अंग्रेजों के समय में जब ‘तिलक’ को राष्ट्रद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो उन्होने कोर्ट में बयान देते हुए यह सवाल उठाया कि यदि व्यक्ति राष्ट्रद्रोह करे तो उसके लिए कानून (124 ए) है और सजा का प्रावधान है। लेकिन यदि राष्ट्र खुद अपनी जनता के खिलाफ देशद्रोह करे तो उसके लिए कौन सा कानून है और उसकी क्या सजा है।
‘जेएनयू’ के ताजा घटनाक्रम में देखे तो आज भी तिलक का यह सवाल उतना ही मौजूं है जितना कि उस समय था।
संयोग से जिस समय जेएनयू के छात्रों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर किया गया है ठीक उसी समय उस महत्वपूर्ण घटना के ठीक 50 साल हो रहे है जब एक राष्ट्र ने अपनी ही जनता के साथ भयानक देशद्रोह किया था।
आज से ठीक 50 साल पहले 5 मार्च 1966 को भारतीय वायुसेना के विमानों ने आज के मिजोरम के खूबसूरत पहाड़ी शहर आइजल (Aizawl) पर बिना चेतावनी भयानक बमबारी शुरु कर दी। यह बमबारी 13 मार्च तक लगातार चलती रही जब तक कि खूबसूरत आइजल शहर पूरी तरह बर्बाद नही हो गया। इसमें कितने नागरिक मारे गये, इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा आज मौजूद नही है। यह बमबारी की गयी थी ‘मिजो नेशनल फ्रन्ट’ की बगावत को कुचलने के नाम पर। लेकिन भारत सरकार ने आज तक इस बात को नहीं स्वीकार किया है कि उसने अपनी ही जनता पर बम बरसाये हैं। इंडियन एक्सप्रेस के संपादक ‘शेखर गुप्ता’ ने इस पर एक लेख भी लिखा है और बम बरसाने वाले दो पायलटों के नाम भी उजागर किया है। आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि ये दो नाम हैं- राजेश पायलट और सुरेश कलमाडी।
जब नार्थईस्ट के पत्रकारों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री ‘इंदिरा गांधी’ से इस सन्दर्भ में सवाल पूछे तो इंदिरा गांधी ने कहा कि विमानों से जनता को ‘फूड पैकेट्स’ गिराये गये थे। (उस समय मिजोरम में भयानक अकाल पड़ा था और ‘मिजो नेशनल फ्रन्ट’ की बगावत का तात्कालिक कारण यह अकाल ही था। क्योकि सरकार ने उनकी डेढ़ लाख की मामूली मांग को भी ठुकरा दिया था।) बाद में इंदिरा गांधी के इस बयान पर असम असेम्बली (तब मिजोरम असम का ही हिस्सा था) में एक विधायक ने व्यंग्य किया कि बम के खोखो को दिल्ली भेजा जाय और उनसे पूछा जाय कि इसे कैसे खाया जाता है।
इसके बाद जो हुआ वह और भी भयानक था। उस वक्त वहां की कुल आबादी थी- करीब 3 लाख 20 हजार। इसमें से करीब 2 लाख 36 हजार लोगो को उनके गांवों, जंगलों से जबर्दस्ती बेदखल करके सड़क किनारे कैम्पों में हांक दिया गया। और उनके पीछे उनके घरों और दूसरी चीजों को आग लगा दिया गया। आज यह घटना सरकारी आंकड़ों में इस तरह दर्ज है कि इन लोगों ने अपनी मर्जी से ‘मिजो नेशनल फ्रन्ट’ के गुरिल्लाओं से बचने के लिए अपने घरों को जला कर सरकार द्वारा बनाये कैम्पों में रहना स्वीकार किया है। मुझे याद नही आता कि आज तक के इतिहास में कभी भी कही भी जनता अपना ही घर जलाकर इस तरह कैम्पों में रहने के लिए खुशी खुशी आ जाय। 24 घण्टे सरकारी फौजों की निगरानी में रहने को मजबूर इन लोगों की जिन्दगी कैसी होगी और उनका क्या क्या शोषण होता होगा इसका अन्दाजा आज आसानी से लगाया जा सकता है क्योकि ऐसा प्रयोग कभी भी रुका नही है, देश के किसी ना किसी हिस्से में यह लगातार जारी रहा है आज भी जारी है। सरकार कोई भी क्यो ना हो। (सच तो यह है कि ऐसा प्रयोग मिजोरम से शुरु नही हुआ बल्कि इसके पहले ‘तेलंगाना’ और ‘नागालैण्ड’ में यह बड़े पैमाने पर हो चुका था।)
तब से लेकर आज तक नार्थईस्ट की जनता विशेषकर मिजोरम की जनता हर साल 5 मार्च को अपने राज्य की राजधानियों में और दिल्ली में जंतर मंतर पर इकट्ठा होती है और सरकार से सिर्फ एक ही मांग करती है कि वह यह स्वीकार कर ले कि उसने 5 मार्च 1966 को अपनी ही जनता पर बम बरसाये थे। पिछले 50 सालो से वे यही मांग कर रहे हैं।
‘नोम चोम्स्की’ ने अमरीका के बारे कहा था कि जिस आधार पर ‘न्यूरेनबर्ग’ का मुकदमा (द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ‘नाजीवादियों’ व ‘फासीवादियों’ के ऊपर चलाया गया मुकदमा) चलाया गया, अगर उसी आधार पर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के अमरीकी राष्ट्रपतियों पर मुकदमा चलाया जाय तो प्रत्येक राष्ट्रपति को ‘मौत की सजा’ मिलेगी। क्योकि हर राष्ट्रपति के नाम कोई ना कोई जनसंहार दर्ज है। कमोवेश क्या यही स्थिति अपने देश की भी नही है। फर्क सिर्फ यह है कि अमरीका जो बाहर करता है वही काम भारत अपने देश के अन्दर करता है।
भारत में ‘गांधी’ पर जब राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया गया तो गांधी ने कहा कि राष्ट्रद्रोह उनका धर्म बन चुका है। आज के हालात को देखकर ऐसा लगता है कि भारत में भी राष्ट्रद्रोह लोगो का धर्म बनता जा रहा है।
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