अंत की शुरुआत……….

दार्शनिक दृष्टी से देखेँ तो ‘अंत’ कुछ नही होता। हर ‘अंत’ के साथ एक अनिवार्य ‘शुरूआत’ जुड़ी होती है। इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने ‘अब्बू की नज़र में जेल’ का अन्तिम भाग असली ‘अब्बू’ को भेजा और फिर फोन से उससे बात हुई। दरअसल मैं ‘अब्बू की नज़र में जेल’ का प्रत्येक भाग सबसे पहले असली अब्बू को भेजता था। 7 साल का हो चुका अब्बू धीमे धीमे एक-एक लाइन पढ़ता। जहां उसे दिक्कत होती, अपनी ईजा की मदद लेता। उसके बाद वह मुझे फोन करता कि मौसा मैंने तेरी डायरी पढ़ ली। मैं बोलता कि सच में तूने पढ़ ली। वह बोलता, और क्या, चाहो तो टेस्ट ले लो। फिर मैं डायरी के उस हिस्से से कुछ पूछता और वह सही सही जवाब देता। फिर मैं उसे पदुम नम्बर देता। कई बार वह पलट कर खुद भी सवाल करता। जैसे 12 वां भाग पढकर उसने बड़ी चिन्ता से पूछा कि मौसा ‘कादिर’ को अब कौन निकालेगा। उसकी तो मां भी नहीं है। मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही वह खुद बोल पड़ा-‘मौसा उसे तुम क्यो नही निकाल सकते।’ मैंने उसे आश्वस्त किया कि ठीक है मैं उसे निकाल लूंगा।
जब मैंने अब्बू को डायरी का अन्तिम हिस्सा भेजा तो उसने डायरी पढ़कर मेरे सवालों का जवाब देने के बाद अचानक बोला-‘मौसा, काश कि मैं भी तेरे साथ जेल में होता।’ मैं चौक गया। मैंने तुरन्त पूछा-‘अब्बू तुझे जेल से डर नहीं लगता?’ अब्बू तुरन्त बोला-‘पहले लगता था, लेकिन तुम्हारी डायरी पढ़ने के बाद नहीं लगता।’ मेरी जेल डायरी का इससे अच्छा अन्त और क्या हो सकता है। इसने एक नयी शुरूआत को जन्म दे दिया। मेरे जेहन में ‘गोरख पाण्डेय’ की एक मशहूर कविता गूंजने लगी-
वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे

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