‘फ्रांसिस फुकोयामा’ के इतिहास के अन्त की घोषणा के ठीक 16 साल बाद ‘क्रिस एण्डरसन’ ने 2008 में अपने एक लेख में थ्योरी के अन्त (The End of Theory: The Data Deluge Makes the Scientific Method Obsolete) की भी घोषणा कर दी। जहां आंकड़ों की बाढ़ हो, वहां थ्योरी की क्या जरूरत है। ‘यूवल नोह हरारी’ ने इसे आंकड़ावाद (dataism) कहा है। इतिहास के अन्त के बाद अब थ्योरी के अन्त और आंकड़ावाद के इस दौर में मनुष्य और लोकतंत्र का भविष्य क्या है। डाटा के पहाड़ पर बैठी गूगल व फेसबुक जैसी टेक कम्पनियां किस तरह से दुनिया के तमाम देशों की लोकतान्त्रिक संस्थाओं को दीमक की तरह चाट रही हैं और इनके साथ मिलकर सरकारें पूरी दुनिया को एक एक्वेरियम [Aquarium] मे तब्दील कर रही है, इसी गंभीर विषय को ‘जेमी बार्टलेट’ ने अपनी पुस्तक The People Vs Tech: How the Internet is Killing Democracy (and how We Save It) में उठाया है।
यह किताब मुख्यतः पश्चिमी लोकतंत्र और वहां फेसबुक व गुगल जैसी विशालकाय टेक कम्पनियों के साथ इसके तनावपूर्ण रिश्ते की पड़ताल करती है। लेकिन इसका सन्दर्भ पूरी दुनिया पर लागू होता है।
जेमी बार्टलेट टेक कम्पनियों की ही भाषा में समस्या को इस तरह से सामने रखते है। लोकतंत्र का ‘हार्डवेयर’ और ‘साफ्टवेयर’ दोनों होता है। हार्डवेयर है वह संरचना जिसके तहत वोट डाले जाते है, फिर उसकी गिनती होती है आदि आदि। साफ्टवेयर है उस जनता का दिमाग जिसका प्रयोग करके वे उपयुक्त उम्मीदवार को वोट डालते है। लेखक कहते हैं कि हार्डवेयर तो वही है लेकिन साफ्टवेयर को यानी हमारे दिमाग को लगातार इन कम्पनियों द्वारा हैक किया जाता है या उसे प्रभावित किया जाता है। और जाहिर सी बात है कि यह किसी एक पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में किया जाता है। इससे सत्ता और इन टेक कम्पनियों का गठजोढ़ स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बन जाता है। लेखक अपने तर्क केे पक्ष में डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव का उदाहरण देता है। जिसे ‘कैम्ब्रिज एनालिटिका’ ने डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में सफलतापूर्वक प्रभावित किया। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने स्वीकारा कि उसने फेसबुक से मिले डाटा का इस्तेमाल किया। डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थन में यह प्रचार अभियान इतना विशेषीकृत था कि आश्चर्य होता है। कामकाजी माओं को जब डोनाल्ड ट्रम्प का प्रचार प्रेषित किया गया तो उन्हें डोनाल्ड ट्रम्प की सिर्फ आवाज सुनाई गयी। इसके पीछे का तर्क यह था कि गोरे अमरीकी पुरूषों के बीच ट्रम्प की जो ताकतवर नस्लवादी पितृसत्तावादी इमेज गढ़ी गई थी उससे कामकाजी महिलाएं अपने को नहीं जोड़ पायेगी। इसलिए उन्हें सिर्फ आवाज सुनाई गयी वह भी बहुत नरम आवाज में। यहां तक कि ट्रम्प जब अपने चुनाव में आनलाइन चंदा इकट्ठा कर रहे थे तो स्क्रीन पर जो बटन दिखायी देता था वह किसी के लिए लाल रंग का होता था, किसी के लिए हरे रंग और किसी के लिए नीले रंग का। यह व्यक्ति की उसके रंग की पसंद के अनुसार किया गया था। जाहिर है इसे व्यक्तिगत आंकड़ों को बिना उस व्यक्ति की अनुमति के इकट्ठा करके उसकी प्रोफाइलिंग बनाके किया गया था। पहले के प्रचार और आज के प्रचार में यही फर्क है। पहले यदि प्रचार की एक होर्डिग लगी है तो उसे कोई भी देख सकता है। लेकिन डाटा के इस युग में मेरे फोन पर मेरी प्रोफाइलिंग के आधार पर प्रचार आयेगा और आपके फोन पर आपकी प्रोफाइलिंग के आधार पर। यहां आप थ्योरी के अन्त की बात समझ सकते हैं। कोई व्यक्ति क्यो एक खास वेबसाइट्स पर जाता है, इसके पीछे के कारणों को जानने की अब कोई जरूरत नहीं है। टेक कम्पनियों के पास यह आंकड़ा है कि आप इन साइट्स पर जाते है। उन्हें बस इसी आकड़े की जरूरत है। जिन्हें वे अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकते हैं, सरकारों के साथ साझा कर सकते हैं या दूसरी कम्पनियों को बेच सकते है।
किताब की दूसरी महत्वपूर्ण प्रस्थापना यह है कि ‘कनेक्टिविटी’ और ‘वैश्वीकरण’ के इस दौर में हम ‘ट्राइबलवाद’ की ओर जा रहे हैं। लेखक के अनुसार डाटा की बाढ़ ने जनता के बीच की विभिन्नताओं को बुरी तरह से उभार दिया है। लेखक ने उदाहरण दिया है कि भले ही हम अपनी भौगोलिक जगह पर अकेले ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ हो लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हमेे यह पता चल जाता है कि दुनिया में दूसरी जगहों पर ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ किस हालात में रह रहे हैैं और उनके साथ उनका समाज कैसे पेश आ रहा है। इसी प्रक्रिया में इस तरह के सभी ‘ट्राइब‘ नेट पर अपने जैसे लोगो की तलाश में रहते हैं और उनके साथ लगातार जुड़ते रहते हैं। इस तरह कनेक्टिविटी के साथ साथ ही एक तरह की ‘रिवर्स कनेक्टिविटी’ भी चलती रहती है। और अपने अपने पुर्वाग्रहों के कारण इन ‘ट्राइब्स‘ में दूरियां बढ़ती रहती हैं।
यहां लेखक एक समान्यीकरण का शिकार हो गया है। वह इन ‘ट्राइब्स‘ में शोषित और शोषक या सटीक रूप से कहे तो दबाने वाला और दबा हुआ का बुनियादी फर्क भूल जाता है। निश्चय ही इण्टरनेट ने इस फर्क को बढ़ाया है, लेकिन यह फर्क समाज में पहले से है और इसके अपने निश्चित सामाजिक आर्थिक संास्कृतिक व राजनीतिक कारण हैं।
लेखक ने इस महत्वपूर्ण पहलू की ओर भी संकेत किया है कि गूगल, फेसबुक जैसी विशालकाय कम्पनियां सिर्फ अपनी रिसर्च के बल पर इतनी बड़ी नहीं बनी है। बल्कि इसके पीछे सैकड़ों उन छोटी ‘स्टार्टअप’ कम्पनियों की रिसर्च है जिन्हें ये कम्पनियां समय समय पर निगलती रही है। और आज भी निगल रही हैं। अपने देश में ही ‘ओला’ और ‘फ्लिपकार्ड’ का हस्र हम जानते है। हालांकि लेखक ने इस पहलू को नजरअंदाज किया है कि वास्तव में यह राज्य प्रायोजित फंडिग से संभव हुए रिसर्च का फायदा उठाकर ही ये कम्पनियां आगे बढ़ी है। ‘अप्रानेट’ (जिसे आज इण्टरनेट कहा जाता है) और ‘टच स्क्रीन’ जैसी बुनियादी चीजों की खोज जनता के पैसे से चलने वाले अनुसंधान कार्यक्रमों में हुई है। 1980-90 के बाद के निजीकरण ने इन खोजो का फायदा इन टेक कम्पनियों की झोली में डाल दिया। पिछले साल आई ‘Mariana Mazzucato’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘The Entrepreneurial State: Debunking Public vs. Private Sector Myths’ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। भारत में भी हमेशा से ही पब्लिक सेक्टर का ‘आउटपुट’ प्राइवेट सेक्टर का ‘इनपुट’ हुआ करता था।
लेखक ने इस बात को भी बहुत ही मजेदार तरीके से बताया है कि सभी टेक कम्पनियां लोगों को अपनी टेक्नालाजी के माध्यम से एक सुन्दर भविष्य के सपने के बारे में भरोसा करने को कहती है लेकिन वे लोग व्यक्तिगत तौर पर सुन्दर भविष्य में यकीन नहीं रखते। क्योकि उन्हें पता हैं कि वे अपने बिजनेस माडल के माध्यम से पूरी दुनिया में जो असमानता निर्मित कर रहे हैैं वह किसी ना किसी दिन सामाजिक भूकम्प जरूर लायेगा। इसलिए इन टेक कम्पनियों के मालिक पृथ्वी पर चारों तरफ सम्पत्तियां खरीद रहे है। ताकि एक जगह कोई दिक्कत हो तो तुरन्त दूसरी जगह बसा जा सके। कुछ तो परमाणु रोधी बंकर तक का निर्माण करा रहे है।
इसके अलावा लेखक ने ‘इण्टरनेट आफ थिंग्स’ (Internet of things) के बारे में भी रोचक तरीके से बताया हैं। जब वस्तुएं जैसे आपकी फ्रिज, कार, एयरकंडीशन आदि भी इण्टरनेट से जुड़ जायेंगे और आपस में ‘बात‘ करने लगेंगे तब आपके बारे में जो विशाल डाटा प्रवाहित होगा, उस पर कब्जा रखने वाली कम्पनियां इसका कुछ भी दुरूपयोग कर सकती हैं। और इन कम्पनियों से सांठ गांठ करके राज्य आपको एक्विेरियम [Aquarium] की एक छोटी मछली के रूप में तब्दील करने की क्षमता प्राप्त कर लेगा।
दरअसल लेखक ने जिन खतरों की ओर इशारा किया है, खतरा दरअसल उससे कहीं बड़ा है। खतरा ‘सर्विलान्स कैपीटलिज्म’ (Surveillance capitalism) का है, जो आज के बदले हुए राजनीतिक आर्थिक हालात में और कुछ नहीं बल्कि ‘फासीवाद’ है।
तमाम खूबियों और रोचक शैली के बावजूद इस किताब की बड़ी कमजोरी यह हैै कि यह टेक्नोलाजी को समाज में मौजूद वर्ग सम्बन्धों से अलग करकेे देखती है। इसलिए 20 सूत्री इसका समाधान भी कृत्रिम और यूटोपियन है। दरअसल जो दिक्कत टेक कम्पनियों के साथ बतायी गयी है ठीक उसी तरह की दिक्कत विज्ञान की दुसरी तकनीकों या धाराओं के साथ भी है और रही है। उदाहरण के लिए मेडिसिन के क्षेत्र में क्या हो रहा है। मुनाफे की जकड़न ने ‘प्रेस्क्रिप्शन डेथ’ (Prescription death) नामक एक नया शब्द ही गढ़ दिया है। अकेले अमरीका में 2017 में कुल 72000 लोग दवाओं के ओवरडोज या गलत दवाओं के कारण मरे। यानी 200 लोग प्रति दिन। इसमें डाक्टरों द्वारा लिखी जाने वाली गैर जरूरी दवाओं और प्रचार के असर में खुद मरीजों द्वारा दुकान से खरीदी गयी दवाएं शामिल हैं। एक ‘जीन रिसर्च प्रोग्राम’ को फंड कर रही ‘गोल्डमान साक’ [Goldman Sachs] की एक रिपोर्ट पिछले साल ही लीक हो गयी थी जिसमें उसने कहा कि कैसर के इलाज के लिए किया जा रहा जीन रिसर्च अच्छा बिजनेस माडल नहीं है। क्योकि जीन में परिवर्तन करने से व्यक्ति को अपने जीवन में कभी भी कैन्सर नहीं होगा और इससे दवा उद्योग को लगातार मिलने वाला मुनाफा बन्द हो जायेगा।
दूसरी बड़ी दिक्कत लेखक की यह है कि जब समाधान की बात आती है तो वे मध्य वर्ग की तरफ आशा भरी नजर से देखते हैं। समाज की निचली पायदान पर बैठे वर्ग यानी मजदूरों-किसानों को वे अपने डिस्कोर्स में जगह ही नहीं देते। जबकि बड़ी टेक कम्पनियों सहित तमाम कम्पनियों की मुनाफे की हवस के सबसे ज्यादा शिकार ये वर्ग ही है।
आज जब यह कहा जा रहा है कि ‘Data is the new oil’ तो यह नया आयल आम जनता का ही है। और इस आयल पर जनता की कब्जेदारी के साथ साथ आर्थिक राजनीतिक व सांस्कृतिक सस्थाओं व नीतियो पर भी इनकी कब्जेदारी से ही दुनिया बच सकती है और मानवजाति का भविष्य बच सकता है।
जेमी बार्टलेट ने इसी विषय पर बीबीसी के साथ मिलकर ‘सीक्रेट्स आफ सिलीकान वैली’ (Secrets Of Silicon Valley ) नामक महत्वपूर्ण डाकूमेन्ट्री भी बनायी है। उसे भी देखा जा सकता है।