‘मिनिस्ट्री आॅफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ : आज के दौर का एक राजनीतिक दस्तावेज

बाल्ज़ाक ने कहा था ‘फिक्शन वस्तुतः देशों का गुप्त इतिहास होता है।’ लेकिन अरुन्धती राॅय का उपन्यास ‘मिनिस्ट्री आॅफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ भारत देश के वर्तमान दौर का एक ‘ओपन सीक्रेट’ है। यह एक ऐसा सीक्रेट है जिसे हम जितना ही गुप्त रखने का प्रयास करते हैं वह उतना ही खुलता जाता है।

‘एक बिखरी हुयी दास्तान कैसे कही जाए?
धीरे-धीरे हर किसी में तब्दील होकर
नहीं
धीरे-धीरे हर चीज़ में तब्दील होकर……….’

’अरुन्धती राॅय की नयी किताब ( ’गाॅड आॅफ स्माल थिंग्स’ के 20 साल बाद आया उपन्यास) ‘मिनिस्ट्री आॅफ+ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ इन्हीं बिखरी हुयी दास्तानों को समेटने का काम करता है। ज़ाहिर है इन बिखरी हुयी दास्तानों को पढ़ते हुए पाठक ‘हरेक’ में तब्दील हो जाता है। हर व्यक्ति में, हर चीज+ में………। (अगर वह दास्तानों को इन अर्थों में लेने की आदी है तो)। कोई आश्चर्य नहीं अरुन्धती ने पिछले दस सालों (जबसे उन्होंने इस पर काम करना शुरू किया) में हर मसले को, हर सबब को, हर चरित्र को अपने ऊपर झेला होगा। उनका सहानुभूति से तदनुभूति में बदल जाना ही इस किताब की सार्थकता है। अरुन्धती के शब्दों में उन्होंने वही चित्रित किया है जो वह सांस ले रही हैं। भारत की फिज़ाओं में जो ज़हर घुल गया है उसमें हम सभी सांस लेने को मजबूर हैं। वे भी जो फ़िज़ाओं में ज़हर घोल रहे हैं।पर उम्मीद बिल्कुल खत्म नहीं हुयी है। अभी भी दिल्ली के जन्तर मन्तर पर तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद इस देश के हर तबके के प्रतिनिधि प्रतिरोध करने के लिए डटे हैं। इन्हीं प्रतिरोधों की पृष्ठभूमि में मिलती है एक नन्हीं सी बच्ची जिसकी कोई जाति नहीं, कोई धर्म नहीं, कोई मां-बाप नहीं। वह उस आन्दोलन की बेटी है जो अपने जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ रहा है। वह भविष्य की उम्मीद की एक उम्मीदवार है। जिसे खुशियों की एक ऐसी जगह पनाह मिलती है जो एक कब्रिस्तान में आबाद हुयी है। कब्रिस्तान में बना ‘जन्नत गेस्ट हाउस’। यहां समाज के ढेरों हाशियाकृत लोग और पशु पक्षी, पेड़-पौधे बारी-बारी से रहने आ जाते हैं। यह अनन्यतम खुशियों का मन्त्रालय है! इसे आबाद करने में सबसे बड़ी भूमिका है अंजुम की।
अंजुम जो पैदा हुयी तो उसे उसके मां बाप ने नाम दिया आफ़ताब। तीन बेटियों के बाद चैथा बेटा। लेकिन बेटा कभी आफ़ताब नहीं बन सका। वह वो नहीं था जिसकी उसके मां-बाप ने तमन्ना की थी, तीन बेटियों के बाद चैथा बेटा। वह एक अनिच्छित बेटी भी नहीं थी, जो भारतीय परिवारों में अक्सर बिना स्वागत के पैदा हो जाती हैं। वह एक उभयलिंगी बच्चा था। जिसकी प्रत्येक कोशिका में मादा हारमोन ज़्यादा तैर रहे थे। बरसों की उलझन, अपमान और अपने आप से संघर्ष करते हुए आफ़ताब शामिल हो जाता है ‘ख़्वाबगाह’ में जहां हिजड़ों की एक दूसरी दुनिया आबाद है जिससे ‘इस दुनिया’ का कुछ लेना देना नहीं है। जिसे ख़्वाबगाह के लोग ‘दुनिया’ कहते हैं वह तो उन्हें इंसान ही नहीं समझते, उनके प्रति प्रायः उदासीन रहते हैं। इस ख़्वाबगाह में आफ़ताब अंजुम हो जाती है। यहां ज़्यादा कम्फर्टेबल और महफ़ूज़ है वह। उस दुनिया में जहां उसकी मां उसे उतना ही प्यार करती है जितना अपने अन्य बच्चों को। लेकिन वह उसे दुनिया की नृशंस और क्रूर सोच से नहीं बचा पाती। अपने ख़्वाबगाह में पर्याप्त समय बिताने के बाद, वहां के तौर तरीके अपना लेने के बाद अंजुम एक बू्ढ़े व्यक्ति ज़ाकिर मिंया के साथ अजमेर शरीफ़ जाती है और वहीं से प्रसिद्ध कवि वली दकनी की मज़ार को एक बार देखने की हसरत लिए अहमदाबाद जाती है। यह वक्त वही है जब 2002 में गुजरात में मुस्लिमों के साथ वली दकनी की मज़ार का भी कत्लेआम हो रहा था। ज़ईफ़ ज़ाकिर मियां को हिन्दुओं ने मार दिया जबकि अंजुम बच गयी शायद इसलिए कि वह एक हिजड़ा थी। क्योंकि हिजड़े की हत्या करना हिन्दुओं के लिए एक अपशकुन होता है। (शायद उसी के आशीर्वाद से हिन्दुत्व की बेल आज फल फूल रही है) किस्मत ने पहली दफ़ा उसका साथ दिया। अहमदाबाद से वापस लौटने के बाद अंजुम वही नहीं रह जाती जो वह यहां से जाने के पहले थी। अन्त में एक झगड़े के बाद वह ‘ख़्वाबगाह’ छोड़ देती है और एक क़ब्रिस्तान में अपनी दुनिया बसाती है।
फिर तो किताब में बहुत कुछ है। जन्तर मन्तर है, जहां हर रंग हर शेड के आन्दोलनकारी हैं, कम्युनिस्ट हैं, भोपाल त्रासदी के आन्दोलनकारी हैं, कश्मीर के ग़ायब कर दिये गए बच्चों की मांएं है और अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी उपवास है। और इन सबमें अकेली छूट गयी नन्हीं सी बच्ची है जो अंजुम की नयी उम्मीद है। माब लिंचिंग है, ऊना है जहां दलित मरे हुए जानवर डीएम के कार्यालय के सामने फेंक कर प्रतिरोध जता रहे हैं और अपने आपको असर्ट कर रहे हैं। मनमोहन सिंह हैं, गुजरात के लल्ला हैं जिनकी 56 इंच छाती है, माथे पर तिलक है, जिनकी भावनाशून्य ठंडी आंखें हैं, जो भारत को ’हिन्दू पाकिस्तान’ बनाना चाहता है।
और हां उपन्यास में तिलोत्तमा है। तिलो जो ‘इस दुनिया’ से ‘उस दुनिया’ के बीच का पुल है। जो हममें आपमें से कोई भी हो सकता है बशर्ते हम वैसी नज+र रखें।
उपन्यास के एक बड़े हिस्से में कश्मीर है। ‘कश्मीर की सरज़मीन में प्यार करने से ज़्यादा आर्तनाद करना होता है’ (इसी किताब से)। इस ज़मीन पर आर्तनाद का सुर इतना प्रमुख है, जो हमारे ज़हनों में हर वक्त गूंजता रहता है। निश्चित रूप से प्यार के प्रतीक खूबसूरत बच्चे अभी भी पैदा हो रहे हैं इस ज़मीन पर। पर कुछ तो है जिसकी वजह से 10-11-12 साल के लड़के और अब लडकियों की भी मुट्ठियों में पत्थर आ जाते हैं। वे पत्थर उछाल रहे हैं माइटी भारतीय सेना पर जिनके लिए सेना प्रमुख बयान देते हैं कि काश उनके हाथों में हथियार होते तो दुनिया के ‘विशालतम लोकतन्त्र’ की पेशेवर सेना उनको युद्ध में अपने नवीनतम साॅफ़िस्टिकेटेड हथियार से परास्त कर देती। यानी उन्होंने स्वीकार कर लिया कि वे पत्थरों से हार रहे हैं। दरअसल ये पत्थर नहीं वह जज़्बा है जिससे वे हार रहे हैं। तभी तो मूसा (कश्मीरी क्रान्तिकारी) अपने एक समय के दोस्त आईबी (जिसका हृदय परिवर्तन हो चुका है?) अफसर से कहता है ‘भले हम गलत साबित हो जाएं, हम लड़ाई जीत चुके हैं।’………..‘तुम हम सभी को अपनी पैलेट गन से भले ही अन्धा कर दो, लेकिन यह देखने के लिए तुम्हारी आंखें खुली रहेंगी कि तुमने हमारे साथ क्या किया है। तुम हमें नहीं मार रहे तुम हमें रच रहे हो…….’(इसी किताब से)
उपन्यास का बड़ा हिस्सा कश्मीर की सरज़मीं है, जिसमें खूबसूरत वादियां नहीं, झेलम का शफ़्फ़ाक पानी नहीं….श्वेत धवल बर्फ के चित्र नहीं बल्कि बर्फ और झेलम के पानी में घुलता रक्त है जहां मानवाधिकार कार्यकर्ता वकील जालिब कादरी का शव बोरे में भर कर फेंक दिया जाता है। जहां भारतीय सेना का प्रतीक अमरीक सिंह है जो यातना देने के सारे गुर जानता है जो एक पेशेवर सेना के अधिकारी को आने चाहिए। अन्ततः वह कनाडा में शरण लेने को बाध्य होता है। डर वहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ता और वह अपने परिवार को गोली मार कर खुदकुशी कर लेता है। मूसा कहता है ‘एक दिन कश्मीर इसी तरह भारत को आत्मघाती बनने को बाध्य कर देगा।’
इस तरह अरुन्धती ने उस कश्मीर पर लेखनी चलाने का साहस किया है जिस पर बोलने से भारत का बुद्धिजीवी वर्ग बचता रहा है। साम्प्रदायिकता और दलितों पर बोलने का साहस तो अब बहुत से लोग करने लगे हैं लेकिन कश्मीर अभी भी भारतीय बुद्धिजीवियों का खासतौर से हिन्दी भाषा में लेखन करने वाले बुद्धिजीवियों का टैबू बना हुआ है।
यह समूचा उपन्यास एक जटिल उपन्यास है। यह ऐसा उपन्यास कतई नहीं है जहां एक कहानी शुरू होकर अपने अन्त तक जाती है। विभिन्न चमत्कारिक शीर्षकों में बंटे इस उपन्यास के हर अध्याय में एक अलग कहानी है। जिसको पढ़ते वक्त कई बार दिमाग में गिरहें पड़ने लगती हैं। दिमाग तनावग्रस्त हो जाता है…….सम्भवतः हमें समझ नहीं आ रहा…….जो कुछ लिखा है वह कठिन है। और अगर अंग्रेज़ी अच्छी न आती हो तो दुरूहता और भी बढ़ जाती है। लेकिन अन्त तक आते-आते उपन्यास उन गिरहों को खोलने लगता है और सारी बात समझ में आने लगती है। लगता है मानो गणित के किसी कठिन सवाल को हल करते समय शुरुआती मुश्किलों के बाद सूत्र खुलने लगते हैं और सवाल हल हो जाता है। दिमाग वैसे ही हल्का और उपलब्धता बोध से भर जाता है। हां, उपन्यास का नाम ‘मिनिस्ट्री आॅफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ से पाठक एकदम से कनेक्ट नहीं होता।
पुनः भाषा और शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास काफी जटिल और कठिन है। इसका एक कारण यह है कि यह उपन्यास कहने की आम विधा को तोड़ता है. लेकिन सभी बड़ी रचनायें न केवल अपनी विषयवस्तु में बल्कि अपने शिल्प में भी परम्परा को तोड़ती ही हैं. यह उपन्यास भी कहानी कहने की परम्परागत विधि को तोड़ता है. लेकिन विषयवस्तु के सन्दर्भ में अरुन्धती की राजनीति बिल्कुल साफ है। शुरुआत से अन्त तक उनकी पक्षधरता बिल्कुल तय है । वे अन्याय के खिलाफ़ शोषित-वंचितों के पक्ष में खड़ी नज़र आती हैं। और यही इस उपन्यास की ताकत भी है। आज के दौर में ऐसी ही साफ-शफ़्फ़ाक पक्षधरता की ज़रूरत है।
कुल मिलाकर यह उपन्यास आज के दौर का ज्वलन्त राजनीतिक दस्तावेज है।

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