1939 में डाॅ. अम्बेडकर ने ‘देश’ और अछूत जातियों के बीच के शत्रुवत अन्तरविरोधों की ओर इशारा करते हुए कहा कि ‘‘जब भी अछूत जातियों और देश के हितों के बीच किसी भी तरह का टकराव होगा तो जहां तक मेरा सम्बन्ध है मैं ऐसी स्थिति में अछूतों के हितों को देश के हितों पर वरीयता दूंगा।’’
यह बयान ना सिर्फ डाॅ. अम्बेडकर को समझने का सूत्र मुहैया कराता है बल्कि दलित आन्दोलन को भी समझने में मददगार है। लेकिन आज हम अम्बेडकर के उस बयान को आगे बढ़ाकर यदि यह कहे कि आज ना सिर्फ अछूत जातियों बल्कि भारत की तमाम शोषित-उत्पीडि़त जनता का हित उसके ‘देश’ या अधिक सटीक रुप से कहे तो उसके ‘राष्ट्र’ के हितों से टकराव की स्थिति में है (मार्क्सवाद की भाषा में कहें तो दुश्मनाना अन्तरविरोध की स्थिति में) तो यह गलत नही होगा। आज दलित आन्दोलन और वाम की संभावित एकता का आधार भी यही है। भारत की ब्राहमणवादी-दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी ताकते जिस देश और राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है उस देश और राष्ट्र को सबसे बड़ा खतरा इसी एकता से है, जिसे पिछले दिनों ‘अरुंधति राय’ ने अपने एक भाषण में खूबसूरत तरीके से कहा-”आज दक्षिणपंथी ताकतों को सबसे बड़ा खतरा ‘नीले गगन में लाल सितारे’ से है।”
इस नीले और लाल की एकता का सबसे बड़ा प्रयास 1972 में महाराष्ट्र में ‘दलित पैंथर’ की स्थापना में दिखता हैं जो एक ओर अमरीका के ‘ब्लैक पैंथर’ आन्दोलन से प्रभावित था तो दूसरी ओर अपने देश के ‘नक्सलवादी आन्दोलन’ से। 1973 में ‘दलित पैंथर’ ने अपना घोषणापत्र जारी किया जो वाम और दलित एकता का जीवंत दस्तावेज है और आज पहले से कही ज्यादा प्रासंगिक है। तो आइये डाॅ. अम्बेडकर की 125वीं जयंती पर इस महत्वपूर्ण दस्तावेज पर एक नजर डाल लेते हैं-
घोषणा-पत्र
दलित पैन्थर्स (बम्बई, 1973)
पैन्थर्स का क्रान्तिकारी दृष्टिकोण
आज के दिन हम ‘दलित पैन्थर्स’ अपना एक वर्ष पूरा कर रहे हैं। चौतरफा प्रबल विरोध के बावजूद हम पैन्थरों की ताकत बढ़ रही है क्योंकि हमारे पास स्पष्ट क्रान्तिकारी दृष्टि है। हमारी ताकत बढ़नी ही है क्योंकि हमने उस जनता के क्रान्तिकारी स्वभाव और उसकी आकाक्षाओं को पहचान लिया है, जिस जनता की हंसी और जिसके आंसुओं के साथ हम अपने जन्म के दिन से ही जुड़े रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान, खास तौर पर महाराष्ट्र के सुदूर कोनों में हमारे सदस्यों एवं हमारी गतिविधियों के बारे में गलतफहमियाँ पैदा करने के सचेत प्रयास किये गये हैं। ‘पैन्थर्स के उद्देश्यों, व्यापक क्रान्तिकारी तथा जनवादी संघर्षों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और हमारी नीतियों के बारे में भ्रम फैलाये जा रहे हैं। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि हम अपने दृष्टिकोण को साफ-साफ सामने रख दें। क्योंकि, ‘पैन्थर्स’ अब दलितों के भावनात्मक उद्गार मात्र का प्रतीक नहीं रह गया है। बल्कि, इसका चरित्र एक राजनीतिक संगठन जैसा हो गया है। डाॅ० बाबासाहब अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों को हमेशा सिखाया कि जिन राजनीतिक परिस्थितियों में आप संघर्ष कर रहे हैं, उनके गम्भीर अध्ययन के आधार पर ही अपनी राजनीतिक रणनीतियां तय करनी चाहिए। इस आदर्श को हमेशा अपने सामने रखना हमारे लिए आवश्यक ही नहीं बल्कि अपरिहार्य है। अन्यथा हम कछुए की पीठ को चट्टान समझ बैठेंगे और उसका सहारा लेने के चक्कर में डूब जायेंगे।
वर्तमान कांग्रेस शासन के रूप में वही पुराना हिन्दू सामन्तवाद जारी है जिसने हजारों वर्षों से दलितों को सत्ता, सम्पत्ति तथा सम्मान से वंचित रखा। इसलिए यह कांग्रेस शासन कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकता। जनता के दबाव में इसने कई तरह के कानून भले बना लिये हों लेकिन उनको अमल में यह नहीं ला सकता। क्योंकि, सम्पूर्ण राज्यतंत्र पर उन्हीं सामन्ती स्वार्थों का प्रभुत्व है जिन्होंने हजारों वर्षाें से धार्मिक विधि-निषेधों के जरिए सारी सम्पदा एवं सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखा और आज भी वे अधिकांश कृषि-योग्य भूमि, उद्योग, आर्थिक संसाधनों तथा सत्ता के अन्य सभी उपकरणों के मालिक बने हुए हैं।
इसीलिए, स्वतंत्रता-प्राप्ति और लोकतांत्रिक प्रतीत होने वाले ताम-झामों के बावजूद दलितों की समस्याएँ जस की तस बनी हुई हंै। छुआ-छूत ज्यों का त्यों बना हुआ है। क्योंकि सरकार ने इसके उन्मूलन के लिए कुछ नहीं किया, सिवाय इसके खिलाफ खोखले कानून पारित करते जाने के। छुआ-छूत को उखाड़ फेंकने के लिए सारी जमीनों को फिर से बाँटना होगा। सदियों पुराने रिवाजों और शास्त्रों को नष्ट कर देना होगा और नए विचारों को रोपना होगा। ग्राम संगठन, समाज संगठन और जनता की चेतना, इन सभी चीजों को सच्चे जनवादी लक्ष्यों के अनुरूप ढालना होगा। हमें सत्ता के उस वस्तुगत ढांचे की ओर ध्यान देना होगा जो दलितों को गुलाम बनाता है और जो उन्हें अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने को मजबूर करने में कामयाब रहा है।
हिन्दू सामन्ती शासन दलितों का शोषण करने में मुस्लिम काल या ब्रिटिश काल की तुलना में आज सौ गुना ज्यादा सक्षम है। क्योंकि, इस हिन्दू सामन्ती शासन के कब्जे में उत्पादन के सारे साधन, नौकरशाही, न्यायपालिका, सेना और पुलिस बल है जो सामन्तों, जमींदारों, पूंजीपतियों और धार्मिक नेताओं के रूप में मूर्तिमान हैं और ये सारे लोग पर्दे के पीछे से इन उपकरणों को संचालित कर रहे हैं। अतः दलितों के प्रति छुआ-छूत की समस्या केवल मानसिक गुलामी की समस्या नहीं रह गई है।
छुआ-छूत धरती पर शोषण का सर्वाधिक हिंसक रूप है जो सत्ता संरचना के नित-परिवर्तनशील रूपों के साथ-साथ खुद को कायम रखे हुए है। आज जरूरत है इसकी असली जमीन, इसके मूल कारणों को तलाशने की। यदि हमने उन्हें तलाश लिया तो हम निश्चित ही इस शोषण की जड़ पर वार कर सकेंगे। हमारे दो महान नेताओं-ज्योतिबा फुले और बाबासाहब अम्बेडकर-के जीवन संघर्ष एवं प्रयासों के बावजूद दलितों का उत्पीड़न खत्म नहीं हुआ। यह उत्पीड़न न केवल जारी है बल्कि और तीव्रतर हो गया है। अतः अछूतों के पददलित जीवन में निहित क्रान्तिकारी अन्तरवस्तु को यदि हम नहीं समझेंगे और उसे सही दिशा नहीं देंगे तो सामाजिक क्रान्ति की चाह रखने वाले एक भी व्यक्ति का भारत में जीना दूभर हो जाएगा।
वास्तव में, दलितों अथवा अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का सवाल एक व्यापक सवाल बन गया है। अब दलित का तात्पर्य ग्रामीण समाज और शास्त्रों से बहिष्कृत अछूत मात्र से नहीं है। वह अछूत और दलित होने के साथ-साथ मेहनतकश है, भूमिहीन श्रमिक है, सर्वहारा है। और यदि हमने इन सभी के बीच बढ़ती जाती क्रान्तिकारी एकता को एड़ी-चोटी का जोर लगाकर और मजबूत न किया तो हमारा नामोनिशां मिट जाएगा। इसलिए दलितों को अपने मुक्ति-आंदोलन में जनता के अन्यान्य हिस्सों को, अन्यान्य क्रान्तिकारी शक्तियों को सहभागी बनाना होगा। तभी जाकर वह अपने दुश्मनों से कारगर ढंग से निपट सकते हैं। यदि ऐसा न हो सका तो हम गुलामी से बदतर अवस्था में पहुंच जायेंगे। हमें हर साल, हर महीने, हर दिन, हर घण्टे और हर घड़ी इस चेतना को विकसित करना और दृढ़ बनाना होगा। केवल तभी हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी होंगे।
इसी बात के लिए डाॅ० अम्बेडकर ने हमें हमारी पशुओं की-सी शोषित अवस्था में भी अपनी मनुष्यता का एहसास कराया। यदि हमें सफल होना है तो शांतचित्त होकर केवल गम्भीर अध्ययन के बाद ही किसी चीज को अपनाना चाहिए। हमें जुमलेबाजी और भावोद्रेक का शिकार नहीं हो जाना चाहिए, हमें उस वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था को उखाड़ फेंकना होगा जिसने अपने जाल में फांसकर हमें अपना गुलाम बना रखा है। हमें उस जमीन को बंजर बना देना होगा जिसमें यह विषवृक्ष पनपता और बढ़ता है। हमें यह समझना होगा कि दलित शब्द का जातीय चरित्र अब समाप्त हो रहा है।
सरकार ने दलितों के लिए क्या किया है?
सन् 1947 में जब भारत को आजादी मिली, शासक-वर्ग का महज नकाब बदल गया। (ब्रिटिश) राजशाही के प्रधानमंत्री की जगह ‘जनता का प्रतिनिधि’ आ गया। वेदों, उपनिषदों, मनुस्मृति और गीता की जगह संविधान आ गया। जो कागज आज तक कोरा था उस पर स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे जैसे लफ्जों की भरमार हो गई। सन् 1947 से 1974 तक एक दीर्घ समयावधि है। स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत को अपनी जागीर समझते हुए इन 27 वर्षों तक कांग्रेस सरकार एकछत्र शासन करती आयी है। इस स्वातंत्र्योत्तर ‘स्वशासन’ के दौरान चार पंचवर्षीय योजनाएं, पांच आम चुनाव और तीन युद्ध देखने को मिले लेकिन दलितों के, बल्कि सारी की सारी जनता के सवालों और उनकी जरूरतों को सरकार द्वारा कहीं दूूर अनन्त में धकेल दिया गया है।
राजसत्ता पर अपना कब्जा बनाए रखने के अलावा सरकार ने और कुछ नहीं किया। उल्टे, ’जनता का राज’, समाजवाद, गरीबी हटाओ और हरित-क्रान्ति जैसे जुमले उछाल-उछाल कर उसने दलितों, भूमिहीनों, निर्धन किसानों और मेहनतकशों को अपने पैरों तले रौंदा। उनके बीच से कुछ मुट्ठी भर लोगों को लोभ-लालच देकर, व्यापक जनता की जिन्दगी से खिलवाड़ करते हुए, सरकार ने उसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल देने की भरसक कोशिश की। विभाजनकारी नीतियों के द्वारा जनता को धर्म, जाति और दूसरी अनेक चीजों के नाम पर बांट कर उसने लोकतंत्र की प्रतिष्ठा ही दांव पर लगा दी।
एक ऐसा लोकतंत्र जिसमें लोगों को स्वाभिमान से वंचित कर दिया गया हो, जहां लोग अपना भला-बुरा न तय कर सकें और जहां लोगों की जिन्दगी का कोई महŸव न हो, जहां लोग अपने व्यक्तित्व का और अपने समाज का विकास न कर सकें, जहां देश की धरती के कण-कण को अपने खून से सींचने वालों को भूखा मरना पड़ता हो, जहां लोगों की जमीनंे छिनती जा रही हों, सर छुपाने के लिए छत छिनती जा रही हो, जहां ईमानदार को दुःख और पराजय का सामना करना पड़ता हो, जहां लोगों की आँखों के सामने उनकी मांओं और बहनों का बलात्कार होता हो, ऐसे लोकतंत्र में, आजादी सच्चे अर्थों में आजादी नहीं कही जा सकती।
स्वतंत्रता-संघर्ष राष्ट्रीय पूँजीपतियों, जमींदारों व सामन्तों के नेतृत्व में उनके अपने हितों के लिए चलाया गया था। इस संघर्ष का नेतृत्व जनता ने या दलितों ने नहीं किया था। जबकि, डाॅ0 अम्बेडकर हमेशा कहते थे कि इस संघर्ष का नेतृत्व जनता के हाथों में होना चाहिए। वह गाँधी जिसके हाथों में स्वतंत्रता संघर्ष की बागडोर थी, धोखेबाज, धूर्त और रूढ़ जातिवादी था और उसने उन लोगों को शह दी जो वर्गीय प्रभुत्व को बचाये रखना चाहते थे। स्वतंत्रता संघर्ष की एकता को बचाये रखने के नाम पर वह दलितों के सवालों, छुआछूत के सवालों और जनता के सवालों के साथ खेलता रहा और यही वजह थी कि बाबासाहब (अम्बेडकर) अक्सर उसे देश का दुश्मन, राष्ट्र का खलनायक कहते थे। बाबासाहब कहा करते थे कि, गांधीवाद का मतलब है धार्मिक प्राधिकार को बनाये रखना, गांधीवाद का मतलब है लकीर के फकीर बने रहना, गांधीवाद यानी जातिवाद, गांधीवाद यानी परम्परागत श्रम-विभाजन, गांधीवाद यानी अवतारवाद, गांधीवाद यानी गौ माता, गांधीवाद यानी मूर्तिपूजा, गांधीवाद यानी अवैज्ञानिक दृष्टिकोण।
अंग्रेजों को अपना शासन छोड़ना पड़ा नाविकों के विद्रोह के कारण, आजाद हिन्द फौज के कारण, किसानों के संघर्षां के कारण। इन्हीं वजहों से अंग्रेजों की सत्ता का बने रहना असंभव हो गया। अंग्रेजों ने गांधी और गांधीवादियों को आजादी इसलिए सौंपी, क्योंकि वे चाहते थे कि उनके जाने के बाद भी भारत में उनके हितों की रक्षा होती रहे। जो आजादी हमने पायी वह एक तरह से भीख में मिली आजादी थी। सच्ची स्वतंत्रता तो वह होती है जो शत्रु के हाथों से बलपूर्वक छीन ली जाये। एक लाचार भिखमंगे के आगे फंेक दिये गये रोटी के टुकड़ों-सी आजादी, आजादी नहीं। हर घर में और हर मन में सच्ची स्वतंत्रता की अग्नि प्रज्वलित करनी होगी। यह आज तक नहीं हो सका। इसी कारण दलितों, मजदूरों, भूमिहीनों और गरीब किसानों को स्वतंत्रता नहीं मिली। तालाब की तली में कीचड़ जस का तस सड़ता रहा और यथास्थिति बनाये रखने वाली सरकार दलितों से झूठ पर झूठ बोलती गयी।
दूसरी पार्टियों ने दलितों के लिए क्या किया ?
वामपंथी पार्टियाँ पाँच बार चुनाव लड़ने के बाद भ्रष्ट हो चुकी हैं। उनकी दिलचस्पी अब सिर्फ चुनाव लड़ने में रह गयी है। सन् 1967 में वामपंथी पार्टियाँ कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हुईं। इस संयुक्त मोर्चे में अवसरवाद का आलम यह था कि कम्युनिस्ट कहलाने वाली पार्टियों ने जनसंघ और मुस्लिम लीग जैसी साम्प्रदायिक पार्टियों से हाथ मिलाया। कुछ राज्यों में वामदलों का संयुक्त मोर्चा सत्ता में आया। लेकिन किसी स्पष्ट कार्यक्रम के अभाव में यह कांग्रेस-विरोधी रुख किसी काम नहीं आया। जनता के सामने कोई विकल्प रखने, दलितों की समस्याओं को हल करने या गरीबों का शासन स्थापित करने में सभी वामपंथी पार्टियां निकम्मी साबित हुईं। परिणामतः जनता के क्रान्तिकारी धड़ों का चुनावी जनतंत्र से विश्वास उठ गया। नक्सलबाड़ी जैसे विद्रोह होने लगे और उनकी चिंगारी सारे देश में फैल गयी।
सन् 1972 के आम चुनाव के बाद हम वहीं पहुंच गये जहाँ से चले थे। कांग्रेस पुनः सत्ता में आकर दलितों, आमजनों पर शासन करने लगी; सूखे की मार पड़ी, करोड़ों लोगों की जीविकाएँ ही उजड़ गयीं, पशु नष्ट हो गये, फैक्ट्रियां बंद हो गयीं, मजदूर बेरोजगार हो गये, बढ़ती महंगाई ने हर इंसान को पस्त कर दिया।
देश के जीवन पर से कांग्रेस शासन का ग्रहण अभी समाप्त नहीं हुआ है। लेकिन, संसदीय राजनीति का खेल खेलती हमारी वामपंथी पार्टियां कांग्रेस के पिछलगुआपन में वक्त जाया कर रही हैं। किसी ने भी क्रान्तिकारी रुख अख्तियार करके जनता के सवालों को उठाने का साहस नहीं किया है। राजनीतिक सत्ता से विहीन उन सभी वाम दलों ने सामाजिक क्रान्ति के सवालों से मुंह मोड़ लिया है। उन्होंने वर्ग-संघर्ष को छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष से नहीं जोड़ा, आर्थिक शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के साथ-साथ उन्होंने सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभुत्व के खिलाफ आवाज नहीं उठायी।
छुआछूत शोषण का सबसे भयंकर रूप है। इस शोषण-व्यवस्था को हिन्दू सामन्तवाद ने जन्म दिया और इसी के हितों की रक्षा में यह व्यवस्था लगी हुई है। सेना, जेलों, कानून व्यवस्था तथा नौकरशाही की सहायता से इस छुआछूत का दायरा और अधिक विस्तृत हो रहा है। ऊंची-उड़ान भरने वाले दार्शनिक सिद्धांतों और आत्मा की मुक्ति (मोक्ष, निर्वाण) की आड़ में दलितों को दुनियावी सुख-सुविधाओं से वंचित रखा गया और जो कुछ उनके पास था, वह सब लूट लिया गया।
औद्योगिक विकास के साथ मशीनों का प्रयोग होने लगा। दलितों को इन मशीनों में जोत दिया गया। लेकिन ऊंची जातियों के मन में सामन्तवाद जीवित बचा हुआ था। क्योंकि मशीनों के मालिक मुनाफा तभी कमा सकते थे जबकि सामाजिक संरचना के साथ किसी प्रकार की छेड़-छाड़ न की जाये। कोई राजनीतिक क्रान्ति तभी सम्भव है, जबकि दलितों को सामाजिक क्रान्ति का महत्व समझ में आ जाये। यदि ऐसा हो जाता है तो उच्च वर्ण तथा उच्च वर्ग के हाथों से सत्ता निकल जायेगी। वामपंथी पार्टियों ने जैसा रुख अपना रखा था उसके चलते जनता में क्रान्तिकारी विचारधारा का प्रसार होने में अड़चन आ रही थी। चूंकि दलितों के हित में वास्तविक तथा सच्चे संघर्ष छेड़े नहीं गये, इसलिए उनकी हालत बदतर हो गयी है। उन्हें अनगिनत अत्याचार झेलने पड़े हैं।
आज दलितों के सामने जो समस्याएं हैं, वे चाहे सामाजिक समस्याएं हो या राजनीतिक या नैतिक, उन्हें धर्म-सुधार तथा ’जाति का उत्थान’ जैसे उपायों से नहीं हल किया जा सकता। सन् 1952 के आम चुनावों में अपनी पराजय के बाद जाकर डाॅ0 अम्बेडकर ने इस बात को समझा। केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वर्ग-चेतना और पूरी तरह से अनीश्वरवादी रवैया एवं मानव मात्र की खातिर लड़ाई की भावना ही दलितों के संघर्षों को धार दे सकती है। इसी उद्देश्य से डाॅ0 अम्बेडकर उस वक्त के ’अनुसूचित जातियों का महासंघ’ (ैब्थ्द्ध को विस्तृत जनाधार वाली एक पार्टी में तब्दील कर देना चाहते थे। लेकिन यह काम उनके जीवन काल में न हो सका। उनकी मृत्यु के बाद उनके ’अनुयायियों’ ने ’अनुसूचित जातियों का महासंघ’ (ैब्थ्द्ध का केवल नाम बदलकर रिपब्लिकन पार्टी रख दिया और जातिवादी राजनीति करने लगे। उन्होंने सारे दलितों और सारे उत्पीडि़तों को कभी एकता के सूत्र में नहीं बांधा। बहुत करके, उन्होंने क्रान्तिकारी दलित समुदाय की राजनीति को कानूनी तौर-तरीकांे से चलाया। रिपब्लिकन पार्टी वोटों, सौदेबाजियों, मुट्ठीभर दलितों के लिए विशेष पदों के जुगाड़ और थोड़ी-बहुत रियायत हासिल कर लेने के लोभ-पाश में फंस कर रह गयी। अतः देश भर में यहां-वहां असंख्य गांवों में बिखरी हुई दलित आबादी की राजनीतिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। रिपब्लिकन पार्टी का नेतृत्व दलितों में ही उभरते मध्यवर्ग के हाथों में चला गया। षडयन्त्र, स्वार्थ और आपसी फूट का बोलबाला हो गया।
डाॅ0 अम्बेडकर की क्रान्तिकारी आवाज को दबाते हुए ये घृणित नेता उनका नाम भुनाने लगे और अपने-अपने स्वार्थों की झोलियां फैलाने लगे। यह डाॅ0 अम्बेडकर की पार्टी है। यह डाॅ0 अम्बेडकर का झण्डा है। यह दुहाई देकर वे अपनी तिजोरियां भरने लगे और इस तरह, दादासाहब गायकवाड़ के नेतृत्व में चले भूमिहीनों के सत्याग्रह के अलावा, रिपब्लिकन पार्टी ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जो उसकी गरिमा के अनुकूल हो। दलितों पर जुल्म रोज-रोज की बात हो गयी। डेढ़ वर्षों के अन्तराल में 1,117 दलितों की हत्या हुई। सिंचाई की कोई व्यवस्था न होने से जमीनें बंजर होती गयीं। लोगों के सम्मान के साथ खिलवाड ़ किया गया, घरों में मातम छाया रहा, लोग मारे जाते रहे। रोजी-रोटी के अभाव के साथ-साथ शारीरिक प्रताड़ना की घटनाएं बढ़ती गयीं। रिपब्लिकन पार्टी ने क्या किया? यशवंत राव चैहाण जैसे शासक वर्ग के धूर्त नेताओं के फेंके गये जाल में पार्टी फंस गयी। उसकी जीवटता को घुन लग गया। पार्टी में एकता नहीं रह गयी और उसमें निकम्मे लोगों की भरमार हो गयी। यदि हम अपना भविष्य ऐसे कायर नेताओं के हाथों में सौंप देंगे तो हम अपने जीवन से ही हाथ धो बैठेंगे और इसीलिए आज अत्यन्त दुःख के साथ हमें घोषित करना पड़ रहा है कि रिपब्लिकन पार्टी से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं।
विश्व के दलित और पैन्थर्स
अमरीकी साम्राज्यवाद की घृणित चालों के कारण तीसरी दुनिया-’दलित दुनिया’-यानी दमित राष्ट्रों के लोग और दलित जनता कष्ट भोग रही है। यहां तक कि अमेरिका में भी कुछ मुट्ठी भर श्वेत प्रतिक्रियावादी अश्वेतों का शोषण कर रहे हैं। इस प्रतिक्रियावादी शक्ति का मुकाबला करने और इस शोषण का अन्त करने के लिए ’ब्लैक पैन्थर’ आंदोलन का उदय हुआ। ’ब्लैक पैन्थर्स’ से ’अश्वेत शक्ति’ का उभार हुआ। इस संघर्ष की ज्वाला ने सारे देश पर अपना असर छोड़ा। हम जोर देकर कहते हैं कि इस संघर्ष से हमारा गहरा नाता है। हमारे सामने वियतनाम, कम्बोडिया, अफ्रीका और ऐसे ही कई अन्य देशों का आदर्श है।
दलित कौन है ?
अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोग, नव-बौद्ध, मेहनतकश जनता, भूमिहीन और गरीब किसान, स्त्रियां और वे सब लोग जिनका राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक शोषण किया जा रहा है।
हमारे मित्र कौन है ?
1. वे क्रान्तिकारी पार्टियां जिनका मकसद है जाति व्यवस्था और वर्गीय शासन का विध्वंस करना। वे वामपंथी पार्टियां भी जो सच्चे अर्थों में वामपंथी हों।
2. समाज के वे सभी तबके जो आर्थिक और राजनीतिक दमन के चलते कष्ट भोग रहे हैं।
हमारे शत्रु कौन हैं ?
1. सत्ता और दौलत पर कब्जा किये हुए लोग, महंगाई।
2. जमींदार, पूंजीपति, सूदखोर और उनके दुमछल्ले।
3. वे पार्टियां जो धार्मिक और जातिवादी राजनीति करती हैं और वह सरकार जो धार्मिक और जातिवादी राजनीति के सहारे टिकी रहती हैं।
दलितों के सामने आज के ज्वलन्त प्रश्न
1. रोटी, कपड़ा, और मकान।
2. रोजगार, जमीन, छुआछूत।
3. सामाजिक अन्याय और शारीरिक प्रताड़ना।
दलितों के मुक्ति-संघर्ष के लिए समग्र क्रान्ति की जरूरत है। छोटे-मोटे बदलावों से कुछ नहीं होगा। हमें छिटपुट बदलाव चाहिए भी नहीं। हमें समग्रतः तथा पूर्णतः क्रान्तिकारी परिवर्तन की जरूरत है। यदि हम केवल सामाजिक अधःपतन की इस वर्तमान दशा से ही निकलना चाहें, तो भी हमें आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सभी मोर्चों पर अपनी ताकत लगा देनी होगी। अब हमें आसानी से बहलाया नहीं जा सकता। हम ब्राह्मणों के टुकड़ों पर नहीं पलना चाहते। हम सारे देश पर हक चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि राजा या सरकार बदले, हम चाहते हैं यह व्यवस्था ही बदले। हृदय-परितर्वन, उदार शिक्षा, इत्यादि उपायों से हमारी शोषित अवस्था का अंत नहीं होने वाला। जब हम क्रान्तिकारी जनता को संगठित करेंगे, जनता को जगायेंगे, तभी इस विशाल जनता के संघर्ष से क्रान्ति का ज्वार उठेगा। कानूनी अपीलों, प्रार्थनाओं, याचनाओं, चुनावों, सत्याग्रहों-इन उपायों से समाज कभी नहीं बदलेगा। सामाजिक क्रान्ति और बगावत की हमारी विचारधारा का महावृक्ष, विरोध के इन बनावटी कागजी गमलों में नहीं उग सकता। यह महावृक्ष वास्तविकता की जमीन से फूटेगा, हमारे मानस में महकेगा और फिर फौलादी इरादों से प्रेरित होकर पूरी शक्ति के साथ प्रकट हो जायेगा।
दलित पैन्थर महज एक जुमला नहीं
अपने सवालों के प्रति हमारा रुख ही उन्हें हल करने की ओर पहला कदम है। छुआछूत, जातिवाद और आर्थिक शोषण पर पैन्थरों का प्रहार अंतिम सिद्ध होगा। इस समाज-व्यवस्था और राज्यसŸाा ने हमें गुलाम बनाने के लिए हजारों क्रूर तौर-तरीके अपनाये हैं। सुदूर अतीत में इन्होंने हमें ’शूद्र’ बनाया। मानसिक दासत्व की बेडि़यां वर्तमान में उसी गुलामी का आधुनिक रूप हैं। हम उन बेडि़यों को तोड़ डालेंगे। हमारे इस संघर्ष में ही हमारी मुक्ति है।
हमारे कार्यक्रम
1. भारत की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी गांवों में रहती है। उनमें 35 प्रतिशत लोग भूमिहीन किसान हैं; और भूमिहीन कृषि-मजदूरों की कुल आबादी में से 33 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति से आते हैं। जिन दलित निर्धन कृषकों के पास थोड़ी-सी जमीन है भी, तो वह नाम भर की है। दलित कृषकों की भूमिहीनता को समाप्त करना ही होगा।
2. लैंड सीलिंग एक्ट के तहत तुरन्त अतिरिक्त जमीनंे भूमिहीन कृषकों को मिलनी चाहिए। परती भूमि और जंगल कीे भी जमीनों को इसी तरह बांटना होगा।
3. गांवों में अब भी सामन्ती अवशेष बचे हुए हैं। इस कारण दलितों का निर्दयतापूर्वक दमन और शोषण हो रहा है। जमींदार और धनी किसान धन-दौलत से समृद्ध तो हैं ही, उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा भी हासिल है। इस कारण दलितों पर अत्याचारों की बाढ़-सी आयी हुई है। इस व्यवस्था ने दलितों को इस कदर जकड़ रखा है कि रोजी-रोटी से लेकर व्यापक आर्थिक सवालों तक, उनके जीवन के हर पहलू को वह प्रभावित कर रही है। इस व्यवस्था का अन्त करना ही होगा।
4. भूमिहीन मजदूरों की मजदूरी में वृद्धि करनी होगी।
5. दलितों को सार्वजनिक कुंओं के इस्तेमाल की अनुमति होनी चाहिए।
6. दलितों को गांव से बाहर अलग बस्तियों में नहीं, बल्कि गांव के अंदर ही बसाना होगा।
7. उत्पादन के सारे साधनों पर दलितों का अधिकार होना चाहिए।
8. निजी पूंजी द्वारा शोषण बंद होना चाहिए।
9. सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक शोषण का अंत होना चाहिए और भारत में समाजवाद की स्थापना होनी चाहिए। राष्ट्रीयकरण के भ्रामक रास्ते को छोड़कर सच्चे समाजवाद के रास्ते पर बढ़ना चाहिए।
10. सभी दलितों को दैनिक मजदूरी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
11. बेरोजगार दलितों को बेरोजगारी भŸो इत्यादि मिलने चाहिए।
12. सभी दलितों को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए, चिकित्सकीय सुविधाएं, मकान और उच्च गुणवŸाा के अनाज सस्ती दरों पर मिलने चाहिए।
13. शिक्षण संस्थाओं में रोजगार देते समय अपनी जाति तथा धर्म का उल्लेख करने की बाध्यता तुरन्त खत्म की जानी चाहिए।
14. सरकार धार्मिक संस्थाओं को अनुदान देना तुरन्त बंद करे और धार्मिक संस्थाओं की धन-दौलत को दलितों के हित में लगाये।
15. धार्मिक और जातिवादी साहित्य को प्रतिबन्धित करना होगा।
16. सेना में जाति के आधार पर श्रम-विभाजन का अंत करना होगा।
17. कालाबाजारी करने वालों, जमाखोरों, सूदखोरों और उन सब लोगों को खत्म करना होगा जो जनता का आर्थिक शोषण करते हैं।
18. आवश्यक वस्तुओं को निःशुल्क उपलब्ध कराना होगा।
हम मजदूरों, दलितों, भूमिहीनों, गरीब किसानों को, सभी शहरी फैक्ट्रियों और सभी गांवों में जा-जाकर संगठित करेंगे। हम दलितों पर हो रहे हर प्रकार के अन्याय का जवाब देंगे। हम उस जाति-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह से और हमेशा के लिए मिटा देंगे, जो जनता के दुःखों पर फलती-फूलती है, जनता का शोषण करती है और इस प्रकार हम दलितों को मुक्ति दिलायेंगे। वर्तमान कानून व्यवस्था एवं राज्यसŸाा ने हमारे सारे सपनों को तबाह कर दिया है। अपने साथ होने वाले समस्त अन्याय के खात्मे के लिए दलितों को स्वयं शासक बनना होगा। यही सच्चा जनवाद है। दलित पैन्थर्स के समर्थकांे और सदस्यों, दलितों के निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार हो जाओ !