लाॅकअप से वापस गाड़ी में बैठने के लिए वैसे ही लाइन में खड़े होना पड़ता है। जिन्होंने सीट खरीदी होती है, उन्हें पहले ही सीट पर बिठा दिया जाता है। उसके बाद शुरू होती है धक्का मुक्की। इस धक्का मुक्की से बचने के लिए हम जैसे लोग और बुजुर्ग और बीमार लोग लाइन के अंत में ही नज़र आते हैं। गाड़ी भरती जाती है या सटीक रूप से कहें तो ठूंसती जाती है, और निकलती जाती है। इसलिए हम जैसे लोगों को अक्सर अंतिम गाड़ी ही मिलती है। अब्बू और मैं दोनो ही बुरी तरह थक चुके थे। खैर किसी तरह हम गाड़ी में घुसे। अंधेरा हो चुका था। गाड़ी में भी अंधेरा था। गाड़ी पर जब बाहर की लाइट पड़ती तभी हम एक दूसरे को देख पा रहे थे। सभी बूढ़े-बीमार लोग किसी तरह गाड़ी के फर्श पर ही बैठ गये थे। इन्हें देखकर मुझे बार बार ‘कोयन ब्रदर्स’ की फिल्म ‘देयर इज नो कन्ट्री फार ओल्ड मैन’ का नाम याद आ रहा था। हालांकि फिल्म का कथानक एकदम अलग है। खैर सीट पर बैठे एक परिचित कैदी की गोद में अब्बू को बिठाकर मैं गाड़ी के पिछले दरवाजेनुमा चैनल पर टेक लेकर खड़ा हो गया। सुबह की तरह ही इस बार भी गाड़ी के हिचकोले लेते ही गांजा चरस का दौर शुरू हो गया और पूरी गाड़ी पुनः धुंए से भर गयी। मजेदार बात यह है कि गाड़ी में एक कैमरा भी लगा है। लेकिन इसे पूरा सम्मान देते हुए कैदी टोपी पहना देते हैं और कानूून की तरह कैमरा भी आंख बन्द कर लेता है।
अब शुरू हुआ फोन का दौर। बन्द चैनल के बाहर की ओर बैठे दोनो सिपाही 50-50 रूपये लेकर कैदियों को बात करा रहे थे। मेरी बगल में सीट पर बैठा एक कैदी लगातार फोन लेकर अपने साथी कैदियों को दे रहा था और खुद भी बात कर रहा था। अंधेरा होने के कारण मैं उसका चेहरा नहीं देख पा रहा था। फोन के इसी लेन देन के चक्कर में वह लगातार मुझे डिस्टर्ब कर रहा था। अन्ततः मैंने उसे डांटा कि क्यो मुझे बार बार धक्का दे रहे हो। यह सुनते ही उसने मुझे जोर का धक्का दे दिया, जिसके लिए मैं एकदम तैयार नहीं था। मैं गिरते गिरते बचा। मुझे बहुत तेज गुस्सा आया और मैंने उसका गला पकड़ लिया। उसने फिर मुझे जोर का धक्का मारा और मैंने उसी प्रतिक्रिया में उसे एक चांटा जड़ दिया। उसके बाद वह खड़ा हो गया और उसने मुझे धड़ाधड तीन चार मुक्के जड़ दिये। मेरा चश्मा नीचे गिर गया और टूट गया। साथी कैदी की गोद में बैठा अब्बू, जो रास्ते में ही सो गया था, इस लड़ाई झगड़े में उसकी नींद खुल गयी और शायद माहौल को समझते हुए वह जोर जोर से मौसा मौसा चिल्लाने लगा। इस बीच कुछ लोगो ने उसे और कुछ ने मुझे पकड़ लिया। मैं चिल्ला रहा था कि अपना नाम बता, जानता नहीं कि मैं कौन हूं। गाली ना दे पाने की आदत के कारण मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलूं, लेकिन मैं गुस्से में हांफ रहा था। शायद उसे भी अहसास हो गया था कि उसने गलत जगह हाथ छोड़ दिया था। लिहाजा वह कुछ बोल नहीं रहा था और चुपचाप कोने में बैठ गया था। तभी अचानक बाहर की स्ट्रीट लाइट गाड़ी के अन्दर झाड़ू मारते हुए गुजर गयी। इसी क्षणिक लाइट में मैंने उस कैदी को पहचाना जिससे अभी मेरा झगड़ा हुआ था। वह 24-25 साल का हट्टा कट्टा नौजवान था। झगड़े में मेरा उससे कोई जोड़ नहीं था। इसी लाइट में किसी कैदी ने मेरा चश्मा ढूढकर मुझे दिया। मुझे संतोष हुआ कि कांच नहीं टूटा है, महज फ्रेम टूटा है। कांच टूट जाता तो बहुत दिक्कत होती क्योकि मुझे उसका नम्बर याद नहीं। खैर इसी क्षणिक लाइट में मैंने जल्दी से अब्बू को गोद में उठा लिया। वह घबड़ाया हुआ था, लेकिन मैंने उसे आश्वस्त किया कि कुछ नहीं हुआ है। लेकिन किसी अनहोनी की आशंका में वह चैकन्ना हो गया था और मुझसे कसकर लिपट गया। अब मैं मन ही मन सोच रहा था कि मुझे क्या करना है। कल जब सीमा विश्वविजय आयेंगे तो पूंछूगा कि क्या करना चाहिए। सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि मैं उस कैदी का नाम नहीं जानता था और मेरे बार बार नाम पूछने पर कोई भी उसका नाम बताने को तैयार नहीं था। खैर एक बार फिर गाड़ी में शान्ती छा गयी, जैसे कुछ हुआ ही ना हो। मजेदार बात यह थी कि गाड़ी के पीछे बैठे दोनो सिपाही इस दौरान एकदम चुप थे, जैसे यह रोजाना की बात हो।
गाड़ी से उतरकर जेल में दाखिल होने पर नाम लेकर हाजिरी होती है। इसी हाजिरी में मैंने उसका नाम जान लिया और उसे ठीक से पहचान भी लिया। अब्बू पुनः मेरी गोद में सो चुका था। मैं भी अब पूरी तरह शान्त था और जल्दी से बैरक में अपनों के बीच पहुंचना चाहता था। लेकिन इसी बीच मेरी उस डिप्टी जेलर से भेंट हो गयी जो मुझसे बहुत अच्छे से पेश आता था और कुछ मुद्दों पर मुझसे राजनीतिक चर्चा भी कर लेता था। उसको देखकर मैं थोड़ा भावुक हो गया और ना चाहते हुए भी उसे पूरी घटना बयां कर दी। वह थोड़ा जल्दी में था और उसने मुझसे इतना भर कहा कि आप यह सब अपने सर्किल के डिप्टी जेलर को रिपोर्ट कर दिजिए। सर्किल में प्रवेश करते ही मैं सीधे सर्किल डिप्टी जेलर के पास गया और कुछ बोलने को हुआ ही था कि उसने तेज आवाज में कहा कि दूर खड़े होकर बात करो। यह सुनकर मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन मैं खून का घूंट पी कर रह गया। इस सिस्टम के भ्रष्ट अनैतिक और घामड़ लोग मुझसे दूर खड़े होने के लिए कह रहे है। बहरहाल मैंने जल्दी जल्दी संक्षेप में पूरी घटना रिपोर्ट कर दी। उसने मेरी बात पर ज्यादा तवज्जो ना देते हुए नम्बरदार को कहा कि इनकी पेशी नोट कर लो, कल बात करेंगे। यह कहकर वह चला गया। उसके जाने के बाद नम्बरदार ने मुझसे कहा कि अब दोनों को सजा मिलेगी, शायद दोनों का दौड़ा खुल जाय (जेल में दौड़ा खुलने का मतलब है कि आपको हर रात अपना बोरिया बिस्तर लेकर अलग अलग सर्किल के अलग अलग बैरक में रात गुजारनी होगी, इसे यहां बड़ी सजा मानी जाती है)। मैंने सोचा कि मैंने बेवजह ही बात खोल दी, पहले कल मुलाकात में सीमा विश्वविजय से सलाह लेनी चाहिए थी। खैर अब क्या हो सकता है। अब तो सुबह की पेशी का इन्तजार करना था।
थका हारा मैं अपनी बैरक पहुंचा और धीरे से फट्टे यानी बिस्तर पर अब्बू को लिटा दिया। मेरे साथी कैदियों ने तुरन्त पूछा कि चश्मा कहां है। उनके इस तरह प्यार से पूछने पर मैं फिर भावुक हो गया और यहां भी ना चाहते हुए मुझे पूरी बात बतानी पड़ी। मेरे बैरक के सभी 40 लोगोे में से करीब 25-30 मेरे फट्टे के नजदीक आकर लगभग मुझे घेर लिया। और मुझसे सहानुभूति व्यक्त करते हुए यह बताने लगे कि किसके किसके पास शिकायत की जानी चाहिए। अचानक एक कैदी ने कहा कि कल गिनती के वक्त सभी लोग डिप्टी जेलर के सामने खड़े हो जाते हैं और बोलते हैं कि हमारे बैरक के आदमी के साथ ऐसा क्यो हुआ। हम उन्हें बताएंगे कि मनीष भाई कैसे हैं। हम उसका दौड़ा खोलने के लिए बोलेंगे, जिसने मनीष भाई को मारा है और उनका चश्मा तोड़ा है। मेरे लिए कैदी भाइयों का यह भाव देखकर मेरी आंख में आंसू आ गये। इसी बीच अब्बू जाग गया था और ध्यान से सबकी बातें सुन रहा था और बीच बीच में मेरे चेहरे की तरफ देखे जा रहा था। उस वक्त अब्बू मुझे मशहूर इटैलियन फिल्म ‘बायसिकल थीफ’ के उस बच्चे की तरह लग रहा था जो अपने रोते हुए पिता को देखता है और समझ नहीं पाता कि मैं अपने पिता के लिए क्या करूं। रात में एक साथी कैदी ने बहुत इसरार करके मुझे सीने पर मालिश करवाने के लिए बाध्य कर दिया। हालांकि मुझे इसकी जरूरत नहीं थी। कैदियों का यह प्यार और सरोकार देख कर मैं मन ही मन सोच रहा था कि जेल इतनी बुरी जगह भी नहीं है। रात में सोते वक्त अचानक अब्बू ने कहा-‘मौसा तुम्हे चोट भी लगी है।’ मैंने कहा, नही तो। फिर वह मुझसे लिपट कर सो गया। शारीरिक-मानसिक रूप से थके होने के कारण मुझे भी नींद आ गयी।
सुबह गिनती के समय वास्तव में साथी कैदी डिप्टी जेलर के सामने सामूहिक रूप से खड़े होने का मन बना चुके थे। मैंने तो समझा था कि भावावेश में उन्होंने कह दिया होगा। क्योकि सामूहिक रूप से डिप्टी जेलर के सामने खड़े होना विरोध प्रदर्शन का एक तरीका माना जाता है और जेल प्रशासन इसे अपना अपमान समझता है। जब कैदियों ने आकर मुझे अपने इस निर्णय के बारे में बताया तो मैं असमंजस में पड़ गया। अभी मैं इस स्तर तक नही जाना चाहता था। और फिर यदि जेल प्रशासन ने इसका बदला लिया तो मेरे अलावा और कैदी भी फंस सकते हैं। अन्ततः मैंने उन्हें सामूहिक रूप से खड़े होने से मना कर दिया। मैंने उन्हें समझाया कि आज मेरी पेशी है। यदि पेशी में मेरे मनोनुकूल फैसला नहीं होता है तब कल सुबह सब खड़े होना। वे लोग मान गये।
अन्ततः डिप्टी जेलर के सामने मेरी पेशी हुई। जिस लड़के ने मुझे मारा था, वह भी वहां था। मैंने मन ही मन कुछ तय कर लिया और भिड़ने को तैयार हो गया। साथी कैदियों ने जो भाव मेरे प्रति दिखाया था, उससे मेरी स्प्रिट हाई थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से डिप्टी जेलर का रूख मेरे प्रति बदला हुआ था। उसने मुझसे बहुत सम्मान से कहा-‘श्रीवास्तव जी मुझे कल रात आपके बारे में पता चला। चलो अब आप ही बताओ कि इसे क्या सजा देनी है। आपको इसे मारना हो तो मार लीजिए।’ फिर उसने उस लड़के की तरफ मुखातिब होकर उसे डांटा-‘चल माफी मांग।’ उसने तुरन्त मेरा घुटना छूते हुए मुझसे माफी मांगी। रात में जिस तरह से उसके घूंसे ने मुझे हतप्रभ कर दिया था, ठीक उसी तरह इस समय उसके माफीनामे ने मुझे हतप्रभ कर दिया। मैंने जल्दी ही अपने आप को संयत किया और बोला कि जो सजा देनी हो आप दीजिये, मैं कौन होता हूं सजा देने वाला। डिप्टी जेलर को जैसे कुछ याद आ गया और वह उठ गया। बोला कि मैं 10 मिनट में वापस आता हूं। अब कमरे में सिर्फ मैं और वह लड़का व डिप्टी जेलर का एक नम्बरदार था। डिप्टी जेलर के जाते ही वह मेरे सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा कि मुझे नहीं पता था कि आप कौन हैं। उसने आगे कहा कि कल मेरी बेल रिजेक्ट हो गयी थी और मैं बार बार घर वालों को फोन मिला रहा था और फोन लग नहीं रहा था। बेल रिजेक्ट होने और फोन ना मिलने से मैं तनाव में था। इसलिए ऐसा हो गया, वरना मैं किसी से उलझता नहीं हूं। फिर उसने कहा कि लाइये चश्मा मुझे दे दीजिए, मैं बनवा दूंगा। मैं सोच ही रहा था कि क्या किया जाय, तभी डिप्टी जेलर वापस आ गया। अब मैं भी उसे माफ करने का मन बना चुका था। मैंने डिप्टी जेलर के सामने कहा-‘ठीक है, मैंने उसे माफ किया।’ यह सुनकर डिप्टी जेलर खुश हो गया। उसके इस भाव से मुझे यह समझते देर ना लगी कि डिप्टी जेलर इस लड़के को बचाना चाहता था। बाद में मुझे पता चला कि यह लड़का राइटर (एक जिम्मेदारी का पद जिसे थोड़ा पढ़े लिखे कैदियों को दिया जाता था) था और यह डिप्टी जेलर इस लड़के के माध्यम से बहुत से भ्रष्टाचार के काम भी करता था। डिप्टी जेलर ने फिर उससे दोबारा से माफी मांगने को कहा और मेरी तरफ देखकर बोला-‘आप अपना चश्मा इसे दे दीजिये। यही बनवायेगा।’ मैंने मना कर दिया। मैंने कहा कि नहीं, आज मेरी बहन मिलने आयेगी, मैं उसे ही दूंगा बनवाने के लिए। अब वह थोड़ा चैकन्ना हो गया। उसने कहा कि आपकी बहन पूछेंगी तो आपको बताना पड़ेगा कि चश्मा कैसे टूटा। मैंने कहां – हा बता दूंगा। फिर उसने तुरन्त कहा-‘लाइये चश्मा मैं बनवा दूंगा, सरकारी खर्च पर।’ फिर उसने असल बात बतायी। उसने कहा कि अगर आप अपनी बहन को यह सब बताएंगे तो यहां के अधीक्षक तक बात जायेगी (अब तक उसे पता चल चुका था कि मेरी बहन का अधीक्षक से थोड़ा परिचय है) और लड़के का दौड़ा खुल जायेगा। उसकी रायटरी भी चली जायेगी। उसने आगे जोड़ा कि आप लोग तो बुद्धिजीवी लोग हैं, क्यो इस बेचारे का दौड़ा खुलवायेंगे। यह सुनकर वह लड़का भी थोड़ा डर गया। मैंने डिप्टी जेलर को अपना टूटा चश्मा दिया और उससे कहा कि ठीक है नहीं बताउंगा। फिर मैंने उस लड़के से हाथ मिलाया। उसके चेहरे पर अब खुशी और कृतज्ञता का भाव था। लेकिन मेरा मन बेचैन था। इसलिए नहीं कि मैंने उसे माफ कर दिया था, इससे तो मुझे खुशी ही हो रही थी, बल्कि इसलिए कि इतनी बड़ी चीज मैं अपनी प्यारी बहन से छुपाउंगा कैसे। फिर मैंने सोचा कि उसे बता दूंगा और कहूँगा कि मामला मेरे पक्ष में ही हल हो गया है। इसलिए वह किसी से ना कहे। लेकिन मैं जानता था कि मेरी तरह वह भी बहुत इमोशनल है और फिर मुलाकात में इतना समय नहीं मिलता कि मैं चीजों को कायदे से व्याख्यायित कर पाउं और उसे आश्वस्त कर पाउं कि अब सब ठीक है। लिहाजा मैंने फैसला कर लिया कि उसे कुछ नहीं बताउंगा। अब दूसरी दिक्कत अमिता की थी, जिससे 2 दिन बाद ही मुलाकात होनी थी। यदि मैं उसे बताता हूं तो वह बेहद परेशान हो जायेगी और उसका शुगर लेवल बढ़ जायेगा। उसके साथ भी 15-20 मिनट की मुलाकात में कैसे आश्वस्त करूंगा कि अब सब ठीक है। वह वहां हमेशा इसी चिन्ता में रहती थी कि मेरा किसी से झगड़ा ना हो। मैंने फैसला किया कि उसे भी नहीं बताना है। अब तीसरी दिक्कत अब्बू था, जो अब धीरे धीरे कड़ियों को जोड़ कर पूरी घटना समझ चुका था। उसे भी मैंने समझा दिया कि सीमा आजाद और मौसी को नहीं बताना है। प्यारा अब्बू मेरा कहना कैसे टाल सकता था। लेकिन फिर भी तुरन्त बोला-‘क्यो?’ मैंने कहा-‘इसलिए।’ उसने फिर जवाब दिया-‘ठीक है मौसा, जैसा तुम कहो।’
और वह घड़ी आ गयी जब जाली के उस तरफ सीमा विश्वविजय खड़े थे। विश्वविजय दूसरी तरफ अमिता से बात कर रहे थे और सीमा मेरे सामने खड़ी थी। मिलते ही सीमा ने पूछा कि चश्मा कहां है। यह सुनते ही मुझे रोना आ गया, लेकिन मैंने बड़ी मुश्किल से अपने आंसुओं को पीछे ढकेला। जब आप जेल में होते है तो आपको यह काम अक्सर करना होता है। तभी तो ‘वरवर राव’ ने भी अपनी जेल डायरी में लिखा है-‘पलको में आंसुओं को छुपाकर मुस्कुराने की जगह है जेल।’ बहरहाल तभी वह लड़का मेरा चश्मा लेकर वहां आ गया। मैंने चश्मा पहनते हुए सीमा से कहा कि ऐसे ही गाड़ी में गिरने से टूट गया था। यहीं जेल में ही बन गया। सीमा ने नये फ्रेम की तारीफ की और हम दूसरी बातों में मशगूल हो गये।
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