इस साल महान ‘पेरिस कप्यून’ के 145 साल मनाया जा रहा है। मजदूरों का यह महान विद्रोह 1871 [18 March – 28 May 1871] में पेरिस में हुआ था। तात्कालिक पराजय के बावजूद इसने इतिहास की धारा ही पलट दी। इसके बाद का इतिहास वह बिल्कुल नही रहा जो इसके पहले था। प्रस्तुत है इस महान घटना पर मशहूर जन इतिहासकार ‘क्रिस हरमन’ का यह आलेख-
1870 के प्रारंभ तक नई पूंजीवादी व्यवस्था विश्व प्रभुत्व के लिए तैयार थी। संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में तो वह शिखर पर पहुंच चुकी थी। और वे ही सारी दुनिया को नचा रहे थे। रूस का जार भी 1861 में अर्धदास प्रथा (सर्फडम) का अंत करने पर मजबूर हो गया था। हालांकि उसने आधी जमीन पुराने सामंतों को दे दी थी और किसानों को उनकी दया पर छोड़ दिया था। सारी दुनिया में उलट-पुलट हो रही थी।
लेकिन पेरिस की घटनाओं ने उजागर कर दिया कि पूंजीवाद के प्रभुत्व से उथल-पुथल बंद हो जाय यह जरूरी नहीं। माक्र्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में 1848 में लिखा था कि ‘बुर्जुआजी अपनी कब्र खोदने वाले’ स्वयं पैदा करती है। 18 मार्च को फ्रांस की बुर्जुआजी ने देखा कि उपर्युक्त कथन कितना सही था।
चार साल पहले लूई नेपोलियन ने वैभव का प्रदर्शन एक ‘बड़ी नुमाइश’ में यूरोप के शासकों के सामने किया था। प्रदर्शनी का केन्द्र था एक विराट 482 मीटर लंबा अंडाकार भवन जिसका गुंबद इतना ऊंचा था कि वहां तक पहुंचने के लिए मशीन का इस्तेमाल करना पड़ता था।
उसके इस प्रदर्शन का कारण था। 1851 में जब उसने गणतंत्र को उखाड़ फेंका था तब से फ्रांस में बहुत पूंजीवादी विकास हुआ था। औद्योगिक उत्पादन दो गुना हो गया था। शिल्प का अवसान शुरू हो चुका था और कारीगरों से पूंजीपति मजदूरों जैसा ही व्यवहार करते थे।
पर सम्राट की शक्ति उतनी सुरक्षित नहीं थी जितनी लगती थी। वह संतुलन बनाये रखने पर निर्भर थी। वह शासक वर्गों में एक को दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करता रहता था। वह (अपने चाचा) नेपोलियन की नकल कर सैनिक अभियानों से अपनी प्रभुता प्रमाणित करना चाहता था- जैसे इटली और मैक्सिको में (वहां वह अपने उम्मीदवार मैक्सीमिलियन को सम्राट बनाना चाहता था।)। पर उसके शासन के प्रति विरोध थामा नहीं जा सका। पूंजीपति वर्ग के एक भाग को सट्टेबाजी से बहुत नुकसान हुआ। फायदा महज उनको हुआ जो सम्राट के निकटस्थ थे। मैक्सिको का अभियान तो विध्वंसकारी साबित हुआ क्योंकि मैक्सीमिलियन को गोली मार दी गयी। पेरिस के मजदूरों को 1848 का संहार याद था। दाम मजदूरी की अपेक्षा तेजी से बढ़ते जा रहे थे। नेपोलियन के करीबी अधिकारी आउसमांन्न ने लिखा कि पेरिस की आधी जनता ‘बेहद गरीबी’ में रहती है जबकि वह ग्यारह-ग्यारह घंटे काम करती है। 1869 तक चुनावों में पेरिस और दूसरे बड़े नगरों में गणतंत्र समर्थकों का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था। तभी जुलाई, 1870 में सम्राट बिस्मार्क की चाल में फंस कर प्रशा के विरूद्ध युद्ध की घोषणा करने पर मजबूर हो गया।
सेदां के युद्ध में फ्रांस की फौज की भारी हार हुई। लुई बोनापार्ट पर इल्जाम लगा और उसने सिंहासन त्याग दिया। सत्ता पूंजीवादी गणतंत्र समर्थकों के हाथ आ गयी पर प्रशा की फौज ने पेरिस को घेर लिया और संधि के लिए कठोर और अपमानजनक शर्तें पेश की- भारी जुर्माना और अल्सास लारेन क्षेत्र पर जर्मन कब्जा।
घेरा पांच महीनों तक भयंकर सर्दी में चलता रहा। लोग चूहे और कुत्ते खाने पर मजबूर हो गये। शून्य के नीचे के तापमान में घरों को गर्म करने के लिए ईंधन नहीं था। चीजों के दाम बढ़ते जा रहे थे और मजदूरों तथा कारीगरों के परिवार सबसे ज्यादा तबाह थे। उन्हीं पर नगर की रक्षा का भी मुख्य भार था। वे नेशनल गार्ड में भर्ती होते गये और उसकी संख्या 3,50,000 हो गयी। उन्होंने स्वयं अपने अधिकारी चुने और उसके मध्यवर्गीय चरित्र का अंत कर दिया। उनके प्रतिरोध में जितनी प्रशा की सेना चिंतित थी उतनी ही चिंतित फ्रांस की बुर्जुआ सरकार भी होती गयी। 1792 के सा-क्यूलोतों और 1848 के लड़ाकुओं की संतानों ने फिर हथियार उठा लिये थे। ‘लाल’ क्लब और क्रांतिकारी अखबारों की धूम थी। वे मजदूरों को बता रहे थे कि बुर्जुआ गणतंत्रवादियों ने उनके साथ 1848 में कैसा व्यवहार किया था। माक्र्स ने लिखा ‘सशस्त्र पेरिस का मतलब था क्रांति सशस्त्र’।
गणतंत्रवादी सरकार ने एक वामपंथी विद्रोह को कुचल दिया था। जनवरी, 1871 में बेलविल इरमाके के मजदूरों को ब्रिटेन की फौज का इस्तेमाल कर दबा दिया गया था। वह आतंकित थी कि अगली बार उसे सफलता नहीं मिलेगी। उपाध्यक्ष फाब्र के अनुसार ‘गृह युद्ध कुछ ही गज दूर था और अकाल कुछ ही घंटों दूर’। उसने निर्णय लिया कि सरकार बचाने का एक ही उपाय था। 23 जनवरी की रात को वह गुप्त रूप से प्रशा की फौज से आत्मसमर्पण की शर्ते तय करने पहुंच गया।
इस खबर से पेरिस के गरीब क्रुद्ध हो गये। क्या पांच महीनों तक उन्होंने सब कुछ इसीलिए झेला था? सरकार ने आठ दिनों की नोटिस पर चुनाव की घोषणा कर दी ताकि समर्पण की पुष्टि करवा ली जाए। 1848 की तरह वामपंथियों के पास समय और साधन नहीं थे कि खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में अपनी बात पहुंचा सकें। मतदाताओं का अधिसंख्य तो वहीं रहता था। उधर पूंजीपतियों और पादरियों ने अपना प्रभाव जमा लिया। चुने गये 675 विधायकों में से 400 राजतंत्रवादी थे। पेरिस में असंतोष बढ़ता गया। घेरे बंदी के विश्वासघात के बाद अब सारे गणतंत्र से विश्वासघात हो रहा था। फिर एक और विश्वासघात हुआ। सरकार का अध्यक्ष 71 वर्षीय ओगुस्त थीए को नियुक्त किया गया। वह अपने को मध्यमार्गी रिपब्लिकन कह रहा था पर उसने 1834 में गणतंत्रवादियों का दमन करके ही ख्याति प्राप्त की थी।
समर्पण की शर्तो के अनुसार फौज से हथियार रखवा लिये गये पर जनता ने फिलहाल हथियार नहीं छोड़े। इसके अलावा समृद्ध मध्य वर्ग वाले पेरिस से खिसक लिये। परिणामतः नेशनल गार्ड मजदूरों का संगठन बन गया।
थीए समझ गया था कि पेरिस की जनता के साथ टकराव अनिवार्य हो गया है। उसे पता था कि नेशलन गार्ड के हथियार उन्हीं के कब्जे में हैं जिनमें 200 तोपें भी शामिल हैं। उसने उन पर कब्जा करने के लिए सिपाही भेजे। तोपों को मोंमात्र्र ले जाने के लिए घोड़े तलाशे जा रहे थे तभी लोगों ने सैनिकों से बहस शुरू कर दी। लिसागरे के अनुसार ‘औरतों ने मर्दों का इंतजार नहीं किया। उन्होंने तोपों को घेर लिया और बोलीं- आप लोग जो कर रहे हैं वह शर्मनाक है’। सैनिक समझ नहीं पा रहे थे कि कैसी प्रतिक्रिया करें। तभी 300 नेशनल गार्डों ने ड्रम बजाते हुए ललकारने वाला मार्च किया। एक जनरल लकोंत ने गोली चलाने का आदेश दिया, पर सैनिक खड़े रहे। भीड़ आगे बढ़ती गयी और सैनिकों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। लकोंत और दूसरे अधिकारी गिरफ्तार कर लिये गये।
अपराह्न 3 बजे तक थीए की सरकार पेरिस छोड़कर भाग गयी थी। दुनिया के महान नगरों में से एक सशस्त्र मजदूरों के हाथ में था। और इस बार वे इसे कुछ मध्यवर्गीय नेताओं को नहीं सुपर्द करने वाले थे।
एक नये तरह की सत्ता
सशस्त्र जनता ने पहले तो नेशनल गार्ड के चुने हुए नेताओं के माध्यम से ‘सेन्ट्रल कमेटी’ के जरिये काम किया। पर वे कुछ भी ऐसा नहीं करना चाहते थे जिसे तानाशाही करार दिया जा सके। उन्होंने एक नई संस्था ‘कम्यून’ के लिए चुनाव करवाया जिसमें सभी पुरुषों को मताधिकार दिया गया। ये दूसरे संसदीय चुनावों जैसे नहीं थे। इसमें मतदाता प्रतिनिधि को तत्काल वापस भी बुला सकते थे और उन्हें औसत कुशल मजदूर की ही पगार मिलनी थी। उन्हें बस ऐसे कानून नहीं बनाने थे जिसे एक श्रेणीबद्ध नौकरशाही लागू करती उन्हें स्वयं अपने विचार कार्यान्वित करने थे।
कार्ल माक्र्स ने ‘द सिविल-वार इन फ्रांस’ में कम्यून के पक्ष में लिखा कि उन्होंने पुराने राज्य को तोड़कर उसकी जगह एक नई संरचना स्थापित कर दी जो वर्ग समाज के इतिहास में सबसे अधिक जनतांत्रिक थीः
तीन या छः साल में यह तय करने के बजाय कि शासक वर्ग का कौन सा व्यक्ति जनता का गलत प्रतिनिधित्व करेगा, कम्यून की तरह की जनता वयस्क मताधिकार से चीजें तय करेगी- कम्यून को संविधान ने अभी तक परजीवी राज्य द्वारा अधिकृत सारी शक्तियां, जिनके कारण समाज की मुक्त गति बाधित होती है, समाज को लौटा दिया…
उसका असली रहस्य यही था। वह एक मजदूरों की सरकार थी। हड़पने वाले वर्ग के विरुद्ध उत्पादक वर्ग के संघर्षों से जन्मी सरकार, यह एक ऐसा राजनीतिक रूप था जिसमें मजदूर की राजनीतिक मुक्ति का काम किया जा सकता था।
माक्र्स के अनुसार नगर के मेहनतकशों के प्रतिनिधि के रूप में कम्यून ने उनके हित वाले काम शुरू किये- बेकरियों में रात के काम पर पाबंदी, मालिक द्वारा कर्मचारियों पर जुर्माना लगाने पर रोक, मालिकों द्वारा बंद किये गये वर्कशाप और फैक्टरियां मजदूर संगठनों को सुपर्द, विधवाओं को पेंशन, हर बच्चे को मुफ्त शिक्षा, घेरेबंदी के दौरान लिये गये कर्जों की वसूली पर रोक और किराया न देने पर बेदखल करने की पाबंदी। कम्यून ने सैन्यवाद के स्मारकों को ढहा दिया और अंतर्राष्ट्रीयतावादी होने के प्रभावस्वरूप एक जर्मन मजदूर को श्रम-मंत्री बना दिया।
मजदूरों की सरकार और क्या-क्या कर सकती है इसको कर दिखाने का मौका ही नहीं मिला, क्योंकि रिपब्लिकन सरकार फौरन दमन की तैयारी में फौज संगठित करने में जुट गयी। ऐसा करने में उसने प्रशा यानी शत्रु से भी सहयोग लिया। उसने बिस्मार्क को समझा लिया कि पिछले साल गिरफ्तार कैदी जिन पर हाल की पेरिस की घटनाओं और विचारों का प्रभाव नही पड़ा था छोड़ दिये जाएं। ये लोग और देहातों में भर्ती किये गये रंगरूट वर्साई में इकट्ठा किये गये- उन अधिकारियों की निगरानी में जिनके राजतंत्र समर्थन पर एक झीना पर्दा मात्र था, अप्रैल के अंत तक थीए ने कम्यून के दमन के लिए सेना जुटा ली थी और बिस्मार्क से समझौता कर लिया था कि उसे प्रशा के घेरे के बीच से गुजरने दिया जायेगा। कम्यून के सामने विकट कठिनाइयां थीं। एक और समस्या थी। प्रतिनिधि अपने लक्ष्य को पूरी तरह समर्पित थे पर विरोध में इकट्ठा हो रही शत्रु-शक्तियों से निबटने के लिए जरूरी राजनीतिक समझदारी का अभाव था।
1830 से ही फ्रांस के मजदूरों के बीच दो धाराएं विकसित हुई थीं- एक ब्लांकी से प्रभावित थी। वह 1793 के जैकोबैंवाद से अधिक रेडिकल और सामाजिक रूप से जागरूक संघर्ष चाहती थी। उसके अनुसार मजदूरों के पक्ष में नेतृत्व के लिए एक गुप्त अल्पमत चाहिए था जो षड्यंत्रात्मक ढंग से काम करे। इसलिए होता यह था कि जब मजदूर तैयार नहीं होते थे तब ब्लांकी साहसी उभार का प्रयत्न करता और फिर असफल हो जेल चला जाता। तब मजदूरों को उसके बिना ही संघर्ष करना पड़ता। कम्यून की सरकार के दौरान वह जेल में ही था। दूसरी धारा पर प्रूधों की शिक्षाओं का प्रभाव था। जैकोबैं अनुभव के विरुद्ध इनमें भयानक प्रतिक्रिया थी और वे राजनीतिक क्रिया को नकारते थे। उनका तर्क था कि मजदूर बिना राज्य के हस्तक्षेप के सहकार द्वारा समस्याएं हल कर सकते थे।
माक्र्स दोनों धाराओं को अपर्याप्त मानता था। महान फ्रांसीसी क्रांति से सीखने में उसे कोई शंका नहीं थी पर अब उसके बहुत आगे जाने की जरूरत थी। राजनीतिक क्रिया जरूरी थी जैसा ब्लांकी कहता था पर उसकी तरह कुछ लोगों के साहस के माध्यम से नहीं बल्कि जन क्रिया (मास एक्शन) के रूप में। उत्पादन का पुनर्गठन होना चाहिए जैसा प्रूधोंवादी कहते थे पर वह बिना राजनीतिक क्रांति के संभव नहीं था। पर माक्र्स पेरिस की घटनाओं को प्रभावित कर पाने की स्थिति में नहीं थे। कम्यून में ब्लांकी के अनुयायी वाइयां जैसे लोग माक्र्स के साथ काम करने को तैयार थे पर उसके विचारों से पूरी तरह सहमत नहीं थे। नेशनल गार्ड और कम्यून का नेतृत्व माक्र्सवादियों नहीं ब्लांकी और प्रूधों के अनुयायियों के हाथ में था। और दोनों परंपराओं की कमियां आड़े आ रही थीं।
18 मार्च को पेरिस से भागते समय रिपब्लिकन सरकार के पास कोई सेना नहीं थी। उस समय नेशनल गार्ड वेरसाइय तक मार्च कर जाता तो उसे छिन्न-भिन्न कर सकता था। पर प्रूधोंवादियों की गैर राजनीतिक परंपरा के कारण ‘कम्यून’ पेरिस में अच्छे-अच्छे प्रस्ताव पास करता रहा और उधर थीए फौज जुटाता रहा। जब थीए ने 2 अप्रैल को पेरिस पर बमबारी करने का आक्रामक रुख दिखाया तो कम्यून वेरसाइय पर हमले के लिए तैयार हुआ, पर बिना किसी तैयारी के। उन्होंने शत्रु को जीतने का मौका दे दिया और उन्हें ध्वस्त करना और कठिन हो गया।
उन्होंने वैसी ही गलती पेरिस में भी की। देश का सारा सोना बैंक आफ फ्रांस के तहखानों में था। कम्यून उस पर कब्जा कर के थीए को उससे वंचित कर सकता था और देश की अर्थव्यवस्था पर उसका वर्चस्व बना रह सकता था, पर कम्यून की दोनों धाराएं सम्पत्ति के अधिकारों पर इस तरह के हमले के लिए तैयार नहीं थी। इसलिए थीए के लिए चीजें आसान होती गयीं।
बुर्जुआजी का बदला
थीए ने बड़ी सेना जुटा ली। वह बाहर से बमबारी करता रहा और छोटी-मोटी टकराहटों के बाद 21 मई को उसकी फौज अंदर घुस गयी। थीए ने अगर आसान जीत की उम्मीद की थी तो उसे निराशा ही हुई। पेरिस कम्यून के मजदूर एक-एक सड़क, एक-एक मुहल्ले और एक-एक इमारत के लिए जूझे। थीए की फौजों को पश्चिम से पूरब के मजदूर इलाकों को फतह करने में पूरा एक सप्ताह लग गया।
कम्यून की पराजय के बाद हिंसा का नग्न उत्सव शुरू हुआ जिसका आधुनिक इतिहास में कोई दूसरा जवाब नहीं मिलता। बुर्जुआ अखबार ‘ल फिगारो’ ने दंभपूर्वक लिखाः पेरिस को नैतिक पक्षघात से, जिससे वह 25 वर्षों से ग्रस्त था, मुक्त करने का दूसरा ऐसा अवसर नहीं आया था और उस अवसर को वेरसाइय की फौजों ने भरपूर इस्तेमाल किया।
जिसने भी कम्यून की तरफ से लड़ाई में हिस्सा लिया था तत्काल मार दिया गया। एक हफ्ते में 1900 लोग मारे गये। औसतन हर दिन ‘आतंक’ (1793-94) के दिनों से भी अधिक लोग मारे गये। पुलिस सड़कों पर पेट्रोलिंग के दौरान किसी भी गरीब को उठा लेती, क्योंकि वह ‘कम्यूनवाला’ लगता था और 30 सेकेंड के मुकदमे के बाद उसे फांसी दे दी जाती। एक पादरी ने बताया कि 25 औरतों को फांसी दी गयी क्योंकि उन्होंने आगे बढ़ती फौजों पर उबलता पानी फेंका था। ‘लंदन टाइम्स’ की टिप्पणी थीः
….वेरसाइय की फौजें बर्बर प्रतिहिंसा के कानून के अनुसार लोगों को गोली या संगीन मार रही हैं- कैदियों, बच्चों और औरतों को फाड़ रही हैं…जहां तक हमें याद आता है इतिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ…इन फौजों द्वारा किये जा रहे भयानक नरसंहार से आत्मा संतप्त है। 20,000 आज के फ्रांसीसी इतिहासकारों के अनुमान से, 30,000 के बीच लोग मारे गये। करीब 40,000 ‘कम्यूनार’ पर एक साल कैद के बाद मुकदमा चला। इनमें से 5000 को देश निकाला और अन्य 5000 को दूसरी सजाएं दी गयीं।
निष्कासित लोगों में एक थी लड़ाकू महिलाओं की नेत्री लूइज मिशेल, उसने अदालत से कहा थाः ‘मैं अपनी वकालत नहीं करूंगी, कोई नहीं करेगा। मैं पूरी तरह सामाजिक क्रांति को समर्पित हूं, अगर आपने मुझे जीने दिया तो मैं बदले का आह्वान एक पल के लिए भी नहीं रोकूंगी।’ कम्यून ने औरतों को मताधिकार उस समय के पूर्वाग्रहों के कारण नहीं दिया था पर मेहनतकश महिलाओं ने इसके बावजूद समझ लिया था कि कम्यून का दमन उनका भी दमन है।
दमन का पेरिस के मेहनतकशों पर भयानक असर हुआ। जैसा कि एलिस्तैर ओर्न ने लिखा है, ‘पेरिस का चेहरा कुछ दिनों के लिए एक खास तरह से बदल गया- आधे रंगसाज, आधे प्लंबर, आधे टाइल बिछाने वाले, मोची और दूसरे मजदूर गायब हो गये थे। मजदूरों की नई पीढ़ी उभरने में 20 साल लग गये। उन्हें दमन की याद थी पर संघर्ष का संकल्प अडिग था।
अंतिम शब्द तो माक्र्स ने ही कहा है–‘पूंजी की दुनिया के लिए यह अब तक की सबसे बड़ी चुनौती थी। पूंजी द्वारा अपने विरुद्ध पैदा किये गये वर्ग के लिए सबसे बड़ी प्रेरणा भी वही थी’। उसने अपने मित्र कुगेलमान को लिखा कि कम्यून वालों ने स्वर्ग पर हमला कर दिया था और ‘एक नई शुरूआत’ कर दी थी जिसकी ‘विश्वव्यापी अर्थवत्ता है’।
(क्रिस हरमन की पुस्तक ‘विश्व का जन-इतिहास’ से साभार)
पेरिस कम्यून पर महान जन फिल्मकार ‘पीटर वाटकिंन’ ने एक शानदार फिल्म बनायी है। उसे आप यहां देख सकते हैं।