साम्राज्यवाद की गिरफ्त में ‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ [AI]

पूंजीवाद अपनी शुरुआत से ही अपने लिए एक ऐसे क्षेत्र की तलाश करता रहा है, जहाँ उस पर कोई नियम-कानून लागू न हो. जहाँ वह अपनी मूल प्रकृति के साथ काम कर सके और निर्बाध मुनाफा कमा सके. उपनिवेशवाद के दौर में एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका वे क्षेत्र थे जहाँ पूंजीवाद अपने सबसे नंगे और क्रूर रूप में मौजूद था और इन देशों के मानवीय/प्राकृतिक संसाधन लूट कर अपने देश [यूरोप-अमरीका] ले जाता रहा है, जहाँ एक हद तक उसे कुछ नियम-कानून के तहत काम करना पड़ता था.
आज के पूंजीवाद यानी साम्राज्यवाद के लिए इन्टरनेट की दुनिया या ‘क्लाउड’ की दुनिया वह क्षेत्र है, जहाँ फिलहाल कोई प्रभावी नियम-कानून लागू नहीं है. पूंजीवाद यहाँ अपने सबसे नंगे और क्रूर रूप में मौजूद है.
चिप बनाने वाली मशहूर कंपनी इंटेल [INTEL] के CEO Andy Grove को उधृत करते हुए गूगल के पूर्व CEO Eric Schmidt ने 2011 में ‘वाशिंगटन पोस्ट’ को दिए एक इंटरव्यू में खुलासा कर दिया कि ये कम्पनियाँ कभी भी किसी नियम-कानून के दायरे में नहीं आयेंगी- ‘’उच्च तकनीक वाली कंपनियां सामान्य व्यापार करने वाली कंपनियों से तीन गुना तेज़ चलती हैं. और सरकारें सामान्य व्यापार करने वाली कंपनियों से तीन गुना पीछे चलती हैं. अतः हमारे और सरकारों के बीच 9 गुने का फर्क है…इसलिए आप महज यह चाहते हैं कि सरकारें हमारे रास्ते में न आयें और चीजों को धीमा न करें.’’
[https://www.washingtonpost.com/national/on-leadership/googles-eric-schmidt-expounds-on-his-senate-testimony/2011/09/30/gIQAPyVgCL_story.html]
‘Eric Schmidt’ एक अन्य जगह इसे दूसरी तरह से कहते हैं- “तकनीक इतनी तेजी से बदलती है कि सरकारों को वास्तव में इसे नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करना चाहिए, क्योकि यह बहुत तेजी से बदलती है…..हम किसी भी सरकार के मुकाबले कहीं अधिक तेजी से आगे बढ़ते हैं.’’
[https://www.businessinsider.com/eric-schmidt-google-eg8-2011-5?IR=T]
ठीक इसीलिए अपनी बहुचर्चित किताब ‘The Age of Surveillance Capitalism’ में ‘Shoshana Zuboff’ गूगल, फेसबुक जैसी कंपनियों की तुलना पिछली शताब्दी के ‘robber barons’ से करते हुए लिखती हैं- ’’कानून-विहीन जगह के इन दावों की तुलना पिछली शताब्दी उन रबर बैरोन [robber barons] से उल्लेखनीय रूप में की जा सकती है. गूगल के मालिकों की तरह ही उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में वे बड़े पूंजीपति अपने हित में उन अरक्षित क्षेत्रों पर अपना दावा ठोकते थे, उन क्षेत्रों पर अपने विशेषाधिकारों को उचित ठहराते थे और किसी भी तरीके से अपने नए पूंजीवाद को लोकतंत्र से बचाते थे.’’ [page-105-6]

ग्रीस के वित्त-मंत्री रह चुके और मशहूर लेखक Yanis Varoufakis इंटरनेट की इस दुनिया को उचित ही ‘क्लाउड एम्पायर’ [Cloud Empires] की संज्ञा देते हैं. हमारे रोज मर्रा के जीवन से पैदा होने वाले असंख्य ‘मामूली’ डेटा को अपने इस साम्राज्य में गूगल, फेसबुक, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी बिलियन-ट्रिलियन डॉलर बहुरास्ट्रीय कम्पनियाँ प्रोसेस करती हैं, उनसे नए नए मॉडल बनाती हैं और ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस’ [AI] के बहुविध प्रकारों को ट्रेंड [Machine Learning] करती हैं.
डेटा के इसी महत्व के कारण आज के साम्राज्यवादियों का यह नारा बन चुका है कि ‘डेटा इज़ न्यू आयल’ [Data is the new oil].
आगे बढ़ने से पहले हम एक नज़र इस पर डाल लेते हैं कि आखिर डेटा है क्या? और यह इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया है. एक उदाहरण लेते हैं. अगर आप बाज़ार जाने से पहले कागज़ पर जरूरी सामानों की लिस्ट तैयार करते हैं और फिर घर आने के बाद उस बेकार हो चुके कागज़ के टुकड़े को फाड़ कर डस्ट-बिन में डाल देते हैं, तो कहानी यहीं पर खत्म हो जाती है. लेकिन अगर आप अपने सामानों की यह लिस्ट कागज़ के एक टुकड़े पर नहीं बल्कि ‘Google Keep’ जैसे किसी app पर बनाते हैं तो कहानी बिल्कुल अलग हो जाती है. आपकी इस मामूली सी लिस्ट को Google Keep पर मौजूद लाखों-करोड़ों अन्य लिस्ट के साथ सम्मिलित [merge] कर दिया जाता है और लाखों-करोड़ों ऐसे मामूली डेटा की प्रोसेसिंग करके अनेकों मॉडल तैयार किये जाते हैं. इन मॉडल्स के आधार पर हमारे जैसे उपभोक्ताओं के [और खास व्यक्ति का भी] ‘ उपभोक्ता व्यवहार’ [consumer behavior] का अनुमान लगाया जाता है और फिर इसे तीसरी पार्टी [third party] को बेचा जाता है.
पहले उदाहरण में आपने अपने दो अधिकारों का इस्तेमाल किया था. पहला ‘निजता का अधिकार’ और दूसरा ‘भूल जाने का अधिकार’ [Right to be Forgotten, जब आपने लिस्ट को फाड़ कर डस्ट-बिन में डाल दिया]. लेकिन ‘Google Keep’ वाले दूसरे उदाहरण में आपसे यह दोनों अधिकार छीन लिया जाता है. बिना आपको सूचित किये.

लेकिन कहानी अभी भी खत्म नहीं हुई है. गूगल हमारी नितांत निजी सूचनाओं से पैसे कमा रहा है, बिना हमे एक पाई दिए. और इन सूचनाओं पर आधारित माडलों [‘customer behavior prediction models’] को जो कंपनियां [उदाहरण के लिए ‘रिलायंस फ्रेश’] खरीदेंगी उन्हें बिजनेस में भारी फायदा [advantage] मिलेगा और उनके सामने छोटा दुकानदार जल्दी ही मार्केट से बाहर हो जायेगा, क्योंकि उसके पास ये महत्वपूर्ण सूचनाएँ नहीं होंगी. नतीजा होगा एकाधिकार. और इस एकाधिकार से एक ओर बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ेगी दूसरी ओर धन का केंद्रीकरण बढ़ेगा. और फिर इस धन से देश की राजनीति को प्रभावित करना और आसान हो जायेगा.
इसके अलावा ‘उपभोक्ता व्यवहार संभावना माडल’ [customer behavior prediction models] के कारण हमारे पास ‘लक्षित विज्ञापन ’ [targeted ad] आयेंगे और हम उनके बनाये इस मॉडल में कैद होकर रह जायेंगे. यानी वे हमारे व्यवहार को भी बदलने का प्रयास करेंगे ताकि हम ‘अच्छे उपभोक्ता’ बन जाये. यानी ये कम्पनियां हमारे ‘व्यवहार बेशी’ [behavior surplus] के आधार पर हमारे व्यवहार को बदलने का काम [behavior modification] भी करेंगी.
यहाँ उदाहरण जरूर ‘भविष्य काल’ में है. लेकिन आज यह बड़े पैमाने पर घटित हो रहा है.
अब आप इसमें अपनी अन्य ऑनलाइन गतिविधियों को भी जोड़ लीजिये. आपने कितनी बार गूगल किया, किन-किन वेबसाइटों पर गये [एक अनुमान के अनुसार अगर आप 100 वेबसाइट पर जाते हैं तो आपके कम्प्युटर/फोन में करीब 7 हजार ‘कुकीस’ [cookies] स्टोर हो जाती है.और इनमे से करीब 80 प्रतिशत ‘थर्ड पार्टी कुकीस’ होती हैं, जिनका आप द्वारा देखे गये वेबसाइट से कोई सम्बन्ध नहीं होता], क्या आर्डर किया, कितनी बार ऑनलाइन पेमेंट किया, कितनी बार ‘अलेक्सा’ जैसे टूल्स का इस्तेमाल किया कितनी बार सेल्फी ली, कितनी बार फेसबुक, इंस्ट्राग्राम पर गये, कितनी बार वाट्सऐप किया, ‘चैट जीपीटी’ [ChatGPT] से कितने सवाल पूछे और कितनी बार उसे करेक्ट किया आदि आदि… और अगर आपने ‘स्मार्ट वाच’ भी पहन रखी है तो ‘दिल की धड़कन’ और ‘स्लीप पैटर्न’ जैसी नितांत निजी जानकारी भी. यानी पिछले 24 घंटे में आपने सैकड़ों- हजारों सूचनाएँ पैदा की हैं. आपके द्वारा पैदा की हुई इन सूचनाओं पर दुनिया की चंद बड़ी कंपनियों गूगल/फेसबुक/माइक्रोसॉफ्ट/एप्पल….का कब्ज़ा ठीक उसी प्रकार से है जैसे फैक्ट्री में मजदूरों द्वारा बनायी गयी चीजों पर पूंजीपति का होता है.
यह ठीक वैसे ही है जैसे अडानी को लगभग मुफ्त में कोयले की खदाने मिली हैं और वह उसे बेच कर अकूत मुनाफा कमा रहा है.
इसके अलावा हम एक उपभोक्ता के साथ-साथ एक सामाजिक/राजनीतिक व्यक्ति भी हैं. इसलिए ‘सामाजिक कैशिंग’ [social caching] के जरिये हमारी व्यक्तिगत सूचनाओं को इकठ्ठा करके हमारी ‘व्यक्तिगत/सामुदायिक प्रोफाइलिंग’ भी की जाती है. इसकी खरीददार व्यावसायिक कम्पनियाँ नहीं, बल्कि सरकारें होती हैं. इन प्रोफाइल के आधार पर राजनीतिक दल ‘व्यक्ति लक्षित’ [micro-targeted] चुनाव प्रचार करते हैं.
कुख्यात ‘कैम्ब्रिज एनैलिटिका’ का उदाहरण हमारे सामने है. ‘कैम्ब्रिज एनैलिटिका’ ने फेसबुक के करोड़ों डेटा का इस्तेमाल करते हुए अमेरिकी मतदाताओं की प्रोफाइलिंग की और इसके आधार पर अनेको मॉडल बनाये और ट्रम्प की प्रचार रणनीति में मदद करते हुए करोड़ों अमेरिकी मतदाताओं को गलत तरीके से प्रभावित किया. भारत के चुनावों में भी ‘कैम्ब्रिज एनैलिटिका’ की भूमिका साबित हो चुकी है [https://theprint.in/politics/exclusive-inside-story-cambridge-analytica-actually-india/44012/].
यानी इसने भविष्य में चुनावों को ‘हैक’ करना आसान बना दिया है. और चुनावों को ‘हैक’ करने का मतलब है लोकतंत्र को ‘हैक’ करना. और यह ‘हैकिंग’ अब बड़े पैमाने पर शुरू भी हो चुकी है.
इसके अलावा इसका इस्तेमाल सरकारे अपने नागरिकों पर ख़ुफ़िया निगरानी रखने के लिए भी कर रही हैं. ‘सोशल फिजिक्स’ [Social Physics] के लेखक ‘Alex Pentland’ तो यह दावा करते हैं ‘डेटा ड्रिवेन मैथमेटिकल माडल’ [data-driven mathematical model] से हम जनता के सामाजिक व्यवहार का पहले ही पता लगा सकते हैं. और उसके हिसाब से रणनीति बना सकते हैं.
यानी ये कंपनिया प्रतिक्रियावादी सरकारों के साथ मिलकर समाज को एक ‘मछलीघर’ [Aquarium] में बदल देना चाहती हैं जहाँ प्रत्येक ‘मछली’ की प्रत्येक गतिविधि पर नज़र रखी जा सके. इसी सन्दर्भ में गूगल और NSA/CIA के रिश्ते को ‘Shoshana Zuboff’ इस तरह बयां करती हैं- ’24 भाषाओँ में 15 मिलियन दस्तावेजों की खोज करने में समर्थ सर्च उपकरण [ search appliance] के लिए एन.एस.ए ने गूगल को पैसे दिए…….. 2003 में गूगल ने अपने इंटरलिंक मैनेजमेंट ऑफिस [Interlink Management Office] के लिए सीआइए के साथ विशेष संपर्क के तहत अपने सर्च इंजन को भी अनुकूलित [customizing] करना शुरू किया. [‘The Age of Surveillance Capitalism’, p-117]

ऊपर कही गयी बातों के अलोक में देंखे तो ‘The Costs Of Connection’ के लेखक का यह सूत्रीकरण बेहद महत्वपूर्ण है- ’’सार रूप में देंखे तो डेटा उपनिवेशवाद [Data colonialism] उभरती हुई वह व्यवस्था है जहाँ मानव जीवन का विनियोजन [appropriation] किया जाता है, ताकि मुनाफे के लिए इससे डेटा का लगातार दोहन किया जा सके. डेटा संबंधों [data relations] व डिजिटल उपकरणों के जरिये एक दूसरे से व दुनिया से विभिन्न तरीकों से बनाये जाने वाले संबंधों के जरिये इस दोहन को कार्यान्वित किया जाता है. डेटा संबंधों [data relations] के जरिये न सिर्फ मानव जीवन को पूंजीवाद अपने वश में कर लेता है, बल्कि उसे लगातार अपनी निगरानी [surveillance] में भी रखता है. इसका परिणाम यह होता है कि मानव जीवन की स्वायत्तता बुनियादी रूप से खंडित हो जाती है और इससे स्वतंत्रता के उस मूल्य के बुनियादी आधार के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है जिस मूल्य की प्रशंसा पूंजीवाद के समर्थक करते रहते है.’’ [उसी किताब की भूमिका से]
‘औद्योगिक पूंजीवाद’ प्रकृति और मानवीय श्रम का इस्तेमाल करके मुनाफा कमाता था. आज इन दोनों के साथ एक और तत्व जुड़ गया- व्यक्ति का समूचा अनुभव यानि खुद व्यक्ति ही. जिस तरह से पूंजीपति सोते समय भी पैसे कमाता है, ठीक उसी तरह एक आम आदमी सोते समय भी बगल में रखे अपने फोन से गूगल/फेसबुक जैसी कम्पनियों के लिए डेटा पैदा करता रहता है. और जिस तरह से औद्योगिक पूंजीवाद ने प्रकृति को बरबाद किया है, उसी तरह से यह ‘नया’ पूंजीवाद ‘व्यवहारगत बदलाव’ [behavior modification] द्वारा मानव प्रकृति को बर्बाद कर रहा है.
इसी ‘विशाल डेटा फ्लो’ [huge data-flow] पर खड़े होकर लाखों AI विकसित किये जा रहे हैं. पिछले दिनों AI अचानक से चर्चा में तब आया जब इसी इंडस्ट्री से जुड़े कुछ लोगों ने अचानक हल्ला मचाना शुरू कर दिया कि AI से दुनिया नष्ट हो सकती है. इस सन्दर्भ में ‘Artificial Intelligence’ [A Guide for Thinking Humans] की लेखिका Melanie Mitchell की ‘Munk Debate’ [https://youtu.be/144uOfr4SYA] में कही गयी बात एकदम सटीक लगती है कि AI से दुनिया के नष्ट होने का हव्वा खड़ा करना वास्तव में इसके असली खतरे से ध्यान हटाना है.
ठीक इसी तरह AI के चेतस [sentient] होने की बात महज ‘साइंस फिक्शन’ है और कुछ नहीं, भले ही यह बात वैज्ञानिकों की तरफ से ही क्यों न आ रही हों. ‘HAL 9000’ [2001: A Space Odyssey] की लाल आँखें कम्प्यूटर की लाल आँखे नहीं बल्कि उन साम्राज्यवादियों की लाल आँखे हैं, जिनके लिए ‘एक्सपर्ट’ [AI Experts] निरंतर काम कर रहे हैं.
AI की कार्यप्रणाली पर चर्चा करने से पहले आइये यह जान लेते हैं कि पिछली सभी तकनीक [technology] से यह अलग क्यों है. दरअसल AI मशीन ‘लर्निंग’ के सिद्धांत पर काम करता है. यानी अब तक के तकनीकी अविष्कारों में यह पहला आविष्कार है जो हर क्षण अपने में सुधार [improve] करता रहता है. और ऐसा यह निरंतर मिलने वाले ‘डेटा फ्लो’ [data-flow] के आधार पर करता है. दरअसल मशीन ‘लर्निंग’ एक रूपक है. यह समझना बहुत जरूरी है कि कोई भी मशीन ‘लर्न’ [learn] नहीं करती. ‘लर्न’ करना यानी सीखना मनुष्यों और एक हद तक जानवरों यानी सजीव की निशानी है. मशीन, मनुष्यों द्वारा बनाये अलगोरिदम [algorithm] और मनुष्यों द्वारा पैदा ‘डेटा फ्लो’ [data-flow] के आधार पर अपने आपको निरंटर ‘अपग्रेड’ [upgrade] करता रहता है. यह कभी भी अलगोरिदम और डेटा की सीमा से बाहर नहीं जा सकता. जिस तरह ‘हिग्स-बोसान’ पार्टिकल को ‘गॉड पार्टिकल’ कहना गलत है, उसी तरह ‘मशीन लर्निंग’ शब्द भी गलत है.
बहुचर्चित किताब ‘वीपन्स ऑफ़ मैथ्स डिस्ट्रक्शन’ [Weapons of Math Destruction] में Cathy O’Neil ने कई AI मॉडल की पड़ताल की है. चलिए उसी में से एक उदाहरण लेते हैं.
अमेरिका के कई राज्यों में ‘अपराधी’ को बेल देने/न देने या उसकी सजा बढ़ाने/कम करने के लिए जजों की मदद के लिए ‘रीसीवीडिसम माडल’ [recidivism model] का एक AI काम करता है.
आइये देखते हैं यह कैसे काम करता है. मान लीजिये एक गिरफ्तार ब्लैक नौजवान ‘मार्टिन’ की बेल के लिए अर्जी जज के पास आई है. जज AI की मदद लेता है. AI इस ‘मार्टिन’ नाम के ब्लैक नौजवान का डेटा खंगालेगा. उसे क्या मिलेगा?
1. यह बेरोजगार है 2. यह जिस झोपड़पट्टी वाले इलाके में रहता है, वहां अपेक्षाकृत अधिक अपराध घटित होते हैं. 3. मार्टिन कम पढ़ा-लिखा है. और सबसे बढकर मार्टिन के दोस्त/रिश्तेदार/पड़ोसी में से बहुत से ऐसे लोग हैं जिनका आपराधिक इतिहास रहा है.
इसके अलावा इस AI के जटिल एल्गोरिदम [complex algorithm] में स्तर दर स्तर [layer by layer] ऐसी सूचनाएँ भी दर्ज है कि किस क्षेत्र में ज्यादा अपराध घटित होते हैं, किस सामाजिक वर्ग के लोग अपराध में ज्यादा लिप्त होते हैं आदि आदि….. यहाँ जो महत्वपूर्ण बात है वह यह कि इसमें यह सूचना दर्ज नहीं होगी कि वह ब्लैक है. और ठीक इसी कारण यह दावा किया जाता है की AI पूरी तरह से पूर्वाग्रह से मुक्त है, जबकि जज मार्टिन का काला रंग देखकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकता है. लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि AI को जो ‘डेटा फ्लो’ [data-flow] मिल रहा है, उसमे यह तथ्य बेमानी हो जाता है कि मार्टिन ‘ब्लैक’ है.
बहरहाल AI उपरोक्त डेटा को सेकंडो में प्रोसेस करके मार्टिन को बेल से इनकार कर देगा या उसकी सजा को बढ़ा देगा. लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती.
मार्टिन के बेल का रिजेक्ट होना या उसकी सजा में बढ़ोत्तरी भी एक डेटा है. और अगले ही क्षण यह खास डेटा ‘डेटा फ्लो’ [data-flow] के साथ इस AI का हिस्सा बन जायेगा. और जब अगली बार किसी ‘जोर्ज’ नामक बेरोजगार नौजवान ‘ब्लैक’ का मामला कोर्ट में आएगा तो मार्टिन का यही डेटा उसके खिलाफ काम करेगा. इसे ही Cathy O’Neil ‘पोईजेनस फीडबैक लूप’ [poisonous feedback loop] कहती हैं. लेकिन अगर एक गोरे जज को मार्टिन/जोर्ज के बारे में खुद निर्णय करना हो तो यह संभावना हमेशा मौजूद होगी कि वह उन्हें बेल दे दे या उनकी सजा कम कर दे. लेकिन AI में संयोग का कारक [chance factor] नहीं होता.
हम जानते हैं कि व्यक्ति के जीवन में संयोग [chance factor] की बहुत बड़ी भूमिका होती है. लेकिन AI में यह संभव नहीं है.
उपरोक्त उदाहरण में अब मार्टिन/जोर्ज की जगह किसी मध्यवर्गीय गोरे नौजवान को रख कर देखिये. नतीजा एकदम उल्टा आएगा. यानी समाज में मौजूद बटवारे/अन्याय को खत्म करने की बात तो छोड़िये, AI उसे और बढ़ा रहा है.
मार्क्स ने पूंजीवाद की तुलना पिशाच [vampire] से करते हुए कहा था कि यह मजदूरों का श्रम चूसकर जिन्दा रहता है. लेकिन ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ [AI] से लैस यह ‘नया’ पूंजीवाद मानव-जीवन के सभी पहलुओं को निचोड़ कर, चूस कर जीवित रहता है.
यही कारण है कि अमेरिका में AI के इस ‘रीसीवीडिसम माडल’ [recidivism model] के ख़िलाफ़ जबरदस्त विरोध के कारण कई राज्यों में इसे बंद करना पड़ा है.
दरअसल AI हमेशा अतीत के डेटा [भले ही वह 1 सेकंड पहले का हो] पर निर्भर करता है और यह मानकर चलता है कि पैटर्न दोहराया जायेगा. जबकि मानव जीवन हमेशा पैटर्न को तोड़कर ही आगे बढ़ता है.
हाल ही में तेजी से पापुलर हो रहा OpenAI ‘ChatGPT’ भी इसका अपवाद नहीं है. आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर ‘विनय कृपाल’ ने ‘द हिन्दू’ में लिखे लेख में ‘चैट जीपीटी’ के बारे में किये जा रहे तमाम दावों को पंचर किया है- ‘’पहले से ज्ञात सूचनाओं को ‘चैट जीपीटी’ एक साथ तो ला सकता है, लेकिन वह नए सवाल नहीं खड़े कर सकता या उन सवालों के जवाब नहीं दे सकता. इसकी वही सीमा है जो उस टीम की सीमा है जो इस प्लेटफोर्म [चैट जीपीटी] को सूचना मुहैया करवा रहा है.’’ [https://www.thehindu.com/opinion/open-page/its-only-search-not-research/article67165221.ece#:~:text=Assembly%20seats%20revised-,Research%20has%20no%20value%20if%20it%20only%20summarises%20known%20information,Research%20is%20not%20a%20joke.]
ऐसे ही सैकड़ों AI मॉडल के अध्ययन के आधार पर ‘Cathy O’Neil’ जोरदार तरीके से कहती हैं- ‘’इन माडलों में बहुत से माडल मानवीय पूर्वाग्रह, गलत समझदारी और पक्षपात को कोडिंग के स्तर पर अपने सॉफ्टवेयर सिस्टम में समेटे रहते हैं और आज यही माडल ज्यादा से ज्यादा हमारी जिंदगी को नियंत्रित कर रहे हैं. ईश्वर की तरह ही ये गणितीय माडल भी हमारी पहुँच से दूर होते हैं और इस क्षेत्र के बड़े ‘पुजारियों’ [mathematicians and computer scientists] के अलावा इनके काम करने के तरीकों को और कोई नहीं जान सकता. गलत और हानिकारक होने के बाद भी इनके निर्णयों के खिलाफ़ आप कहीं अपील नहीं कर सकते. इस तरह वे हमारे समाज में गरीब और शोषित को दंड देते हैं वहीँ अमीर को और अमीर बनाते हैं.’’ [ ‘Weapons of Math Destruction’ 2% in EPUB format]
मनुष्य की चेतना [Human Intelligence] से AI की तुलना करते हुए और ‘वैकल्पिक AI’ की बात करते हुए Cathy O’Neil बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहती हैं- “बिग डेटा प्रक्रिया अतीत का कोडीकरण करता है [Big Data processes codify the past]. वे भविष्य को नहीं गढ़ सकते. यह करने के लिए नैतिक कल्पना की जरूरत होती है और यह काम सिर्फ मनुष्य कर सकता है. हमें अपने अल्गोरिदम में स्पष्ट रूप से बेहतर मूल्यों को गूथना होगा, ऐसे बिग डेटा माडल का निर्माण करना होगा जो हमारी नैतिकताओं का अनुसरण करें. कभी कभी इसका मतलब यह होगा कि हमें मुनाफे की बजाय निष्पक्षता पर जोर देना चाहिए.’’ [81% in EPUB format]
प्लेटो के दर्शन में इस भौतिक जगत का ‘परफेक्ट रूप’ दूसरी दुनिया यानी ईश्वरीय दुनिया में है. ठीक उसी शब्दावली में कहें तो इस दुनिया में आज जितनी में असमानता और अन्याय मौजूद है, उसका ‘परफेक्ट रूप’ आज के इन AI मॉडलों में मौजूद है.
ठीक इसीलिए ‘Meredith Broussard’ अपनी चर्चित किताब ‘Artificial Unintelligence’ में साफ़ साफ़ लिखती हैं- ’’मैंने जिस एक खतरे को इस किताब में उठाया है, वह वह गलत धारणा है, जिसे मैं तकनीक-भक्ति [technochauvinism] कहती हूँ. तकनीक-भक्ति का मतलब यह मानना है कि तकनीक से सभी चीजों का समाधान किया जा सकता है. [‘Artificial Unintelligence’, 3% in EPUB format ]
‘Meredith Broussard’ और भी आगे जाकर इसके वर्ग-चरित्र का पर्दाफाश करती हैं- ’’पुरुषों का एक छोटा विशिष्ट समूह है जो अपनी गणितीय क्षमताओं में जरूरत से ज्यादा विश्वास करता है, जिसने व्यवस्थित तरीके से सदियों से महिलाओं और काले लोगों को बाहर कर रखा है और इनकी बजाय मशीन को तरजीह दी है, ये विज्ञान गल्प को हमेशा वास्तविक बनाना चाहते हैं, ये सामाजिक परंपरा की रत्ती भर परवाह नहीं करते, उनका मानना है कि सामाजिक मानदंड और नियम उन पर लागू नहीं होते, वे सरकार द्वारा उपलब्ध अकूत धन पर बैठे हुए हैं, और उनकी विचारधारा धुर दक्षिणपंथी उदारवादी अराजक पूंजीवाद [far-right libertarian anarcho-capitalists] की है. [‘Artificial Unintelligence’, 36% in EPUB format ]
आज तमाम सरकारें और उनके बुद्धिजीवी हर सामाजिक समस्या का हल AI तकनीक में खोज रहे हैं और सामाजिक क्रांति या रैडिकल सामाजिक बदलाव से जनता का ध्यान भटका रहे है. इस सन्दर्भ में मुझे एक कहानी याद आ रही है. एक व्यक्ति ‘स्ट्रीट लाईट’ में कुछ ढूढ़ रहा था. वहां से गुजर रहे पुलिसवाले ने जब उससे पूछा तो उसने बताया कि वह अपने घर की चाभी ढूढ़ रहा है. पुलिसवाले ने जब यह पूछा कि क्या तुम्हारी चाभी यहीं गिरी थी तो उसने कहा कि नहीं, लेकिन रोशनी तो यहीं है न.
अब हम भारत पर आते हैं. Information technology, Internet, AI, Cloud Computing, Data-Mining, Quantum computing……. इन सभी क्षेत्रों में भारत कहीं नहीं है. सच तो यह है कि पिछले 20-25 सालों में इन तकनीकों के आने के बाद भारत साम्राज्यवाद के साथ अपने अर्ध-औपनेवेशिक संबंधों में और भी मजबूती से बंध गया है. पुराने समय की तरह ही भारत, गूगल/फेसबुक जैसी साम्राज्यवादी कंपनियों को लगभग फ्री में डेटा सप्लाई कर रहा है और उनसे काफी महंगे दामों पर तकनीक और तमाम ‘AI मॉडल’ खरीद रहा है.
आज भारत निम्न-तकनीक [low-tech] के लिए चीन पर और उच्च तकनीक [high-tech] के लिए अमेरिका व अन्य यूरोपीय देशों पर बुरी तरह से निर्भर है. तमाम चीन विरोधी प्रोपोगैंडा के बावजूद चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा लगातार बढ़ता ही जा रहा है.
चीन के साथ अमेरिका व योरोपीय देशों के टकराव की वजह से बहुत सी बहुरास्ट्रीय कम्पनियाँ भारत आ रही हैं. इसी आधार पर सरकार और उनके ‘पालिसी इंटेलेक्चुअल’ [policy intellectual] यह हल्ला मचाने लगे हैं कि भारत अब मोबाइल फोन और मेमोरी/लॉजिक चिप जैसी आधुनिक तकनीक आधारित समान बनाने जा रहा है. लेकिन रघुराम राजन ने 11 अगस्त 2023 को करन थापर को दिए एक इन्टरव्यू [https://www.youtube.com/watch?v=t4pd7BVJ5Vw] में इस दावे की पोल खोलते हुए साफ़ साफ़ कहा कि हम कतई मोबाइल नहीं बना रहे हैं. हम महज उसे ‘असेम्बल’ [assemble] कर रहे हैं. और कई अध्ययन यह बताते हैं कि किसी भी प्रोडक्ट की मूल्य कड़ी [Value chain] में असेम्बली [assemble] की ‘कास्ट’ [cost] महज 4 से 6 प्रतिशत के आसपास होती है.
भारत में आज लगभग 1 लाख ‘स्टार्टअप’ काम कर रहे हैं. इनमे से अधिकांश में साम्राज्यवादी निवेश है और अधिकांश का बुनियादी काम डेटा इकठ्ठा करना या इन डेटा के आधार पर प्राथमिक मॉडल तैयार करना और फिर उसे साम्राज्यवादी कंपनियों को सप्लाई कर देना है या फिर फ्लिप्कार्ट की तरह अपने आपको किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी [फ्लिप्कार्ट को वालमार्ट ने खरीद लिया है] को बेच देना है.
पहले की तरह ही आज भी भारत के दलाल शासक साम्राज्यवाद और उनकी अत्याधुनिक तकनीक का सहारा लेकर आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही स्तरों पर अपनी जनता का गला घोंटने का प्रयास कर रहे हैं. 16 मार्च 2020 को huffpost.com पर एक बेहद महत्वपूर्ण स्टोरी आयी. इस स्टोरी में कुमार संभव श्रीवास्तव साफ़ साफ़ लिखते हैं- ‘’नरेंद्र मोदी सरकार भारत के 1.2 अरब से अधिक निवासियों में से प्रत्येक के जीवन के हर पहलू पर नज़र रखने के लिए एक सर्वव्यापी, ऑटो-अपडेटिंग, खोज योग्य डेटाबेस [auto-updating, searchable database] बनाने के अंतिम चरण में है.’’
[https://www.huffpost.com/archive/in/entry/aadhaar-national-social-registry-database-modi_in_5e6f4d3cc5b6dda30fcd3462]
और यह कहने की जरूरत नहीं है कि यह बेहद निर्दोष दिखाई देने वाले ‘आधार’ के आधार पर किया जा रहा है.
पिछले साल पास किये गए ‘The Digital Personal Data Protection Bill, 2023’ में ‘डेटा फ्लो’ को एकतरफा [one way] कर दिया गया है. यानी सरकार से आप कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते, लेकिन सरकार के पास आपसे सम्बंधित सभी डेटा होंगे. इस बिल के बाद अब ‘सूचना के अधिकार’ [Right to Information Act] का कोई मतलब नहीं रह गया.
अंत में एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु पर चर्चा करना बहुत जरूरी है. वह है AI का जलवायु [Climate] पर असर. ‘ई-कचरे’ [E-waste] पर तो काफी लिखा जा चुका है. इसके अलावा ‘बिग डेटा प्रोसेसिंग’ के लिए बहुत ज्यादा उर्जा की जरूरत होती है. ‘क्वांटम कंप्यूटर’ [quantum computer] आने के बाद उर्जा की जरूरत कई कई गुना बढ़ जाएगी. यह उर्जा हम जिस भी माध्यम से दें, उसका ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के साथ बहुत नजदीकी रिश्ता होगा.
इसके अलावा गूगल/फेसबुक जैसी बहुरास्ट्रीय कंपनियों समेत कई देशों ने समुद्र के अंदर अपने विशाल केबल बिछाये हुए है. CSIS [Center for Strategic and International Studies] के अनुसार इन सभी केबल को अगर लम्बाई में नापे तो यह 13 लाख किलोमीटर आएगी. इन्ही विशाल केबल से होकर अंतर्राष्ट्रीय डेटा का करीब 95 प्रतिशत गुजरता है. [https://www.csis.org/analysis/invisible-and-vital-undersea-cables-and-transatlantic-security] प्रति सेकण्ड बड़े पैमाने पर डेटा [huge data] के गुजरने से केबल गर्म होती रहती है और समुद्र के पानी से ठंडी हो रही होती है. यानी बिना कोई पैसे खर्च किये ये साम्राज्यवादी देश और कम्पनियाँ विशाल समुद्र को अपने व्यक्तिगत रेफ्रिजरेटर के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. और इस तरह समुद्र के ‘इको-सिस्टम’ [ecosystem] को तबाह कर रहे हैं.
दिलचस्प यह है कि इस महत्वपूर्ण पहलू पर कोई गंभीर शोध मौजूद नहीं है. इसका स्पष्ट कारण यह है कि गूगल-फेसबुक जैसी कंपनियों और साम्राज्यवादी देशों ने शोध संस्थाओं को भारी मात्रा में फंड देकर अपने हित में प्रभावित कर रखा है.
मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ में लिखा है कि पूंजीवाद अपने ही इमेज में दुनिया को गढ़ता है [It creates a world after its own image.]. पूंजीवाद के 200-300 सालों बाद अब लगता है कि यह ‘तस्वीर’ पूरी हो चुकी है. आज हम ‘विकल्पहीनता की तानाशाही’ [The Dictatorship of No Alternatives] में रहने को बाध्य हैं. इस तानाशाही को ध्वस्त करके ही हम एक नया विकल्प खड़ा कर सकते हैं, जहाँ हम AI जैसे अत्याधुनिक तकनीक को जनता की सेवा में लगा सकते है.
‘मेटा’ [Meta] में काम कर चुके AI वैज्ञानिक ‘Yann LeCun’ ने ‘मंक डिबेट’ [Munk Debate] में दावा किया है कि फेसबुक द्वारा निर्मित एक AI फेसबुक पर मौजूद करीब 95 प्रतिशत ‘हेट कंटेंट’ को पकड़ सकता है, और डिलीट भी कर सकता है. यह अलग बात है कि फेसबुक इस AI का इस्तेमाल नहीं करता.
‘Shoshana Zuboff’ ने अपनी किताब ‘द ऐज ऑफ़ सर्विलांस कैपिटलिज्म’ को जिस बात से समाप्त किया है, वह यहाँ भी इस लेख के अंत में बेहद प्रासंगिक है- ”प्रकृति को तबाह करने के क्रम में औद्योगिक पूंजीवाद की शिकार प्रकृति कुछ बोल नहीं सकती थी, लेकिन जो लोग आज मानव प्रकृति [human nature] को जीतना चाहते हैं, वे जान लें कि उनके शिकार लोगों के पास अपनी जोरदार आवाज है, और वे इस खतरे को पहचानेंगे भी और उसे हराएंगे भी.” [p-525]
मनीष आज़ाद

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महिला, समाजवाद और सेक्स – मनीष आज़ाद

आज से ठीक 30 साल पहले 1990 में जब पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी का एकीकरण हुआ तो समाजवादी व्यवस्था के तहत लंबे समय तक रहे पूर्वी जर्मनी को और प्रकारान्तर से समाजवादी रहे देशों को नीचा दिखाने के लिए पश्चिमी जर्मनी और पूंजीवादी पश्चिमी जगत के तमाम अखबारों-पत्रिकाओं ने एक खुला युद्ध छेड़ दिया। पूर्वी जर्मनी की राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था के साथ ही उन्होंने पूर्वी जर्मनी के लोगो विशेषकर महिलाओं के सेक्सुअल जीवन पर भी हमला शुरू कर दिया और कैरीकेचर बनाया जाने लगा कि समाजवादी देशों में महिलाओं का सेक्सुअल जीवन बहुत शुष्क होता था और समाजवादी राज्य नागरिकों के सेक्सुअल जीवन का भी दमन करता था। जाहिर है कि लक्ष्य यह था कि ‘सेक्सुअल फ्रीडम’ और महिलाओं के ‘यौन सुख’ को पूँजीवाद की देन बताना और समाजवाद को सेक्स विहीन या सेक्स दमित नीरस व्यवस्था के रूप में पेश करना। यानी समाजवाद में सेक्स का मतलब समाजवाद के लिए सिर्फ मजदूर पैदा करना था।
लेकिन इसी समय कुछ स्वतंत्र शोधार्थियों ने (जिसमें से ज्यादातर पूंजीवादी पश्चिमी दुनिया के ही थे) सच का पता लगाने का बीड़ा अपने हाथ में लिया। सर्वे का नतीजा बेहद चौकाने वाला था। तमाम सर्वे में यह पुष्ट हुआ कि भूतपूर्व समाजवादी पूर्वी जर्मनी की 84 प्रतिशत से ज्यादा महिलायें ‘पूर्ण यौन सुख’ (orgasm) का आनन्द लेती रही हैं, जबकि पूंजीवादी पश्चिम जर्मनी की महिलाओं के लिए यह आंकड़ा महज 50 प्रतिशत था। [इसके अलावा सेक्स करने की फ्रीक्वेंसी भी भूतपूर्व समाजवादी देशों में पूंजीवादी देशों के मुकाबले ज्यादा रही है। यह भी सर्वे में स्पष्ट हुआ।] इसी सर्वे के आधार पर एक रिसर्च पेपर 2004 में प्रकाशित हुआ, जिसका नाम भी बेहद दिलचस्प था – The Sexual Unification of Germany [Ingrid Sharp], इसके बाद इस लगभग अछूते और आम तौर से टैबू माने जाने वाले विषय पर कई दिलचस्प और महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित हुई। 2005 में एक बेहद महत्वपूर्ण किताब Sex after Fascism: Memory and Morality in Twentieth-Century Germany [Herzog D] आई। 2011 में Love in the Time of Communism [Josie McLellan] आई। लेकिन 2018 में इसी विषय पर दो बेहद महत्वपूर्ण किताब आयी। Kateřina Lišková की Sexual Liberation, Socialist Style: Communist Czechoslovakia and the Science of Desire, 1945–1989 और Kristen Ghodsee की Why Women Had Better Sex Under Socialism इसके अलावा इसी विषय पर एक महत्वपूर्ण डाक्यूमेंट्री 2006 में आयी- Do Communists Have Better Sex? इसे आप ‘यू ट्यूब’ पर देख सकते हैं। इसमें Sex after Fascism की लेखिका Herzog D का महत्वपूर्ण इंटरव्यू भी है।
इन किताबों-फिल्मों से गुजरना समाजवाद पर पड़ी धूल झाड़कर उसकी शानदार उपलब्धियों से रूबरू होना था। Kateřina Lišková समाजवादी चेकोस्लोवाकिया के बारे में लिखते हुए बताती हैं कि 1952 में ही चेकस्लोवाकिया के सेक्सोलाजिस्टों ने पूरे देश के पैमाने पर महिलाओं के आर्गज्म को लेकर एक शोध शुरू कर दिया था और इसमें पैदा होने वाली दिक्कतों को अपने अध्ययन का आधार बनाया था। Lišková कहती हैं-‘चेकोस्लोवाकिया में कम्युनिस्ट-सेक्सोलाजी ने महिलाओं का मां और मजदूर के रूप में ही ध्यान नहीं रखा वरन् उनकी सेक्स संबधी बेहतरी का भी ध्यान रखा।’ 1961 में महिलाओं के आर्गज्म और इसमें आने वाली समस्याओं पर एक कांफ्रेंस का भी आयोजन किया गया, जिसमें चेकोस्लोवाकिया के बाहर के देशों के अनेक सेक्सोलाजिस्टों ने भी हिस्सा लिया, और टैबू माने जाने वाले इस सर्वथा अछूते विषय पर खुल कर चर्चा की। कान्फ्रेस की शुरूआत करते हुए चेकोस्लोवाकिया की प्रमुख गाइनोकोलाजिस्ट मिरोस्लाव वोज्ता (Miroslav Vojta) कहती हैं- ‘हम आमतौर पर अपेक्षाकृत सेक्स पर कम बात करते हैं क्योकि हमारे समाज को इससे ज्यादा ज्वलंत विषयों से जूझना पड़ रहा है। लेकिन जब किसी के सेक्स जीवन में असंतुष्टि या टकराव आता है तो वह उसके कार्य करने की क्षमता को प्रभावित करता है। इसलिए समाजवादी समाज उस वक्त मूकदर्शक बनकर नहीं खड़ा रह सकता, जब आम महिलाओं व पुरूषों के बीच उनका सेक्स-प्यार बाधित होता है। यह ना सिर्फ उस मजदूर के लिए नुकसानदेह होगा, वरन यह सामान्य हित को भी प्रभावित करेगा।’ यह था समाजवाद का सेक्स के प्रति नजरिया। इसी कांफ्रेंस में प्रमुख सेक्सोलाजिस्ट नोब्लोचोवा (Knoblochová) महिलाओं के आर्गज्म पर विस्तार से बात करते हुए कहती हैं- ‘जब महिलाओं को घर में रहने को बाध्य किया जाता है और वहां उन्हें बार-बार एक ही तरह का नीरस काम करना पड़ता है तो वे बोर हो जाती है जिसके प्रभावस्वरूप सेक्स में उनकी रूचि खत्म होने लगती है।’
चेकोस्लोवाकिया में 1963 में ही एक रेडियो प्रोग्राम ‘इन्टीमेट कन्वर्सेशन’ शुरू किया गया, जहां महिला पुरूष के सेक्स सम्बन्धी समस्याओं पर खुल कर चर्चा की जाती थी। और समाधान निकालने का प्रयास किया जाता था।
इन सभी अध्ययनों, शोधों व चर्चाओं से एक समीकरण निकल कर आया जो चेकोस्लोवाकिया में 1950 के दशक में सभी नौजवान महिलाओं पुरूषों के जेहन में था- समानता+ प्यार = यौन सुख (equality plus love would result in sexual happines)। इस समानता के लिए जरूरी था कि महिलाओं को सार्वजनिक जीवन व रोजगार में पुरूषों के बराबर अवसर दिये जाय और दूसरी तरफ पुरूषों को भी घर के कामों व बच्चों की परवरिश में बराबर का भागीदार बनाया जाय। बच्चों के पालन पोषण और घरेलू काम का बोझ हल्का करने के लिए समाजवादी राज्यों ने बड़े पैमाने पर बच्चों के लिए क्रैच और लांड्री जैसे सार्वजनिक उपक्रम शुरू किये। इसके अलावा विभिन्न सांस्कृतिक माध्यमों से पितृसत्तात्मक विचारों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी गयी।
यहां थोड़ा विषयान्तर करते हुए एक बात पर जोर देना जरूरी है कि महिला पुरूष समानता की जब बात हो रही है तो यहां पूरे समाज के सन्दर्भ में हो रही है। वर्तमान गैर बराबरी वाले समाज मे यदि कोई जनवादी पुरूष महिला का पूरा सम्मान करते हुए घरेलू कामों में हाथ बंटाता है और महिला भी सार्वजनिक जीवन में बराबरी से हिस्सा लेती है, तब भी दोनों के बीच समानता में कई अड़चने हैं। उसमें सबसे बड़ी अड़चन उनके आस पास से निरंतर गुजरती वे अनंत तस्वीरे हैं जिनमे महिलाएं-पुरूष अपनी परंपरागत जेन्डर भूमिका में है। ये कोई निष्क्रिय तस्वीरें नहीं होती जिनका काम महज आपके रेटिना तक पहुंच कर आपको सूचित करना होता है, बल्कि ये तस्वीरें हमारे रेटिना से आगे जाकर दिमाग में हमारे प्रगतिशील मानसिक संरचना से टकराती रहती है और उसे लहूलुहान कर रही होती है। इसलिए इसकी निरंतर रिपेयरिंग की जरूरत होती है। और इनकी रिपेयरिंग का एकमात्र तरीका यही है कि हम उन तस्वीरों को अपनी मानसिक संरचना के आइने में तोड़ने व बदलने का प्रयास करें। यानी समाज को प्रगतिशील दिशा में बदलने का प्रयास करें। सिर्फ तभी महिला और पुरूषों में सच्ची समानता स्थापित हो सकती है। यानी समानता कोई निष्क्रिय चीज नहीं है जो एक बार स्थापित हो जाने पर हमेशा बनी रहती है। यदि ऐसा होता तो समाजवाद का पतन ही क्यों होता।
‘यौन सुख’ के लिए जिस समानता को आधार माना गया था, वह समानता समाजवादी क्रान्ति में एक विस्फोट के रूप में सामने आयी।
1917 की सोवियत क्रान्ति और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप की समाजवादी क्रान्ति ने एक झटके में महिलाओं को वे सभी अधिकार दे दिये जिसके लिए पूंजीवादी देशों की महिलाएं आज तक संघर्षरत है। अपनी मर्जी से तलाक का अधिकार, अपनी मर्जी से गर्भपात का अधिकार, शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार का अधिकार तथा वोट डालने और खुद चुने जाने का अधिकार। अमरीका में महिलाओं को वोट डालने का अधिकार 1920 में मिला, जबकि सोवियत रूस में यह तीन साल पहले ही 1917 में मिल चुका था। इसके अलावा जब समूचे योरोप और अमरीका में होमोसेक्सुअलिटी कानूनन अपराध था तो सोवियत रूस वह पहला देश था जहां इसे मान्यता दी गयी।
समाजवाद के व्यापक असर को इस एक तथ्य से समझा जा सकता है कि अल्बानिया जैसे निहायत पिछड़े देश में जब 1945 में क्रान्ति सम्पन्न हुई तो वहां लगभग 95 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं अशिक्षित थी। महज 10 साल के अंदर 40 साल उम्र के अंदर की महिलाएं अच्छी तरह लिखने-पढ़ने लगी थीं। 1980 तक विश्वविद्यालय जाने वाले छात्रों में आधा महिलाएं थी। ये सभी महिलाएं शिक्षा, रोजगार व अन्य जनवादी अधिकारों से लैस होने के कारण जल्द ही खुद-मुख्तार हो चुकी थी। चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान इस नारे ‘जो काम पुरुष कर सकते हैं, वह महिलायें भी कर सकती हैं’, के साथ ये नारा भी उछाला गया की ‘जो काम महिलायें कर सकती हैं, वो पुरूष भी कर सकते हैं।’ इस तरह माओ के शब्दों में कहें तो महिलायें आधी जमीन और आधे आसमान को दखल कर चुकी थी। हजारों साल पहले निजी संपत्ति के आविर्भाव के साथ महिलाओं की जो ऐतिहासिक गुलामी शुरू हुई थी, उसका अब खात्मा हो चुका था। निजी संपत्ति के खात्मे के साथ हजारों साल बाद महिलायें एक बार फिर मुक्त होकर अपनी इमेज में समाज को आगे बढ़ाने के काम में लग गयी।
आप इसकी तुलना यदि सबसे विकसित देश अमरीका से करेंगे तो रोजगार, गरीबी, नस्लवाद की बात यदि छोड़ भी दे तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 1960 तक वहां कई राज्यों में यह नियम लागू था कि महिलाओं को जब बाहर कहीं काम करना होता था तो इसके लिए कानूनी तौर पर पति की मर्जी जरूरी होती थी।
समाजवादी राज्यों की महिलाओं ने विज्ञान, कला और खेल जैसे पुरुषों के दबदबे वाले क्षेत्रों में शानदार उपलब्धि दर्ज की। अन्तरिक्ष में जाने वाली पहली महिला सोवियत संघ की वैलेन्टीना तेरेस्कोवा (Valentina Tereshkova) थी। वैलेन्टीना तेरेस्कोवा ने पृथ्वी का 48 बार चक्कर लगाया। वैलेन्टीना तेरेस्कोवा ने अंतरिक्ष में इतना समय बिताया, जितना अमेरिका के सभी अंतरिक्ष यात्रियों ने मिलकर भी नहीं बिताया था। ओलंपिक खेलों में समाजवादी देशों का दबदबा खासकर उनकी महिला एथलीटों कारण ही था। बहुत कम लोगों को इस बात का अहसास है कि पूंजीवादी देशों में महिलाओं को जो अधिकार मिले और उन्होंने पुरुषों की दुनिया में अपनी जगह बनानी शुरू की, वह उनके अपने संघर्षों के अलावा शीत युद्ध के दौर में इन समाजवादी देशों के साथ प्रतियोगिता का दबाव भी एक कारण था।
लेकिन महिलाओं की स्थिति इन ‘समाजवादी’ देशों में 60 के दशक के बाद धीरे-धीरे गिरने लगी। इसका बहुत ही ग्राफिक चित्रण इन किताबों विशेषकर Kateřina Lišková ने अपनी किताब में किया है। समाजवाद के पतन के कारणों को इससे समझने में काफी मदद मिलती है। Kateřina Lišková ने बहुत विस्तार से बताया है कि जैसे-जैसे ‘समाजवादी’ सत्ता वर्ग विहीन समाज के स्वप्न को साकार करने के संकल्प से पीछे हटने लगी वैसे-वैसे महिलाओं की पुरुषों के बरक्स समानता भी घटने लगी। कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में एंगेल्स ने लिखा था कि बच्चों की जिम्मेदारी जब राज्य और समाज की होगी, तभी महिलाएं सही मायनों में मुक्त होगी। इसी कान्सेप्ट के साथ क्रान्ति के तुरन्त बाद समाजवादी देशों में बड़े पैमाने पर बच्चों के लिए क्रैच खोले गये जहां महिलाएं अपने बच्चों को छोड़ कर काम पर जाती थी और लौटते समय महिलाएं या पुरुष (जो भी पहले घर लौटता था) उन्हें घर लाते थे और फिर घर में उसकी देखरेख दोनो बराबरी से करते थे। 60 के दशक में जब ये ‘समाजवादी’ सरकारें क्रान्ति के रथ को धीमे-धीमे पीछे खींचने लगे तो इसका असर पूरे समाज पर नज़र आने लगा। इसी समय चेकोस्लवाकिया में कुछ मनोचिकित्सकों ने एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया और इसे राज्य की तरफ से व्यापक तौर पर वितरित किया गया। इसमें बताया गया कि क्रैच में पलने वाले बच्चों का विकास उन बच्चों के मुकाबले धीमा होता है जो अपना पूरा वक़्त मां के साथ बिताते हैं। पूरा वक़्त मां के साथ रहने वाले बच्चों को प्राकृतिक और क्रैच में रहने वाले बच्चों को अप्राकृतिक बताया जाने लगा। इसी दशक में एक डाकूमेन्ट्री आयी, जिसका जानबूझकर काफी प्रचार किया गया। इस डाकूमेन्ट्री फिल्म का नाम था- ‘चिल्ड्रेन विदआउट लव’। इसमें जानबूझकर कुछ उन क्रैचों को चुना गया जहां थोड़ी अस्तव्यस्तता रहती थी या पर्याप्त स्टाफ नहीं था। यहां कैमरा कुछ बच्चों पर फोकस करते हुए यह दिखाने की कोशिश की गयी इन बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं है। इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया है। अगले कट में उन बच्चों पर फोकस किया गया जो मां की गोद में खिलखिला रहे है। इस तरह से समाज में एक माहौल बनाया गया और महिलाओं पर यह भावनात्मक दबाव बनाने का प्रयास किया गया कि वे अपनी मां की भूमिका को सबसे महत्वपूर्ण माने और समाजवाद के निर्माण की अपनी भूमिका और पुरुषों के साथ बराबरी के अपने संघर्ष को धीमा करें। कुल मिलाकर कहें तो ‘महिला सवाल’ को बहुत बारीकी से चुपचाप ‘बच्चों के सवाल’ में बदल दिया गया या यूं कहें की बच्चो के सवाल को महिला सवाल के बरक्स खड़ा कर दिया गया।
इसी के समानान्तर कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व-अवकाश को भी थोड़ा-थोड़ा करके बढ़ाया जाने लगा। चेकस्लोवाकिया में 18 सप्ताह के मातृत्व अवकाश को पहले 1 साल तक और बाद में 4 साल तक वेतन सहित बढ़ा दिया गया। महिलाओं को यह अच्छा ही लगा कि उन्हें बच्चे के साथ घर पर रहने का ज्यादा से ज्यादा मौका मिल रहा है। लेकिन इसके पीछे की साजिश वे नहीं समझ सकीं कि इस तरह से धीरे-धीरे उन्हें सार्वजनिक जीवन से काटा जा रहा है और उन्हें परम्परागत मां की भूमिका में ढकेला जा रहा है, कि महिला-पुरूष की परम्परागत जेन्डर भूमिका को धीमे-धीमे मजबूत किया जा रहा है। जब तक वे इसे समझती, तब तक काफी देर हो चुकी थी। यह इतिहास की अजीब विडम्बना है की जिस ‘माँ अधिकार’ [mother right] के छिनने से हजारों साल पहले महिलाएं गुलाम हुई, उसी ‘माँ अधिकार’ [mother right] को देने के नाम पर महिलाओं को फिर से गुलामी की ओर धकेला जा रहा था।
1970 के दशक तक आते-आते परंपरागत जेन्डर भूमिका वाले परिवारों की तादात बढ़ने लगी और वे मजबूत होने लगे। जमीन पर आ रहे इस परिवर्तन का पुरुषों के मानस पर असर पड़ना लाज़िमी था। वे भी अब महिलाओं को पुरानी दृष्टि से देखने लगे। जेन्डर रिवोल्यूशन और सेक्सुअल रिवोल्यूशन के बीच का रिश्ता टूट चुका था।
चूंकि महिलाएं और समाज पुराने विचारों से पूरी तरह अभी आज़ाद नहीं हो पाये थे (यह प्रक्रिया तो अभी जारी ही थी। चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति इसी प्रक्रिया का हिस्सा था) इसलिए वे विशेषकर महिलाएं इस ट्रैप में फंस गयी। महिलाओं को धीमे-धीमे उनके परम्परागत भूमिका में धकेलने के लिए बच्चों की स्थिति का जमकर इस्तेमाल किया गया। इसी बदले माहौल में धीरे-धीरे क्रैच की संख्या भी कम की जाने लगी। बच्चों के पालन पोषण करने की वजह से सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की संख्या धीमे-धीमे कम होने लगी।
इसके साथ ही घर में महिलाओं के सेक्स जीवन पर भी असर पड़ने लगा। बच्चो की परवरिश और घर के बोरिंग रोजाना के कामों की वजह से महिलाओं की सेक्स में रूचि कम होने लगी। आर्थिक रूप से महिलाओं के पुनः पुरुषों पर निर्भर होते जाने से महिला-पुरुष समानता कम होने लगी। फलतः पुरुषों की नज़र में महिलाओं का सम्मान भी कम होने लगा। इसका परिणाम बेडरूम में भी दिखाई देना लगा और अब वे महिलाओं के ‘यौन सुख’ की परवाह कम से कम करने लगे।
इस बदलते परिवेश के अनुरूप ही तत्कालीन सेक्सोलाजिस्टों ने भी महिलाओं के यौन सुख के कारणो को बदलना शुरू कर दिया। क्रान्ति के शुरूआती वर्षों में महिलाओं के यौन सुख को एकमात्र महिला-पुरुष की बराबरी या समानता में देखा जाता था। लेकिन इसके बाद महिला-पुरूष बराबरी के अलावा दूसरे कारणों को भी इसमें शामिल किया जाने लगा। जैसे महिला का पुराना इतिहास, बचपन में कोई यौन दुर्घटना, शारीरिक स्वास्थ्य आदि। और फिर 70-80 के दशक में तो महिला-पुरुष बराबरी वाली बात पूरी तरह से गायब हो गयी और महिलाओं के यौन सुख को पूरी तरह तकनीकी, बायोलोजिकल और दवाई केन्द्रित बना दिया गया। और पूंजीवादी दुनिया के साथ इनके एकीकरण के बाद तो इस बेहद खूबसूरत, नर्म और आत्मीय रिश्ते पर पोर्न, सेक्स उपकरणों और सेक्स दवाइयों, नशीली दवाइयों का क्रूर हमला शुरू हो गया।
एक समय अंतरिक्ष में विचरण करने वाली महिला, ओलम्पिक में मेडल लाने वाली महिला, प्रयोगशालाओं में खोज करने वाली महिला, समाज को साम्यवादी भविष्य की ओर खींचने वाली महिला अब सड़कों पर ग्राहक के इंतजार में बैठने लगी। पश्चिमी पूंजीवादी देशों में अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में आया, दाई आदि का काम करने पर मजबूर होने लगी। समाजवादी राज्यों में विज्ञान, दर्शन और कला पढ़ने वाली लड़कियां ‘gold digging’ [अमीर पुरुषों से रिश्ता बनाने के तथाकथित गुर सिखाने के लिए रूस जैसे देशों में कई भूमिगत कोर्स चलते है] का कोर्स कर रही है। जो समाजवादी व्यवस्था महिलाओं के यौन सुख तक का ध्यान रखती थी वह अब पतित होकर विकृत पूँजीवाद में बदलकर उसके शरीर का ही व्यापार करने लगी।
उपरोक्त विवरण यह चीख-चीख कर कह रहे हैं कि समाजवाद महिलाओं का सच्चा दोस्त है। हमें इसे समझना होगा।
मशहूर राजनीतिक चिन्तक ‘तारिक अली’ कहते हैं की इतिहास का सबसे बड़ा दुरूपयोग इतिहास को भूल जाना होता है। और फिर महिलाओं का यह गौरवपूर्ण इतिहास तो उस रूप में इतिहास भी नहीं है। यह कुछ ही समय पहले तक हमारा वर्तमान था। आज हम जिस अभूतपूर्व संकट से गुज़र रहे है, वहां ‘अगस्त बेबेल’ के शब्दों में महिला मुक्ति का सवाल मानवता की मुक्ति के सवाल से जुड़ चुका है। और जैसा की ‘इनेसा अरमंड’ [Inessa Armand] कहती हैं – ‘यदि बिना साम्यवाद के महिला मुक्ति असंभव है तो यह भी उतना ही बड़ा सच है कि बिना महिला मुक्ति के साम्यवाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती।’

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मनुष्य बनाम तकनीक

आपके कान जुड़े हुए है हेडफोन से
हेडफोन जुड़ा है आइफ़ोन से
आईफोन जुड़ा है इंटरनेट से
इंटरनेट जुड़ा है गूगल से
और गूगल जुड़ा है सरकार से
-अज्ञात

‘फ्रांसिस फुकोयामा’ के इतिहास के अन्त की घोषणा के ठीक 16 साल बाद ‘क्रिस एण्डरसन’ ने 2008 में अपने एक लेख में थ्योरी के अन्त (The End of Theory: The Data Deluge Makes the Scientific Method Obsolete) की भी घोषणा कर दी। जहां आंकड़ों की बाढ़ हो, वहां थ्योरी की क्या जरूरत है। ‘यूवल नोह हरारी’ ने इसे आंकड़ावाद (dataism) कहा है। इतिहास के अन्त के बाद अब थ्योरी के अन्त और आंकड़ावाद के इस दौर में मनुष्य और लोकतंत्र का भविष्य क्या है। डाटा के पहाड़ पर बैठी गूगल व फेसबुक जैसी टेक कम्पनियां किस तरह से दुनिया के तमाम देशों की लोकतान्त्रिक संस्थाओं को दीमक की तरह चाट रही हैं और इनके साथ मिलकर सरकारें पूरी दुनिया को एक एक्वेरियम [Aquarium] मे तब्दील कर रही है, इसी गंभीर विषय को ‘जेमी बार्टलेट’ ने अपनी पुस्तक The People Vs Tech: How the Internet is Killing Democracy (and how We Save It) में उठाया है।
यह किताब मुख्यतः पश्चिमी लोकतंत्र और वहां फेसबुक व गुगल जैसी विशालकाय टेक कम्पनियों के साथ इसके तनावपूर्ण रिश्ते की पड़ताल करती है। लेकिन इसका सन्दर्भ पूरी दुनिया पर लागू होता है। भारत में आज फेसबुक को लेकर जो विवाद चल रहा है, उसका सन्दर्भ जानने के लिए ये किताब महत्वपूर्ण है। हालाँकि भारत में फेसबुक ने कितना बीजेपी को फायदा पहुचाया और कितना बीजेपी ने फेसबुक को, इसे विस्तार से जानने के लिए तो पिछले साल आई परंजय गुहा ठकुरता की The Real Face of Facebook in India महत्वपूर्ण है। यह तथ्य बहुत कम लोगो को पता है की भारत में सोशल मीडिया के इस्तेमाल की ट्रेनिंग बीजेपी के ‘आई टी सेल’ को फेसबुक के भारत में स्थित अधिकारियो ने ही दिया था। 2014 के चुनाव में मोदी को जिताने में ये ट्रेंनिंग काफ़ी काम आई।
बहरहाल जेमी बार्टलेट टेक कम्पनियों की ही भाषा में समस्या को इस तरह से सामने रखते है। लोकतंत्र का ‘हार्डवेयर’ और ‘साफ्टवेयर’ दोनों होता है। हार्डवेयर है वह संरचना जिसके तहत वोट डाले जाते है, फिर उसकी गिनती होती है आदि आदि। साफ्टवेयर है उस जनता का दिमाग जिसका प्रयोग करके वे उपयुक्त उम्मीदवार को वोट डालते है। लेखक कहते हैं कि हार्डवेयर तो वही है लेकिन साफ्टवेयर को यानी हमारे दिमाग को लगातार इन कम्पनियों द्वारा हैक किया जाता है या उसे प्रभावित किया जाता है। और जाहिर सी बात है कि यह किसी एक पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में किया जाता है। इससे सत्ता और इन टेक कम्पनियों का गठजोढ़ स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बन जाता है। लेखक अपने तर्क केे पक्ष में डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव का उदाहरण देता है। जिसे ‘कैम्ब्रिज एनालिटिका’ ने डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में सफलतापूर्वक प्रभावित किया। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने स्वीकारा कि उसने फेसबुक से मिले डाटा का इस्तेमाल किया। डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थन में यह प्रचार अभियान इतना विशेषीकृत था कि आश्चर्य होता है। कामकाजी माओं को जब डोनाल्ड ट्रम्प का प्रचार प्रेषित किया गया तो उन्हें डोनाल्ड ट्रम्प की सिर्फ आवाज सुनाई गयी। इसके पीछे का तर्क यह था कि गोरे अमरीकी पुरूषों के बीच ट्रम्प की जो ताकतवर नस्लवादी पितृसत्तावादी इमेज गढ़ी गई थी उससे कामकाजी महिलाएं अपने को नहीं जोड़ पायेगी। इसलिए उन्हें सिर्फ आवाज सुनाई गयी वह भी बहुत नरम आवाज में। यहां तक कि ट्रम्प जब अपने चुनाव में आनलाइन चंदा इकट्ठा कर रहे थे तो स्क्रीन पर जो बटन दिखायी देता था वह किसी के लिए लाल रंग का होता था, किसी के लिए हरे रंग और किसी के लिए नीले रंग का। यह व्यक्ति की उसके रंग की पसंद के अनुसार किया गया था। जाहिर है इसे व्यक्तिगत आंकड़ों को बिना उस व्यक्ति की अनुमति के इकट्ठा करके उसकी प्रोफाइलिंग बनाके किया गया था। पहले के प्रचार और आज के प्रचार में यही फर्क है। पहले यदि प्रचार की एक होर्डिग लगी है तो उसे कोई भी देख सकता है। लेकिन डाटा के इस युग में मेरे फोन पर मेरी प्रोफाइलिंग के आधार पर प्रचार आयेगा और आपके फोन पर आपकी प्रोफाइलिंग के आधार पर। यहां आप थ्योरी के अन्त की बात समझ सकते हैं। कोई व्यक्ति क्यो एक खास वेबसाइट्स पर जाता है, इसके पीछे के कारणों को जानने की अब कोई जरूरत नहीं है। टेक कम्पनियों के पास यह आंकड़ा है कि आप इन साइट्स पर जाते है। उन्हें बस इसी आकड़े की जरूरत है। जिन्हें वे अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकते हैं, सरकारों के साथ साझा कर सकते हैं या दूसरी कम्पनियों को बेच सकते है।
किताब की दूसरी महत्वपूर्ण प्रस्थापना यह है कि ‘कनेक्टिविटी’ और ‘वैश्वीकरण’ के इस दौर में हम ‘ट्राइबलवाद’ की ओर जा रहे हैं। लेखक के अनुसार डाटा की बाढ़ ने जनता के बीच की विभिन्नताओं को बुरी तरह से उभार दिया है। लेखक ने उदाहरण दिया है कि भले ही हम अपनी भौगोलिक जगह पर अकेले ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ हो लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हमेे यह पता चल जाता है कि दुनिया में दूसरी जगहों पर ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ किस हालात में रह रहे हैैं और उनके साथ उनका समाज कैसे पेश आ रहा है। इसी प्रक्रिया में इस तरह के सभी ‘ट्राइब‘ नेट पर अपने जैसे लोगो की तलाश में रहते हैं और उनके साथ लगातार जुड़ते रहते हैं। इस तरह कनेक्टिविटी के साथ साथ ही एक तरह की ‘रिवर्स कनेक्टिविटी’ भी चलती रहती है। और अपने अपने पुर्वाग्रहों के कारण इन ‘ट्राइब्स‘ में दूरियां बढ़ती रहती हैं।
यहां लेखक एक समान्यीकरण का शिकार हो गया है। वह इन ‘ट्राइब्स‘ में शोषित और शोषक या सटीक रूप से कहे तो दबाने वाला और दबा हुआ का बुनियादी फर्क भूल जाता है। निश्चय ही इण्टरनेट ने इस फर्क को बढ़ाया है, लेकिन यह फर्क समाज में पहले से है और इसके अपने निश्चित सामाजिक आर्थिक संास्कृतिक व राजनीतिक कारण हैं।
लेखक ने इस महत्वपूर्ण पहलू की ओर भी संकेत किया है कि गूगल, फेसबुक जैसी विशालकाय कम्पनियां सिर्फ अपनी रिसर्च के बल पर इतनी बड़ी नहीं बनी है। बल्कि इसके पीछे सैकड़ों उन छोटी ‘स्टार्टअप’ कम्पनियों की रिसर्च है जिन्हें ये कम्पनियां समय समय पर निगलती रही है। और आज भी निगल रही हैं। अपने देश में ही ‘ओला’ और ‘फ्लिपकार्ड’ का हस्र हम जानते है। हालांकि लेखक ने इस पहलू को नजरअंदाज किया है कि वास्तव में यह राज्य प्रायोजित फंडिग से संभव हुए रिसर्च का फायदा उठाकर ही ये कम्पनियां आगे बढ़ी है। ‘अप्रानेट’ (जिसे आज इण्टरनेट कहा जाता है) और ‘टच स्क्रीन’ जैसी बुनियादी चीजों की खोज जनता के पैसे से चलने वाले अनुसंधान कार्यक्रमों में हुई है। 1980-90 के बाद के निजीकरण ने इन खोजो का फायदा इन टेक कम्पनियों की झोली में डाल दिया। पिछले साल आई ‘Mariana Mazzucato’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘The Entrepreneurial State: Debunking Public vs. Private Sector Myths’ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। भारत में भी हमेशा से ही पब्लिक सेक्टर का ‘आउटपुट’ प्राइवेट सेक्टर का ‘इनपुट’ हुआ करता था।
लेखक ने इस बात को भी बहुत ही मजेदार तरीके से बताया है कि सभी टेक कम्पनियां लोगों को अपनी टेक्नालाजी के माध्यम से एक सुन्दर भविष्य के सपने के बारे में भरोसा करने को कहती है लेकिन वे लोग व्यक्तिगत तौर पर सुन्दर भविष्य में यकीन नहीं रखते। क्योकि उन्हें पता हैं कि वे अपने बिजनेस माडल के माध्यम से पूरी दुनिया में जो असमानता निर्मित कर रहे हैैं वह किसी ना किसी दिन सामाजिक भूकम्प जरूर लायेगा। इसलिए इन टेक कम्पनियों के मालिक पृथ्वी पर चारों तरफ सम्पत्तियां खरीद रहे है। ताकि एक जगह कोई दिक्कत हो तो तुरन्त दूसरी जगह बसा जा सके। कुछ तो परमाणु रोधी बंकर तक का निर्माण करा रहे है।
इसके अलावा लेखक ने ‘इण्टरनेट आफ थिंग्स’ (Internet of things) के बारे में भी रोचक तरीके से बताया हैं। जब वस्तुएं जैसे आपकी फ्रिज, कार, एयरकंडीशन आदि भी इण्टरनेट से जुड़ जायेंगे और आपस में ‘बात‘ करने लगेंगे तब आपके बारे में जो विशाल डाटा प्रवाहित होगा, उस पर कब्जा रखने वाली कम्पनियां इसका कुछ भी दुरूपयोग कर सकती हैं। और इन कम्पनियों से सांठ गांठ करके राज्य आपको एक्विेरियम [Aquarium] की एक छोटी मछली के रूप में तब्दील करने की क्षमता प्राप्त कर लेगा।
दरअसल लेखक ने जिन खतरों की ओर इशारा किया है, खतरा दरअसल उससे कहीं बड़ा है। खतरा ‘सर्विलान्स कैपीटलिज्म’ (Surveillance capitalism) का है, जो आज के बदले हुए राजनीतिक आर्थिक हालात में और कुछ नहीं बल्कि ‘फासीवाद’ है।
तमाम खूबियों और रोचक शैली के बावजूद इस किताब की बड़ी कमजोरी यह हैै कि यह टेक्नोलाजी को समाज में मौजूद वर्ग सम्बन्धों से अलग करकेे देखती है। इसलिए 20 सूत्री इसका समाधान भी कृत्रिम और यूटोपियन है। दरअसल जो दिक्कत टेक कम्पनियों के साथ बतायी गयी है ठीक उसी तरह की दिक्कत विज्ञान की दुसरी तकनीकों या धाराओं के साथ भी है और रही है। उदाहरण के लिए मेडिसिन के क्षेत्र में क्या हो रहा है। मुनाफे की जकड़न ने ‘प्रेस्क्रिप्शन डेथ’ (Prescription death) नामक एक नया शब्द ही गढ़ दिया है। अकेले अमरीका में 2017 में कुल 72000 लोग दवाओं के ओवरडोज या गलत दवाओं के कारण मरे। यानी 200 लोग प्रति दिन। इसमें डाक्टरों द्वारा लिखी जाने वाली गैर जरूरी दवाओं और प्रचार के असर में खुद मरीजों द्वारा दुकान से खरीदी गयी दवाएं शामिल हैं। एक ‘जीन रिसर्च प्रोग्राम’ को फंड कर रही ‘गोल्डमान साश’ [Goldman Sachs] की एक रिपोर्ट पिछले साल ही लीक हो गयी थी जिसमें उसने कहा कि कैसर के इलाज के लिए किया जा रहा जीन रिसर्च अच्छा बिजनेस माडल नहीं है। क्योकि जीन में परिवर्तन करने से व्यक्ति को अपने जीवन में कभी भी कैन्सर नहीं होगा और इससे दवा उद्योग को लगातार मिलने वाला मुनाफा बन्द हो जायेगा।
दूसरी बड़ी दिक्कत लेखक की यह है कि जब समाधान की बात आती है तो वे मध्य वर्ग की तरफ आशा भरी नजर से देखते हैं। समाज की निचली पायदान पर बैठे वर्ग यानी मजदूरों-किसानों को वे अपने डिस्कोर्स में जगह ही नहीं देते। जबकि बड़ी टेक कम्पनियों सहित तमाम कम्पनियों की मुनाफे की हवस के सबसे ज्यादा शिकार ये वर्ग ही है।
आज जब यह कहा जा रहा है कि ‘Data is the new oil’ तो यह नया आयल आम जनता का ही है। और इस आयल पर जनता की कब्जेदारी के साथ साथ आर्थिक राजनीतिक व सांस्कृतिक सस्थाओं व नीतियो पर भी इनकी कब्जेदारी से ही दुनिया बच सकती है और मानवजाति का भविष्य बच सकता है।
जेमी बार्टलेट ने इसी विषय पर बीबीसी के साथ मिलकर ‘सीक्रेट्स आफ सिलीकान वैली’ (Secrets Of Silicon Valley ) नामक महत्वपूर्ण डाकूमेन्ट्री भी बनायी है। उसे भी देखा जा सकता है।

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त्रिलोचन शास्त्री और उनका दलित दोस्त

आज 20 अगस्त को हिंदी के बड़े व प्रगतिशील कवि ‘त्रिलोचन शास्त्री’ का जन्म दिन है। आज ही के दिन 1917 में वे उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में पैदा हुए थे। उनसे जुड़ा एक किस्सा आज मुझे याद आ गया, जो खुद त्रिलोचन जी ने ही सुनाया था।
त्रिलोचन की गांव के ही एक दलित नौजवान से गहरी दोस्ती थी। एक दिन दोनो ने मस्ती में ही यह तय किया कि इस गांव से दिल्ली की यात्रा पैदल ही की जाय। लेकिन शर्त यह थी कि कोई भी अपनी जेब में एक पैसा भी नहीं रखेगा। और यात्रा अलग अलग करेंगे। 1 माह बाद दिल्ली के लाल किले के सामने तय समय पर मिलने का तय कर लिया गया, जहां दोनो अपना अनुभव एक दूसरे को बतायेंगे। दोनो ने सुल्तानपुर से दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी की पटरी को पकड़ कर अलग अलग समय पर अपनी यात्रा शुरू कर दी।
एक माह बाद तय समय व स्थान पर त्रिलोचन और उनके दलित दोस्त मिले। त्रिलोचन ने तपाक से पूछा कि कैसे इतनी लंबी यात्रा बिना पैसे के की। उनके दलित दोस्त ने उनसे कहा कि पहले आप अपना अनुभव बताएं। त्रिलोचन ने बड़े सहज भाव से जवाब दिया कि चलते चलते जब मैं थक जाता था तो बगल के गांव में चला जाता था वहां कहीं स्थान देख कर भजन कीर्तन-प्रवचन शुरू कर देता था। गांव वाले मुझे भोजन, पैसे और सोने का अच्छा जुगाड़ कर देते थे। फिर मैं अगले दिन वहां से निकल जाता था। ऐसे ही मैं दिल्ली पहुंच गया। कोई दिक्कत नहीं हुई। अब उस दलित दोस्त की बारी थी। उसने बहुत संक्षिप्त सा उत्तर दिया। मैं गांव दर गांव मजदूरी करता, फिर आगे बढ़ जाता। इस तरह मैं दिल्ली पहुंच गया।
यह कहानी सुनाने के बाद त्रिलोचन ने कहा कि दलित दोस्त के इस अति संक्षिप्त उत्तर में हमारी जाति व्यवस्था की विराटता का दर्शन उसी तरह होता हैं जैसे अर्जुन को कृष्ण के मुख में पूरे ब्रहमाण्ड के दर्शन हुए थे।

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‘Innocence Project’ and ‘The Innocence Files’


2014 में ‘शुभ्रदीप चक्रवर्ती’ की एक महत्वपूर्ण दस्तावेजी फिल्म आयी थी-‘आफ्टर दि स्टार्म’। इस फिल्म में शुभ्रदीप ने 7 ऐसे मुस्लिमों की कहानी बयां की है जिन्हें आतंकवाद के झूठे केसो में फंसाया गया और फिर सालों साल जेल में बिताने के बाद विभिन्न कोर्टो ने उन्हें सभी आरोपो से बरी कर दिया। लेकिन इस दौरान अपने को निर्दाेष साबित करने की जद्दोजहद ने उनका व उनके परिवार का सामाजिक-आर्थिक अस्तित्व ही मानो खत्म कर दिया।
गुजरात में कुछ दक्षिणपंथी नेताओं की हत्या की तथाकथित साजिश के आरोप में गिरफ्तार और 5 साल जेल की सजा काटने के बाद कोर्ट से बरी हुए अहमदाबाद के उमर फारूख का इसी फिल्म में यह बयान सुरक्षा एंजेसियों और सरकार के असली चरित्र को बेनकाब कर देता है-‘सरकार पोल्ट्री फार्म के मालिक की तरह है और हम मुस्लिम लोग मुर्गियों की तरह है। जब भी पोल्ट्री फार्म के मालिक को भूख लगती है तो वो कोई भी एक मुर्गी उठा लेता है, उसे इससे मतलब नहीं कि वह मुर्गी कौन है।’ जेल में रहते हए जब भी कोई नया बन्दी आता और अगर वो गरीब, दलित या मुस्लिम होता तो मेरे दिमाग में उमर फारूख का यही बयान गूंजने लगता। पुलिस लॉकअप में जब मुझे एक दलित नौजवान मिला तो मैंने उससे पूछा कि तुम पर क्या चार्ज है, तो उसने बहुत बेचैनी से जवाब दिया-‘पता नहीं। अभी तक तो बताया नहीं।’
अमरीका में यही हाल काले लोगों का है। इसलिए वहां जनसंख्या का महज 13 प्रतिशत होने के बावजूद वहां की जेलों में उनकी संख्या 40 प्रतिशत के करीब है।
1992 में अमरीका के दो वकीलों ‘बैरी शेक’ और ‘पीटर न्यूफेड’ ने ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ की शुरूआत की। इस प्रोजेक्ट के पीछे का विचार यही था कि अमरीकी जेलों में जो बड़ी संख्या में निर्दोष बन्द है और उनमें से ज्यादातर काले है, (उनमें से कई तो मृत्यु दण्ड का इन्तजार कर रहे हैं) उन्हें निर्दोष साबित करना और जेलों से बाहर लाना। समय के साथ अनेक युवा आदर्शवादी वकील इस प्रोजेक्ट से जुड़ते चले गये और आज अमरीकी जेलों में बन्द निर्दोष लोगों के लिए इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट एक तरह से अंतिम आशा है। 2005 में आयी मशहूर डाकूमेन्ट्री ‘आफ्टर इन्नोसेन्स’ इस प्रोजेक्ट के महत्व और ताकत को बखूबी बयां करता है। इस फिल्म में 8 ऐसे केसों का ब्योरा है जिन्हें गलत तरीके से मृत्यु दण्ड दे दिया गया था, लेकिन ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ ने मुख्यतः डीएनए का इस्तेमाल करते हुए उन आठों लोगों को निर्दोष साबित किया और जेल से बाहर निकाल कर उन्हें उनके दोस्तों और परिवार के बीच पहुंचाया। इसके बाद ही वहां मृत्यु दण्ड के खिलाफ आवाज ने और जोर पकड़ा। हमारे यहां धनजंय चटर्जी का केस आपको याद होगा,जिन्हें 2004 में बलात्कार और हत्या के एक मामले में फांसी दे दि गयी। कोलकाता के दो प्रोफेसरों ने इस केस की गहरी पड़ताल करके एक किताब (Court-Media-Society and The Hanging of Dhananjoy) लिखी है और धनजंय को पूरी तरह निर्दोष साबित किया है। लेकिन अब क्या हो सकता है। इसके अलावा ‘अफजल गुरू’ जैसे लोगों की फांसी का यहां जिक्र नहीं कर रहा हूं क्योकि इस तरह की फांसी और कुछ नहीं बल्कि राजनीति हत्या है।
इसी साल नेटफ्लिक्स पर इसी प्रोजेक्ट पर आधारित एक सीरिज ‘दि इन्नोसेन्स फाइल’ शुरू हुई है, जो इस तरह के चुनिंदा केसों को सामने लाती है। इसकी पहली तीन कड़ियों को मशहूर ब्लैक डायरेक्टर ‘रोजर रास विलियम्स’ ने निर्देशित किया है। इसमें बहुत ही दमदार तरीके से यह दिखाया है कि कैसे काले लोगों के प्रति पूर्वाग्रह से भरी पुलिस व कोर्ट अपर्याप्त और विवादित फोरेन्सिक सबूतों के आधार पर लोगों को अपराधी साबित कर देती है। ‘लेवान ब्रूक’ का मामला दिलचस्प है। 15 सितम्बर 1990 को मिसीसीपी में एक तीन साल की बच्ची कोर्टनी स्मिथ का अपहरण हो जाता है। बाद में पता चलता है कि उसका बलात्कार करके उसे पास के ही एक तालाब में फेक दिया गया था। पुलिस की पड़ताल में शक की सुई कोर्टनी स्मिथ की मां के पुराने दोस्त लेवान ब्रूक की ओर जाती है। बच्ची कोर्टनी स्मिथ के शरीर पर दांत काटने का एक निशान है। इस निशान को लेवान ब्रूक के दांत के निशान से मिलाया जाता है और निशान ‘मैच’ कर जाता है। लेवान ब्रूक को आजीवन कैद की सजा हो जाती है। 16 साल जेल में बिताने के बाद लेवान ब्रूक को ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ के बारे में पता चलता है। लेवान जेल से ही ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ को पत्र लिखते है। ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ उनका केस अपने हाथ में लेता है। प्रोजेक्ट से जुड़े लोग घटनास्थल का दौरा करते है। उस फोरेन्सिक डेन्टल डाक्टर ‘मिशेल वेस्ट’ से मिलते हैं जिसने बच्ची के शरीर पर दांत काटे के निशान को लेवान ब्रूक के दांतो से मिलाया था। डा. मिशेल वेस्ट की रिपोर्ट के आधार पर ही लेवान ब्रूक को सजा सुनाई गई थी। डा. मिशेल को इस बात का गर्व है कि उनकी इसी तरह की रिपोर्ट पर दर्जनों अन्य लोगों को भी लंबी लंबी सजाएं हुई है। डा. मिशेल यह मानने को तैयार नहीं कि यह विज्ञान फूलप्रूफ नहीं है और इसमें गलती की भरपूर गुंजाइश हैं। नेटफ्लिक्स की यह सिरीज इसी साल अप्रैल की है। इसलिए इसमें ‘ब्लैक लाइव मैटर’ की अनुगूंज भी साफ सुनाई देती है। कार से जाते हुए जब कार की खिड़की से एक ‘कनफेडरेड मूर्ति’ (अमेरिका में गुलामी प्रथा खत्म होने से पहले दास-स्वामियों की मूर्ति) दिखाई देती है तो डा. मिशेल वेस्ट का पुराना दर्द उभर जाता है। वे बड़बड़ाने लगाते हैं-‘आप इतिहास को मिटा नहीं सकते। इन मूर्तियों को गिराना मूर्खता है। ये हमारा इतिहास है।’ फिल्म के अंत में यह दृश्य पूरी फिल्म को एक नया अर्थ दे देता है। यहां मुझे चिन्मय तहाने की मशहूर फिल्म ‘कोर्ट’ का वह दृश्य याद आ गया, जहां दलित क्रांतिकारी गायक को सजा सुनाने के बाद अपने परिवार के साथ पिकनिक मना रहे जज के दकियानूसी विचारों से दर्शकों का सामना होता है और पूरी फिल्म को एक नया अर्थ मिलता है। बहरहाल ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ के प्रयासों से लेवान ब्रूक का डीएनए होता है और 16 साल जेल में बिताने के बाद उन्हें बाइज्जत बरी किया जाता है। इसमें दिलचस्प तथ्य यह है कि बच्ची के शरीर पर जो दांत काटे का निशान बताया गया वह दांत के काटे का नहीं बल्कि जिस तालाब में उसे फेका गया था, उसमें एक खास प्रजाति की मछली के काटने का निशान था, जिसे डा. मिशेल वेस्ट ने लेवान ब्रूक का दांत काटा निशान साबित कर दिया। इसी तरह के एक अन्य केस में कुल 36 साल बाद व्यक्ति जेल से बाहर आया। यहां भी उसे डा. मिशेल वेस्ट के ‘दांत काटे निशान’ की रिपोर्ट के आधार पर ही सजा सुनाई गयी।
इसी तरह इस सीरीज की चौथी कड़ी में एक यौन उत्पीड़न के केस में गलत आइडेन्टिफिकेशन के कारण थामस हेनेसवर्थ को 74 साल की सजा हो गयी। ‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ के प्रयासों से निर्दोष साबित होने के बाद थामस हेनेसवर्थ 27 साल जेल में बिताकर रिहा हुए। जिस व्यक्ति ने उनकी गलत पहचान की थी, उसने बाद में बताया कि पुलिस को केस हल करने की जल्दी थी। इसलिए पुलिस ने मेरे उपर दबाव बनाया कि मैं जल्दी पहचानू। मैं भी बार बार पुलिस थाने नहीं आना चाहता था। इसलिए जो भी मुझे करीब का चेहरा दिखा, मैंने उस पर अपना हाथ रख दिया। इस कड़ी के डायरेक्टर ‘अलेक्स गिबने’ बहुत महत्वपूर्ण बात कहते है-‘न्यायिक प्रक्रिया की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सत्य या न्याय की तलाश किसी को भी नहीं है। सभी को तलाश सिर्फ केस जीतने की रहती है।’ यह कथन भारत पर भी हूबहू लागू होता है।
‘इन्नोसेन्स प्रोजेक्ट’ के संस्थापक सदस्य बैरी शेक और पीटर न्यूफेड न्याय व्यवस्था के बारे में सही ही कहते है-‘पूरा पेशा, पूरा सिस्टम, इसकी पूरी कार्य प्रणाली सब बोगस है।’
‘दि इन्नोसेन्स फाइल’ की यह सीरिज देखते हुए और उसे भारत की परिस्थितियों से मिलाते हुए यह अहसास गहरा होता जाता है कि सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित तबके में जन्म लेने के कारण आपको ना सिर्फ ताउम्र अपने रोजी-रोजगार यानी अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ता है बल्कि मौजूदा परिस्थिति में निरंतर अपने आप को निर्दोष साबित करने का भी भागीरथ प्रयास करते रहना पड़ता है। भारत में उन तमाम ‘विमुक्त जातियों’ [Denotified Tribes] के बारे में सोचिए इन्हें पैदाइशी अपराधी समझा जाता है। एटीएस रिमांड के दौरान एटीएस अधिकारियों ने मुझसे इसी बात पर बहस की कि विमुक्त जातियां सच में पैदाइशी अपराधी होती हैं।
लेकिन असल त्रासदी इस बात की है कि हमें अपने आपको उन लोगों के सामने निर्दोष साबित करना होता जिनके दिमाग तमाम पूर्वाग्रहों और दकियानूसी विचारों से बजबजा रहे होते है और जिनके दांतो में इंसानी गोश्त के टुकड़े फंसे होते हैं।
-मनीष आज़ाद

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‘खीम सिंह बोरा’- एक राजनीतिक बंदी

आज जब हम वरवर राव व अन्य राजनीतिक बन्दियों के लिए अपनी आवाज उठा रहे हैं तो हमें यह नही भूलना चाहिए कि देश की तमाम जेलों में हज़ारो ऐसे कैदी बंद हैं जो अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण जेलो में है। एक अनुमान के अनुसार इस समय देश की जेलों में करीब 22 हजार ऐसे कैदी हैं जिन पर किसी ना किसी तरह से माओवाद-नक्सलवाद से सम्बन्धित केसेस हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये सभी राजनीतिक कैदी है। जाहिर है इनका बहुलांश छत्तीसगढ और झारखण्ड की जेलों में हैं। इनमे से अधिकांश ग़रीब, दलित व आदिवासी है। अपनी सामाजिक- आर्थिक स्थितियों की वजह से इनमे से ज्यादातर की कोई पैरवी करने वाला भी नहीं है। वरवर राव जैसे राजनीतिक बन्दी इन सबका प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए वरवर राव की रिहाई की मांग में इन सबकी रिहाई की मांग भी शामिल है।
ऐसे ही एक राजनीतिक कैदी ‘खीम सिंह बोरा’ लखनऊ जेल में मेरे साथ थे। आज से ठीक एक साल पहले जेल में मेरी उनसे मुलाक़ात हुई थी।


दरअसल एटीएस कस्टडी के दौरान ही मुझे पता चला कि बरेली से किन्ही बोरा जी को भी पकड़ा गया है। बोरा जी को मैं नाम से जानता था कि वे उत्तराखण्ड के आंदोलनकारी है, लेकिन कभी मिला नहीं था। एटीएस कस्टडी के बाद जब मैं वापस 15 जुलाई को जेल पहुंचा तो वहां बोरा जी से मेरी पहली मुलाकात हुई। वे भी मेरे नाम से परिचित थे और टीवी न्यूज के माध्यम से उन्हें मेरी गिरफ्तारी की खबर हो चुकी थी। सुबह की गिनती के बाद जब मैं अहाते में टहल रहा था तभी मेरे कानों के एक आवाज पड़ी- ‘यहां भोपाल से कोई मनीष नाम के कैदी आये है, जिन पर माओवादी केस डाला गया है?’ मैंने आवाज की दिशा में देखा और उनकी ओर इशारा करते हुए पूछा- ‘आप बोरा जी?’ एक क्षण को हमने एक दूसरे को देखा और ऐसा लगा कि हम एक दूसरे को कितने दिनों से जानते हैं। हम तुरन्त आगे बढ़कर गले मिले और कुछ देर तक हम यह भूले रहे कि हम जेल में हैं।
अब हमारे पास बातचीत का खजाना था- ‘ ग़में दौरा से लेकर ग़में जानां तक’। बातचीत में ही उन्होंने बताया कि उन्हें बरेली से नहीं बल्कि अल्मोड़ा से गिरफ्तार किया गया है, जब वे बस से कहीं जा रहे थे। उन्होंने बताया कि अल्मोड़ा में गिरफ्तारी के तुरन्त बाद उन्हें थोड़ी (?) यातना भी दी गयी। उन्हें कुछ समय तक एक खास कठिन पोजीशन में नंगे होकर खड़े होने को कहा गया। कस्टडी में व्यक्ति को नंगा करने के पीछे सुरक्षा एजेंसियों का जो ‘ओबसेशन’ है वह समझ से परे है। हालाँकि व्यक्ति को नंगा करने की प्रक्रिया में यह सिस्टम कितना नंगा होता जा रहा है, शायद उन्हें इसका अहसास नहीं है। बाद में पूछताछ के दौरान एक एटीएस के बन्दे ने उन्हें एक पैकेट दिया और कहा- ‘बोरा जी यह आपके लिए एक छोटा सा गिफ्ट है।’ पैकेट में 315 बोर का एक तमंचा था। यह बताते हुए बोरा जी खूब हंस रहे थे। एटीएस के उसी बन्दे ने आगे कहा कि खाली-खाली गिरफ्तार करना अच्छा नहीं लग रहा है। बोरा जी ने भी वह ‘गिफ्ट’ स्वीकार कर लिया। उनके पास चारा भी क्या था। पुलिस के दिए ऐसे असंख्य की ‘गिफ्टों’ के कारण ना जाने कितने लोग सालों साल जेल यातना भुगत रहे है।
बाद में जब उनकी चार्जशीट आयी तो उसमें कुछ मज़ेदार बातें लिखी हुई थी। अल्मोड़ा से गिरफ्तार करने के बावजूद चूंकि स्टोरी यह दिखानी थी कि इन्हें बरेली रेलवे स्टेशन से उस वक्त गिरफ्तार किया गया जब वे धनबाद जाने के लिए ट्रेन पकड़ने वाले थे। ऐसे में बोरा जी के पास उस ट्रेन का टिकट होना जरूरी था। लेकिन गिरफ्तार तो अल्मोड़ा से किया था तो टिकट कहां से लाते, तो इसका जो तर्क उन्होंने चार्जशीट में दिया वह और भी हास्यास्पद था। चार्जशीट में उन्होंने लिखा कि बरेली स्टेशन पर गिरफ्तार करने के बाद जब अभियुक्त से टिकट के बारे में पूछा गया तो अभियुक्त ने हाथ जोड़कर कहा कि ‘साहब मैं बहुत गरीब आदमी हूं, बिना टिकट के ही जनरल में यात्रा करता हूं।’ जेल में हमारे दोस्तो के बीच यह लाइन तकिया कलाम की तरह चल निकली। दिन भर में जिसको भी बोरा जी से मस्ती करनी होती वो बोरा जी के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता और यह लाइन दोहरा देता। यहां तक कि एक बार घर की मुलाकात आने के बाद जब सिपाही ने एक मजाकिया दोस्त कैदी से पैसे की डिमान्ड की तो उस कैदी ने बड़े ही मजाकिया अन्दाज में उसके सामने यही लाइन दोहरा दी। हम इस पर कितना भी हंसे लेकिन सच तो यही है कि इसी तरह के हास्यास्पद तर्क कैदी को सालों-साल जेल के अन्दर रखने की क्षमता रखते हैं। भीमाकोरेगांव वाले केसों में भी हम इसे साफ साफ देख सकते हैं। अमर उजाला ने उनके पास से जब्त प्रतिबंधित साहित्य की जो सूची जारी की, उस पर एक नज़र डालना रोचक होगा- ‘काले कानूनों से बिंसर जंगल कब्जाया 23 मार्च 2013, संसदीय चुनाव का बहिष्कार करो, शोषण, दमन, अन्याय जायज ठहराने का चुनाव है, यह दो अप्रैल 2014, सरकार, नौकरशाह, भ्रष्ट नेताओं और बड़े ठेकेदारों के लिए आपदा बनी वरदान, जनता के लिए अभिशाप, वोट का नहीं चोट का रास्ता अपनाओ क्रांतिकारी किसान संगठन एक फरवरी 2014, और जल, जंगल, जमीन व खनिज को लूटने से बचाओ । इसके अलावा संगठन से संबंधित चार पत्रिकाएं भी मिलीं, जिसमें से दो मुक्तिपथ जनवरी-मार्च 2013 और दो पत्रिकाएं जनहुकुमत मुखपत्र हैं। बरामद पंफ्लेटों और साहित्य का भी एटीएस की ओर से कानूनी परीक्षण कराया जा रहा है।’
57 साल के बोरा जी उत्तराखण्ड के पुराने आन्दोलनकारी हैं। पहली बार वे 1984 में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ के मशहूर आन्दोलन में शमशेर सिंह बिष्ट, राजीव लोचन शाह जैसे वरिष्ठ आन्दोलनकारियों के साथ जेल गये थे। मार्क्सवाद के साथ उनका परिचय यहीं जेल में हुआ। उस समय शमशेर सिंह बिष्ट जेल में ही बोरा जी जैसे नौजवान आन्दोलनकारियों का क्लास चलाया करते थे। उसके बाद वे उत्तराखण्ड के सभी प्रमुख आन्दोलनों में शामिल रहे। 2017 में जब जिन्दल ने अल्मोड़ा के नजदीक रानीखेत में आम किसानों की जमीन पर कब्जा करके उस पर जिन्दल विद्यालय बनाने का प्रयास किया तो उसके खिलाफ हुए जबरर्दस्त आन्दोलन में भी इनकी भागीदारी रही और फलतः जिन्दल को अपना यह प्रोजेक्ट रोकना पड़ा।
मजेदार बात यह है कि उनके खिलाफ सभी 5 केसेस उत्तराखण्ड में हैं। लेकिन उन्हें लखनऊ में लाकर रखा गया है, ताकि उनकी पैरवी मुश्किल हो जाये और परिवार की उन तक पहुंच कठिन बनी रहे। फाइलेरिया ग्रस्त उनकी पत्नी साल में महज एक बार ही उनसे मिल सकी है। कोविड के दौरान जब जेल की मुलाकाते बन्द हैं और बाहर से जरूरत का कोई भी सामान अन्दर नहीं जा पा रहा है तो बोरा जी के लिए मुश्किलें और बढ़ गयी है। बोरा जी शुगर के मरीज हैं और जेल में मेरे रहते तीन बार उनका शुगर काफी डाउन हो गया था और वे बेहोशी के कगार पर पहुंच गये थे। लेकिन हम सबने मिलकर जल्द ही उन्हें संभाल लिया था।
मुलाक़ात और आवश्यक चीज़ों के अभाव में जेल में इस समय अधिकांश बन्दी भयानक डिप्रेशन में जी रहे हैं।
कल यानि 16 जुलाई को बोरा जी की बेल पर सुनवाई है। एक क्षीण सी उम्मीद तो है, लेकिन ये व्यवस्था इन तमाम उम्मीदों का क़त्ल करके ही तो जवान हुई है। ऐसे में इस व्यवस्था से कितनी उम्मीद की जा सकती है?

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अंत की शुरुआत……….

दार्शनिक दृष्टी से देखेँ तो ‘अंत’ कुछ नही होता। हर ‘अंत’ के साथ एक अनिवार्य ‘शुरूआत’ जुड़ी होती है। इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने ‘अब्बू की नज़र में जेल’ का अन्तिम भाग असली ‘अब्बू’ को भेजा और फिर फोन से उससे बात हुई। दरअसल मैं ‘अब्बू की नज़र में जेल’ का प्रत्येक भाग सबसे पहले असली अब्बू को भेजता था। 7 साल का हो चुका अब्बू धीमे धीमे एक-एक लाइन पढ़ता। जहां उसे दिक्कत होती, अपनी ईजा की मदद लेता। उसके बाद वह मुझे फोन करता कि मौसा मैंने तेरी डायरी पढ़ ली। मैं बोलता कि सच में तूने पढ़ ली। वह बोलता, और क्या, चाहो तो टेस्ट ले लो। फिर मैं डायरी के उस हिस्से से कुछ पूछता और वह सही सही जवाब देता। फिर मैं उसे पदुम नम्बर देता। कई बार वह पलट कर खुद भी सवाल करता। जैसे 12 वां भाग पढकर उसने बड़ी चिन्ता से पूछा कि मौसा ‘कादिर’ को अब कौन निकालेगा। उसकी तो मां भी नहीं है। मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही वह खुद बोल पड़ा-‘मौसा उसे तुम क्यो नही निकाल सकते।’ मैंने उसे आश्वस्त किया कि ठीक है मैं उसे निकाल लूंगा।
जब मैंने अब्बू को डायरी का अन्तिम हिस्सा भेजा तो उसने डायरी पढ़कर मेरे सवालों का जवाब देने के बाद अचानक बोला-‘मौसा, काश कि मैं भी तेरे साथ जेल में होता।’ मैं चौक गया। मैंने तुरन्त पूछा-‘अब्बू तुझे जेल से डर नहीं लगता?’ अब्बू तुरन्त बोला-‘पहले लगता था, लेकिन तुम्हारी डायरी पढ़ने के बाद नहीं लगता।’ मेरी जेल डायरी का इससे अच्छा अन्त और क्या हो सकता है। इसने एक नयी शुरूआत को जन्म दे दिया। मेरे जेहन में ‘गोरख पाण्डेय’ की एक मशहूर कविता गूंजने लगी-
वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना
बंद कर देंगे

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अब्बू की नज़र में जेल- अंतिम भाग

एक दिन सुबह-सुबह गिनती के बाद अब्बू ने अचानक बिना किसी सन्दर्भ के मुझसे पूछा-‘मौसा, अगर तुम्हारे पास अपनी जेल होती तो क्या तुम मौसी को कभी जेल में डालते।’ मैंने बेहद आश्चर्य से उससे पूछा कि ये क्या पूछ रहा है तू। उसने मेरे आश्चर्य वाले भाव पर बिना ध्यान दिये आगे जोड़ा-‘मतलब कि मौसी तुमसे भी तो झगड़ा करती है, तो उस समय यदि तुम्हारे पास जेल होती तो क्या तुम मौसी को जेल में बन्द कर देते।’ अब्बू बिना रूके उसी रौ में आगे बोलता रहा-‘लेकिन जब तुमने सरकार से झगड़ा किया तो सरकार ने तुम्हें जेल में क्योँ डाला।’ उसकी इस बात ने मुझे और ज्यादा आश्चर्य में डाल दिया। मैं समझ नहीं पाया कि क्या बोलूं। इस बात को समझने में तो बड़े-बड़े समाज वैज्ञानिकों को भी दिक्कत होती है। मैं अब्बू को कैसे समझाऊँ। मैंने तो अब्बू को टाल दिया कि ठीक है अब्बू, दलिया पीने के बाद बताउंगा। लेकिन मेरा दिमाग चलने लगा। जनता और सरकार के बीच का रिश्ता, या और सटीक रूप से कहें तो जनता और राज्य के बीच का रिश्ता क्या है। हमारी पारिवारिक पितृसत्तात्मक संरचना और जनता पर दमन के लिए इस संरचना का इस्तेमाल या इस दमन के प्रतिरोध में यह संरचना कितना अवरोध पैदा करती है। यदि हम सबके घरों में एक छोटी जेल है तो हम इस बड़ी जेल का कितना विरोध कर पायेंगे। या इस बड़ी जेल का विरोध, उन छोटी-छोटी जेलों को तोड़ने में कितना कारगर होगा या इस छोटी जेल का उस बड़ी जेल से आखिर सम्बन्ध क्या है। खैर दलिया पीने के बाद अब्बू ‘बोरा जी’ के साथ चेस खेलने लगा और अपना सवाल भूल गया।
चेस खेलते अब्बू को मैंने ध्यान से देखा और अचानक मेरे दिमाग में आया कि अब इस बच्चे को और जेल में रखना सही नही हैं। अभी पिछली ही बार जब मैं महिला मुलाकात में अमिता से मिला तो अमिता ने बताया कि उसकी बैरक में जो लोग ‘अब्बू की नज़र में जेल’ पढ़ते हैं, उसमें से कई लोग अब यह कहने लगे हैं कि अब्बू को जेल में नहीं देखा जाता, उसे रिहा कर दो। मेरी बैरक में भी जो लोग ‘अब्बू की नज़र मे जेल’ पढ़ते हैं उनमें से भी कुछ लोग यह कह चुके हैं कि इतने छोटे बच्चे को जेल में नहीं देखा जाता। भले ही वह कल्पना में ही क्यो ना हो। उनके इस अनुरोध को मैं अपनी कामयाबी समझता कि मेरीे लेखनी असर कर रही है। लेकिन आज मुझे लग रहा है कि क्या मैं महज अपने स्वार्थ में अब्बू को अपने साथ जेल में रखे हुए हूं। ताकी कहानी में मासूमियत ला सकूं। और सहानुभूति बटोर सकूं। मेरे इस दावे में भी कितना दम है कि मैंने अब्बू को इसलिए अपनी कहानी में शामिल किया कि एक बार अब्बू की निर्दोष नज़र से दुनिया को देख संकू। आखिर अब्बू के मुंह से मैं ही तो बोल रहा हूं। इसी उधेड़बुन में मुझे गोर्की की कहानी ‘पाठक’ की याद हो आयी। और अन्ततः मैंने अब्बू को रिहा करने का फैसला कर लिया। हालांकि यह ख्याल आते ही मेरा दिल बैठने लगा। बिना अब्बू के मैं कैसे रहूंगा। बिना अब्बू के मैं कैसे लिखूंगा। बिना झूठ के सच कैसे लिख पाउंगा। ‘पाब्लो पिकासो’ तो कहते थे कि कला वह झूठ है जो आपको सच तक पहुचाता है। फिर मैं बिना अब्बू के सच तक कैसे पहुंचूगा। क्या कोई दूसरा झूठ गढ़ना पड़ेगा। क्या कला में हर सच का अपना एक झूठ भी होता है। और हर सच को उसके झूठ से और हर झूठ को उसके सच से आंकना होता है। मुझे कोई जवाब नहीं मिल रहा था, लेकिन मैंने फैसला कर लिया कि अब अब्बू को जेल से रिहा करने का समय आ गया। लेकिन उसे कैसे रिहा करूं। क्या कहानी गढ़ूं। क्या अपने पात्र से यानी अब्बू से विद्रोह करा दूं। अब्बू को रूला दूं कि अब मैं जेल में नही रह सकता। मुझे घर, मेरे ईजा बाबा के यहां पहुंचा दो। हां यही ठीक रहेगा। कितनी कहानियों में मैंने पढ़ा है कि पात्र लेखक से विद्रोह कर देते है और लेखक की कल्पना के लौह दायरे को तोड़ कर बाहर निकल जाते हैं। क्या अब्बू मेरी कल्पना के लौह दायरे को तोड़ सकता है। क्या मेरा प्यारा अब्बू ऐसा कर सकता है। ‘संजीव’ की मशहूर कहानी ‘प्रेरणास्रोत’ में भी तो यही होता है। पता नहीं कितना कहानीकार अपने पात्रों को गढ़ता है और कितना पात्र अपने कहानीकार को गढ़ते हैं। पता नहीं मैंने कितना अब्बू को गढ़ा और कितना अब्बू ने मुझे गढ़ा। बहरहाल, अब्बू को अपनी कहानी से बाहर करने का दबाव क्या सिर्फ मेरे आठ-दस पाठकों का है, या इसके पीछे मेरी अपनी निराशा भी है।
दरअसल मेरी बेल लगने के बाद ही कुछ ऐसा घटनाक्रम घटा कि मुझे अपनी बेल मुश्किल लगने लगी। तेलंगाना में किसी माओवादी ने समर्पण किया और यहां एटीएस वालों ने आदतन उसकी कहानी को बेवजह मेरे साथ जोड़ दिया। यह सुनकर मन खिन्न हो गया। और निराशा छाने लगी। लगा कि अब लम्बे समय तक बेल मुश्किल होगी। तो अब्बू को कहानी से बाहर करने का फैसला क्या निराशा में उठाया गया फैसला था? पता नहीं। ठीक-ठीक नहीं कह सकता। पहले तो मैं यही सोचता था कि मैं और अब्बू दोनो साथ ही जेल से बाहर आयेंगे। आखिर अब्बू मेरी आशा जो है। उसे तो मेरे साथ रहना ही चाहिए। ‘अनुज लगुन’ ने अपनी कविता में इस आशा को यूं बयां किया है-

यह बच्चा
जो मेरे साथ जेल की कस्टडी में है
तुम्हें नहीं लगता
जब यह बड़ा होगा तो
जेल की दीवार टूट जाएगी….?

खैर बेल पर बहस की डेट भी आ गयी। सीमा ने बताया कि अगर चमत्कार हो गया और बेल हो गयी तो मैं उसी दिन जेल में फोन करवा कर तुम्हे सूचना दे दूंगी। वर्ना समझ लेना बेल नही हुई। आज दिन भर मेरी धड़कन तेज चलती रही, लेकिन शाम तक धीरे धीरे धड़कन की रफ्तार सामान्य होने लगी। सन्देशा नहीं आया। यानी बेल नहीं हुई। एक हल्की सी आशा अभी भी बनी हुई थी कि हो सकता है वह फोन ना करवा पाई हो और कल मुलाकात के लिए आ जाय। इसी उधेड़बुन में रात भी कट गयी और दिन भर बेचैनी बनी रही। लेकिन मुलाकात नहीं आई। अब स्पष्ट हो गया कि बेल नहीं हुई। अब मैंने अपने आपको शान्त किया और उस कहानी पर विचार करने लगा जिसमें अब्बू को जेल से रिहा किया जाना था। मैंने सोचा कि दोपहर में नहाने के बाद लिखने बैठूंगा और अब्बू को रिहा करूंगा। यह सोचकर मेरा मन भारी हो रहा था कि अब मुझे लम्बे समय तक यहां अब्बू के बिना रहना पड़ेगा।
भीड़ से बचने के लिए अक्सर मैं दोपहर बाद ही नहाता था। मैं अभी अपने ऊपर पानी डालने जा ही रहा था कि अहाते में दूर से दौड़ता हुआ अब्बू आता दिखा। मैंने सोचा क्या हुआ। इतनी तेज क्यो दौड़ रहा है। मैं रूक गया। वह मेरी तरफ ही आ रहा था। वह सीधे मेरे पास आकर ही रूका। मेरे कुछ पूछने से पहले ही वह हांफते हुआ बोला-‘मौसा हमारी बेल हो गयी।’ और फिर पीछे की तरफ इशारा करता हुआ बोला कि वो नम्बरदार बताने आया है और पैसे मांग रहा है। मैं स्तब्ध था। कोई भाव नहीं आ रहा था। अब्बू को बेल के बारे में मैंने कुछ नहीं बताया था कि झूठ मूठ के वह आशा बांध लेगा। अब्बू को यहा रहते हुए बेल का मतलब अच्छी तरह पता था। मुझे इस तरह भावहीन देख उसने फिर हाफते हुए ही कहा कि मौसा मैं सच बोल रहा हूं। अब हम जेल से बाहर जायेंगे। इसी बीच वह नम्बरदार भी मुस्कुराते हुए अब्बूू के पीछे-पीछे आ गया और सबसे पहले उसने यही कहा कि 500 रूपये से कम नहीं लूंगा। पहले मैंने उससे कन्फर्म किया कि सन्देश किसका है और कैसे आया है। आश्वस्त होने के बाद मैंने उसे गले से लगाया और अब्बू को गोद में उठा लिया। अब यह तय था कि मुझे और अब्बू को साथ-साथ रिहा होना था। अब्बू का चेहरा तो खुशी से चमक रहा था। और बार-बार यही पूछ रहा था कि अब हम कितने दिन बाद बाहर निकलेंगे। तब तक अन्य परिचित कैदियों ने भी हमें घेर लिया और बधाई देने लगे। सबसे पहले कादिर ने बधाई दी। कादिर की बेल हुए 2 साल हो गये, लेकिन गरीबी के कारण कोई बेलर नहीं मिल पा रहा। महज इसलिए 2 साल से जेल में है। पहले 3-4 माह में एक बार उसकी बूढ़ी मां मिलने आ जाती थी और 100-200 रूपये दे जाती थी। लेकिन पिछले 11 महीने से वह नहीं आयी। मैंने एक बार पूछा तो हंस कर बोला- ‘क्या पता, मर मरा गयी हो।’ यह सुनकर मैं अन्दर से हिल गया। बहरहाल अब वह बैरक का झाड़ू पोछा करके अपना खर्च किसी तरह निकाल लेता है। मुझे बधाई देने वालों में कमल भी था जो एक मोबाइल चोरी में आया था और गरीबी के कारण वकील ना कर पाने से पिछले 9 माह से जेल में था। उसकी कहानी हूबहू ‘बायसिकल थीफ’ नामक फिल्म से मिलती थी। मैं उसे अक्सर मस्ती में ‘डी सिका’ (‘बायसिकल थीफ’ फिल्म का डायरेक्टर) कहकर बुलाता। वह हल्का सा मुस्कुरा देता। मुझे बधाई देने वालों में प्रमोद भी था जिसने अपने छोटे भाई का बलात्कार का केस अपने सर ले लिया था और अब पिछले तीन साल से जेल काट रहा है। जिस भाई के लिए उसने यह सब किया उसने मुड़ के देखा तक नहीं। उसकी पत्नी ईट भट्टे पर काम करती और महज इतना ही बचा पाती थी कि कोर्ट में पेशी के समय अपने दोनों छोटे बच्चों को उनके बाप की एक झलक दिखा पाती थी। मैं अक्सर उससे पूछता कि तुम्हे अफसोस नहीं होता कि जिस भाई को बचाने के लिए तुमने अपना जीवन दांव पर लगा दिया, उसने तुम्हारी मदद की कौन कहे, मुड़ के देखा तक नही कि तुम सब कैसे हो। वह हल्की सांस भरते दार्शनिक अंदाज में बोलता-‘नहीं दादा, मुझे कोई अफसोस नहीं है। मुझे जो सही लगा मैंने किया, उसे जो सही लग रहा है, वो कर रहा है।’ उसकी यह उदात्तता देख मैं हैरान रह जाता। इन सबकी बधाइयों के बीच मैं अपनी खुशी को दबाने का भरसक प्रयास कर रहा था। इनके बीच अपनी रिहाई की खुशी का प्रदर्शन मुझे अश्लील लग रहा था। मुझे बधाई देने वाले कैदियों की आंखो में मैं वो दुःख भी साफ-साफ देख पा रहा था जो मेरी रिहाई के कारण उनकी कैद को और गाढ़ा बनाने के कारण आ गया था। इसके अलावा मुझसे बिछड़ने का दुःख भी उन्हें था। मेरे लिए यह 10-15 मिनट का समय बहुत भारी गुजर रहा था- दुःखों के समन्दर में छोटी सी खुशी की नौका हिचकोले खाती हुई।

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अब्बू की नज़र में जेल-12

यह मध्य जनवरी की ठंडी सुबह थी। सभी लोग ‘खुली गिनती’ के बाद तुरन्त अपने अपने बैरक में लौटने की जल्दी में थे। हम अहाते के बीच पहुंचे ही थे कि अब्बू ने मेरा हाथ झटकते हुए सामने की ओर इशारा किया। मैंने देखा कि वहां एक सामान्य कद काठी का लड़का जेल वाला काला झबरीला कंबल लपेट कर खड़ा है और 5-7 लोग उसे घेर कर खड़े हैं। मैं नजदीक पहुंचा तो देखा कि वह नंगे पांव था और शरीर पर महज एक झीनी सी शर्ट थी जो कंबल के नीचे से झांक रही थी। उसकी आंखों के किनारो से आंसू बह रहे थे और वह ठंड से कांप रहा था। मेरे वहां पहुचते ही घेरे में खड़े हुए लोगों ने मुझे रास्ता दे दिया मानो अब वह मेरी जिम्मेदारी हो। मैंने उससे पूछा-कब आये हो? उसने कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन उसे घेर कर खड़े एक कैदी ने कहा कि इसका नाम ‘मकबूल’ है। इसे कल रात लाया गया है। यह मेरे ही बैरक में है। लेकिन इसे हिन्दी नहीं आती। बस थोड़ा बहुत समझ लेता है। इसके पास कुछ भी नहीं है। ये बता रहा है कि इसका स्वेटर भी पुलिस स्टेशन में रखवा लिया गया। मेरे बगल में खड़े अब्बू ने आश्चर्य से दोहराया-‘स्वेटर पुलिस स्टेशन में रखवा लिया गया ?’ मैंने उससे पूछा- ‘कहां के रहने वाले हो?’ उसने कांपते हुए जवाब दिया-‘आसाम’। उसके बाद उसने कुछ बोला लेकिन हममे से कोई नहीं समझ पाया। मैंने तुरन्त अब्बू से कहा-‘अब्बू दौड़ के जा और खोखन को बुला कर ला।’ अब्बू दौड़ कर गया और खोखन को बुला लाया। खोखन बांग्लादेश के रहने वाले हैं और भारत में उनकी रिश्तेदारी है। यहां एक रिश्तेदार से मिलने आये और पर्याप्त डाकूमेन्ट ना होने की वजह से उन्हें जेल में डाल दिया। उन्हें बांग्ला और असमिया दोनो भाषाएं आती हैं। खोखन और असम के उस व्यक्ति मकबूल के बीच लगभग 15 मिनट बात हुई। जब खोखन बोलते तो अब्बू खोखन का मुंह देखता और जब मकबूल बोलता तो अब्बू उसका मुंह देखता। इस संक्षिप्त बातचीत के बाद खोखन हम सबसे मुखातिब हुए और कहने लगे कि यह कुछ ही दिन पहले आसाम से लखनऊ आया था। यहां इसके गांव का एक व्यक्ति कबाड़ का काम करता है। उसी ने इसे बुलाया था। मकबूल भी यहां आकर कबाड़ के काम में शामिल हो गया था। कल दोपहर में ‘परिवर्तन चौक’ के पास इसकी ठेला गाड़ी को कुछ पुलिस वालों ने रोका, इसका आधार कार्ड चेक किया, दिन भर थाने में बैठाये रखा इसका स्वेटर उतरवाया और शाम को जेल भेज दिया। मैंने खोखन के माध्यम से उससे पूछा कि उसे मारा पीटा भी गया है क्या, तो उसने कहा-नहीं। उसे अभी तक नहीं पता कि उसे किस अपराध में जेल में डाला गया है। यह सुनकर मैं परेशान हो गया। मैं कुछ सोचने लगा। तभी सामने से जेल का चीफ सिपाही जाता हुआ दिखा। मैंने तुरन्त उसे आवाज लगायी-‘चीफ साब, ये किस केस में अन्दर आया है?’ उसने एक नज़र मकबूल पर डाली और बेरूखी से यह कहते हुए आगे बढ़ गया कि ‘अरे, यह दंगाई वाले केस में आया है।’ मैं समझ गया। सीएए के खिलाफ प्रदर्शन का यह पहला कैदी हमारे अहाते में आया था। मैं यह बात नही पचा पा रहा था कि पुलिस ने इतनी ठंड में जब रात में पारा जीरो डिग्री के पास चला जा रहा है, इसका स्वेटर क्यो उतार लिया। यह गरीब से नफरत के कारण है या मुसलमान से या दोनो से। जब मैं इन राजनीतिक-नैतिक सवालों में उलझा था तभी मैंने देखा कि अब्बू और खोखन दोनो सामने से हाथ में कुछ कपड़े लिये चले आ रहे हैं। अब्बू और खोखन कब यहां से खिसक लिये थे, मुझे पता ही नही चला। 40 साल के खोखन के साथ अब्बू की भी दोस्ती हो गयी थी। जब वह मेरे साथ नहीं होता तो खोखन के पास उसके पाये जाने की संभावना ज्यादा होती। दोनो जाकर कुछ लोगो से मकबूल के लिये कपड़े वगैरह जुटा लाये थे। मैं थोड़ा शर्मिन्दा हुआ कि जब मैं सैद्धान्तिक सवालों में उलझा था उस समय खोखन तात्कालिक व्यवहारिक समस्या का समाधान करने में जुटे हुए थे। बहरहाल जल्दी ही मकबूल के पास सभी जरूरी चीजें हो गयी। अचानक मैंने देखा कि अब्बू अपना छोटा मग लेकर भागा आ रहा है। आते ही उसने अपना मग झिझकते हुए मकबूल की ओर बढ़ा दिया। मकबूल मेरी तरफ देखने लगा। मैंने कहा, ले लो। हमारे पास एक और है। इसमें सुबह सुबह दलिया ले सकते हो। मकबूल के मग पकड़ते ही अब्बू के चेहरे पर खुशी देखने लायक थी। जेल की तुलना अक्सर नरक से की जाती है। लेकिन जहां आम गरीब लोगों का जमावड़ा हो, वहां जीवन बहता है और जहां जीवन बहता है वह जगह नरक कैसे हो सकती है?
बाद में मैं जब भी मकबूल से बात करता तो खोखन भाई अनुवादक की भूमिका निभाते। अब्बू भी अक्सर हमारी बातचीत ध्यान से सुनता। एक दिन उसने मुझसे पूछा-‘मौसा, अलग अलग तरह की भाषा क्यो होती है। एक ही भाषा क्यो नहीं होती।’ मैंने कुछ देर सोचा। फिर मैंने अब्बू को एक पुरानी कहानी सुनाई-‘अब्बू पहले सबकी भाषा एक ही थी। तब इंसान ने एक बार भगवान से मिलने की सोची। और सबने एक दूसरे के कंधे पर चढ़कर आसमान तक एक सीढ़ी बनाने लगे। यह देखकर भगवान घबरा गया और उसने सबकी अलग अलग भाषा बना दी ताकि कोई एक दूसरे की बात न समझ पाये और भगवान तक सीढ़ी न बना पाये।’ अब्बू का अगला सवाल था-‘लेकिन भगवान ये क्यो चाहता है कि कोई सीढ़ी ना बना पाये और उससे ना मिल पाये?’ मैं सोच में पड़ गया। मुझे चुप देख अब्बू ने ही संशय और प्रश्नवाचक मुद्रा के साथ कहा-‘ताकि कोई भगवान की पोल पट्टी ना जान ले।’ मैं आश्चर्य में पड़ गया। अब्बू का आशय क्या था, मुझे पता नही। लेकिन मेरे लिए इसके आशय गहरे थे।
बहरहाल तभी अहाते में कुछ हलचल होने लगी। अब्बू तेजी से बाहर भागा। पीछे पीछे मैं भी चल दिया। आज 20-25 लोगों की ‘नई आमद’ आयी थी। नये कैदी को यहां जेल की भाषा में ‘आमद’ यानी ‘आमदनी’ कहां जाता है। सच में वो आमदनी होते हैं क्योकि उनसे जेल प्रशासन कई तरह से अवैध उगाही करता है। अब्बू ने कहा-‘इतने सारे लोग।’ आमतौर पर रोज हमारे अहाते में 5 से 7 नये कैदी आते है। इसलिए सभी को आश्चर्य हो रहा था कि इतने सारे लोग कैसे। हमारे अहाते का राइटर जहां बैठता है, मैं वहीं खड़ा था। तभी सर्किल चीफ आया और धीरे से राइटर से बोला-‘ये सब दंगाई हैं इन्हें अलग अलग बैरकों में रखना। और हर बैरक में कहलवा देना कि इनसे कोई बात ना करे।’ अपनी बात में वजन लाने के लिए उसने आगे जोड़ा कि यह डिप्टी साहब का आदेश है। यह कहकर जैसे ही चीफ मुड़ा, अब्बू ने मुझसे सवाल किया-‘मौसा दंगाई क्या होते हैं।’ मैं इस मासूम बच्चे को क्या बताता कि दंगाई क्या होते हैं। मुझे पता था कि ये सब सीएए के खिलाफ प्रदर्शनकारी है और कुछ मकबूल जैसे लोग हैं जो महज अपनी मुस्लिम पहचान के कारण जेल पहुच गये हैं। मैंने कुछ सोचकर अब्बू से कहा-‘अब्बू रात में जब अपना बैरक बन्द हो जायेगा तो इनमें जो भी अपनी बैरक में आयेगा, उसी से पूछ लेंगे कि दंगाई क्या होते हैं।’ अब्बू ने भी खुशी से कहा, हां यही ठीक रहेगा।
बैरक बन्द होने के बाद जब गिनती पूरी हो गयी तो जाते हुए सिपाही ने सबको सचेत करते हुए कहा-‘इस बैरक में जो दंगाई आये हैं उनसे कोई बात न करे।’ मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ देर पहले जो बात सर्किल चीफ दबी जुबान में कह रहा था वह अब ऐलान बन गयी। यह आत्मविश्वास उन्हें कहा से आया?
बैरक का गेट बन्द होते ही सभी लोगों की निगाह उस ‘दंगाई’ पर टिक गयी। मैं अभी सोच ही रहा था कि उसके पास जाउं और बाते शुरू करूं, तभी तीन चार मुस्लिम कैदी अपने फट्टे से उठे और उस नये कैदी के पास पहुंच गये। कुछ देर बाद मैं भी उनके बीच जाकर बैठ गया। अब्बू अभी बैरक में लगी टीवी देख रहा था और मुड़ मुड़ कर मेरी तरफ देख लेता था। जैसे ही उसने देखा कि मैं उस नये कैदी के पास जा रहा हूं, वह भी उठा और भागता हुआ मेरे पास आ गया। बातचीत पहले ही शुरू हो चुकी थी। उसका नाम अब्दुल था। उसकी इलेक्ट्रिक की दुकान थी। उस दिन घर से उसके भाई का फोन आया कि शहर में कुछ बवाल हो गया है, आप दुकान बन्द करके घर आ जाइये। अब्दुल ने तुरन्त दुकान बन्द किया और घर की ओर चल दिया। रास्ते में ही पुलिस की एक जीप ने उसे रोका, उसका नाम पूछा और उसे जीप में बिठा लिया। कुछ देर थाने में बिठाये रखा और फिर जेल भेज दिया। मैंने पूछा, मारा पीटा तो नही। उसने कहा, ना तो मारा पीटा और ना ही कुछ पूछा ही। बगल में बैठे एक मुस्लिम कैदी, जो मोबाइल चोरी के जुर्म में पिछले 8 माह से जेल काट रहा था, ने धीमे से कहा- हमारा नाम ही काफी है। उसके बाद क्या पूछताछ करना। मैं सन्न रह गया। मैंने उससे आगे पूछा कि आपसे बातचीत करने के लिए जेल प्रशासन मना क्यो कर रहा हैं। इसका उसने कोई जवाब नहीं दिया। बस हल्का सा मुस्कुरा दिया। रात ज्यादा होने लगी तो धीमे धीमे उसे घेरे सभी कैदी एक एक कर जाने लगे। बस मैं और अब्बू रह गये। अब्बू मेरी गोद में नींद से झूल रहा था, लेकिन फिर भी सो नहीं रहा था। मैंने उससे पूछा भी कि चल तुझे सुला दूं। लेकिन उसने इंकार कर दिया। अब अब्दुल ने मेरा परिचय पूछा। मेरा परिचय जानने के बाद उसके चेहरे पर हल्की चमक आ गयी। उसने मुझसे कहा कि कल मैं आपको और लोगों से मिलवाउंगा, जिन्हें ‘परिवर्तन चौक’ पर धरना स्थल से उठाया गया है। वो आपको और जानकारी देंगे। उन्हें थाने पर बहुत पीटा गया है। अब्दुल के चेहरे पर थकान साफ झलक रही थी। मैंने उनसे कहा कि अब आप सो जाइये, कल बात करेंगे। इसके बाद जब मै और अब्बू अपने फट्टे यानी बिस्तर पर लौटे तो अब्बू ने तुरन्त पूछा-‘थाने पर किसे बहुत पीटा गया है।’ मैंने कहा कि चल सो जा। कल मैं तुझे उससे मिलवाउंगा।
दूसरे दिन अब्दुल गिनती के तुरन्त बाद मुझे सामने की बैरक में ले गया। अब्दुल ने मेरा परिचय उसे पहले ही दे दिया था। उसका नाम तैयब था। तैयब ने बिना किसी औपचारिकता के मुझे गिरफ्तारी की पूरी कहानी बयां कर दी। फिर अपना कुर्ता ऊपर करते हुए लाठियों के निशान दिखाये। निशान नीले पड़ गये थे। पूरी कहानी अब्बू दम साधे सुनता रहा था, लेकिन जब उसने पीठ पर लाठियों के निशान देखे तो मेरी उंगली पर उसकी पकड़ ना जाने क्यों मजबूत हो गयी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोलू। क्या सहानुभूति दूं। ‘मन्टो’ ने एक शरणार्थी कैम्प के जीवन के बारे में लिखते हुए कहा कि यहां सभी को सहानुभूति की जरूरत है, लेकिन दिक्कत यह है कि कौन किसको दे। यही जेल के लिए भी सच है। वापस पीठ ढकते हुए उसने कहा कि मुझे पिटाई का उतना दुःख नहीं है। मुझे इस बात का दुःख है कि पीटते हुए वे यह कह रहे थे कि अब अपने अल्लाह को बुला, देखते हैं तेरा अल्लाह तुझे कैसे बचाता है। अभी तक उसकी आंखों में आंसू नहीं आये थे, लेकिन यह बात बोलते हुए उसकी आंख भर आयी। इसी बीच एक और कैदी हमारे बीच आकर बैठ गया था। थोड़ी देर चुप रहने के बाद तैयब ने खुद पर नियंत्रण स्थापित करते हुए और उस नये कैदी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि अब इनका केस देखिए। इनको प्रदर्शन वगैरह से कोई मतलब नहीं। ये सीएए के बारे में कुछ जानते भी नही। पुलिस थाने के पास इनकी छोटी सी चाय की दुकान है। पिछले तीन साल से ये थाने में सुबह शाम चाय पिला रहे है। 21 जनवरी को थाने के ही एक परिचित सिपाही ने इसे थाने पर बुलाया। दो चार घण्टे यूं ही बैठाये रखने के बाद और बिना कुछ पूछताछ किये जेल भेज दिया। मैं उसकी तरफ मुड़ा और पूछा कि आपका नाम क्या है? उसने धीमे से झिझकते हुए जवाब दिया-‘कमालुद्दीन’।
सीएए प्रदर्शनकारियों (जिन्हें जेल प्रशासन ‘दंगाई’ बुलाता था) के आने से हमारे अहाते का माहौल बदल गया। सटीक रूप में कहें तो राजनीतिक हो गया। अब मेरा ज्यादातर समय इन्हीं लोगों के साथ टहलने और बात करने में बीतने लगा। अब्बू की भी नयी दोस्ती ‘आदिल’ के साथ हो गयी। 19-20 साल का जोश से भरपूर यह नौजवान सीएए प्रदर्शन का वीडियो बना रहा था, जब पुलिस ने उसे पकड़ा। अब्बू ज्यादातर अब उसी की पीठ पर सवार रहता। खुद अन्दर से काफी परेशान होने के बावजूद वह लोगों को हमेशा अपनी हरकतों से हंसाता रहता। एक दिन अब्बू ने मुझे उसके बारे में बताया कि मौसा वो बीड़ी पीता है और जब तुम उसकी तरफ आते हो तो वह तुरन्त बीड़ी फेक देता है। एक दो बार मैंने भी गौर किया था यह बात। मैने सोचा कि 2-4 दिन की मुलाकात में वह मेरा इतना लिहाज क्यो कर रहा है। हालांकि उसके इस व्यवहार से मुझे खुशी हो रही थी।
तैयब की बहन जामिया में पढ़ती थी और वहां के प्रदर्शन और शाहीनबाग के प्रदर्शन की भागीदार थी। तैयब से मुझे आन्दोलन की जीवन्त रिपोर्ट सुनने को मिली। एक राजनीतिक कैदी के लिए इससे बड़ा सुख भला क्या हो सकता है कि उसे बाहर चल रहे आन्दोलन के एक सक्रिय भागीदार से आन्दोलन का जीवन्त विवरण सुनने को मिले। शाहीनबाग में जो नया साहित्य जन्म ले रहा था, उसकी झलक मुझे तैयब से ही मिली। उसके सुनाने का अंदाज भी निराला था। ‘आमिर अजीज’ जैसे युवा शायर की रचनाओं से तैयब ने ही मेरा परिचय कराया। तैयब ने जब यह सुनाया तो मैं एकदम रोमांचित हो गया था-‘भगतसिंह का जज़्बा हूं, आशफाक का तेवर हूं, बिस्मिल का रंग हूं। ऐ हुकूमत नज़र मिला मुझसे, मैं शाहीनबाग हूं।’
मेरी बहन ‘सीमा आजाद’ ने अपना नया कहानी संग्रह ‘सरोगेट कन्ट्री’ मुझे पढ़ने को दिया था। इन प्रदर्शनकारियों के आने से सीमा के कहानी संग्रह की मांग बढ़ गयी और कई लोग ‘वेटिंग लिस्ट’ में अपना नाम लिखाने लगे। वे पुराने कैदी जिनके साथ मैं अक्सर घूमता था, वे मुझे प्यार से चिढ़ाने लगे कि अब आप हम लोगों को भूल गये, लेकिन इतना याद रखियेगा कि ये लोग चन्द दिनों के मेहमान हैं। अन्त में आपको हमारे साथ ही रहना है। मैं मुस्कुरा देता।
इसी बीच एक दिन जब मैं अब्बू को नहला रहा था तो अब्बू अचानक बोल उठा-‘मौसा, मैं बड़ा होकर मुसलमान नहीं बनूंगा।’ अचानक मेरा हाथ रूक गया। मैंने कहा क्यो? अब्बू ने मेरे हाथ से मग खींचते हुए जवाब दिया-‘वर्ना मुझे भी पुलिस पकड़ लेगी।’ यह कह कर वह खुद ही अपने ऊपर पानी डालने लगा। और मैं उसे भौचक्का देखता रहा।

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अब्बू की नज़र में जेल-11

गिरफ्तारी के तुरन्त पहले की कहानी-

दिन भर की धमा-चौकड़ी के बाद अब रात में अब्बू को तेज नींद आ रही थी। लेकिन आंखो में नींद भरी होने के बावजूद वह अपना अन्तिम काम नहीं भूला-मुझसे कहानी सुनने का काम। कहानी का शीर्षक हमेशा वही देता था। उसी शीर्षक के इर्द गिर्द मुझे कहानी सुनानी होती थी। कभी उसकी फरमाइश होती कि ‘सफेद भूत’ की कहानी सुनाओ, तो कभी उसकी फरमाइश होती कि ‘कभी ना थकने वाली चिड़िया’ की कहानी सुनाओ। कभी कभी वह बड़े प्यार से कहता कि ‘अब्बू और मौसा’ की कहानी सुनाओ। आज उसके दिमाग में पता नही क्या आया कि उसने थोड़े चिन्तनशील अंदाज में कहा कि मौसा तुम मौसी से पहली बार कब मिले, इसकी कहानी सुनाओ। उसकी इस फरमाइश पर मैं और बगल में लेटी अमिता दोनो आश्चर्यचकित रह गये। खैर मैंने कहानी शुरू की-थोड़ी हकीकत थोड़ा फसाना। और हर बार की तरह इस बार भी वह बीच कहानी में सो गया। कहानी सुनाते हुए मैंने महसूस किया कि अमिता भी बड़े ध्यान से मेरी कहानी सुन रही है। मैंने अमिता को यह अहसास नहीं होने दिया कि अब्बू सो चुका है। और मैंने कहानी जारी रखी। लेकिन कहानी खत्म होने से पहले ही अमिता भी सो गयी। मेरे मन में ‘अरूण कमल’ की कविता की एक पंक्ति कौधी-‘नींद आदमी का आदमी पर भरोसा है।’ इस खूबसूरत भरोसे को कैद करने के लिए मैंने दोनो को आहिस्ते से चूम लिया। किसी खूबसूरत फंतासी का इससे अच्छा यथार्थवादी अंत और क्या हो सकता है।
नींद मुझे भी आ रही थी। लेकिन आज रात मुझे ‘हिस्ट्री आफ थ्री इंटरनेशनल’ खत्म करनी थी। महज 9 पेज शेष रह गये थे। मैंने सोचा आज रात इसे खत्म कर देते है, क्योकि कल से एक जरूरी अनुवाद पर भिड़ना था। मनपसन्द किताब की ‘कैद’ और पढ़ चुकने के बाद ‘रिहाई’, दोनों का अहसास बहुत सुखद होता है। रात एक बजे के करीब ‘रिहाई’ के इसी सुखद अहसास के साथ मैं अपनी खुली छत पर टहलने आ गया। 7 जुलाई की यह रात बहुत शान्त थी। उस वक्त मुझे तनिक भी अंदाजा न था कि यह तूफान के पहले की शान्ती है। मेरे दिमाग में तो 1950 के दशक की उस दुनिया के चित्र आ जा रहे थे, जिसका विस्तृत वर्णन ‘विलियम जेड फोस्टर ने’ अपनी उपरोक्त किताब के अन्त में किया है। पृथ्वी का बड़ा हिस्सा लाल रंग में रंग चुका था और समाजवाद लगातार मार्च कर रहा था। तीसरी दुनिया के गुलाम देश एक एक कर अपनी जंजीरें तोड़ रहे थे। इसी सुखद अहसास के साथ मैं भी अब्बू और अमिता के बीच जगह बनाकर लेट गया और उन दोनों की तरह ही नींद के आगोश में समा गया।
देर से सोने के बावजूद आज भी रोजाना की तरह मेरी नींद सुबह 5 बजे खुल गयी और मैं दोबार छत पर आ गया। भोपाल की सुबह हमेशा सुहानी होती है। और फिर दो मंजिले पर स्थित मेरा कमरा एक तरफ छोटी पहाड़ी और दूसरी तरफ नहर से घिरा है। पहाड़ी पर अच्छी खासी हरियाली थी। मेरे मन में एक पुराना गीत चल रहा था-‘ये कौन चित्रकार है…..’ अचानक मेरे पीछे से ‘भो‘ की आवाज आयी। मैं चौक गया। यह अब्बू था। अपना यह प्रिय काम निपटा कर वह मेरी बाहों में निंदाया सा उलझ गया। मैंने उसे गोद में उठाया और रोज का डायलाग रिपीट किया-‘चल तुझे थोड़ी देर दुलार लूं। अच्छा बता दुलार करने से क्या होता है।’ अब्बू ने निंदाये हुए ही मेरी गोद में लगभग झूलते हुए अपना रोज का डायलाग दुहरा दिया-‘बच्चे में कान्फिडेन्स आता है।’
इसी बीच मेरी नज़र छत से नीचे सामने की सड़क पर गयी। मैंने देखा 4-5 सफारी जैसी गाड़ियों में करीब 15-20 लोग सिविल ड्रेस में बहुत आराम से उतर कर गेट खोल कर अन्दर आ रहे हैं। मैंने सोचा मकान मालिक के यहां लोग आये हैं, लेकिन इतनी सुबह इतने लोग? अगले ही क्षण उनके कदमों की आवाज तेज होने लगी यानी बिना रूके वे लोग सीधे ऊपर चले आ रहे थे। अगले ही क्षण मेरे अन्दर भय की लहर दौड़ गयी। मैं तुरन्त समझ गया कि वे लोग हमारे लिए ही आये हैं। मेरी धड़कन तेज हो गयी। अगले ही क्षण वे सब मेरे सामने थे। मेरे मुंह से कोई भी शब्द ना निकला। तभी उनमें से एक ने साफ्ट लेकिन आदेशात्मक स्वर में कहा-‘चलिए, अन्दर चलिए।’ मेरे अन्दर कमरे में घुसने से पहले ही उनमें से आधे अन्दर घुस चुके थे। अमिता अभी भी अन्दर सो रही थी। इस टीम की दो महिला कान्सटेबिलों ने अमिता को जगाया। इतने सारे लोगों को कमरे में देखकर वह हड़बड़ा गयी और बोली- क्या है, कौन हैं आप लोग। इस बीचे मैं शुरूआती शाक से उबर चुका था। उनके जवाब देने से पहले मैंने ही कहा-‘इधर आ जाओ, पुलिस वाले हैं।’ टीम को लीड कर रहे आफीसर ने व्यंग्य मिश्रित मुस्कान के साथ कहा-‘अच्छा तो समझ आ गया।’ मैंने कहा- हां। फिर भी उसने अपना आई कार्ड निकाल कर दिखाया। तब मुझे समझ आया कि ये यूपी एटीएस के लोग हैं। आश्चर्यजनक रूप से अमिता ने भी जल्दी ही अपने पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और चौकी पर मेरे बगल में आकर बैठ गयी। उसने धीरे से मेरा हाथ दबाया और मैंने धीमे स्वर उससे कहा- New struggle begins. पिछले 20 सालों की राजनीतिक जिंदगी में हमने सीमा-विश्वविजय सहित इतने सारे दोस्तो-परिचितों की गिरफ्तारियां देखी हैं कि हम अक्सर यह कल्पना करते थे कि हमारी गिरफ्तारी कब और कैसे होगी। मैं अक्सर मजाक में अपने दोस्त कार्यकर्ताओं से कहता-‘समय समय पर लिखा है, गिरफ्तार होने वाले का नाम।’ बिना गिरफ्तारी के हम जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं का बायोडेटा कहां पूरा होता है।
मेरे घर पर कब्जा जमाये वो 15-20 लोग पूरे घर को हमारे सामने ही उलट पुलट रहे थे। इस छोटे से एक कमरे के घर को अमिता ने बेहद करीने से सजाया था। उसकी आंखो के सामने इसका पूरा सौन्दर्य बिखर रहा था। इसी उठा पटक में अब्बू की नींद भी खुल गयी, जो दुबारा मेरी गोद में सो गया था। इतने सारे लोगों को कमरे में देखकर वह सहम गया और सहमते हुए बोला-‘ये लोग कौन हैं।’ मैंने धीमे से उसके कान में कहा-‘मोदी के दोस्त हैं ये लोग।’ उसने लगभग डरते हुए पूछा-‘तुझे और मौसी को पकड़ने आये हैं?’ मैंने कहा-‘हां।’ मुझे आश्चर्य हुआ कि इसके बाद उसने ना तो कुछ पूछा और ना ही कोई प्रतिक्रिया दिखाई। बस उन सभी को बारी बारी से ध्यान से देखता रहा, मानो उनके और मोदी के चेहरे में साम्य ढूंढ रहा हो। अपने और अपने काम के बारे में मैंने अब्बू को कई बार कहानियों के माध्यम से समझाया था। शायद यह उसी का असर था। शायद वह उन कहानियों और इस यथार्थ के बीच तुलना में तल्लीन था। अचानक अब्बू ने मेरे कान में शिकायती लहजे में कहा-‘मौसा वह आदमी मेरी कविता पढ़ रहा है।’ मैंने पहले ही गौर कर लिया था कि इन 15-20 लोगो में एक व्यक्ति ऐसा था जो इस उलट पुलट में शामिल ना होकर कमरे में लगे कविता पोस्टरों को बेहद ध्यान से पढ़ रहा था। मानो ब्रेख्त, नाजिम, मीर, गालिब की कविताओं में कोई गुप्त सन्देश छिपा हो। पता नही यह इन कविताओं का असर था या कुछ और- बाद में इस व्यक्ति ने मेरी महत्वपूर्ण मदद की। अचानक मैंने सुना कि अब्बू अपनी ही कविता मेरे कान के पास बुदबुदा रहा था-‘अब्बू की ताकत है मौसा, मौसा की ताकत है अब्बू, इन दोनो की ताकत है मौसी, हम सबकी ताकत है खाना।’
मैंने देखा कि अब उन्होंने सामान पैक करना शुरू कर दिया था। मेरा, अमिता का कम्प्यूटर, मेरी सारी किताबें, 3 हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव, तमाम कागज पत्र आदि। इसी में उन्होंने चुपके से बोस कम्पनी का स्पीकर भी रख लिया (इस चोरी का पता मुझे बाद मे चला)। मैं समझ गया, अब हमें जल्दी ही हमेशा के लिए यहां से निकलना था। मैंने मन ही मन कमरे की एक एक चीज से बिदा ली। विदा मेरे कम्प्यूटर, जिसकी स्क्रीन रूपी खिड़की से मैं दुनिया झांक लेता था। विदा मेरी प्यारी किताबें, जिन्हें ‘टाइम मशीन’ बनाकर मैं अतीत और भविष्य की सैर कर लेता था और मार्क्स, माओ, ब्रेख्त, हिकमत, भगत सिंह जैसे तमाम दोस्तों का हाल चाल ले लेता था। विदा मेरे गद्दे, जिस पर मैं अब्बू से कुश्ती लड़ता था और दुनिया का सबसे बड़ा आनन्द, एक बच्चे से हारने का आनन्द लेता था। विदा दरवाजे के पीछे वाले कोनो, जिसके पीछे छिपकर अब्बू मुझसे छुपन छुपाई खेलता था और जब प्यार से मैं पूछता था कि मेरा प्यारा अब्बू कहां है तो वह उतने ही मासूमियत से जवाब देता-मौसा मैं यहां हूं। विदा चाय के कप, जिसमें सुबह सुबह चाय बनाकर अमिता को जगाने का आनन्द ही कुछ और था। विदा प्यारी बाल्टियां, जिसमें मैं अपने कपड़े भिगोता और चुपके से अमिता उसमें अपना एकाध कपड़ा भिगो देती और धोते समय मैं उसे देखता और हमारा प्यारा झगड़ा शुरू हो जाता। विदा, अब्बू के प्यारे खिलौनों जो अब्बू के आते ही मानो जीवित हो उठते और उसके जाते ही दुःखी होकर निर्जीव हो जाते। तभी अचानक मेरी नज़र मेरी गोद में बैठे अब्बू पर गयी, जो अभी भी बड़े ध्यान से उनकी गतिविधियों पर नज़र रखे हुए था। मैंने मन ही मन कहा-‘विदा मेरे प्यारे अब्बू, अलविदा!’

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