आज से ठीक 80 साल पहले जयपुर के निकट चकवाड़ा नामक गांव में एक दलित परिवार ने अपने खाने में देशी घी का इस्तेमाल किया और भोजन करने के दौरान ही उसी गांव के सवर्णो ने उस दलित परिवार पर लाठियों से हमला बोल दिया। देशी घी सवर्णो के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेष्ठता का प्रतीक था और वे यह बर्दाश्त नहीं कर सके कि दलित उनके इस प्रतीक को अपनाकर उनकी श्रेष्ठता को चुनौती दे। डाॅ. अम्बेडकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘जातिभेद का उच्छेद’ में इस घटना का प्रमुखता से जिक्र किया है।
आज शायद देशी घी के सेवन पर दलितों को लाठियां नहीं खानी पड़ें (हर गांव की अपनी अलग मनुसंहिता के कारण मै यह बात बहुत दावे से नही कह सकता) लेकिन आज भी दलित के घर से यदि देशी घी की सुगन्ध उठे तो शायद सवर्ण पड़ोसी अपनी कल्पना में जरुर दो चार लाठियां उस दलित परिवार पर जड़ ही देगा।
मतलब यह कि इन 80 सालों में बहुत कुछ बदला है, लेकिन जातिगत सम्बन्ध कमोवेश वही हैं।
शिक्षा विशेषकर उच्च शिक्षा पर हमेशा से सवर्णो का एकाधिकार रहा है। सम्पत्ति के अलावा यह भी उनकी ताकत व प्रभुत्व का स्रोत रहा है। आज जब दलित, शिक्षा के उनके इस किले में सेंध लगा रहा है तो ब्राह्मणवादी व्यवस्था की बेचैनी बढ़ना लाजमी है। और यदि दलित, शिक्षा प्राप्त करने के साथ साथ अपने को राजनीतिक चेतना से लैस करते हुए संगठन बना रहा हो और सवर्ण वर्चस्व को चुनौती दे रहा हो तो यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था आज भी अपने तमाम क्रूरतम हथियारों का प्रयोग करने से नही चूकती। परिणाम है- रोहित वेमुला।
हां, इस दौरान इस बाह्मणवादी व्यवस्था ने अपने तरकश में एक नया अमोघ अस्त्र ईजाद कर लिया है। वह है आत्महत्या की ओर धकेलने का अस्त्र। आश्चर्य है कि पिछले दो दशकों में करीब 3 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है और इस व्यवस्था के दामन पर खूंन का एक छींटा भी नही। कहीं कोई अशान्ति नहीं। कल्पना कीजिए कि यदि इन 3 लाख किसानों को बम गिराकर या गैस चैम्बर में भर कर मारा जाता तो किस पैमाने की सामाजिक उथल पुथल होती।
रोहित वेमुला तमाम दलित परिवारों की तरह पहली पीढ़ी के उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र थे। इसके अतिरिक्त वे उस दलित चेतना का हिस्सा भी थे जिससे हिन्दुत्व को आज सबसे ज्यादा चुनौती मिल रही है। डाॅ अम्बेडकर के लिए भी गांधी ने कहा था कि वे हिन्दुत्व के लिए चुनौती हैं (हरिजन 11 जुलाई 1936)। रोहित जैसे नौजवान चर्वाक, बुद्ध, बासावन्ना (लिंगायत आन्दोलन), कबीर, फुले, अम्बेडकर व दलित पैंथर की समृद्ध परम्परा पर खड़े हैं और यही परम्परा आज हिन्दुत्व के ‘हिन्दू राष्ट्र’ के प्रोजेक्ट में सबसे बड़ी विचारधारात्मक बाधा बन कर खड़ी है। जैसे अपने समय में डाॅ. अम्बेडकर गांधी के हिन्दुत्व के प्रोजेक्ट में एक मजबूत बाधा बन कर खड़े थे वैसे ही आज रोहित जैसे नौजवान मोदी-आरएसएस के हिन्दुत्व के प्रोजेक्ट में बाधा बन कर खड़े है।
डाॅ. अम्बेडकर को अपनाने की मजबूरी और रोहित वेमूला को आत्महत्या की ओर धकेलने की साजिश उनके इसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है।
रोहित जैसे नौजवान आज लगभग सभी उच्च शिक्षा के संस्थानों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं और संगठित होने का प्रयास कर रहे हैं। ‘बिरसा अम्बेडकर फुले स्टूडेन्ट्स एसोसिएशन’ (जेएनयू), ‘अम्बेडकर स्टूडेन्ट्स एसोसिएशन’ (हैदराबाद विश्वविद्यालय), ‘अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल’ (आईआईटी मद्रास), ‘स्टूडेन्ट्स फेडरेशन फाॅर सोशल जस्टिस’ (सम्बलपुर विश्वविद्यालय), जैसे संगठन उनके इसी प्रयास का परिणाम है। ‘इन्टरनेट’ और ‘सोशल मीडिया’ के इस युग में वे अपनी बात कहने के लिए ‘मुख्यधारा’ की मीडिया पर निर्भर भी नहीं है। ‘दलित कैमरा’ जैसी वीडियों पत्रकारिता और ‘राउण्डटेबल इण्डिया’ जैसे वेबसाइट दलित मुद्दे पर मुख्यधारा की भूमिका निभा रहे हैं और दलित मुद्दे की गांधीवादी व परम्परागत वाम व्याख्या पर जोरदार हमले भी कर रहे हैं।
इन दलित संगठनों का अस्तित्व में आना परम्परागत वाम छात्र संगठनों की असफलता को भी दर्शाता है। अम्बेडकर के समय में भी यही हुआ। परम्परागत वाम ने अम्बेडकर के साथ मोर्चा ना बनाकर गांधी से बनाया और अम्बेडकर को उनकी दलित मुक्ति की लड़ाई में अकेला छोड़ दिया।
लेकिन आज स्थिति भिन्न है। 1972 में स्थापित ‘दलित पैंथर’ ने सबसे पहले दलित और क्रान्तिकारी वाम का संश्लेषण किया। 1973 में जारी अपने घोषणापत्र में उन्होने क्रान्तिकारी वाम को अपना मित्र घोषित किया।
परम्परागत दलित आन्दोलन के विपरीत इसने संविधान पर भी काफी रैडिकल स्टैण्ड लिया- ‘‘1947 में जब भारत को आजादी मिली तो प्रशासनिक वर्ग का महज चेहरा ही बदला। राजा के प्रधानमंत्री के स्थान पर ‘जन प्रतिनिधि’ आ गये। वेद, उपनिषद, मनुस्मृति और गीता की जगह संविधान आ गया।’’
यही नही दलित आन्दोलन के मुख्य नारे में उन्होने जमीन के वितरण के सवाल को रखा जो उस समय क्रान्तिकारी वाम के कार्यक्रम का भी मुख्य एजेण्डा (जमीन जोतने वाले को) था। दलित पैंथर ने अछूत के सवाल को सीधे जमीन के सवाल से जोड़ा-‘‘अछूत समस्या को खत्म करने के लिए सभी जमीन का पुनर्वितरण किया जाना चाहिए।’’
बाद के वर्षो में क्रान्तिकारी वाम व दलित पैंथर आन्दोलन दोनों के बिखरने से यह संयुक्त मोर्चा टूट गया। लेकिन आज पुनः यह संयुक्त मोर्चा बनने की प्रबल उम्मीद है। क्योकि आज ना सिर्फ दलित आन्दोलन एक नये चरण में प्रवेश कर रहा है वरन क्रान्तिकारी वाम भी अपने नये अवतार में है।
-
Recent Posts
Recent Comments
- shachinder on Geoengineering, Genetic engineering and Weather warfare
- एंजेलिना जोली की बहादुरी का सच: जनसत्ता में 'कृत on एंजेलिना जोली की ‘बहादुरी’ का सच……….
- फसल के गीत: जनसत्ता में 'कृति मेरे मन की' - Blogs In Media on फसल के गीत
- sonesh on Coal Curse: A film on the political economy of coal in India
- Williamfoer on Quantum physics, dialectics and society: from Marx and Engels to Khrennikov and Haven by Ben Gliniecki
Archives
- May 2024
- September 2020
- August 2020
- July 2020
- May 2020
- April 2020
- March 2020
- June 2019
- May 2019
- February 2019
- January 2019
- December 2018
- October 2018
- September 2018
- August 2018
- July 2018
- May 2018
- April 2018
- March 2018
- February 2018
- December 2017
- November 2017
- September 2017
- June 2017
- April 2017
- March 2017
- January 2017
- November 2016
- October 2016
- August 2016
- July 2016
- June 2016
- May 2016
- April 2016
- March 2016
- February 2016
- January 2016
- December 2015
- November 2015
- October 2015
- September 2015
- August 2015
- June 2015
- May 2015
- April 2015
- March 2015
- February 2015
- January 2015
- December 2014
- November 2014
- October 2014
- September 2014
- August 2014
- July 2014
- June 2014
- May 2014
- April 2014
- March 2014
- February 2014
- January 2014
- December 2013
- November 2013
- October 2013
- September 2013
- August 2013
- July 2013
- June 2013
- May 2013
- April 2013
- March 2013
- February 2013
- January 2013
- December 2012
- November 2012
- October 2012
- September 2012
- August 2012
- July 2012
- June 2012
- May 2012
- April 2012
हमारे दोस्त.....
- Asia Monitor Resource Centre
- China Labour Net
- CorpWatch
- Encyclopedia of Philosophy
- etcgroup
- Film Theory and Philosophy
- Frontierweekly
- Global Research
- Ground Reality
- International Journal
- macroscan
- muslimmirror.com
- net security
- On Recession
- Original People
- progressive poetry
- Radical Anthropology
- rupeindia
- scroll
- South Asia Citizens Web
- The Case for Global Film
- The Wire
- Thescientificworldview
- Top Documentary Films
- world socialist web site
- अनुवाद,हिन्दी और भाषाओं की दुनिया
- इप्टानामा
- कविता कोश
- चार्वाक
- जन जवार
- जनपक्ष
- जनपथ
- प्रतिभास
- प्रतिरोध. काॅम
- भारत का इतिहास
- मुक्तिबोध
- साहित्य समय
- हस्तक्षेप
- हाशिया
Meta