांस’ का अक्स उसमे नज़र आयेगा.