‘The Many Faces of Kashmiri Nationalism: From the Cold War to the Present Day’

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कश्मीर के वर्तमान हालात में ‘नन्दिता हक्सर’ की पिछले साल आई किताब ‘मेनी फेसेज आॅफ कश्मीरी नेशनलिज्म: फ्राम दि कोल्ड वार टू दि प्रजेन्ट डे’ से गुजरना एक बेचैन कर देना वाला अनुभव रहा। नन्दिता हक्सर ‘उत्तर पूर्व’ और कश्मीर में मानव अधिकार आंदोलन की जमीनी कार्यकर्ता है और वहां के जन-संघर्षो से उनकी पूरी सहानुभूति है। इसके अलावा सत्ता समीकरणों और उनकी खुली व गुप्त रणनीतियों पर भी उनकी पैनी नज़र रहती है। यही कारण है कि उनकी सभी किताबें अकादमिक बुद्धिजीवियों और आम पाठकों दोनों को अपील करती है।
इस किताब में नन्दिता ने ‘सम्पत प्रकाश’ और ‘अफजल गुरु’ के जीवन के वस्तुगत विवरणों के माध्यम से कश्मीर के संघर्षां और उसकी जटिलताओं पर रोशनी डालने का प्रयास किया है। उनकी प्रखर राजनीतिक दृष्टि अन्तराष्ट्रीय समीकरणों के साथ इसके अन्तर-सम्बन्धों को भी लगातार परखती चलती है।
सम्पत प्रकाश वाम विचारधारा वाले एक कश्मीरी पंडित हैं जो लगातार जम्मू-कश्मीर के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में सक्रिय रहे हैं और जम्मू कश्मीर की आजादी और उसकी ‘कश्मीरियत’ के पक्के समर्थक हैं। वे उन कुछ गिने चुने कश्मीरी पंडितों में से है जो आज भी घाटी में सक्रिय हैं। और अभी भी ट्रेड यूनियन के मुद्दों के साथ ही कश्मीर की आजादी के मुद्दे को भी उठाते रहते हैं। इसलिए वे अलग अलग कारणों से ‘मुस्लिम साम्प्रदायिकता’ और ‘हिन्दू साम्प्रदायिकता’ दोनो के निशाने पर रहते हैं।
सम्पत प्रकाश जम्मू-कश्मीर की वर्गीय संरचना और उसमें हिन्दू-मुसलमानों की स्थिति को बहुत ही रोचक तरीके से बताते है-‘‘कश्मीरी पंडित यह भूल चुके हैं कि वर्षो से किस तरह अनेकों तरीकों से मुस्लिमों ने उनकी सेवा की है। कश्मीरी मुस्लिमों के बनाये ईटों से ही कश्मीरी पंडितों के घर बने। उनके मंदिरों के लिए उन्होंने पत्थर तोड़े। मुस्लिम कारपेन्टरों ने उनके मंदिरों के लिए बीम और दरवाजे बनाये। मुस्लिम राजगीरों ने ही सीमेन्ट तैयार किया और यहां तक की उनके भगवानों की मूर्तियां भी तैयार की। ‘खीर भवानी’ मंदिर का फर्श मुस्लिमों ने ही तैयार किया था। कश्मीरी पंडितों ने क्या किया? उन्होंने देवताओं की मूर्तियां बिठायी और पवित्र जल व दूध से मंदिर का शुद्धिकरण किया और कश्मीरी मुस्लिमों के मंदिर में प्रवेश करने पर पाबन्दी लगा दी।’’
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सम्पत प्रकाश के बहाने 50-60 और 70 के दशक के उस कश्मीर से परिचय होता है जब कश्मीर में ‘वाम’ का काफी प्रभाव था। शुरु में कम्युनिस्ट पार्टी ‘शेख अब्दुल्ला’ की ‘नेशनल कान्फ्रेन्स’ में ही काम करती थी। इसी दौर में ट्रेड यूनियन आन्दोलन में जबर्दस्त विकास हुआ और ट्रेड यूनियन आन्दोलन ने कई महत्वपूर्ण जीतें दर्ज की। श्रीनगर के मशहूर लाल चौक का नाम इसी दौर में ‘लाल चौक ’ पड़ा जो स्पष्ट रुप से रुस के मशहूर ‘रेड स्क्वायर’ से प्रभावित था।
यह तथ्य भी कम लोगों को ही पता है कि जब 1947 में पाक की तरफ से हमला हुआ था तो यहां के कम्युनिस्टों ने उनसे लड़ने के लिए ‘जन मिलीशिया’ का निर्माण किया था। और हमले को वापस खदेड़ने में इस जन मिलीशिया की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसमें कई कामरेडों की जाने भी गयी थी।
इस दौरान ‘मई दिवस’ की विशाल रैलियां, उनमें मुस्लिमों-हिन्दुओं की समान भागीदारी तथा गूंजते मजदूर नारों का विस्तृत विवरण हमें आश्चर्यचकित करता है कि चंद दशक पहले ही कश्मीर की एक अन्य पहचान भी थी। शेख अब्दुल्ला पर भी इसका काफी असर था। उनका ‘नया कश्मीर का घोषणापत्र’ इसका सबूत है। जिसमें ना सिर्फ बिना क्षतिपूर्ति दिये जमीन्दारों से जमीन जब्त करने का प्रावधान था बल्कि महिलाओं को भी सभी क्षेत्रों में समान अधिकार की बात की गयी थी। शिक्षा पूरी तरह से निशुल्क करने का प्रावधान था। बाद के वर्षो में इनमें से कई चीजें (जैसे शिक्षा और भूमि सुधार आदि) लागू भी हुई।
लेकिन यह ट्रेड यूनियन आन्दोलन शुरु में सीपीआई और 1964 के बाद मुख्यतः सीपीएम से जुड़ा रहा। ये दोनो कम्युनिस्ट पार्टियां शुरु से ही सत्ता के साथ दोस्ताना समीकरणों में रही। कश्मीर पर इनकी नीति कमोवेश दिल्ली सरकार की नीति से ही मेल खाती थी। ये दोनों पार्टियां ‘आत्म निर्णय के अधिकार’ यानी कश्मीर की आजादी की विरोधी थी। 1967 में नक्सलबाड़ी का आन्दोलन शुरु होने पर कश्मीर के कम्युनिस्टों का एक धड़ा भी इसके प्रभाव में आया। सम्पत प्रकाश भी उनमें से एक थे। इसी समय उनकी मुलाकात भी ‘चारु मजुमदार’ से हुई। वे चारु से काफी प्रभावित हुए क्योकि चारु मजुमदार ने स्पष्ट रुप से जम्मू कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया। नक्सलबाड़ी आन्दोलन के कुचले जाने और इसके अन्दर पैदा हुई टूटन के बाद सम्पत प्रकाश ने ‘जार्ज फर्नान्डिस’ की ‘हिन्द मजदूर किसान युनियन’ से अपने आप को जोड़ लिया। हिन्द मजदूर किसान यूनियन भी कश्मीर की आजादी का समर्शन नहीं करती थी।
बाद के वर्षो में ट्रेड यूनियन के बहुत से हिस्से (विशेषकर घाटी के) ‘हुर्रियत कान्फ्रेन्स’ या ‘जेकेएलएफ’ से जुड़ गये। दूसरी ओर जम्मू लगातार हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों विशेषकर ‘आरएसएस’ का गढ़ बनता जा रहा था। इसके प्रभाव में जम्मू की ट्रेड यूनियन पर आरएसएस का प्रभाव (जाहिर है उसके हिन्दू सदस्यों पर) बढ़ने लगा।
हुर्रियत कान्फ्रेस और जेकेएलएफ दोनों के पास अपना कोई ट्रेड यूनियन एजेण्डा नही था। और दोनो का ही वाम विचारधारा से कोई लेना देना नहीं था। फलतः राज्य में ट्रेड यूनियन आन्दोलन महज अनुष्ठान बनकर रह गया। दूसरी ओर कश्मीर में बहुत से कश्मीरी पंडित जो वाम आन्दोलन से जुड़े हुए थे उन्हें कश्मीर घाटी से पलायन करना पड़ा। वहीं बदली परिस्थिति में वाम विचारधारा रखने वाले मुस्लिमों के लिए घाटी में अपनी गतिविधियों को अंजाम देना ज्यादा से ज्यादा खतरनाक होने लगा। उनमें से कइयों को तो अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। और इस तरह जम्मू कश्मीर में ‘वाम आन्दोलन’ लगभग खत्म हो गया।
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यहां गौरतलब है कि नक्सलबाड़ी के छोटे से दौर को छोड़ दे तो जम्मू कश्मीर के कम्युनिस्टों ने कभी भी जम्मू कश्मीर के आत्मनिर्णय यानी आजादी के अधिकार का समर्थन नहीं किया। शीत युद्ध के समीकरणों के कारण और विशेषकर अपनी संशोधनवादी अवस्थिति के कारण तत्कालिन ‘सोवियत रुस’ जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानता था। चूंकि यहां की कम्युनिस्ट पार्टी रुस की कम्युनिस्ट पार्टी के चरण कदमों पर चल रही थी और खुद भी संशोधनवाद की गिरफ्त में थी, इसलिए इसकी पोजीशन भी यही थी। यहां तक की कश्मीर की आजादी की मांग करने वालों को यह शक की नज़र से देखती थी और उसे अमरीका का एजेन्ट समझती थी।
कल्पना कीजिए कि यदि ‘सीपीआई’ और ‘सीपीएम’ कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन कर रहे होते और इसे अपने संघर्ष के एजेण्डे में शामिल करते तो शायद कश्मीर की आजादी का संघर्ष मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्वों के हाथ में नही जाता और जम्मू कश्मीर का इतिहास और प्रकारान्तर से भारत का इतिहास अलग होता।
हालांकि नन्दिता हक्सर और सम्पत प्रकाश दोनो ही सीपीआई और सीपीएम की इस गलत नीति के प्रति ज्यादा आलोचनात्मक नहीं दिखते और रोजमर्रा की ट्रेड यूनियन गतिविधियों के विवरण को ही गौरवान्वित करते रहते हैं।
इसी तरह का एक तरह से ‘राजनीतिक सुसाइड’ अरब देशों में काम कर रही वहां की तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी किया था। 1948 के पहले अरब के कई देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां बेहद ताकतवर थी। 1948 में अरब भूमि पर इजरायल के अस्तित्व में आते ही रुस ने उसे मान्यता दे दी। रुस के कदमों पर चलते हुए अरब देशों की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी उसे मान्यता दे दी। परिणामस्वरुप तत्काल ही इन कम्युनिस्ट पार्टियों की साख वहां की जनता की नज़र में तेजी से गिर गयी। अब इनका स्थान ‘राजनीतिक इस्लाम’ ने लेना शुरु कर दिया। नतीजा आज सबके सामने है। इस बारे में ‘तारिक अली’ ने अपनी किताब ‘बुश इन बेबीलोन’ में विस्तार से बताया है।
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दूसरी कहानी यानी अफजल गुरु की कहानी और उसके बहाने कश्मीर के बगावत की कहानी अपेक्षाकृत ज्यादा जानी पहचानी है। इसे बहुत ही रोचक और भावपूर्ण तरीके से लिखा गया है। इसके साथ ही जेकेएलएफ के संस्थापक ‘मकबूल भट्ट’ की भी रोचक कहानी इस किताब में है। इण्टरोगेशन सेन्टर में मकबूल भट्ट से सम्पत प्रकाश का परिचय और दोनों के बीच बातचीत का ब्योरा बहुत ही दिलचस्प और मूविंग है। मकबूल भट्ट के ‘मकबूल भट्ट’ बनने की कहानी भी यहां पता चलती है। मकबूल भट्ट का बचपन निरंकुश ‘डोगरा राज’ में बीता था। मकबूल भट्ट के हवाले से नन्दिता मकबूल भट्ट के बचपन की एक घटना को यो बयां करती है, जिसका मकबूल भट्ट के भावी राजनीतिक जीवन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा- ‘‘जब जागीरदार कार से जाने लगा तो हमारे बड़ों ने गांव के सभी बच्चों को कार के सामने लेट जाने को कहा। गांव के सैकड़ों बच्चें कार के सामने लेट गये और जागीरदार से याचना करने लगे कि उन पर लगा अतिरिक्त कर माफ कर दिया जाय। मैं भी उनमें से एक था और मुझे आज भी वह डर और बेचैनी याद है जो उस वक्त हम पर हावी थी। सभी बच्चों और बूढ़ों की आंखों में आँशु थे। वे जानते थे कि यदि जागीरदार कर में छूट दिये बिना लौट गया तो उनकी जिन्दगी नरक हो जायेगी। अंततः जागीरदार अपने अन्तिम फैसले में कुछ संशोधन करने पर सहमत हो गया।’’
मकबूल भट्ट को पाकिस्तान और हिन्दोस्तान दोनो जगहों पर अलग अलग समयों पर गिरफ्तार किया गया। दोनों जगह आरोप समान थे- भारत में ‘पाक जासूस’ होने का आरोप और पाक में ‘भारत का जासूस’ होने का आरोप। भारत और पाक दोनो से अलग होने की मांग करने वाले मकबूल भट्ट और उनके द्वारा स्थापित ‘जेकेएलएफ’ की यही नियति थी। वे किसी के हाथ की कठपुतली बनने को तैयार नही थे। फलतः भारत और पाकिस्तान दोनों ही उसे खत्म कर देने पर आमादा थे। इसके अलावा दोनों ही देशों को इसके सेकुलर चरित्र से एलर्जी थी। क्योकि इससे जेकेएलएफ को हिन्दू-मुस्लिम खाने में फिट नहीं किया जा सकता था, जो दोनों ही देशों का एजेण्डा था। नन्दिता हक्सर ने साफ साफ लिखा है कि कश्मीर का पाकिस्तान में विलय चाहने वाले ‘हिजबुल मुजाहिदीन’ ने भारतीय सुरक्षा एंजेसियों को जेकेएलएफ के लड़ाकों के बारे में जानकारियां उपलब्ध करवायी। इस जानकारी के कारण ही इनसर्जेन्सी के दौरान करीब 500 जेकेएलएफ के लड़ाकों को भारतीय सुरक्षा एंजेन्सियों ने मार दिया। जेकेएलएफ का कमजोर होना दोनों ही देशों के हित में था।
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अफजल गुरु 89-90 के इसी उथलपुथल भरे दौर में ‘एमबीबीएस’ की पढ़ाई कर रहा था। और घट रही घटनाओं को ध्यान से देख रहा था। इसी समय कश्मीर के नौजवानों में फिल्म ‘उमर मुख्तार’ बेहद लोकप्रिय थी। अफजल ने भी यह फिल्म दर्जनों बार देखी। बाद में कश्मीर में इस फिल्म को बैन कर दिया गया। अफगानिस्तान में रुस की फौजों को हराया जा चुका था। और अफजल की पीढ़ी को यह मानने में कोई दिक्कत नहीं थी कि उसी तरह भारत को भी हराया जा सकता है। यहां नन्दिता ने इस पहलू पर भी पर्याप्त ध्यान दिया है कि कैसे रुस के खिलाफ इस लड़ाई में अमरीका ने हस्तक्षेप किया और हथियारों से ‘तालीबान लड़ाकों’ की मदद की और एक तरह से ‘राजनीतिक कट्टर इस्लाम’ को बढ़ावा दिया। बहरहाल अफजल गुरु अपनी पढ़ाई छोड़ कर ‘लाइन उस पार’ हथियारों की ट्रेनिंग के लिए गया जहां खाली समय में वह ‘इस्मत चुगताई’ की रचनाएं पढ़ता था। वहां उसने देखा कि पाकिस्तान उनकी आजादी की लड़ाई को अपने हित में इस्तेमाल कर रहा है। इसके अलावा भारत वापस लौटने पर उसने यह भी देखा कि कश्मीर के लिए लड़ने वाले लोग ही आपस में कितने मुद्दों पर बंटे हुए हैं। इस्लाम में पूरा विश्वास होने के बावजूद आजादी की लड़ाई को निरन्तर इस्लामी रंग दिये जाने से वह असहमत था। फलतः जल्दी ही उसका मोहभंग हो गया। लेकिन एक लड़ाके का सामान्य जिन्दगी में वापस लौटना इतना आसान न था। इसके लिए सेना के सामने समर्पण करना और उनसे इस सम्बन्ध में एक सर्टीफिकेट प्राप्त करना बेहद जरुरी था। और उसके बाद समय समय पर थाने में या सेना हेडक्वार्टर में हाजिरी लगाना था। खैर इन सबकी त्रासद कहानी इस किताब में दर्ज है। ‘पार्लियामेन्ट अटैक’ केस में अफजल को फंसाये जाने का बहुत विश्वसनीय विवरण यहां मौजूद है। और इसी के साथ दर्ज है अफजल की पत्नी ‘तबस्सुम’ का दर्द और उसका अन्तहीन संघर्ष।
‘हब्बा खातून’ से ‘तबस्सुम’ तक की यह त्रासद-दुखद यात्रा मानों खुद कश्मीर की ही यात्रा है।
किताब के नाम के अनुरुप ही नन्दिता हक्सर ने दमन और प्रतिरोध की इस अन्तहीन गाथा के सभी पहलुओं को समेटने की कोशिश की है। लेकिन जम्मू-कश्मीर इतिहास की एक बेहद महत्वपूर्ण घटना के बारे में किताब में कुछ भी नही है। 1947-48 में विभाजन के समय जम्मू प्रान्त में हजारों की संख्या में मुस्लिमों का कत्लेआम हुआ और उन्हें जबर्दस्ती पाकिस्तान भेजा गया। यह कत्लेआम राज्य मशीनरी और आरएसएस के सहयोग से घटित हुआ। इस कत्लेआम से पहले जम्मू में भी मुस्लिम बहुसंख्यक थे। लेकिन इसके बाद ही यहां मुस्लिम अल्पसंख्यक हो गये। अभी पिछले माह प्रकाशित हुई ‘सईद नकवी’ की किताब ‘बीइंग अदर्स’ में इस घटना का जिक्र किया गया है। इसके अलावा जम्मू के प्रसिद्ध पत्रकार ‘वेद भसीन’ ने इस पर काफी काम किया है। उनकी माने तो यह कत्लेआम दिल्ली की सहमति से हुआ और इसके पीछे एक बेहद सुनियोजित रणनीति काम कर रही थी। वह यह कि यदि भविष्य में कश्मीर की आजादी का आन्दोलन उठ खड़ा होता है तो जम्मू को इस आजादी के खिलाफ खड़ा किया जा सके और प्रकारान्तर से ‘जम्मू बनाम कश्मीर’ को ‘हिन्दू बनाम मुस्लिम’ में परिवर्तित किया जा सके। बाद में कश्मीर घाटी से पंडितोें का पलायन भी सरकार की उसी रणनीति का हिस्सा था। नन्दिता ने भी अपनी किताब में इसका जिक्र किया है कि कैसे तत्कालिन गवर्नर ‘जगमोहन’ अपने रेडियों प्रसारण के जरिये पंडितों से घाटी छोड़ने की अपील कर रहे थे और उन्हे डरा रहे थे कि यहां उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
सच तो यह है कि जम्मू का यह कत्लेआम और इसी दौरान हैदराबाद में 40 हजार मुस्लिमों का कत्लेआम वह घटना है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते है और इसका विवरण अभी भी सात तालों के अन्दर कैद है। हैदराबाद कत्लेआम पर ‘ए जी नूरानी’ ने काफी विस्तार से लिखा है।
जम्मू के उस कत्लेआम का जम्मू-कश्मीर की भावी राजनीति विशेषकर उसकी आजादी की लड़ाई पर निर्णायक प्रभाव पड़ा। इसलिए इस बारे में सम्पत प्रकाश की चुप्पी और नन्दिता हक्सर की अनभिज्ञता बेचैनी पैदा करती है।
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इसके अलावा किताब का सबसे कमजोर पहलू वह है जहां ‘अफजल के लिए बनी कमेटी’ द्वारा लिये गये अभियान के दौरान ‘नन्दिता’ और ‘जीलानी’ के बीच अन्तरविरोधों का विवरण है या इसी दौरान अफजल के परिवार विशेषकर अफजल के बड़े भाई केे साथ तबस्सुम या खुद नन्दिता हक्सर के अन्तरविरोधों का जिक्र है। नन्दिता ने यहां विस्तार से अपना पक्ष रखा है।
वास्तव में इस तरह के ब्योरों की इस तरह की किताब में कोई जरुरत नही थी। कश्मीर जैसे किसी भी बड़े आन्दोलनों में इस तरह के अन्तरविरोध आम बात है। और दूसरी बात की किताब के विषय से इसका कोई सीधा वास्ता नहीं है। मेरे हिसाब से इस तरह के विवरण विषय को समझने में कतई मदद नहीं करते वरन् उसे डायलूट ही करते हैं।
‘कश्मीरी राष्ट्रवाद’ और उसके प्रतिरोध की कहानी यहां के साहित्य में विशेषकर ‘कविता’ और ‘पेन्टिग’ में काफी मुखर है। लेकिन पूरी किताब में इस पहलू का कोई जिक्र नही है जो एक अधूरेपन का अहसास पैदा करता है। इस पोस्ट में प्रस्तुत कुछ पेंटिंग्स से आपको इस कला की एक बानगी मिल सकती है.
इसके बावजूद यह एक बेहद महत्वपूर्ण किताब है। जो भी जम्मू-कश्मीर में या नन्दिता हक्सर के शब्दों में कहें तो ‘भारतीय लोकतंत्र’ में रुचि रखते हैं उन्हें यह किताब जरुर पढ़नी चाहिए।

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