9 अक्टूबर को जब पोलैण्ड के मशहूर फिल्मकार और ‘आस्कर’ के ‘लाइफ टाइम अचीवमेन्ट अवार्ड’ से सम्मानित ‘आन्द्रेइ वायदा’[Andrzej Wajda] की मृत्यु हुई तो ‘मंगलेश डबराल’ ने उन पर एक अच्छा आलेख लिखा। इसका शीर्षक था- ‘महान सिनेमा का आखिरी आदमी’। इस लेख को पढ़ने के बाद पिछले साल विदेशी भाषा में आस्कर से सम्मानित हंगरी की फिल्म ‘सन ऑफ सोल’[Son of Saul] देखी। फिल्म खत्म होते होते यह समझ में आ गया कि आन्द्रेइ वायदा महान सिनेमा के आखिरी आदमी नहीं हैं महान सिनेमा अभी भी बन रहा है। मंगलेश डबराल का यह नास्टेल्जिया ही है कि वह आन्द्रेइ वायदा की मौत के साथ महान सिनेमा के मौत की भी घोषणा कर दे रहे हैं।
‘सन ऑफ सोल’ 1944 में हंगरी के एक नाजी शिविर की महज डेढ दिनों की कहानी है। यह पूरी तरह से महज एक व्यक्ति ‘सोल असन्डर’[Saul Ausländer] के नजरिये से बतायी गयी है जो इस नाजी शिविर में ‘सन्दरकोमान्डो’[Sonderkommando] हैं। यहूदी कैदियों में से ही कुछ को सन्दरकोमान्डो बनाया जाता था जो आम यहूदियों को मारने की फैक्ट्री के कल पुर्जे की तरह काम करते थे। और इसके एवज में उन्हें अपनी जिन्दगी के कुछ हफ्ते या महीने मिल जाते थे। गैस चैम्बर में जाते यहूदियों के कपड़े समेटना, गैस चैम्बर में यहूदियों के मारे जाने के बाद लाशों को बाहर निकालना और पुनः गैस चैम्बर की सफाई करना आदि उनके काम होते थे। नाजी जर्मन लगातार उनकी निगरानी करते थे। इसी ‘रुटीन’ काम के दौरान ही सोल असन्डर को एक ‘लाश’ मिलती है जिसकी सांसे अभी भी चल रही है। डाक्टर को बुलाया जाता है। डाक्टर आकर चुपचाप अपना काम करता है और उसकी सांसे बन्द कर देता है। सोल असन्डर अपने साथ के सन्दरकोमान्डो से कहता है कि यह उसका बच्चा है। लेकिन उसके दोस्त कहते हैं कि उसकी तो अभी शादी ही नहीं हुई है। लेकिन फिर भी सोल असन्डर जिद करता है कि यह उसका ही बच्चा है। दरअसल यह पूरा मामला एक ‘सुर्रियलिस्ट’ अंदाज में दिखाया गया है। शायद संभावित मेलोड्रामा से बचने के लिए और फिल्म को एक आध्यात्मिक उंचाई प्रदान करने के लिए। फिल्म के अन्त में यह समझ में आ जाता है कि फिल्म का ताना बाना ऐसा है कि इस बात का कोई मतलब नही है कि यह बच्चा सच में उसका है या नही।
बिना मकसद के मशीन की तरह, अपनी भावनाओं को मार कर काम कर रहे सोल असन्डर को अब एक मकसद मिल जाता है- ‘अपने बच्चे’ का अन्तिम संस्कार करने का। वहां सभी लाशों को एक साथ जला दिया जाता था। यहूदी धर्म में लाश को जलाना पाप है।
उस नाजी शिविर में एक लाश को गुपचुप तरीके से दफनाना बहुत ही खतरनाक था। लेकिन सोल असन्डर इस खतरनाक मिशन में लग जाता है। दूसरी तरफ उसके साथी सन्दरकोमान्डो इसी विपरीत परिस्थिति में इस नाजी शिविर के अन्दर ही एक बगावत खड़ी करने की गुपचुप तैयारी कर रहे हैं जिसमें सोल असन्डर की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन सोल असन्डर का अपना व्यक्तिगत मिशन ना सिर्फ इस बगावत की तैयारी में बाधा बन रहा है वरन् पूरी योजना को ही संकट में डाल सकता है।
पूरी फिल्म में हर चीज सोल असन्डर के ही दृष्टिकोण से दिखायी गयी है। इसके लिए ‘फिल्म स्टाइल’ भी वैसी ही रखी गयी है। पूरी फिल्म को हाथ के कैमरे से शूट किया गया है जो हर वक्त सोल असन्डर को ही बहुत नजदीक से फालो करता है और दर्शकों को उतना ही दिखाता है जितना सोल असन्डर देखता है। इस प्रयोग के कारण सोल असन्डर और दर्शकों के ‘विजन’ में एक तरह का तनाव पैदा होता है और परिणामस्वरुप उलझन पैदा होती है। दिलचस्प बात यह है कि ‘होलोकास्ट’ के सभी दृश्यों को ‘आउट ऑफ फोकस’ रखा गया है। दर्शकों को यह बात प्रेषित हो जाती है कि सोल असन्डर अपने रुटीन में इन दृश्यों को इतनी बार देख चुका है कि अब वह इसके प्रति जड़ हो चुका है यानी इन चीजों को वह देख कर भी नहीं देखता। बैकग्राउन्ड से लगातार आने वाले शोर-चीत्कार भी वैसी ही फीलिंग पैदा करते है जैसा ट्रैफिक में फंसे होन पर आप अनुभव करते है, जब आसपास की ‘मशीनों’ के साथ आपकी ज्ञानेन्द्रियां भी मशीनी हो जाती है। पूरी फिल्म में ‘लाइट’ को भी ‘डिफ्यूज्ड’ रखा गया है जो उस पूरे यातना शिविर के मूड को बहुत ही असरकारक तरीके से संप्रेषित कर देता है।
फिल्म के डायरेक्टर ‘लेज्लो नेमिस’[László Nemes] ने आजकल की आम फिल्मों से हटकर ‘लांग टेक्स’ का ज्यादा इस्तेमाल किया है, जो एक खास तरह के मूड की निरन्तरता को बनाये रखने में मदद करता है। फिल्म के साथ एक और विशेष बात यह है कि आज के डिजीटल युग में यह 35 एमएम ‘फिल्म’ पर शूट की गयी है।
यह फिल्म आसान फिल्म नही है और ना ही ‘खूबसूरत’ फिल्म है। लेज्लो नेमिस ने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी है कि हम शुरु से ही इसे एक खूबसूरत और बड़ी फिल्म नहीं बनाना चाहते थे। इस विषय पर बनी दूसरी फिल्मों जैसे ‘सिन्डलर्स लिस्ट’ से तुलना करते हुए नेमिस कहते हैं कि सिन्डलर्स लिस्ट ‘सरवाइल’ और उम्मीद की फिल्म है। सन ऑफ सोल ‘इनर सरवाइल’ की फिल्म है जहां कोई उम्मीद नहीं है।
दरअसल लेज्लो नेमिस का और प्रकारान्तर से इस फिल्म का यह दर्शन ही फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। यह कमजोरी इसलिए बहुत उजागर नही होती क्योकि आज हम जानते है कि नाजीवाद का और हिटलर का क्या हुआ। लेकिन कल्पना कीजिए कि नाजीवाद के रहते यह फिल्म बनती तो इस पर कैसी प्रतिक्रिया होती। नाजीवाद का सवाल या यहूदी कत्लेआम का सवाल एक राजनीतिक सवाल है। इससे सम्बन्धित नैतिक सवाल इसके मातहत ही है। लेकिन इस फिल्म में इसे एक नैतिक सवाल की तरह देखा गया है और इसे राजनीतिक सवाल से ऊपर रखा गया है।
दरअसल लेज्लो नेमिस लंबे समय तक हंगरी के ही मशहूर फिल्मकार ‘बेला तार’[Bela Tarr] के सहायक रहे है। नेमिस पर और उनकी इस फिल्म पर उनका प्रभाव साफ है। ना सिर्फ स्टाइल के मामले में वरन दृष्टिकोण के मामले में भी। बेला तार की लगभग सभी फिल्में जीवन और भविष्य के प्रति निराशा से भरी होती है। 2012 में जब उन्होने फिल्म निर्माण से सन्यास ले लिया तो इसका कारण यही बताया कि अब उनके पास कहने के लिए कुछ नही बचा। इसी से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण समझा जा सकता है।
‘सन ऑफ सोल’ लेज्लो नेमिस की पहली फिल्म है। और इसने काफी उम्मीद जगायी है। उम्मीद है कि आने वाले वक्त में वे बेला तार के दार्शनिक प्रभाव से निकलेंगे और सिनेमा के क्षितिज को और विस्तार देंगे।
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