मेघालय के पूर्वी जैनतिया पहाड़ी पर एक गैर कानूनी कोयला खदान में फंसे 15 खनिकों को आज 26 दिन बाद भी बचाया नहीं जा सका और अभी अभी खबर आ रही है कि वहीं पर पास की एक दूसरी गैरकानूनी कोयला खदान में एक बोल्डर गिर जाने से 2 मजदूरों की मौत हो गयी।
1931 में जर्मनी और फ्रांस के संयुक्त बैनर तले एक फिल्म बनी थी ‘कामरेडशिप’। यह फिल्म भी एक कोयला खदान की दुर्घटना पर केन्द्रित हैं जो फ्रांस और जर्मनी की सीमा पर स्थिति है। दरअसल यह फिल्म एक असल घटना पर आधारित है। 1906 में उत्तरी फ्रांस की एक खदान में हुई दुर्घटना में 1099 मजदूर मारे गये थे। फ्रांस और जर्मनी के बीच मौजूदा तनाव के बावजूद जर्मन खदान मजदूरों की एक टीम यहां बचाव कार्य के लिए आयी थी। इस ऐतिहासिक घटना को फिल्म के निर्देशक ‘जी डब्ल्यू पास्ट’ ने 1906 की सेटिंग में ना रखकर 1919 की ऐतिहासिक सेटिंग में रखा है। यानी प्रथम विश्व युद्ध के तुरन्त बाद या ‘वर्साई सन्धि’ के बाद।
फिल्म के पहले दृश्य में फ्रांस-जर्मनी सीमा पर व कोयला खदान के नजदीक एक जर्मन व एक फ्रेंच बच्चा कंचा खेल रहे है और कंचे के लिए ही लड़ जाते हैं। इसके बाद के एक दूसरे दृश्य में एक डांस क्लब में एक फ्रंेच लड़की एक जर्मन मजदूर के साथ डांस करने से इंकार कर देती है। जर्मन मजदूर इसे अपना अपमान समझता है। इन दो दृश्यों से निर्देशक स्पष्ट संकेत दे देता है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद विशेषकर वर्साई संधि के बाद दोनों देशों के बीच क्या सम्बन्ध है। इसके साथ ही खदान मजदूरों की जिंदगी की जद्दोजहद, युद्ध के बाद बढ़ती बेरोजगारी आदि के बहुत संजीदा व यथार्थवादी चित्र हैं। इसी बीच खदान से खबर आती है कि नीचे खदान में आग लगने से कई मजदूर फंस गये हैं। खदान मजदूरों के परिवार के लोग बदहवास खदान की ओर भागते हैं। एक बूढ़ा खदान मजदूर खदान कर्मचारियों से नजर बचाते हुए अकेले ही अपने पोते को खोजने खदान में उतर जाता है।
इसी बीच सीमा के इस पार जर्मनी में खदान मजदूरों को इस दुर्घटना के बारे में पता चलता है। एक जर्मन मजदूर स्वयं पहलकदमी लेते हुए एक भावनात्मक भाषण देता है और साथी मजदूरों से अपील करता है कि हमें उन्हें बचाने के लिए चलना चाहिए। उस समय के जहरीले राष्ट्रवादी माहौल के शिकार कुछ मजदूर इसका विरोध करते हैं और कुछ अपने बीबी बच्चों का हवाला देते हैं। तो जवाब मिलता है कि जो वहां खदान में फंसे हुए हैं उनके भी तो बीबी बच्चे हैं। उनके बारे में कौन सोचेगा। इस दिलचस्प बहस के बाद एक जर्मन टुकड़ी फ्रांस की सीमा की ओर चल देती है। उधर इस टुकड़ी को आता देख पहले यह कनफ्यूजन होता है कि जर्मन टुकड़ी हमले के लिए तो नहीं आ रही है। परन्तु बाद में कनफ्यूजन दूर होता है। और वहां विशेषकर खदान में फंसे मजदूरों के परिवार जनों द्वारा इनका जोरदार स्वागत होता है। और फ्रांस के बचाव दल के साथ जर्मन बचाव दल भी सक्रिय हो जाता है। यहां जब जर्मन बचाव दल का एक मजदूर और फ्रेंच बचाव दल का एक मजदूर आपस में हाथ मिलाते हैं तो कैमरा यहां जूम होता है और कुछ देर तक कैमरा टिका रहता है। फिल्म का पोस्टर भी इसी दृश्य का ‘फ्रीज फ्रेम’ है। सन्देश स्पष्ट है। आज के दौर में जब अन्ध-राष्ट्रवाद की जहरीली आंधी पूरी दुनिया में चल रही है तो यह दृश्य मन को बहुत सुकून देता है।
खदान के अन्दर जब एक फ्रेंच मजदूर, जर्मन मजदूर को मास्क लगाये आता देखता है तो उसकी युद्ध की यादें ताजा हो जाती है और खदान मानों युद्ध भूमि में बदल जाती है। फ्लैश बैक में युद्ध के दृश्य चलने लगते हैं, इसी बीच फ्रेन्च मजदूर उस जर्मन बचाव दल के मजदूर पर झपट पड़ता है और गुत्थम गुत्था हो जाता है। बड़ी मुश्किल से जर्मन मजदूर उसे अपने से अलग करता है तब जाकर उस फ्रेंच मजदूर को अहसास होता है कि यह जर्मन मजदूर अपना दुश्मन नहीं दोस्त है। वर्ग भाई है। यह पूरा दृश्य कमाल का है। और बिना किसी डायलाग के उस दौर की पूरी ट्रªेजडी [tragedy] को तो बयां करता ही है, उस दौर की आशा यानी ‘सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद’ की सर्वोच्चता को भी बहुत ही कलात्मक व असरदार तरीके से स्थापित कर देता है।
साम्राज्यवादी-पूंजीवादी हवस और अन्धराष्ट्रवाद के इस दौर में यह फिल्म अपने समय से कहीं ज्यादा आज प्रासंगिक लगती है।
फिल्म में कैमरा वर्क कमाल का है। उस दौर में जब हाथ वाले कैमरे अभी चलन में नहीं आये थे, ऐसे में खदान के अन्दर अनेकों एंगल से शुट करना आसान काम ना था (हालांकि खदान को कृत्रिम तरीके से डिजाइन किया गया था, लेकिन यथार्थ के आग्रह के कारण इसमें भी कैमरा-मूवमेन्ट के लिए काफी अवरोध थे।)। उस जमाने की फिल्म में ‘रिवर्स ट्रैकिंग शाट’ का इतना अच्छा इस्तेमाल आश्चर्य में डाल देता है।
सबसे बढ़कर बात तो यह है कि आज की फिल्मों में जब मजदूरों-किसानों व गरीबों के चेहरे गायब होते जा रहे हैं तो ऐसी फिल्म देखना बहुत ही शानदार अनुभव है जहां सिर्फ मजदूर ही मजदूर है और वो भी अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी और भविष्य के विजन के साथ। सच तो यह है कि सिनेमा से मजदूरों का रिश्ता काफी पुराना है,दरअसल ‘फिल्म’ ने सबसे पहले जिस चेहरे को चूमा था वह मजदूर का ही चेहरा था। ‘लुमये बन्धुओं’ ने 1895 में जो पहली फिल्म बनायी वह एक ‘फैक्ट्री गेट से निकलते मजदूरों’ की ही थी [और रोचक व सुखद बात यह है कि इसमें ज्यादा संख्या महिला मजदूरों की है]। लेकिन जैसे जैसे (विशेषकर 1970-80 के बाद) मजदूरों की विचारधारा समाजवाद ‘कमजोर’ पड़ने लगी और फिल्म माध्यम पर पूंजीवादी चाशनी चढ़ने लगी, वैसे वैसे जल जंगल जमीन से विस्थापन की तरह ही उनका फिल्मों के विषय से भी विस्थापन होने लगा।
लेकिन जैसे जल जंगल जमीन से विस्थापन के खिलाफ मजदूरों-किसानों का बहादुराना संघर्ष जारी है वैसे ही प्रतिबद्ध फिल्मकारों की एक धारा मजदूरों-किसानों को इस ‘वर्जित क्षेत्र’ में प्रवेश दिलाने के लिए फिल्म माध्यम में नये नये प्रयोग कर रही है। उन सभी लोगों के लिए यह फिल्म अंधकार में एक जलती मशाल की तरह है।