भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू की शहादत पर डा अम्बेडकर — सुभाष गाताडे

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(जनता, 13 अप्रैल 1931)
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू इन तीनों को अन्ततः फांसी पर लटका दिया गया। इन तीनों पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने सान्डर्स नामक अंग्रेजी अफसर और चमनसिंह नामक सिख पुलिस अधिकारी की लाहौर में हत्या की। इसके अलावा बनारस में किसी पुलिस अधिकारी की हत्या का आरोप, असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप और मौलमिया नामक गांव में एक मकान पर डकैती डाल कर वहां लूटपाट एवं मकानमालिक की हत्या करने जैसे तीन चार आरोप भी उन पर लगे। इनमें से असेम्ब्ली में बम फेंकने का आरोप भगतसिंह ने खुद कबूल किया था और इसके लिए उसे और बटुकेश्वर दत्त नामक उनके एक सहायक दोस्त को उमर कैद के तौर पर काला पानी की सज़ा सुनायी गयी। सांडर्स की हत्या भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों ने की ऐसी स्वीकारोक्ति जयगोपाल नामक भगतसिंह के दूसरे सहयोगी ने भी की थी और उसी बुनियाद पर सरकार ने भगतसिंह के खिलाफ मुकदमा कायम किया था। इस मुकदमें में तीनों ने भाग नहीं लिया था। हाईकोर्ट के तीन न्यायाधीशों के स्पेशल ट्रीब्युनल का गठन करके उनके सामने यह मुकदमा चला और उन तीनों ने इन्हें दोषी घोषित किया और उन्हें फांसी की सज़ा सुना दी। इस सज़ा पर अमल न हो और फांसी के बजाय उन्हें अधिक से अधिक काला पानी की सज़ा सुनायी जाए ऐसी गुजारिश के साथ भगतसिंह के पिता ने राजा और वायसराय के यहां दरखास्त भी दी । अनेक बड़े बड़े नेताओं ने और तमाम अन्य लोगों ने भगतसिंह को इस तरह सज़ा न दी जाए इसे लेकर सरकार से अपील भी की। गांधीजी और लॉर्ड इरविन के बीच चली आपसी चर्चाओं में भी भगतसिंह की फांसी की सज़ा का मसला अवश्य उठा होगा और लार्ड इरविन ने भले ही मैं भगतसिंह की जान बचाउंगा ऐसा ठोस वायदा गांधीजी से न किया हो, मगर लार्ड इरविन इस सन्दर्भ में पूरी कोशिश करेंगे और अपने अधिकारों के दायरे में इन तीनों की जान बचाएंगे ऐसी उम्मीद गांधीजी के भाषण से पैदा हुई थी। मगर यह सभी उम्मीदें, अनुमान और गुजारिशें गलत साबित हुई और बीते 23 मार्च को शाम 7 बजे इन तीनांे को लाहौर सेन्ट्रल जेल में फांसी दी गयी। ‘ हमारी जान बकश दें’ ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी; हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए ऐसी इच्छा भगतसिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं। मगर उनकी इस आखरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया। न्यायाधीश के आदेश पर हुबहू अमल किया गया ! ‘अंतिम सांस तक फांसी पर लटका दें’ यही निर्णय जज ने सुनाया था। अगर गोलियों से उड़ा दिया जाता तो इस निर्णय पर शाब्दिक अमल नहीं माना जाता। न्यायदेवता के निर्णय पर बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में हुबहू अमल किया गया और उसके कथनानुसार ही इन तीनों को शिकार बनाया गया।

यह बलिदान किसके लिए
अगर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से ‘अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है – न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती है’ ऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और सरकार की इसी ‘न्यायप्रियता’ के चलते लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी समझी जा सकती है। क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्यायदेवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी का भी यकीन नहीं है। खुद सरकार भी इसी समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है। फिर बाकियों को भी इसी न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है ? न्यायदेवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कान्जर्वेटिव (राजनीतिक रूढिवादी) पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ साथ तमाम दुनिया भी जानती है। गांधी जैसे राजनीतिक बन्दियों को बिनाशर्त रिहा करने और गांधी खेमे से समझौता करने से ब्रिटिश साम्राज्य की बदनामी हुई है और जिसके लिए लेबर पार्टी की मौजूदा सरकार और उनके इशारे पर चलनेवाला वायसरॉय है, ऐसा शोरगुल विलायत के राजनीतिक रूढिवादी पार्टी के कुछ कटटरपंथी नेताओं ने चला रखा है। और ऐसे समय में एक अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी की हत्या करने का आरोप जिस पर लगा हो और वह साबित भी हो चुका हो, ऐसे राजनीतिक क्रांतिकारी अपराधी को अगर इरविन ने मुआफी दी होती तो इन राजनीतिक रूढिवादियों के हाथों बना बनाया मुददा मिल जाता। पहले से ही ब्रिेटेन में लेबर पार्टी की सरकार डांवाडोल चल रही है और उसी परिस्थिति में अगर यह मसला राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता कि वह अंग्रेज व्यक्ति और अधिकारी के हिन्दुस्थानी हत्यारे को भी माफ करती है तो यह अच्छा बहाना वहां के राजनीतिक रूढिवादियों को मिलता और इंग्लैण्ड का लोकमत लेबर पार्टी के खिलाफ बनाने में उन्हें सहूलियत प्रदान होती। इस संकट से बचने के लिए और रूढिवादियों के गुस्से की आग न भड़के इसलिए फांसी की इन सज़ा को अंजाम दिया गया है। यह कदम ब्रिटिश न्यायपालिका को खुश करने के लिए नहीं बल्कि ब्रिटिश लोकमत को खुश करने के लिए उठाया गया है। अगर निजी तौर पर यह मामला लार्ड इरविन की पसंदगी -नापसंदगी से जुड़ा होता तो उन्होंने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके फांसी की सज़ा रदद करके उसके स्थान पर उमर कैद की सज़ा भगत सिंह आदि को सुनायी होती। विलायत की लेबर पार्टी के मंत्रिमंडल ने भी लार्ड इरविन को इसके लिए समर्थन प्रदान किया होता, गांधी इरविन करार के बहाने से इसे अंजाम देकर भारत के जनमत को राजी करना जरूरी था। जाते जाते लार्ड इरविन भी जनता का दिल जीत लेते। मगर इंग्लेण्ड की अपने रूढिवादी बिरादरों और यहां के उसी मनोव्रत्ती की नौकरशाही के गुस्से का वह शिकार होते। इसलिए जनमत की पर्वा किए बगैर लार्ड इरविन की सरकार ने भगतसिंह आदि को फांसी पर चढ़ा दिया और वह भी कराची कांग्रेस के तीन चार दिन पहले। गांधी-इरविन करार को मटियामेट करने व समझौते की गांधी की कोशिशों को विफल करने के लिए भगतसिंह को फांसी और फांसी के लिए मुकरर किया समय , यह दोनों बातें काफी थी। अगर इस समझौते को समाप्त करने का ही इरादा लार्ड इरविन सरकार का था तो इस कार्रवाई के अलावा और कोई मजबूत मसला उसे ढंूढने से भी नहीं मिलता। इस नज़रिये से भी देखें तो गांधीजी के कथनानुसार सरकार ने यह बड़ी भूल /ब्लंडर/ की है, यह कहना अनुचित नहीं होगा। लुब्बेलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इरविन समझौते का क्या होगा इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढिवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगतसिंह आदि को बली चढ़ाया गया यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए। ..
(प्रस्तुत अंश ‘डा बाबासाहेब अम्बेडकर, एम ए, पीएचडी, डीएससी, बार-एट-लॉ’ की अगुआई में निकलनेवाले पाक्षिक अख़बार ‘जनता’’ से लिया गया है। मालूम हो कि जनता पाक्षिक का पहला अंक 24 नवम्बर 1930 को प्रकाशित हुआ था। लगातार बाईस अंकों के प्रकाशन के बाद 23 वां और 24 वां अंक ‘संयुक्तांक’ के तौर पर प्रकाशित हुआ। बाद में ‘जनता’ को साप्ताहिक मंे रूपांतरित किया गया। ‘मूकनायक,’ ‘बहिष्कृत भारत’, ‘समता’ ऐसी यात्रा पूरी करके अम्बेडकरी अख़बारी आन्दोलन की यात्रा ‘जनता’ तक पहुंची थी।)
[http://kafila.org से साभार]

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