अब्बू की नज़र में जेल-9

कोर्ट से जब हम वापस हाक हेडक्वार्टर पहुंचे तो मैं काफी हल्का और आत्म विश्वास से भरा महसूस कर रहा था। निश्चय ही यह ‘इंकलाब जिंदाबाद’ नारे का प्रभाव था। अमिता थोड़ा पहले पहुंच चुकी थी। जब मैं और अब्बू वहां पहुंचे तो वहां एक महिला कांस्टेबिल के चिल्लाने और रोने की आवाज आ रही थी। जब मैं पूछताछ वाले कमरे में पहुंचा तो बगल के कमरे से अमिता की भी तेज तेज आवाज सुनाई दे रही थी। तभी मेरे कमरे में अमिता को साथ ले जाने वाली महिला कांस्टेबिल रोते हुए गुस्से से पैर पटकते प्रवेश की। उसके पीछे एटीएस का एक अधिकारी भी आया। महिला के कुर्सी पर धंसते ही उस अधिकारी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला-‘चलो छोड़ो, ये साले खुद ही अपनी मौत मरेंगे।’ मैंने तेज आवाज में कहा-‘गाली किसे दे रहे हैं।’ उसने मुझे नज़रअंदाज कर दिया और फिर उस महिला कांस्टेबिल से ही मुखातिब होते हुए कहा-‘साले ऐसे ही होते हैं।’ इस बार मैं गुस्से में बोला-‘आपको गाली देने का अधिकार नहीं है।’ यह सुनकर वह महिला कांस्टेबिल चिल्ला पड़ी-‘आप लोगों को गाली देने का अधिकार है?’ मैं आवाक रह़ गया। लेकिन बेहद शान्त होकर पूछा-‘किसने गाली दी, आखिर हुआ क्या है?’ महिला ने तेज और उंची आवाज में कहा-‘आपकी पत्नी ने मुझे गाली दी है।’ मैंने आश्चर्य से कहा-‘क्या कहा उसने?’ ‘हरामी कहा उसने मुझे’-महिला कांस्टेबिल चीख कर बोली। मैंने तुरन्त मामला शान्त करने के उद्देश्य से कहा-‘चलिए उसकी तरफ से मैं माफी मांगता हूं। लेकिन हुआ क्या?’ वह महिला कांस्टेबिल गुस्से में उठी और पैर पटकते हुए बाहर चल दी। इस पूरे माहौल से अब्बू थोड़ा सकते में आ गया था और मुझसे सट कर बैठा रहा। उसके जाने के बाद अब्बू ने मुझसे कान में कहा-‘मौसा मुझे पता है क्या हुआ था।’ अब्बू ने फिर धीमें धीमें बताना शुरू किया-‘मौसा, वो पुलिस लड़की न, मौसी का बायां हाथ खींच कर कैमरा वाले से दूर ले जा रही थी। मौसी को बांए हाथ में दर्द है ना, तो मौसी ने उसे कसकर डांट दिया।’ फिर थोड़ा रूक कर बोला-‘अच्छा किया डांटा।’
खैर उसके बाद एटीएस के ही एक बन्दे ने मुझे बताया कि वह महिला डिप्रेशन में है। ऐसे ही कुछ कुछ समय पर भड़क उठती है। मैंने पूछा, पहले से है या नौकरी में आने के बाद हुआ। उसने कहा, नौकरी में आने के बाद डेवलप हुआ है। शायद नौकरी के प्रेशर का असर हो। मैं उससे बात कर ही रहा था कि पुनः वह महिला तेजी से कमरे में दाखिल हुई और उसी तरह चिल्लाकर बोली-‘दूसरो की पत्नियों को गले लगाने का रिवाज आपके यहां होगा, हमारे यहां नहीं।’ यह कहकर वह उल्टे पाव वापस चल दी। मैं आवाक रह गया कि यह क्या बात हुई। किस सन्दर्भ में उसने यह बात की। दिमाग पर बहुत जोर डालने पर मुझे बात समझ आयी। दरअसल कोर्ट में अब्बू की मां जब रो रही थी तो मैंने उसे सांत्वना देते हुए हल्के से गले लगा लिया था और उसके सर पर अपना हाथ रख दिया था। मुझे याद आया, उस समय यही महिला कांस्टेबिल बड़े ध्यान से मेरी तरफ देख रही थी। मुझे पूरा मामला समझ आ गया। लेकिन मुझे उस महिला कांस्टेबिल पर जरा भी गुस्सा नहीं आया। बल्कि तरस आया। दरअसल असल कैद में तो वो थी-‘अपने पिछड़े मूल्यों की कैद में।’
खैर, कोर्ट से एटीएस को हमारा ‘ट्रांजिट रिमांड’ मिल चुका था और अब हमें भोपाल से लखनऊ आना था। गाड़ियों में जल्दी जल्दी सामान पैक किया जा रहा था। जरूरी औपचारिकताएं निभाई जा रही थी। पहली बार हम इतनी लंबी यात्रा बिना कोई सामान लिए करने जा रहे थे-खाली हाथ। कार से इतने ‘लांग ड्राइव’ पर जाने का हल्का सुख भी महसूस हो रहा था और आगे होने वाली पूछताछ की चिंता भी सता रही थी। खैर 8 बजे रात हम लोग निकल पड़े। अब्बू उत्साहित था कि हम लखनऊ जा रहे है-यानी मौसा के गांव। भोपाल से अपने राजनीतिक काम पर निकलते हुए मैं अब्बू से यही कहता था कि मैं लखनऊ जा रहा हूं, अपने गांव।
रास्ते में ढाबे पर हमने खाना खाया। और फिर आगे निकल पड़े। इस दौरान कोई किसी से नही बोल रहा था। तभी आगे बैठे एटीएस अधिकारी ने बोला-‘रात में हम झांसी में अपने कार्यालय पर रूकेंगे और फिर सुबह लखनऊ के लिए निकलेंगे।’ मैं कुछ नहीं बोला। मेरे पास विकल्प ही क्या था। खाना खाने के बाद अब सबको नींद आ रही थी। अब्बू तो मेरी गोद में ही सो गया था। अचानक आगे की सीट पर ड्राइवर के साथ बैठे अधिकारी ने आदेशात्मक स्वर में बोला-‘किसी को सोना नहीं है। वरना ड्राइवर को भी नींद आयेंगी।’ थोड़ा देर रूक कर फिर बोला-‘ चलिए मनीष जी अपने बारे में कुछ बताइये। अपने बचपन से शुरू कीजिए।’ मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही उसने सवाल दागना शुरू कर दिया। मसलन, जन्म कहां हुआ, पढ़ाई कहां से की आदि। मुझे समझ नही आया कि वह सचमुच मुझमें रूचि ले रहा है या पूछताछ की अपनी ड्यूटी निभा रहा है। बहरहाल मुझे मजा आ रहा था। बहुत बहुत दिनों बाद कोई मेरे बचपन के बारे में पूछ रहा था। मेरे अगल बगल बैठे दो सिपाही और मेरी सीट के पीछे बैठे दो सिपाहियों की प्रतिक्रिया मैं रात के अंधेरे में नहीं देख पा रहा था। अचानक मेरे बगल में बैठे एटीएस के सिपाही ने मुझसे पूछा-‘आपके कमरे में जो ‘शहतूत’ वाली कविता लगी थी वो आपने लिखी है?’ मैंने हंसते हुए कहा-‘अरे नहीं, वह तो ईरान के मजदूर कवि ‘साबिर हका’ की कविता है।’ एटीएस का यह व्यक्ति वही था जो मेरे कमरे की तलाशी के दौरान तलाशी लेने की बजाय दिवारों पर लगी कविताएं पढ़ रहा था। अचानक उसने सामने की सीट पर बैठे अपने सीनियर से कहा-‘सर चलिए, कुछ कविताएं सुनते हैं मनीष जी से।’ उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। हां हां कुछ कविताएं, शेरो शायरी हो जाये। पीछे बैठे सिपाहियों ने एक साथ कहा। तब मुझे अहसास हुआ कि इन लोगों को मेरी कहानी में कोई रूचि नहीं थी। गाड़ी 80-90 की रफ्तार से दौड़ रही थी। मैंने कहा-‘पहले आप लोग कुछ सुनाइये।’ बगल वाले व्यक्ति ने एक अच्छा शेर सुनाया, जिसका भाव यह था कि अगर आप बिखरे हुए कांच के टुकड़ों को उठाने का प्रयास करेंगे तो उंगलियां तो लहूलूहान होगी ही। अब मेरी बारी थी। मैंने लगातार कई शेर सुनाएं। सभी मंत्रमुग्ध सुन रहे थे और दाद दे रहे थे। सामने की सीट पर बैठा अधिकारी कुछ नहीं बोल रहा था। शायद उसे यह ‘मुक्त माहौल’ पसन्द नहीं आ रहा था। आखिर मैं कैदी जो था। लेकिन वह बोला कुछ नहीं। अंत में मैंने दो कविताओं के माध्यम से उनके सामने एक सवाल रख दिया। गोरख पाण्डेय की कविता-‘चिड़िया जाल में क्यो फंसी, क्योकि वह भूखी थी।’ और कंवल भारती की कविता-‘चिड़िया जाल में क्यो फंसी, क्योकि वह चिड़िया थी।’ गाड़ी में बैठे सभी लोगों में दो फाड़ हो गया। सभी के अपने अपने तर्क थे। तभी मैंने देखा कि अब्बू उठकर बैठ चुका था और खिड़की से बाहर का मजा ले रहा था। हमारी बातें भी उसके कान में पड़ रही थी। अचानक वह मुड़ा और मेरा गला अपनी ओर खींचते हुए मेरे कान में बोला-‘मौसा, चिड़िया को कोई बहेलिया जाल बिछाकर पकड़ेगा, तभी तो चिड़िया जाल में फंसेगी। बहेलिया चिड़िया को नही पकड़ेगा तो चिड़िया मजे में उड़ती रहेगी, चाहे वो भूखी हो या ना हो।’ बहस में अब्बू का यह निर्णायक हस्तक्षेप था। मैंने आश्चर्य से उसे देखा और उसका माथा चूम लिया। इस खूबसूरत हस्तक्षेप के बाद वह कुछ समय बाहर का नजारा लेकर पुनः मेरी गोद में सो गया। तभी सामने की सीट पर बैठा अधिकारी जो अब तक चुप था और ऐसा लग रहा था कि उसे यह ‘कवि गोष्ठी’ पसन्द नहीं आ रही थी, अचानक बोल उठा-‘एक नक्सली जाल में क्यो फंसा, क्योकि वह सुरक्षा के प्रति लापरवाह था।’ और ‘एक नक्सली जाल में क्यो फंसा, क्योकि वह नक्सली था।’
इस खेल में अधिकारी के कूदते ही सब खुश हो गये। खैर, इस पर भी सब दो भागों में बंट गये और मुझे थोड़ा अन्दाजा लगाने में आसानी हुई कि ये मुझ तक कैसे पहुंचे। तभी पीछे बैठे एक सिपाही ने मुझसे पूछा कि आखिर आप लोग चाहते क्या हैं। अब तक मैं बोल बोल के थक चुका था, लिहाजा मैंने फैज का एक मशहूर शेर पढ़ दिया-‘सूतूनेदार पे रखते चलो सरो के चिराग, जहां तलक सितम की सियह रात चले।’ शेर का अर्थ शायद उसकी समझ में नहीं आया, लेकिन उसने दूसरा प्रश्न दाग दिया-‘चलिए, मान लिया कि आपको आपका मकसद मिल जाये तो उसके बाद आप क्या करेंगे।’ मैंने उसी रौ में एक और शेर पढ़ दिया-‘जिंदगी एक मुसलसल सफर है, जो मंजिल पे पहुंचा तो मंजिल बढ़ा ली।’
शेरो शायरी के बीच हमारी मंजिल यानी झांसी आ गया। इसी बीच सामने बैठे अधिकारी के पास किसी का फोन आया। वह ‘जी सर, जी सर’ कहता रहा। फिर पीछे मुड़ कर बोला-‘मनीष जी सारी, आज रात आपको 2-4 घण्टे थाने के लाक अप में गुजारने होंगे।’ उनकी आपस की बातचीत से मैंने अंदाजा लगाया कि ऊपर से आदेश था कि मुझे लाकअप में ही रखा जाय। जिंदगी में पहली बार मैं लाकअप में था। छोटा अंधेरा कमरा, पेशाब की बदबू से भरा। लाकअप के कोने में पेशाब घर, पेशाब से लबालब। नरक की कल्पना करने वाला जरूर इस लाकअप में रहा होगा। खैर अब्बू अभी भी नींद में मेरी गोद में ही था। मुझे लगा कि कही अब्बू जाग ना जाय और इस नरक से उसका साबका ना पड़ जाय। खैर वह सोया रहा और मुझे भी नींद आ गयी। सुबह सुबह अचानक मेरी नींद खुली। मेरे कानों में लगातार आवाज आ रही थी-‘अरे बाप रे, अरे माई रे।’ थानेदार अपनी बेल्ट से 16-17 साल के तीन बच्चों को बेरहमी से पीट रहा था। सामने दिवाल घड़ी 5 बजा रही थी। पिटते तीनों बच्चों के उपर गांधी, अंबेडकर की फोटो लगी थी। सामने की दिवार पर बड़ा बड़ा ‘सत्यमेव जयते’ खुदा हुआ था। यह दृश्य देख मुझे महेन्द्र मिन्हवी का एक शेर याद आ गया-
सत्यमेव जयते का नारा खुदा हुआ यो थाने में, जैसे कोई इत्र की शीशी रखी हुई पैखाने में।
इसी शोरगुल में अब्बू की नींद भी खुल गयी। उसने आश्चर्य से चारो तरफ देखा और मुझसे लिपट गया। मेरे कान में धीमें से बोला-‘हम कहां हैं।’ मैंने कहा-‘ड्राइवर थक गया था, इसलिए हम यहां आराम कर रहे हैं। तब तक पेशाब की बदबू अब्बू की नाक में जा चुकी थी। अब्बू मुंह बनाके बोला-‘कितनी बुरी जगह है ये। यहां कौन रहता है।’ मैंने बेहद धीमे से यूहीं कह दिया-‘चोर रहते हैं।’ उसने फौरन सवाल किया-‘लेकिन, लेकिन हम तो चोर नहीं हैं।’ मैंने कहा, हां हम तो सिर्फ रूकने के लिए आये हैं। फिर अब्बू ने सहमी सी नज़र लाकअप में बैठे 3 अन्य लड़कों पर डाली जिन्हें रात में ही यहां लाया गया था। अब्बू ने बेहद धीमें से मेरे कान में कहा-‘क्या ये चोर हैं।’ उनमें से एक लड़के ने अब्बू की बात सुन ली और प्यार से कहा-‘हम चोर नहीं है।’ फिर उसने गुस्से में आगे जोड़ा-‘चोर तो पुलिस है। उसने हमारे पैसे मोबाइल सब चुरा लिये।’ फिर मेरी तरफ दुःख से देखते हुए बोला-‘हमें तो घर से पकड़ कर लायी है। देखते हैं क्या केस डालती है। अभी तक तो कुछ बताया नही।’ फिर उन्होंने अब्बू को खाने के लिए बिस्किट दिये, जो अब्बू ने थोड़ा झिझकते हुए ले लिया। बिस्किट खाते हुए अब्बू ने मेरे कान में धीमें से कहा-‘मौसा ये चोर नहीं हैं।’ मैंने भी खेल खेलने के अंदाज में उसके कान में कहा-‘तुझे कैसे मालूम।’ अब्बू ने भी तुरन्त शरारती अंदाज में कहा-‘मुझे मालूम है, क्योकि बच्चे हमेशा सच बोलते हैं।’ यह सुनकर मैं मुस्कुरा दिया।
इसके बाद हमें लाकअप से निकाला गया। हम नित्यकर्म से निवृत्त होकर पुनः लाकअप में आ गये। तभी एटीएस की हमारी टीम भी नहा धोकर, नये कपड़े पहनकर और इत्र लगाकर हमें लेने वापस आ गयी। आते ही एटीएस अधिकारी ने मुझसे पूछा-‘रात कैसी कटी।’ मैं समझ नहीं पाया कि यह सामान्य सवाल था या व्यंग्य था। मैंने कोई जवाब नहीं दिया। उसने आगे कहा-‘मच्छरो ने जरूर परेशान किया होगा।’ रात की शेरो-शायरी का हैंग ओवर अभी मेरे ऊपर था। लिहाजा एक शेर में ही मैंने उसे जवाब दिया-‘धूप की शिद्दत कभी महसूस ना करता, ये कौन मगर पेड़ के साये में खड़ा है।’ उस अधिकारी समेत पूरी टीम मुस्कुरा दी और हम अगली यात्रा पर निकल पड़े।

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अब्बू की नज़र में जेल- 8

हमारे घर से हमें सीधे ‘हाक’ (एण्टी नक्सल फोर्स) हेडक्वार्टर लाया गया। काले बूट और गहरे हरे रंग की वर्दी में नौजवान लड़के अत्याधुनिक हथियारों से लैस किसी रोबोट की भांति इधर से उधर आ जा रहे थे। हमारे आने पर उन्होंने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। कुर्सियां लगी एक छोटे कमरे में हमें बैठाया गया। हमारे बैठते ही उन लोगों के बीच कुछ काना फूसी हुई और फिर अमिता को इसी से सटे दूसरे कमरे में शिफ्ट कर दिया गया। अब्बू को मैंने शतरंज दे दिया और उसे कोने में लगी एक कुर्सी पर बिठा दिया। लेकिन अब्बू कुर्सी पर बैठते ही सरक कर उतर गया और बोला-‘मौसा मैं एक चक्कर लगा कर आता हूं।’ इसके बाद वह कैम्पस का चक्कर लगाता और बीच बीच में आकर मुझे नई-नई जानकारी देता। जैसे, वो लंबा वाला सिपाही वीडियो काल में अपने बच्चे से बात कर रहा है। मैंने चुपके से सुन लिया, आज उसके बच्चे का जन्मदिन है और वो अपने पापा को बुला रहा है।
इधर मुझसे पूछताछ की शुरूआत हो गयी। 7-8 लोगों ने भयभीत करने के अंदाज में मेरे एकदम नजदीक आकर घेरे में कुर्सियों पर बैठ गये। पहले औपचारिक पूछताछ हुई। नाम, पता आदि। मुझे मशहूर लैटिन अमरीकी फिल्म ‘दी आवर आफ फरनेस’[The Hour of the Furnaces] का शुरूआती दृश्य याद आ गया। तेज ड्रम संगीत के बीच स्क्रीन पर कैप्शन उभरता है। नाम- विक्टिम [victim], सरनेम- आरगैनाइजेशन [organization], पेशा- रिवोल्यूशन [Revolution]। सच में मेरा भी यही परिचय था। इस औपचारिक पूछताछ के बाद असली पूछताछ शुरू हुई। मेरे नजदीक बैठे एक शख्स ने अपना मोबाइल निकाला और एक एक करके मुझे तमाम लोगों के फोटो दिखाने लगा। फोटो देखते हुए मैं नर्वस होने लगा और मेरे पसीने छूटने लगे। लेकिन जल्दी ही मैंने अपने पर नियंत्रण पा लिया और बाथरूम जाने का इशारा किया। इसी ‘ब्रेक’ में मैंने अपने आपको नार्मल किया। ‘ब्रेक’ के बाद वह हर फोटो का परिचय खुद ही देने लगा और उनसे मेरा सम्बन्ध जोड़ने लगा। अब तक मैं इस शुरूआती शाक से उबर चुका था। मैंने कहा-‘जब आपको इतनी डिटेल जानकारी है तो मुझसे क्यों पूछ रहे हैं।’ उसने तुरन्त कहा -‘लेकिन हमें यह नही पता कि संगठन में इनका पद और जिम्मेदारी क्या है। यह जानकारी आप हमें देंगे।’ फिर व्यंग्य से बोला-‘देंगे ना।’ अब तक मेरा अपने आप पर पूरा नियंत्रण हो चुका था। मैंने दृढ़ता से कहा- इनमें से कुछ जनसंगठन के सदस्य हैं और कुछ मेरे व्यक्तिगत दोस्त हैं, बाकी को मैं नहीं पहचानता । कुछ फोटो पर वह जोर देने लगा कि बताइये यह कौन है। मैंने साफ इंकार कर दिया कि मैं नहीं जानता। तभी उनमें से एक ने मेरे पेट पर हाथ रखते हुए हल्का सा मरोड़ दिया और बोला कि बताना पड़ेगा। मुझेे लगा कि अब टार्चर शुरू होने वाला है। तभी एक हट्टा कट्टा लंबा सांवले रंग का सिपाही जो इस पूछताछ में चुपचाप बैठा था, अचानक बोल उठा-‘इनका पेट ठीक नहीं है, टच मत करिये।’ बाद में मैंने ध्यान दिया, यह वही व्यक्ति था जिसके बेटे का आज जन्म दिन था और जिसकी बात अब्बू ने सुन ली थी। उसकी बात का असर हुआ। और फिर किसी ने मुझे टच नहीं किया। मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा कि उसने मुझे ‘डिफेन्ड’ क्यो किया।
इसी दौरान अचानक मैंने देखा कि अब्बू पूछताछ करने वाले शख्स के पीछे खड़ा होकर मोबाइल की सभी तस्वीरें ध्यान से देख रहा था। उसने मेरे कान में धीमें से कहा-‘ये सब भी तेरे साथ मिलकर सरकार से लड़ते हैं।’ मैंने कहा-हां। अब्बू ने तपाक से जोड़ा-वाह। और अपने शतरंज की ओर भागा, जहां शायद उसका राजा भी दुश्मनों से घिरा हुआ था। अब्बू को उसे बचाना था।
इसी पूछताछ के बीच एक रोबीले डील डौल वाले व्यक्ति ने प्रवेश किया, जो पता नहीं क्यों किसी ढहते सामंती परिवार का बिगड़ैल बेटा नजर आ रहा था। उसने कुर्सी पर धंसते ही पूरे माओवादी आन्दोलन को गाली देना शुरू कर दिया। वही पुराना राग-‘नेता लोग कोठियों में रहते है, कैडर को मरने के लिए छोड़ देते हैं।’ मैं चुपचाप उसका ‘भाषण’ सुन रहा था। लेकिन जब उसने यह बोला कि यहां लड़कियों का शारीरिक शोषण होता है तो अचानक मुझे गुस्सा आ गया। मैंने भरसक अपने गुस्से पर नियंत्रण रखते हुए कहा कि आप मुझसे पूछताछ करने आये हैं या अपना ‘मुर्गावलोकन’ सुनाने। पता नहीं क्यो वह भड़का नहीं। गैर हिन्दी भाषी होने के कारण शायद वह मुर्गावलोकन का अर्थ नहीं समझ पाया। लेकिन उसने उसी रौ में कहा-‘तुम मानो या ना मानो यह तो कामन सेन्स की बात है।’ मैंने भी यूहीं अग्रेजी में कह दिया-‘कामन सेन्स इज नाट सो कामन’। इसके बाद उसका ब्लडप्रेशर थोड़ा नार्मल हो गया और खीझते हुए दूसरों को संबोधित करते हुए बोला-‘इनका ब्रेनवाश हो चुका है, इन्हें कुछ समझ में नहीं आयेगा। दो चार साल जेल में रहेंगे तब समझ आयेगा।’ यह कहते हुए वह पैर पटकते हुए कमरे से बाहर चला गया।
इस गरमा गरमी के कारण अब्बू का ध्यान भी भंग हो चुका था, वह दौड़ कर मेरे पास आया, बोला-‘मौसा क्या हुआ।’ मैंने कहा-‘कुछ नहीं आदिवासियों को गाली दे रहा था।’ मैंने अब्बू को आदिवासियों की जो कहानियां सुनाई थी, उससे रिलेट करके अब्बू ने कुछ समझा और तत्काल मुंह बनाकर बोला-‘गन्दा आदमी।’ मुझे हंसी आ गयी और मेरा टेंशन भी रिलीज हो गया।
इसी बीच पूछताछ करने वाले एक एक करके बाहर चले गये। सिर्फ वही बचा रहा जिसने मुझे ‘डिफेंड’ किया था। मुझे ऐसा लगा कि वह जान बूझ कर नहीं गया। जब कमरे में सिर्फ मैं और अब्बू बचे तब उसने इत्मीनान से पूछा-‘आप लोग तो भगवान में विश्वास करते नहीं तो ऐसे कठिन समय में आप किसकी तरफ देखते है।’ मैंने बिना सोचे समझे जवाब दे दिया- इतिहास की तरफ। वह संतुष्ट नहीं हुआ, लेकिन आगे कुछ नहीं पूछा और उठ कर चल दिया। अब्बू मेरी बात ध्यान से सुन रहा था। अब्बू को पता है कि मैं भगवान को नहीं मानता। कभी कभी वो मुझसे बहस भी करता है। इससे जुड़ी बड़ी मजेदार कहानियां हैं हमारे पास। लेकिन इतिहास उसके शब्दकोश के लिए नया शब्द था। उसने मुझसे पूछा-‘मौसा ये इतिहास क्या होता है?’ मैंने दिमाग पर जोर डाला और बोला, कहानी। अब्बू ने तुरन्त दूसरा सवाल दागा-‘सच्ची कहानी?’ मैंने कहा, थोड़ी सच्ची थोड़ी झूठी। अब्बू ने कहा-‘अच्छा अब पता चला कि जब मैं रोता हूं तो तुम मुझे कहानी क्यो सुनाते हो। ताकि मैं फिर से हंसने लगूं और खेलने लगूं।’ मैंने कहा- हां। मैंने इतना और जोड़ा-‘यही तो इतिहास भी करता है।’ पता नहीं अब्बू ने क्या समझा और वह फिर से कैम्पस का चक्कर लगाने भाग गया।
मुझे लगा था कि आज रात नींद नहीं आयेगी। लेकिन अब्बू को और मुझे अच्छी नींद आ गयी। पूछताछ करने वाली टीम भी कई तकनीकी कामों में उलझी थी-यहां मोहर, वहां मोहर, इसकी पैंकिग, उसकी पैंकिग। शायद यही कारण था कि उन्होंने मुझे सोने का मौका दे दिया। रात में करीब दो ढाई बजे के आस पास मेरे कान में कुछ आवाज पड़ी और मेरी नींद खुल गयी। कमरे के बाहर अहाते से धीमें धीमें बातचीत की आवाज आ रही थी। एक की बात तो मैं नहीं सुन सका, लेकिन दूसरा व्यक्ति जो मेरे कमरे की तरफ ही खड़ा था, उसकी आवाज मैं सुन पा रहा था। वह कह रहा था-‘नहीं मैं यह नहीं कर सकता। इतनी बड़ी मक्खी मैं नहीं निगल सकता। आखिर कोर्ट में तो मुझे ही जवाब देना पड़ेगा।’ यह सुनकर मैं तनाव में आ गया। लेकिन फिर इसे झटक कर दुबारा सोने का प्रयास करने लगा। मैंने अपने आप से कहा-इसमें मैं क्या कर सकता हूं, जो करना है, अब इन्हें ही करना है।
अगले दिन हमें कोर्ट ले जाया गया। हमें उम्मीद नहीं थी कि वहां हमसे मिलने कोई आयेगा। लेकिन हमारे आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। वहां ना सिर्फ हमारे शुभचिंतक पहले से मौजूद थे, बल्कि उन्होंने एक अच्छा वकील भी कर दिया था। सबसे पहले अब्बू की मां हमे कोर्ट में मिली। उसकी आंखें भरी हुई थी। हमसे मिलते ही वह रोने लगी। मैंने उसे ढांढस देते हुए पूछा-‘अब्बू कैसा है।’ वह बोली कि उसे अभी बताया नहीं है, लेकिन आज सुबह पूछ रहा था कि मौसी की तबियत खराब है क्या। हम लोगो के व्यवहार से कुछ अजीब लग रहा है उसे। आज सुबह ही मौसा के यहां जाने की जिद कर रहा था। बड़ी मुश्किल से समझाया। यह सुन कर हमें भी रोना आ गया। बड़ी मुश्किल से हमने अपने आप को रोका।
खैर कोर्ट की औपचारिकता पूरी करके हम कोर्ट से बाहर निकले। मेरे दिमाग में लगातार यही चल रहा था कि अपने दोस्तों, संगठन के साथियों, और परिवार वालों को सन्देश कैसे दिया जाय कि हम ठीक हैं और अच्छी स्प्रिट में है। तभी कोर्ट की सीढ़िया उतरते हुए हमें सामने मीडिया का हुजूम दिखायी पड़ गया। बस मुझे सन्देश देने का माध्यम मिल गया। सीढ़िया उतरते हुए ही मैंने अपनी मुठ्ठी लहराई और नारा लगाया-इंकलाब जिन्दाबाद। पीछे से अमिता ने भी जोर से दोहराया-इंकलाब जिन्दाबाद। तभी मुझे अब्बू की पतली सी आवाज सुनाई दी-इंकलाब जिन्दाबाद। मैंने आश्चर्य से पीछे मुड़ कर देखा-उसके नन्हें हाथ हवा में उठे हुए थे और वो मेरी तरफ ही देख रहा था। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। दिमाग में कौंधा- भला अब इंकलाब को कौन रोक सकता है।
इंकलाब जिन्दाबाद

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अब्बू की नज़र में जेल- 6 और 7

अब्बू की नज़र में जेल-6

एक दिन खुली गिनती के समय अब्बू ने मुझसे अचानक पूछा- मौसा जब जेलर अन्दर आता है तो बड़ा वाला गेट (करीब 18-20 फुट ऊंचा) खुलता है, और जब हम लोग अन्दर आते हैं या बाहर जाते हैं तो छोटा गेट (करीब 5 फुट ऊंचा) खुलता है। ऐसा क्यों? मैं इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था, इसलिए कुछ देर रूक कर मैं बोला-‘शायद उसकी गर्दन में दर्द हो और वह सर झुका ना पाता हो।’ अब्बू ने तुरन्त मेरी बात काटी-‘नहीं मौसा मैंने देखा है, वह अपनी कुर्सी पर बैठते हुए गर्दन झुकाता है। इसका मतलब उसे दर्द नहीं है।’ मुझे समझ नहीं आया कि अब मैं इसका क्या जवाब दूं। मैंने यूहीं कहा-‘अरे यार वो भी छोटे गेट से आयेगा तो पता कैसे चलेगा कि वो जेलर है। सब सोचेंगे कि वह भी कैदी है।’ अब्बू ने तुरन्त दूसरा सवाल दागा-‘तो क्या कैदी और जेलर में यही फर्क है?’ मैंने यूहीं कहा-हां। अब्बू ने अपनी आंखे नचाते हुए जैसे कोई सीक्रेट खोलते हुए कहा-‘मौसा मुझे पता है कि बड़ा वाला गेट एक बार और खुलता है।’ मैंने आश्चर्य से पूछा-‘अच्छा। कब?’ उसने विजयी भाव से कहा-‘जब कूड़ा-गाड़ी निकलती है तब।’ मैंने डर से चारो तरफ देखा कि किसी ने सुना तो नहीं!
बच्चे के इस मासूम आब्जर्वेशन पर पूरी कायनात मुस्कुरा रही थी।

अब्बू की नज़र में जेल-7

पूछताछ के दौरान ही मुझसे राजनीतिक चर्चा भी होती रहती थी, जिसे मैं जानबूझकर लम्बा खींचने का प्रयास करता था, ताकि पूछताछ का उनका समय कम पड़ जाय। ज्यादातर पूछताछ के ही किसी बिन्दु से राजनीतिक चर्चा शुरू हो जाती थी। हालांकि राजनीतिक चर्चा के पीछे भी उनका एक ‘हिडेन एजेण्डा’ होता था- मेरे ‘स्तर’ का अंदाजा लगाना।
उन्होंने मेरे कमरे से जो साहित्य जब्त किया था उसमें ‘वैकल्पिक शिक्षा’ से सम्बन्धित कुछ साहित्य था, जिस पर अमिता काम कर रही थी। इसके अलावा कुछ साहित्य ‘पारधी’ जैसी ‘विमुक्त जन जातियों’ [Denotified Tribes] की सामाजिक आर्थिक स्थितियों पर था। इन्हीं साहित्य पर पूछताछ ने राजनीतिक चर्चा का रूप ले लिया। उसने पूछा, यह ‘वैकल्पिक शिक्षा’ क्या है। वैकल्पिक शिक्षा के बारे में बताते हुए मैंने ‘मुख्यधारा’ की शिक्षा की आलोचना की और उदाहरण के रूप में मैंने बताया कि आज भी बच्चो को ‘क्ष’ से क्षत्रिय और ‘ठ’ से ठठेरा ही पढ़ाया जाता है। उसने तुरन्त पूछा कि ‘क्ष’ से क्षत्रिय ना पढ़ाया जाय तो क्या पढ़ाया जाये। मैंने तुरन्त कहा- बहुत से शब्द है। उसने भी तुरन्त कहा-‘कोई एक बताइये।’ मैं चकरा गया, क्योकि मुझे सच में उस समय ‘क्ष’ से कोई अन्य शब्द ध्यान में नहीं आया। अपनी इस ‘जीत’ से पूछताछ करने वाला मदमस्त हो गया और मुस्कराते हुए बोला -‘आप लोग बस आलोचना करना जानते हैं, कोई विकल्प तो होता नहीं आप लोगो के पास।’ मैं उसके जाल में फंस गया था। उसके जाल से निकलने का प्रयास करते हुए मैने कहा-‘पढ़ाने का यह तरीका ही गलत है।’ कविता कहानी और इससे जुड़ी अन्य गतिविधियों के माध्यम से बच्चे अक्षर खुद ब खुद पहचान लेते है।’ लेकिन वह इस विजयी पल को हाथ से जाने नहीं देना चाहता था और बार बार मुझसे यही पूछे जा रहा था कि बताइये बताइये ‘क्ष’ से और क्या शब्द है। मेरी इस ‘हार’ ने अब्बू का ध्यान भी आकर्षित कर दिया जो वहीं पर एक कोने में बैठकर ड्राइंग पेपर पर कुछ बना रहा था। वह मेरे बिल्कुल पास आकर कान में धीमें से बोला-‘मौसा सचमुच तुम्हें नहीं पता।’ मैंने प्यार से पूछा-‘क्या।’ वही जो ये पूछ रहे हैं। मैंने कहा, नही याद आ रहा, अब्बू। अब्बू हल्के गुस्से में बोला-‘फिर इतनी मोटी मोटी किताबें पढ़ने का क्या फायदा।’ यह कहते हुए वह वापस अपनी ड्राइंग बुक की तरफ चला गया। उसे यह बर्दाश्त नहीं था कि उसके मौसा किसी से हार जाय।
अब बात विमुक्त जातियों पर आकर टिक गयी। वह अपने अनेक आपरेशनों का हवाला देते हुए कहने लगा कि ये सभी जातियां अपराधी जातियां हैं। अपराध इनके खून में होता है, इन्हें कभी सुधारा नहीं जा सकता। जवाब में मैं उतने ही पुरजोर तरीके से इन जातियों के इतिहास, सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों और सबसे बढ़कर पुलिस व समाज का उनके प्रति रूख को स्थापित करते हुए यह बताने का प्रयास करता रहा कि ये जातियां किस कदर दबायी और बदनाम की गयी हैं। अचानक से मेरे बगल में बैठा गठीले बदन का, टीका लगाये हुए एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति जो अभी तक कम बोल रहा था और बहुत विनम्र व्यवहार कर रहा था, भड़क उठा और विमुक्त जातियों से शुरू करके पूरी जनता को ही गालियां देने लगा-‘किस जनता की बात आप लोग करते हैं, वही जो दारू पीकर सूअरों की तरह पड़ी रहती है, एक नम्बर की कामचोर होती है, दो पैसे के लिए अपना ईमान बेच देती है।’ इसी प्रक्रिया में वह कूद कर बेवजह मुसलमानों पर भी आ गया और अपना दिमागी कचरा उड़ेलने लगा। उसके अचानक इस हमले से मैं सकते में आ गया। अगले पांच दस मिनट तक वह ऊंची आवाज में लगातार बोलता रहा और जनता को गालियां देता रहा।
रात में 2 बजे उसकी आवाज और भी तेज व तीखी सुनाई दे रही थी। बाहर खड़े दोनों पहरेदार भी एके 47 पर अपनी पकड़ मजबूत बनाते हुए कमरे के दरवाजे पर आ गये। मानो उसके कुतर्को को कभी भी हथियारों की जरूरत पड़ सकती है। यह देख कर मेरे दिमाग में अचानक कौधा-‘क्या मेरे तर्को के लिए भी हथियारों की जरूरत है।’ गिरफ्तारी के चंद रोज पहले ही मैंने ‘न्यूगी वा थांगो’ का उपन्यास ‘मातीगारी’ पढ़ा था। उसकी पंक्तियां कौध गयी-‘सिर्फ खूबसूरत तर्क ही काफी नहीं होते, उनका समर्थन करने के लिए हथियारों की ताकत भी जरूरी हाती है।’ बहरहाल किसी अनहोनी की आशंका में अब्बू अपना ड्राइंग छोड़ कर मेरे पास आकर कुर्सी से सट कर खड़ा हो गया। पता नहीं क्या हुआ कि अब्बू का स्पर्श मिलते ही मैं भावुक हो गया और मेरी आंख भरने लगी। चश्में के भीतर से ही मैंने दोनों किनारों को साफ किया। पूछताछ करने वाला भी मेरी स्थिति भांप गया और अपना जहरीला भाषण बीच में ही रोक कर बोला-क्या हुआ। मैंने बहुत मुश्किल से आवाज निकाली-‘जनता को इतनी गाली मैंने जीवन में पहले कभी नहीं सुनी है।’ मेरी मनःस्थिति देख कर वह आगे कुछ नहीं बोला। मैं अब्बू की तरफ मुखातिब हुआ और अब्बू को रिलैक्स करने के लिए पूछा-‘अब्बू तू ड्राइंग बुक पर क्या बना रहा है?’ अब्बू ने गम्भीरता से जवाब दिया-‘माल्यांग की कूची।’

नोट-‘माल्यांग की कूची’ एक चीनी लोककथा है, जिसमें माल्यांग नामक बच्चे को एक जादुई कूची यानी ब्रश मिल जाता है, जिससे वह जो भी बनाता है, वह वास्तविक हो जाता है। माल्यांग अपनी इस ताकत का इस्तेमाल करते हुए एक नदी बनाता है और उसमें बाढ़ ला देता है। इस बाढ़ में वहां का अत्याचारी राजा डूब जाता है और जनता को उसके अत्याचारों से मुक्ति मिल जाती है।

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अब्बू की नज़र में जेल-5

जेल में शनिवार का दिन हमारे लिए बहुत खास होता है। इस दिन अब्बू की मुलाकात अपनी मौसी से और मेरी मुलाकात अपनी पत्नी/प्रेमिका/फाइली [co-accused] अमिता से होती है। हालांकि यह मुलाकात महज आधे घण्ठे की होती है मगर फिर भी हमें इस मुलाकात का बेसब्री से इन्तजार रहता है। अब्बू तो लगभग हर दिन एक दो बार पूछ ही लेता है-मौसा शनिवार कब आयेगा, या शनिवार आने में अभी कितना दिन बाकी है। शनिवार के दिन सुबह सुबह तैयार होकर अब्बू माइक की तरफ ही कान लगाये रहता था। हालांकि हमारा नाम 12 बजे के आसपास ही पुकारा जाता था। नाम सुनते ही अब्बू बिना मेरा हाथ पकड़े ही आगे आगे गेट तक भाग जाता था, लेकिन यहां पहुंच कर वह ठिठक जाता और मेरा इंतजार करता क्योकि उसे पता था कि अब आगे का रास्ता अपमानजनक तलाशियों से होकर जाता है। सभी बैरकों से मुलाकाती कैदी जब गेट पर इकट्ठा हो जाते तो हमें जोड़े में खड़े होने का आदेश दिया जाता। फिर हमारी गिनती होती-2 4 6 8 10। सुबह की गिनती और फिर बैरक की अन्य दो गिनती (दोपहर और फिर रात की) भी इसी तरह जोड़े में होती। जोड़ा बनाने में पीछे रहने वाले कैदी को अपमानजनक गालियों से नवाजा जाता। अब्बू ने एक बार पूछ ही दिया- मौसा यहां गिनती 1 2 3 4 5 6 क्यों नहीं होती। 2 4 6 8 क्यो होती है। मुझे भी कोई जवाब नहीं सूझा तो मैंने कह दिया कि यहां की गिनती यहीं है। लेकिन अब्बू संतुष्ट नहीं हुआ। फिर मैंने मन ही मन सोचा कि चूंकि यहां जिंदगी ही आधी है, इसलिए शायद गिनती भी आधी है। या शायद यहां सिर्फ पुरूष पुरूष हैं इसलिए विषम नम्बर को निकाल दिया गया है। बाद में मैंने सोचा था कि इसके बारे में पता करूंगा कि आखिर ऐसा क्यो है। लेकिन बाद में मैं भूल गया।
यहां जब लोग महिला मुलाकात के लिए जाते है तो अपने प्यार व सरोकार का इजहार करने के लिए कुछ सामान भी ले जाते है। जैसे बिस्किट नमकीन का पैकेट आदि। जो ज्यादातर यहां की कैन्टीन से खरीदे हुए होते हैं। लेकिन उधर से यानी महिलाओं की तरफ से हाथ से बनाया सामान ज्यादा आता है, जैसे दही, चटनी, पराठा आदि, जो कुछ महिलाएं अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए या पैसे के बल पर किचेन में घुस कर बना लेती थी। गरीब पुरूष व महिलाएं अक्सर खाली हाथ ही आते। असमानता जेल में भी पीछा नहीं छोड़ती। मेरे दोस्त बन चुके कैदियों के घर से यदि कोई अच्छा खाने का सामान आता तो मेरे ये दोस्त कैदी उसका कुछ हिस्सा ‘भाभी जी’ के लिए ले जाने को कहते। मेरे ना कहने पर वो अक्सर इसरार करते तो मैं रख लेता, नही ंतो हम अक्सर सिर्फ पारले जी लेेकर जाते थे। अब्बू अब तक यहां का रंग ढंग काफी कुछ समझ चुका था। मैं अक्सर मजे में उससे पूछता-‘अब्बू जेल में वो कौन से टू ‘जी’ हैं जिनका बोलबाला है?’ अब्बू को भी इसका जवाब देने में बड़ा मजा आता- ‘मौसा, पारले जी और गांधी जी।’ आसपास के लोग अब्बू को छेड़ने के लिए यह सवाल अक्सर पूछते और अब्बू बड़े मजे से इसका जवाब देता। वह जान चुका था कि यहां कई सुविधाएं सिपाही या नम्बरदार को पैसा देने से मिल जाता है।
जेल में किसी भी तरह के मीठे आइटम पर पाबंदी है। मीठे के नाम पर सिर्फ पारले जी ही मिलता है। इसलिए कभी कभी अब्बू मीठे के लिए मचल जाता। हम दोनो को ही मीठा बहुत पसंद है। ऐसे समय पर अब्बू बोल ही देता कि मौसा सिपाही को पैसे देकर मेरे लिए बाहर से चाकलेट मंगवा दो ना। लेकिन मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह अपना कदम वापस ले लेता- नहीं मौसा रहने दो, ये बुरी बात है। मैं पारले जी ही खा लूंगा। इतने छोेटे बच्चे को अपने आप पर नियंत्रण करते देख कर मेरा मन भारी हो जाता। एक बार अब्बू ने पूछ ही लिया कि मौसा यहां मीठा खाने पर मनाही क्यो है? मैं क्या जवाब देता। मैंने वही घिसा पिटा जवाब दोहराया- ‘क्योकि यह जेल है।’ अब्बू संतुष्ठ नहीं हुआ और आगे पूछा- क्या जेलर को मीठा पसन्द नहीं। मैंने कहा, नहीं उसे तो मीठा बहुत पसन्द है, तभी तो वह इतना मोटा हो गया है। अब्बू ने फिर आगे पूछा और मोदी को? मैंने अब गम्भीर होकर कहा- सुन अब्बू! इन सब को मीठा पसन्द है। लेकिन कैदी लोग मीठा खाये, ये इनको पसन्द नहीं। अब्बू ने तुरन्त कहा-क्यों? मैंने कहा-‘क्योकि मीठा खाकर हम खुश हो जायेंगे।’ आगे की बात अब्बू ने ही पूरी कर दी- और हम खुश रहें ये उन लोग को पसन्द नहीं। यह कहकर वह भाग गया और हाते में चारो तरफ दौड़ने लगा।
खैर, हमने अपनी तलाशी दी, अपना सामान चेक करवाया। अब्बू अपनी तलाशी का नम्बर आने से पहले ही अपने जेब के भीतरी अस्तर उलटने लगता। यह देख मुझे हरिश्चंद्र पाण्डेय की एक कविता याद आ जाती थी-‘बच्चे अपनी तलाशी में जेबों के अस्तर तक उलट देते हैं, इसलिए बच्चों के बारे में जब भी सोचो गम्भीरता से सोचो।’ खैर, तलाशियों का दौर खत्म होने के बाद हम एक बड़े हाल की ओर चल दिये, जहां अपनी अपनी महिला सम्बन्धियों से हमारी मुलाकात होनी थी। अब्बू मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचे जा रहा था, तभी पीली वर्दी पहने नम्बरदार ने तेज आवाज में हमें रुकने को कहा। हम जहां थे वहीं ठिठककर खड़े हो गये। उतनी ही तेज आवाज में दूसरा आदेश हुआ कि हम तुरन्त जोड़े में बैठ जाये। थोड़ी अफरातफरी के बाद सब जोड़े में बैठ गये। अब्बू का चेहरा थोड़ा मायूस हो गया कि अब यह कौन सी मुसीबत आ गयी। तभी हमने देखा कि हमारे पीछे से जेल का एक बड़ा अधिकारी अपने लाव लस्कर के साथ अवतरित हो गया। तो हमें रोकने का यह कारण था। उस जेल अधिकारी ने आदेशात्मक स्वर में पूछा-‘इनके सामान की तलाशी ली गयी?’ आदेश देने के साथ ही वह आगे बढ़कर एक कैदी का झोला खुद ही चेक करने लगा। उसके झोले में भेलपूरी थी। उस जेल अधिकारी ने उसे डांटते हुए कहा-‘मुलाकात के लिए जाते हो या पिकनिक मनाने।’ यह कहते हुए वह अपने लाव लश्कर के साथ आगे बढ़ गया। हम सबने चैन की सांस ली। अब्बू थोड़ा खीझ कर बोला-‘यह बिना हम लोगों को डिस्टर्ब किये भी तो जा सकता था।’ यह बात बोल कर वह मुलाकात कक्ष की ओर भाग गया। लेकिन अब्बू की इस बात ने मेरी विचार प्रक्रिया को तेज कर दिया। भारत में ‘पावर’ के प्रति एक अजीब सी सनक है। उस जेल अधिकारी को यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि वह बिना कुछ बोले यहां से निकल जाये। उसके पास पावर है तो इसे बिना दिखाये वो कैसे गुजर जाये। दिखावा सिर्फ पैसे का ही नहीं पावर का भी होता है। सड़क पर ड्यूटी करते एक आम सिपाही और किसी भी आफिस के चपरासी तक में आप इस सनक/दिखावे के दर्शन कर सकते हैं। भारत में यह एक विकराल समस्या है। विशाल ‘लोकतान्त्रिक’ छाते के नीचे लगभग सभी संस्थाएं राजशाही युग के पदसोपान क्रम में काम करती हैं। इसी सन्दर्भ में मुझे ‘फूको’ का मशहूर कथन भी याद आया-‘पावर करप्ट्स’। यही सब सोचते हुए मैं हाल के पास पहुंच गया। अब्बू पहले ही भाग कर वहां पहुंच चुका था।
यहां पहुंचकर सबसे पहले अच्छी जगह पर कब्जा करने के लिए होड़ लग जाती। पैसे वालों के लिए सिपाही पहले से ही स्थान बुक किये रखते है। बहरहाल फर्श पर अपना अपना चद्दर या अखबार बिछाकर हम सब बैठ जाते और महिलाओं का इन्तजार करने लगते। अब्बू बेसब्र होकर हाल में घूमने लगा। अब्बू की बेसब्री का कारण महज उसकी मौसी ही नहीं थी, बल्कि वे बच्चें भी थे जो महिलाओं के साथ आते थे। यहां 6 साल तक के बच्चों को मां के साथ रहने का अधिकार है। हर शनिवार की मुलाकात के कारण अब्बू की यहां आने वाले कुछ बच्चों से दोस्ती हो गयी है। आधे घण्टे ये बच्चें आपस में खेलते, और धमाचैकड़ी करते थे। इन बच्चों को देखकर हम कुछ समय के लिए ही सही यह भूल जाते कि हम जेल में हैं। बीच बीच में अब्बू हमारे पास आ जाता और पूछता-मौसी तुम कैसी हो! फिर पूछता, मौसा अभी कितना समय बचा है। जब मैं बोलता कि जा अभी खेल ले। अभी समय है, तो वह खुश हो जाता। लेकिन आधे घण्टे कपूर की तरह उड़ जाते। और सिपाही आकर हमें उठाने लगता। यह देख अब्बू धीमी चाल और दुःखी मन से हमारी तरफ आता। कभी कभी पूछता-‘मौसा तुमने मौसी से सारी बातें कर ली?’ मेरा जवाब सुने बिना कहता- ‘काश मौसी भी हमारे साथ चलती।’ एक दिन उसने गम्भीरता से पूछा- ‘मौसा, हम मौसी के साथ ही क्यो नहीं रह सकते।’ फिर उसने खुद ही जवाब दे दिया, क्योकि इससे हम खुश रहेंगे।
एक शनिवार की मुलाकात में अब्बू को उसका प्यारा दोस्त सूरज नहीं दिखायी दिया। अब्बू और सूरज दोनों लगभग 6 साल के है। इसलिए दोनो में अच्छी दोस्ती हो गयी थी। अब्बू ने तुरन्त मौसी से पूछा- ‘मौसी आज सूरज क्यो नहीं आया।’ मौसी उसके इस सवाल से थोड़ा असहज हो गयी। खुद को संयत करते हुए उसने अब्बू से कहा कि अब्बू उसकी तबियत खराब हो गयी थी, इसलिए उसे घर भेज दिया गया। अब्बू बुझे मन से दूसरे बच्चों के साथ खेलने चला गया। अब्बू के जाने के बाद अमिता ने सूरज के बारे में जो वास्तविक घटना बयां की वह हदयविदारक थी। जेल प्रशासन को जैसे ही पता चला कि सूरज 6 साल का पूरा हो गया है, उसने उसे घर भेजने का आदेश दे दिया। लेकिन झारखण्ड के किसी गांव में रहने वाले इन लोगों के घर में कोई नहीं था जो सूरज की देखभाल कर सके। लिहाजा जबर्दस्ती सूरज को उसकी मां से छीन कर उसे अनाथालय में डाल दिया गया। किस तरह से जेल प्रशासन ने मां से उसके कलेजे के टुकड़े को अलग किया, यह बताते बताते अमिता खुद रोने लगी। यह दारूण दृश्य अमिता की आंख के सामने ही घटित हुआ था। मेरा मन भी भारी हो गया।
मैंने सोचा कि ऐसे ना जाने कितने नियम कानून की गिरफ्त में यहां जिंदगी दम तोड़ रही है। इसी बीच मैंने देखा कि अब्बू व अन्य बच्चे खेलते खेलते हाल के बाहर निकल गये। सिपाही उन्हें रोकने के लिए उनके पीछे दौड़ा। उन्होंने हाल के बाहर ना जाने का नियम जो तोड़ दिया था। मुझे अच्छा लगा कि कहीं तो जिंदगी भी नियमों कानूनों की धज्जियां उड़ा रही है।

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अब्बू की नज़र में जेल- 4

ट्रांजिट रिमान्ड के बाद एटीएस कार्यालय में रिमांड का पहला दिन। कमरे में दाखिल होते ही मुझे आदेश मिला कि मैं कमरे के एक कोने में बिछे मोटे गद्दे पर बैठ जाउं। इस गद्दे के अलावा कमरे में महज कुछ कुर्सियां व एक बड़ी मेज थी। पूरी बिल्डिंग नयी थी और नयेपन की खुशबू लिये थी। अज्ञात का भय अब्बू के चेहरे पर साफ दिख रहा था। वो पूरी तरह मुझसे सट कर चल रहा था और मेरी उंगली कस कर पकड़े था। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि वो अब्बू नहीं बल्कि मेरा ही विस्तार है। हम दोनों के गद्दे पर बैठते ही 23-25 साल का एक हष्ट पुष्ट नौजवान अपनी काली वर्दी में एके-47 लिये कमरे में दाखिल हुआ। उसके हाथ में हथकड़ी थी। वो तुरन्त मेरे सामने बैठते हुुए मुझे हथकड़ी लगाने लगा। अब्बू डर गया और अपने दोनों नन्हें हाथों को मेरे गले में डाल मेरे उपर लगभग झूल गया। मैंने इंस्पेक्टर की तरफ देखते हुए कहा- ‘इसकी क्या जरुरत है।’ उसने बड़े सौम्य भाव से कहा-‘चिन्ता मत कीजिए, यह महज एक औपचारिकता है।’ मैंने मन ही मन कहा कि यह कैसी औपचारिकता है। जिन्दगी में पहली बार ऐसी औपचारिकता से दो चार हो रहा था। हथकड़ी लगाने के बाद सभी लोग कमरे से निकल गये। मुझे अब्बू को समझाने का मौका मिल गया। मैंने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा-‘अब्बू, मैंने तुझे भगत सिंह की कहानी सुनाई थी ना!’ अब्बू ने तुरन्त कहा-‘हां हां याद है, जिन्होंने अंग्रेजों को मार भगाया था और उनको फांसी हो गयी थी।’ मैंने कहां-हां, उनको भी तो हथकड़ी लगा कर रखा गया था। अब तक अब्बू थोड़ा सामान्य हो गया था। अचानक उसने पूछा-‘मौसा तुम्हें हथकड़ी से दर्द तो नहीं हो रहा है।’ मैंने कहा-‘नहीं।’ अब्बू ने तुरन्त लाड़ में मेरी कलाई चूम ली। यह देख मेरी आंखे भर आयी। लेकिन तभी मेरी नज़र हथकड़ी पर लिखे शब्द पर ठहर गयी। आंसुओं के कारण धुंधला धुंधला दिख रहें शब्द अब स्पष्ट होने लगे, जैसे कोई गोताखोर धीरे धीरे पानी से ऊपर आता है। हथकड़ी पर लिखा था-‘मेड इन इंग्लैण्ड।’ मेरी आंखें ‘मेड इन चाइना’ पढ़ने की अभ्यस्त थी, इसलिए ‘मेड इन इंग्लैण्ड‘ पढ़ कर अजीब सा लगा। लेकिन अगले ही पल मुझे महसूस हुआ कि समय पिघल रहा है और मैं 1930-31 में पहुंच गया हूं। भगतसिंह को जो हथकड़ी पहनाई गयी होगी, उस पर भी तो यही लिखा होगा-‘मेड इन इंग्लैण्ड।’ इस भावपूर्ण अनुभव ने मुझे गर्व से भर दिया।
अचानक अब्बू ने मेरी तन्द्रा तोड़ी-‘मौसा क्या सोच रहे हो, देखो वो सामने।’ मेरे सामने एटीएस का एक इंस्पेक्टर खड़ा था। उसने शान्त भाव से पुनः अपनी बात दोहराई- यात्रा से काफी थके होगे और रात भी ज्यादा हो गयी है, अब सो जाइये। कल सुबह से काम (पूछताछ) शुरु होगा। उसके जाते ही दो लोगों ने कमरे में प्रवेश किया और अपना कम्प्यूटर निकाल कर मेज पर रख दिया। मैं समझ गया कि इन दोनों की रात की ड्यूटी है, मुझ पर नज़र रखने की।
आज अब्बू बिना प्रयास के ही सो गया। यात्रा की थकान का असर था शायद। लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। कमरे में पूरा अंधेरा था, लेकिन कम्प्यूटर स्क्रीन की रोशनी के कारण एक खास तरह के तिलिस्म का अहसास हो रहा था। यह तिलिस्म किसका है?
यात्रा की थकान मुझे भी थी, लेकिन मेरे लिए यह कोई सामान्य रात नहीं थी। मेरी ज़िदगी रुपी नदी अब एक नया मोड़ लेने को व्याकुल हो रही थी। रह रह कर उछाल मार रही थी। इसी प्रक्रिया में मैं लगातार करवटें बदल रहा था। मेरी हर करवट पर हाथ में बंधी हथकड़ी खनक उठती और अपने अपने कम्प्यूटर पर बैठे एटीएस के दोनों बन्दे चौक कर मेरी ओर देखने लगते। हथकड़ी खनकने और उनके चौक कर मेरी ओर देखने के इस दृश्य ने मेरे दिमाग में अंकित पुराने एक दृश्य को जगा दिया। थोड़ी देर दिमाग पर जोर डालने पर मुझे देहरादून में वरवर राव से मेरी पहली मुलाकात याद आ गयी। प्रारम्भिक औपचारिकता के बाद वरवर राव ने मुझसे पूछा-‘हिन्दी कविता में क्या चल रहा है।’ मैंने कहा-‘कुछ खास नही। लेकिन अभी किसी पत्रिका में मैंने एक अनुदित कविता पढ़ी। बहुत शानदार कविता थी। कविता कुछ इस तरह थी-‘उसने मुझे हथकड़ियां पहनायी,
लेकिन मेरी हथकड़ियों की झंकार से वह डर गया।’
वरवर राव मुस्कुराये और धीमें से बोले-‘यह मेरी ही कविता है।’
जब आप दुश्मन के चंगुल में होते हैं तो वरवर राव जैसे न जाने कितने लोग आपके साथ आकर खड़े हो जाते हैं। इस काव्य सत्य का यथार्थ अनुभव मुझे इसी रात हुआ।
दूसरे दिन 11-12 बजे अचानक से हड़बड़ी में मेरी हथकड़ी खोल दी गयी और इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात मुझे यह लगी कि हथकड़ी को छिपाने के अंदाज में वहां मौजूद आलमारी के पीछे डाल दिया गया। मैंने दिमाग पर जोर डाला तो अचानक मेरी समझ में आ गया-मुझसे मिलने के लिए सीमा विश्वविजय आने वाले हैं। करीब 15-20 मिनट बाद सीमा विश्वविजय और मेरे वकील कमरे में दाखिल हुए। मैं पहले से ही मानसिक रूप से तैयार हो चुका था कि क्या सन्देश देना है। मैंने सबके सामने ही जल्दी जल्दी सीमा को उल्टी भाषा (टील्उ षाभा) में कुछ जरुरी जानकारी दी। संयोग से सभी अपने अपने कामों में व्यस्त थे और किसी ने नोटिस नहीं लिया कि मैं किस भाषा में सीमा से बात कर रहा हूं। बचपन में ईजाद की गयी यह भाषा आज हमारे काम आयी।
सीमा विश्वविजय के जाते ही एटीएस के एक अधिकारी ने आश्चर्य से पूछा-‘ये आपकी सगी बहन थी।’ मैंने कहा-‘हां।’ उसने पुनः आश्चर्य जताते हुए कहा-‘कोई रोना धोना नहीं, कोई इमोशनल सीन क्रियेट नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था, जैसे आप लोग किसी काफी हाउस में बैठे हों।’ फिर उसने व्यंग्य से कहा-‘माओवादियों में इमोशन नहीं होता क्या।’ मैंने शान्त भाव से कहा-‘होता है, बिल्कुल होता है। लेकिन आप जैसे लोगों के सामने इसका इजहार करना हम अपमानजनक समझते हैं।’ उसने पुनः व्यग्य से कहा-‘अच्छा तो इसमें भी राजनीति है।’ इस बार मैं कुछ नहीं बोला। अचानक से हथकड़ी खोलने वाला सिपाही वापस आया और आलमारी के पीछे से हथकड़ी निकाल कर मुझे पुनः पहनाने लगा। मेरे हथकड़ी लगते ही एक बार फिर सब एक एक कर कमरे से बाहर निकल गये। एक बार फिर कमरे में मैं और अब्बू बचे। यह समय मेरे लिए लिबरेटिंग समय [liberating time] होता था, जब सिर्फ मैं और अब्बू होते थे, हालांकि ऐसा समय बहुत कम आता था।
अब्बू तुरन्त मेरे पास आया और बोला-‘तुम्हारी बहन के आने पर उन्होंने तुम्हारी हथकड़ी क्यों हटा दी।’ मुझे पता था कि वह यह सवाल जरूर करेगा। मैंने कहा-‘ताकि मेरी बहन को गुस्सा ना आ जाय।’ अब उसका अगला सवाल था-‘उसे गुस्सा आता तो वह क्या करती।’ मैंने कहा-‘अब्बू मेरी बहन में एक जादुई ताकत है, जिससे वह सब कुछ उलट पुलट कर सकती है। और सच बताउ तो सबकी बहनों में एक जादुई ताकत होती है।’ अब्बू ने तुरन्त आंख फैलाकर कहा-‘मेरी बहन झिनुक मे भी है।’ हां बिल्कुल- मैंने कहा। लेकिन एक दिक्कत है। अब्बू को जैसे किसी कहानी के क्लाईमेक्स का इन्तजार था। उसी बेसब्र भाव से उसने पूछा-‘क्या दिक्कत है?’ मैंने कहा-‘सभी बहनों को एक दूसरे से मिलना होगा। देख, मेरी बहन तेरी बहन को जानती ही नहीं, उससे मिली ही नहीं। इसलिए यह जादू काम नहीं कर रहा।’ उसने खुश होते हुए कहा-‘मौसा अगली बार अपनी बहन से बोलना कि वो मेरी बहन से जरूर मिल ले और सबकी बहन से मिल ले और अपना जादू चलाए और सब कुछ उलट पुलट कर दे।’ बड़ा मजा आयेगा। अब्बू के चेहरे पर यह खुशी देख मेरा दिल भर आया और मैंने उसे चूम लिया। मेरे भीतर एक कविता कौधीं-
दुःख तुम्हें क्या तोड़ेगा, तुम दुःख को तोड़ दो।
केवल अपने सपनों को औरों के सपनों से जोड़ दो।।

(इसके लिखे जाने के बाद एक मुलाकात में सीमा ने बताया कि जामिया व रोशनबाग की बहनों महिलाओं ने सचमुच सब कुछ उलट पुलट दिया।)

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अब्बू की नज़र में जेल-3

Lucknow Jail

पहला भाग
गिरफ्तारी के 3 माह आज पहली बार अदालत जाने का दिन है। चन्द पैसे वालों के लिए यह दिन खास होता है। इस दिन वे पैसे के बल पर अदालत परिसर में दिन भर अपने परिवार मित्रों के साथ रुकते हैं और मनपसन्द खाना-नाश्ता करते हैं। बाकी लोगों के लिए यह एक नरक यात्रा होती है, जहां अदालत के रजिस्टर पर महज एक दस्तख़त करने के लिए घण्टों लाॅकअप में खड़े रहना और भूसे की तरह जाली वाली बन्दी-गाड़ी में सवार होकर थके हारे अपनी बैरक लौटना। कैदी कहते हैं कि जब आप बैरक में होते हैं तो घर की याद आती है, और जब आप अदालत की यात्रा पर होते हैं तो बैरक याद आती है। साथी कैदियों से इस नरकीय यात्रा के इतने किस्से सुन चुका था कि अदालत जाने के दिन मैं तनाव में आ गया। हालांकि अब्बू बेहद उत्साहित था। गाड़ी से मौसा का लखनऊ घूमना और थोड़ी देर के लिए जेल से बाहर होना अब्बू के खुश होने का बड़ा कारण था।
ख़ैर, नहा धो कर हम जेल के विशालकाय गेट पर आ गए। यहां आकर देखा तो लाइन में आगे तमाम चमकते चेहरे वाले नौजवान व अधेड़ उम्र के कैदी दिख रहे थे। ज़ाहिर है आगे वही लोग थे जिन्होंने गाड़ी में सीटेें ख़रीद रखी थीं। बाकी बुझे चेहरे वाले, फीके कपड़ों में तमाम नौजवान,अधेड़ और कुछ बुजुर्ग कतार में पीछे खड़े थे। ज़ाहिर है इन लोगों को गाड़ी में खड़े-खड़े ही यात्रा करनी थी। इनमें से दो बुजुर्ग तो मेरी ही बैरक के थे, जो अभी कल ही हास्पिटल से लौटे थे। इन दोनो ने सम्बन्धित जेल सिपाही से अनुरोध किया कि उन्हें पंक्ति में आगे कर दिया जाए क्योंकि वे बीमार हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सम्बन्धित सिपाही ने न सिर्फ उनके अनुरोध को ठुकरा दिया, बल्कि उनकी बीमारी का मज़ाक भी बनाया। बीच-बीच में सिपाही सभी को सामूहिक गालियां दे रहा था। सभी कैदी शायद यह सोच कर संतोष कर रहे थे कि उनका नाम लेकर गाली नहीं दी गई। अब्बू अब सवाल कम पूछने लगा है। शायद ‘न्यू कागनेटिव पैटर्न’ [new cognitive pattern] में ढलने लगा है। अचानक अब्बू ने अपने पैर उचकाए और दोनो हाथ ऊपर कर दिया। संकेत साफ था- ‘गोदी लो।’ बहरहाल हम जैसे तैसे गाड़ी में सवार हुए। एक छोटी सी 20 सीटों वाली गाड़ी में 54 लोग। हम पीछे की ओर खड़े थे। गाड़ी के हिचकोले खाते ही लोग बोरे की तरह एक दूसरे के साथ ऐडजस्ट होने लगे। तभी अचानक आगे से जबरदस्त धुंआ उठने लगा। अब्बू ने आश्चर्य से पूछा-‘मौसा इतना धुंआ, आग लगी है क्या।’ मैने कहा नहीं, लोग सिगरेट पी रहे हैं। दरअसल यह चरस-गांजे का धुंआ था। अब्बू को यह बताने का मतलब था उसके सवालों की झड़ी का सामना करना जिसके लिए मैं अभी तैयार नहीं था। कुछ देर बाद हम पसीने में भीगने लगे और कैदियों में भी आपस में जगह को लेकर कहासुनी होने लगी। अब्बू भी अब परेशान होने लगा था जो अभी भी मेरी गोद में ही था। अचानक मैंने देखा कि बगल में खड़ा एक कैदी अब्बू को लगातार देखे जा रहा है और मुस्कुराए जा रहा है। मैंने अब्बू से कान में पूछा क्या हुआ? अब्बू ने मेरे कान में कोई गुप्त संदेश जैसा सुनाते हुए कहा- ‘मौसा मैंने इनका सिर खुजा दिया। इतनी भीड़ में मैंने समझा कि ये मेरा सिर है। लेकिन ये गुस्साए नहीं।’ मुझे हंसी आ गयी।
अचानक सामने की सीट पर बैठा कैदी परिचित निकल गया और मैंने अब्बू को उसकी गोद में बिठा दिया जहां से वह बाहर का नज़ारा ले सके और मौसा का लखनऊ देख सके। कुछ देर बाद अचानक अब्बू मेरी तरफ मुड़ा और बोला -‘मौसा ये तो पूरा का पूरा भोपाल जैसा है।’ मैंने मन ही मन सोचा सभी शहरों का डीएनए एक जैसा ही तो होता है।
ख़ैर जैसे तैसे हम कोर्ट के लाॅकअप में पहुंचे। एक हाॅलनुमा कमरे में पहले से ही कैदी ज़मीन पर अखबार बिछा कर बैठे हुए थे। कुछ इधर उधर टहल रहे थे। चारों तरफ पान की पीक और कूड़े का बोलबाला था। चूंकि जेल में पान मसाले पर पाबन्दी है इसलिए यहां पर कैदी लोग किसी भूखे भेड़िये की तरह गुटका पर गुटका खाए जा रहे थे और चारों तरफ थूके जा रहे थे। कोने में खुला शौचालय था जो पेशाब से लबालब था और जिसकी बदबू पूरे हाॅल में समाई हुई थी। दो तीन कुत्ते भी लाॅकअप में खाने के बिखरे टुकड़ों को संूघ रहे थे।
लेकिन मेरे लिए सबसे भयावह दृश्य यह था कि इसी में कुछ लोग ज़मीन पर बैठ कर पूड़ी सब्ज़ी खा रहे थे। एक हाथ से खा रहे थे और दूसरे हाथ से उसी तरह कुत्तों को अपने खाने से दूर कर रहे थे जैसे अक्सर हम खाते समय मक्खियों को भगाते है। यह देख कर मुझे अपने छात्र जीवन में पढ़े जगदम्बा प्रसाद दीक्षित का उपन्यास ‘मुर्दाघर’ याद आ गया। मुझे उबकाई सी आने लगी। किसी तरह मैंने अपने आप को संभाला। यह सोच कर ही मेरा दिल बैठने लगा कि अभी शायद मुझे भी इसी परिस्थिति में घर से आया खाना खाना पड़ेगा और पेशाब की इस तलैया में डूब कर पेशाब करना पड़ेगा। अब्बू भी इस पूरे माहौल से विचलित था और मेरी गोद से उतरने को तैयार ही नहीं था। लगातार एक ही सवाल किये जा रहा था – ‘मौसा हम अपनी बैरक कब जाएंगे, यहां कितनी देर रहेंगे?’
बहरहाल दोपहर तीन बजे के बाद हमारी तलबी आई और एक सिपाही हमें कोर्ट रूम तक ले गया। वहां सीमा और विश्वविजय मुस्कुराते हुए खड़े थे। यही वह पल था जब हम सब कुछ भूल कर तरोताज़ा हो गए, मानो कीचड़ में कमल खिल गया हो। ख़ैर पांच मिनट की अति संक्षिप्त मुलाकात के बाद हम पुनः उसी कीचड़ में वापस आ गए। अब्बू मेरी बहन से मिल कर खुश हो गया और वापस लौटते हुए बोला- ‘मौसा मेरी बहन झिनुक इस समय क्या कर रही होगी। वह क्यों नहीं आई मुझसे मिलने?’ मैंने कहा -‘इसलिए’। मेरे और अब्बू के बीच यह अक्सर चलता है कि जब किसी को जवाब देने का मन नहीं होता तो दूसरा सिर्फ इतना बोलता है -‘इसलिए’। यह मैंने अब्बू से ही सीखा और आज अब्बू पर ही लागू कर दिया। अब्बू भी आसपास की चीज़ों में व्यस्त हो गया। वापस लाॅकअप में आकर हमें अब गाड़ी में बैठने के लिए लाइन लगानी थी। तभी अब्बू मेरा हाथ झटक कर बोला ‘मौसा उधर देखो। मैंने देखा कि एक अधेड़ उम्र का कैदी ज़मीन पर लेटा हुआ ऐंठ रहा है। मुझे समझते देर न लगी कि उसे दौरा पड़ा है। सभी कैदी उसे घेर कर खड़े हो गए। लेकिन कोई कुछ कर नहीं रहा था। मैं अब्बू को वहीं छोड़ भागकर लाॅकअप के सीखचे तक गया और बाहर खड़े सिपाही को बोला कि एक कैदी को दौरा पड़ा है, वह ज़मीन पर तड़प रहा है और उसके मुंह से झाग निकल रहा है। उस सिपाही के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। किसी रोबोट की भांति जेब से चाभी निकाल कर वह गेट तक आया, ताला खोला और लाॅकअप में घुसा। उसे देखकर घेरे में खड़े कैदियों ने उसे रास्ता दिया। सिपाही ने एक नज़र उस तड़पते व्यक्ति पर डाली और बिना कुछ बोले, बिना किसी भाव के रोबोट की तरह ही वापस चला गया और लाॅकअप में ताला जड़ दिया। यह देख कर मैं दहल गया। ख़ैर कुछ ही देर में वह व्यक्ति सामान्य हो गया और उठ कर बैठ गया। मैंने उसे पानी की बोतल दी। यहां लाॅकअप में इसके अलावा मैं उसे क्या दे सकता था? मैंने सोचा कि इस क्षण हम सब कुछ भी थे लेकिन ‘इन्सान’ नहीं थे। अब्बू के दिमाग में क्या चल रहा था, पता नहीं। लेकिन वह मेरा हाथ कस के पकड़े था और बेहद सहमा हुआ लग रहा था। उसकी तरफ देखते हुए मैंने सोचा -‘यदि अब्बू को कुछ हुआ तो?’ यह सोच कर ही मैं कांप गया और मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने अब्बू को तुरन्त गोद में उठा लिया। अब्बू भी मुझसे लिपट गया। शायद वह भी यही सोच रहा था कि मेरे मौसा को कुछ हुआ तो???

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अब्बू की नज़र में जेल

जेल में हर किसी को जिस एक चीज का बेसब्री से इन्तजार होता है वह है- ‘मुलाकात’। जेल की उमस भरी जिन्दगी में ‘मुलाकात’ ठण्डी बयार की तरह होती है। जिसके कारण कुछ समय तक बन्दियों को जैसे आक्सीजन मिल जाती है। हालांकि मुलाकात की प्रक्रिया अपने आप में बहुत यातनादायी होती है। तमाम अपमानजनक तलाशियों के गुजरते हुए छोटी छोटी जालियों से महज 20 मिनट की मुलाकात, जहां आप अपने मुलाकाती की महज उंगलियां ही छू सकते हैं। लेकिन साल में तीन बार ‘खुली मुलाकात’ का प्रावधान है। होली, दिवाली और ईद के दूसरे रोज बाहर की महिलाएं जेल के पुरूष बन्दियों से खुले में मिल सकती हैं। लेकिन जेल की महिला बन्दियों को इस खुली मुलाकात से बाहर रखा जाता है। तर्क यही रहता है कि महिला बन्दियों को भी खुली मुलाकात की अनुमति दी जायेगी तो वे बाहर से आने वाली महिला मुलाकातियों में शामिल होकर भाग सकती हैं। बहरहाल इस खुली मुलाकात का पुरूष बन्दियों को बेसब्री से इन्तजार रहता है, जब वे आमने सामने अपने लोगों के साथ विशेषकर बच्चों के साथ मानवीय स्पर्श के साथ समय बिता सकते हैं।

तो पेश है- ‘अब्बू की नज़र में जेल’ की दूूसरी किस्त
इसका पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।
सुबह सुबह मैंने अब्बू को जगाते हुए कहा-‘अब्बू उठ आज जेल में खुली मुलाकात है। जल्दी तैयार हो जा।’ अब्बू ने लगभग नींद में ही अंगड़ाई लेते हुए कहा-‘ये खुली मुलाकात क्या होती है?’ मैं कुछ बोलता इससे पहले ही उसने आंख खोल दी और तुरन्त उठ बैठा-‘हां मुझे पता है आज जेल के बीच वाले मैदान में ढेर सारे बच्चे और बड़े लोग आयेंगे बन्दियों से मिलने। मौसा तुरन्त चलना है?’ मैंनं कहा- ‘नहीं अभी टाइम है, चल तुझे तैयार कर दूं।’
मैंने अब्बू को तैयार किया और फिर अब्बू तैयार होकर मेरे साथ अहाते में घूमने लगा और बेसब्री से पूछने लगा-‘हम कब जायेंगे।’ मैंने उसे तसल्ली दी कि अभी हमारा नाम पुकारा जायेगा, हम तब जायेंगे। लाउडस्पीकर से मुलाकातियों के नाम लगातार पुकारे जा रहे थे। सभी बन्दियों के कान लाउडस्पीकर पर ही लगे हुए थे। आज सभी के लिए त्योहार जैसा दिन था। हां वे कैदी निश्चित ही बेहद मायूस थे जिनके यहां से किसी के आने की उम्मीद नहीं थी। अचानक हमारा नाम भी अहाते में गूंजने लगा और अब्बू मेरा हाथ खींचने लगा-‘चलो चलो जल्दी चलो।’ अब्बू मुझे लगातार खींचे जा रहा था और मैं उसे लगातार रोक रहा था कि कहीं कोई सिपाही हमें डांट ना दे।
जैसे ही हमने जेल के मैदान में प्रवेश किया अब्बू एकदम से ठिठक गया और सुखद आश्चर्य से चारो तरफ देखने लगा-‘रंग बिरंगी साड़ियों में महिलाएं और छोटे छोटे बच्चे बच्चियों का पूरा हूजूम उमड़ पड़ा था।’ जो लोग अपने बन्दियों को खोज चुके थे, वे किसी कोने में बैठ कर अपना सुख दुःख साझा कर रहे थे। बच्चे कैदियों के कन्धों पर, गोद में, इधर उधर चारो तरफ उधम मचा रहे थे। जो लोग अपने कैदियों को नहीं खोज पाये थे, वे बेसब्री से इधर उधर नज़र घुमा रहे थे, सिपाहियों से विनती कर रहे थे और थोड़ा बड़े बच्चे उदास नज़रों से मानों पूछ रहे हों-‘मेरे पापा तुम कहां हों।’ अब्बू अचानक मेरी तरफ मुखातिब हुआ और बोला-‘वाह इतने सारे बच्चे। इतने सारे बच्चे तो मेरे स्कूल में भी नहीं थे।’ फिर अब्बू पूरे नज़ारे का मजा लेने के लिए मेरी गोद में चढ़ गया और एक घुड़सवार की तरह मुझे एड़ मारते हुए मेरी आगे बढ़ने की गति निर्धारित करने लगा। अचानक वह उत्तेजित होकर बोला-‘मौसा रूको रूको, उधर देखो।’ फिर वह मेरी गोद से सरक कर मुझे एक दिशा में खींचने लगा। मैंने कहा-‘कहां ले जा रहा है।’ अब्बू ने कहा-‘वो देखो।’ मैंने कहा-‘क्या?’ ‘अरे वो शानू नम्बरदार’, अब्बू ने एक दिशा में इशारा करते हुए कहा। ‘हां तो, मैं तो उसे रोज देखता हूं।’ अब्बू की उत्सुकता मेरी समझ में नहीं आयी। अब्बू ने उसी आश्चर्य वाले भाव में कहा-‘अरे मौसा, वो हंस रहा है।’ अब मैंने ध्यान से देखा। एक 4-5 साल का बच्चा उसके कंधे पर चढ़कर उसके बालों से खेल रहा था और शानू नम्बरदार लगातार हंसे जा रहा था। बाद में मुझे पता चला कि वह उसका भांजा था। अब मुझे बात समझ आयी। पिछले 6 महीनों से हमने उसे कभी भी हंसते या मुस्कराते हुए नहीं देखा था। वह 12 साल से जेल में था। उसे आजीवन कारावास की सजा पड़ी थी। ऐसा लगता था कि उसके चेहरे पर बस एक ही भाव फेवीकोल से चिपका दिया गया हो। लेकिन इस वक्त ठठाकर हंसते हुए ऐसा लग रहा था कि उसके उस ‘स्थाई भाव’ की ऊपरी पट्टी चरचराकर नीचे गिर रही थी और अन्दर से एक नये शानू नम्बरदार का मासूम चेहरा निखर कर सामने आ रहा था। अब्बू के साथ मैं भी इस आध्यात्मिक दृश्य को मंत्र मुग्ध भाव से देखने लगा। अब्बू ने मुझे इस खुली मुलाकात रूपी मेले को देखने की एक नयी दृष्टि दे दी। अब मुझे इस मेले में परिचित कैदियों के एक नये रूप के दर्शन हो रहे थे। बच्चों के साथ खेलते-बात करते हुए कैदियों को देखते हुए मुझे ऐसा लग रहा था मानो चारो तरफ की ऊंची ऊंची जेल की दिवारें धीरे धीरे गिर रही हों और पूरा जेल किसी खूबसूरत पार्क में तब्दील हो रहा है। अब्बू भी शायद यही महसूस कर रहा था।
बैरक में कैदियों को देखते हुए अक्सर मेरे जेहन में गालिब का शेर गूंजा करता था-‘……………आदमी को भी मयस्सर नही इन्सां होना’। आज मुझे इस शेर का जवाब मिल गया। आदमी को ‘इन्सान’ बच्चे ही बनाते हैं।
अचानक से मेरा दिल यह सोच कर बैठने लगा कि अगले 2-3 घण्टे में यह खूबसूरत नजारा खत्म हो जायेगा और फिर से एक उजाड़ ‘बच्चों विहीन दुनिया’ अस्तित्व में आ जायेगी। लेकिन अब्बू सिर्फ वर्तमान में जी रहा था। शायद उसे पता था कि इस वर्तमान में ही भविष्य छिपा है।

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S.D. : Saroj Dutta and His Times



सत्ता के खिलाफ मनुष्य का संघर्ष भूल जाने के खिलाफ याद करने का संघर्ष है।
मिलान कुन्देरा

‘कस्तूरी बसु’ और ‘मिताली विस्वास’ द्वारा निर्देशित डाकूमेन्टरी फिल्म ‘एस डी ः सरोज दत्त एण्ड हिज टाइम्स’ वास्तव में भूलने के खिलाफ याद करने का ही संघर्ष है। नक्सलवादी आन्दोलन के प्रमुख हस्ताक्षर ‘सरोज दत्त’ पर केन्द्रित यह फिल्म उनके बहाने उस पूरे दौर को एक तरह से ‘फ्रीज फ्रेम’ करती है जिसे आशा और उम्मीदों का दशक भी कहा जाता है। इस दौर के नौजवान से जब नौकरी के लिए एक इण्टरव्यू में यह सवाल पूछा जाता है कि 60 के दशक की सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है तो वह कहता है – वियतनाम का युद्ध। इण्टरव्यू लेने वाला पैनल चकित होते हुए कहता है कि इसी दशक में तो मानव चाॅद पर भी गया है। क्या यह बड़ी चीज नहीं है तो नौजवान कहता है कि तकनीक और विज्ञान का जिस तरह से विकास हो रहा था, उससे चाॅद पर जाना अपेक्षित था, लेकिन वियतनाम में साधारण लोगों ने जिस असाधारण साहस और त्याग का परिचय दिया है वह अप्रत्याशित था। ‘सत्यजीत रे’ ने अपनी फिल्म ‘प्रतिद्वन्दी‘ में इस मशहूर दृृश्‍य के बहानेे उस समय के मूड को बखूबी दर्शाया है। नक्सलवादी आन्दोलन उसी कड़ी में साधारण लोगों की असाधारण गाथा है।
फिल्म की शुरूआत सरोज दत्त के रूप मेंं उन्हीं जैसे एक काल्पनिक व्यक्ति के ‘स्लो मोशन’ ब्लैक एण्ड हवाइट इमेज से होती है। भोर का समय है, मैदान में एक व्यक्ति कसरत कर रहा है। तभी गोली चलने की आवाज आती है और यह काल्पनिक सरोज दत्त स्लो मोशन में ही स्क्रीन से नीचे खिसक जाता है। पहला ही दृृश्‍य इतना प्रभावकारी है कि फिर आप फिल्म से बंध जाते है। स्क्रीन पर कसरत करता हुआ दूसरा व्यक्ति कौन था। कहीं यह बंगला फिल्म के मशहूर कलाकार ‘उत्तम कुमार’ की ओर संकेत तो नहीं, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने सुबह की सैर के वक्त सरोज दत्त को पुलिस द्वारा गोली मारते देखा था। लेकिन उन्होंने अपना मुंह कभी नहीं खोला। बस एक बार एक पार्टी में शराब के नशे में उन्होंने यह बात कबूल की। पर फिल्म मेंं इस पहलू पर कोई चर्चा नहीं है।
फिल्म की शुरूआत में सरोज दत्त की पत्नी ‘बेला बोस’ का इण्टरव्यू बेहद रोचक है। आश्‍चर्य होता है कि इस उम्र मेंं भी उनकी यादाश्‍त इतनी ‘शार्प’ है। ‘पोलिटिकली करेक्ट’ क्या है इसकी पकड़ उन्हें अभी भी है। कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेतृृत्व द्वारा तेभागा आन्दोलन को वापस लेने और महिला क्रान्तिकारियों को ‘किचन में वापस जाओ‘ कहने को अभी भी बेला बहुत कड़वाहट से याद करती हैं। वे यह भी याद करती हैं कि कैसे सरोज दत्त ने ‘अमृृत बाजार पत्रिका’ में काम करते हुए मलाया के क्रान्तिकारियों को डाकू कहने से इन्कार कर दिया और प्रतिरोध स्वरूप नौकरी छोड़ दी।
बाद में निमाई घोष, कानू सान्याल, कोंकन मजुमदार आदि उनके समकालीन नक्सलवारियों और आज के बुद्धिजीवियों से इण्टरव्यू के बहाने उनके राजनीतिक जीवन, उनके लेखन और उस दौर के घटनाक्रम पर बखूबी प्रकाश पड़ता है। यहां नक्सलवादी आन्दोलन की मुख्य कड़ी भूमिहीन किसान और उनके विद्रोह को एक परिप्रेक्ष्य देने की कोशिश की गयी है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस आन्दोलन से प्रभावित ज्यादातर फिल्में शहरी नौजवानों की आशाओं आकांक्षाओंं के इर्द गिर्द ही घूमती रही है। इसी अर्थ में चारू मजुमदार के बेटे अभिजीत मजुमदार द्वारा लिया गया आदिवासी महिला ‘मुण्डा‘ का इण्टरव्यू बहुत महत्वपूर्ण है।
फिल्म मेंं सरोज दत्त की उस समय के मशहूर बुद्धिजीवी व फ्रन्टियर के संस्थापक संपादक ‘समर सेन’ के साथ मशहूर बहस का भी जिक्र है जिसकी अनुगंूज आज भी सुनाई देती है। हालांकि इस विषय को बिल्कुल भी खोला नहीं गया है। इस बहस को थोड़ा खोलने से फिल्म को एक नया आयाम मिलता क्योकि यह बहस इन दोनों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि अन्तर्रा’ट्रीय स्तर पर इसमें लूकाज-ब्रेख्त-अन्र्सट फिशर-ज्यादानोव जैसे लोग शामिल थे। बंाग्ला साहित्य में आज भी यह बहस घूम फिर कर सामने आ खड़ी होती है। सुशीतल राय चौधरी के साथ मूर्ति भंजन पर सरोज दत्त की बहस को जरूर थोड़ी जगह मिली है। ‘ईश्‍वरचन्द्र विद्यासागर’ की मूर्ति उस समय नक्सलवादियों द्वारा तोड़ी गयी थी और दुबारा आज यह भाजपाईयोंं द्वारा तोड़ी गयी। प्रतीकात्मक रूप से यह दिखाता है कि पिछले 50 सालों में कुल मिलाकर राजनीति कैसे वाम से दक्षिण की ओर शिफ्ट हुई है। और यह सिर्फ भारत के पैमाने पर नहीं वरन्् विश्‍व के पैमाने पर घटित हुआ है या हो रहा है।
फिल्म में ‘देवीप्रसाद चट््टोपाध्याय’ और ‘मंजूषा चट््टोपाध्याय’ जिस तरह से सरोज दत्त को याद करते हैं, उससे उनके व्यक्तित्व का एक और विराट दरवाजा खुल जाता है। आज 50 साल बाद भी मंजूषा सरोज दत्त को याद करते हुए रो पड़ती हैं मानो कल की ही कोई घटना बयां कर रही हों।
सरोज दत्त और उनके समकालीन क्रान्तिकारी ना सिर्फ नक्सलवादी आन्दोलन की पैदाइश थे, बल्कि उस समय के विश्‍व क्रान्तिकारी आन्दोलन की भी पैदाइश थे। इसे एक दृृश्‍य में बहुत खूबसूरत तरीके से दर्शाया गया है, जहां सरोज दत्त का कल्पनिक चरित्र ट्रेन या ट्राम में बैठा है और उसकी पृृष्‍ठभूमि मेंं विश्‍व के तमाम आन्दोलनों की छवियां (आर्काइवल फुटेज) एक दूसरे मेंं घुल मिल रही हैं। इसी क्रम में ‘पैट्रिक लुमुम्बा’ की अन्तिम दिनो की ‘न्यूज रील’ ‘राउल पेक’ की मशहूर फिल्म ‘लुमुम्बा‘ की याद ताजा कर देती है। ‘न्यूज रील’ और ‘सिनेमा रील’ आपस में घुल मिल जाते है। यथार्थ फिक्‍शन हो जाता है और फिक्‍शन यथार्थ हो जाता है।
फिल्म में सरोज दत्त की कविताओं और उनके अनुवादों का जिस कौशल के साथ सतत इस्तेमाल किया गया है, उसकी जितनी भी तारीफ की जाये कम है। फिल्म में अनेक उप विषयोंं को ध्यान में रखते हुए सरोज दत्त की कविताओं की मूल पांडूलिपि की तस्वीरों की पृृष्‍ठभूमि में जिस तरह उनकी कविताएं स्क्रीन पर लगातार तैरती है, वह बेहद शानदार अनुभव है। यहां ना सिर्फ उनकी कविताओंं का गहरा आस्वाद मिलता है वरन इन कविताओं से उस वक्त चर्चा किये जाने वाले विषयोंं को भी एक गहराई मिल जाती है।
फिल्म अपने करीब 2 घण्टे के इस ‘लांग मार्च’ मेंं कई खूबसूरत जनवादी गीतों का इस्तेमाल करती है। इससे उस समय का मूड ताजा हो जाता है। गौतम घोष की ‘मां भूमि‘ की क्लिपिंग मेंं नौजवान ‘गदर’ को देखना काफी सुखद है। इसी तरह ‘मृृणाल सेन’ और ‘एस सुखदेव’ की फिल्मों की क्लिपिंग्स का बहुत प्रासंगिक व सुन्दर इस्तेमाल किया गया है। बंगाल की सड़कों पर नौजवानों के संघर्ष की ‘आर्काइवल इमेज’ पैट्रीसियों गुजमान की मशहूर फिल्म ‘बैटल आॅफ चिली‘ की याद दिलाते हैं।
फिल्म में दोनों डायरेक्टरों ने जिस तरह आत्म विश्‍वास और बेहद इत्मीनान से खुद भी स्क्रीन साझा किया है उससे ऐसा अहसास होता है कि हम भी उस दौर के इतिहास की उनकी इस खोज मेंं शामिल हैं। यानी उनके साथ हम भी ‘इतिहास के सिपाही’ है।
फिल्म मेंं ‘वर्तमान सेटिंग’ में अनेक जगहों पर ‘सीपीआई एम एल’ के झण्डे लहराते दिखाये गये है। इसके अलावा इसी पार्टी के सीसी सदस्यों द्वारा सरोज दत्त को श्रद्धांजलि देते हुए दिखाया गया है। आज का सीपीआई एम एल (लिबरेशन) सरोज दत्त के जमाने का सीपीआई एम एल नहीं है। इन दृृश्‍योंं से चाहे-अनचाहे कहीं ना कहीं उस दौर के व सरोज दत्त के विशाल व्यक्तित्व को सीमित करने का प्रयास झलकता है। इससे बचा जा सकता था।
इसके अलावा जिस वक्तव्य से फिल्म का समापन किया गया है वह कतई विषय की उदात्तता और उसमें निहित ‘क्रान्तिकारी आशावाद’ से मेल नहीं खाता। 1967 का नक्सलवादी आन्दोलन उस वक्त के सवालों के तमाम जवाबों के कनफ्यूजन से उस समय की पीढ़ी को निकालने का भी आन्दोलन था और आज हमें फिर यह कहना पड़ रहा है कि सवालोंं के कई उत्तर हो सकते हैं? क्या हम पुनः 1967 के पहले वाली स्थिति में पहंुच गये हैं? फिर नक्सलवादी आन्दोलन का सबक क्या है? सरोज दत्त की विरासत क्या है? वह विरासत आज किनके पास है। आज का संकट क्या है? इन सबके कई जवाब नहीं वरन एक ही जवाब है और वह फिल्म के विषय और सरोज दत्त की कविताओं में है। अच्‍छा होता यदि फिल्‍म का समापन सरोज दत्‍त की कविताओं या उनके जैसे किसी क्रान्तिकारी के वक्‍तव्‍य से किया जाता।
मार्क्‍स ने ‘पेरिस कम्‍यून’ की समीक्षा करते हुए अन्‍त में इसका इस तरह समापन किया है- ”यह संघर्ष अपने अनेक विकसित आयामों में बार बार उठ खड़ा होगा और इसमें कोई सन्‍देह नहीं कि अन्‍त में कौन विजयी होगा -शोषण करने वाले कुछ लोग या कामगारों का विशाल बहुमत”।
बहरहाल कुल मिलाकर यह एक जरूरी और कई बार देखी जाने वाली फिल्म है।

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How Narendra Modi Seduced India With Envy and Hate By Pankaj Mishra

The prime minister has won re-election on a tide of violence, fake news and resentment.
Before dawn on Feb. 26, Narendra Modi, the Hindu nationalist prime minister of India, ordered an aerial attack on the country’s nuclear-armed neighbor, Pakistan. There were thick clouds that morning over the border. But Mr. Modi claimed earlier this month, during his successful campaign for re-election, that he had overruled advisers who worried about them. He is ignorant of science, he admitted, but nevertheless trusted his “raw wisdom,” which told him that the cloud cover would prevent Pakistani radar from detecting Indian fighter jets.
Over five years of Mr. Modi’s rule, India has suffered variously from his raw wisdom, most gratuitously in November 2016, when his government abruptly withdrew nearly 90 percent of currency notes from circulation. From devastating the Indian economy to risking nuclear Armageddon in South Asia, Mr. Modi has confirmed that the leader of the world’s largest democracy is dangerously incompetent. During this spring’s campaign, he also clarified that he is an unreconstructed ethnic-religious supremacist, with fear and loathing as his main political means.
India under Mr. Modi’s rule has been marked by continuous explosions of violence in both virtual and real worlds. As pro-Modi television anchors hunted for “anti-nationals” and troll armies rampaged through social media, threatening women with rape, lynch mobs slaughtered Muslims and low-caste Hindus. Hindu supremacists have captured or infiltrated institutions from the military and the judiciary to the news media and universities, while dissenting scholars and journalists have found themselves exposed to the risk of assassination and arbitrary detention. Stridently advancing bogus claims that ancient Hindus invented genetic engineering and airplanes, Mr. Modi and his Hindu nationalist supporters seemed to plunge an entire country into a moronic inferno. Last month the Indian army’s official twitter account excitedly broadcast its discovery of the Yeti’s footprints.
Yet in the election that began last month, voters chose overwhelmingly to prolong this nightmare. The sources of Mr. Modi’s impregnable charisma seem more mysterious when you consider that he failed completely to realize his central promises of the 2014 election: jobs and national security. He presided over an enormous rise in unemployment and a spike in militancy in India-ruled Kashmir. His much-sensationalized punitive assault on Pakistan in February damaged nothing more than a few trees across the border, while killing seven Indian civilians in an instance of friendly fire.

Mr. Modi did indeed benefit electorally this time from his garishly advertised schemes to provide toilets, bank accounts, cheap loans, housing, electricity and cooking-gas cylinders to some of the poorest Indians. Lavish donations from India’s biggest companies allowed his party to outspend all others on its re-election campaign. A corporate-owned media fervently built up Mr. Modi as India’s savior, and opposition parties are right to suggest that the Election Commission, once one of India’s few unimpeachable bodies, was also shamelessly partisan.
None of these factors, however, can explain the spell Modi has cast on an overwhelmingly young Indian population. “Now and then,” Lionel Trilling once wrote, “it is possible to observe the moral life in process of revising itself.” Mr. Modi has created that process in India by drastically refashioning, with the help of technology, how many Indians see themselves and their world, and by infusing India’s public sphere with a riotously popular loathing of the country’s old urban elites.
Rived by caste as well as class divisions, and dominated in Bollywood as well as politics by dynasties, India is a grotesquely unequal society. Its constitution, and much political rhetoric, upholds the notion that all individuals are equal and possess the same right to education and job opportunities; but the everyday experience of most Indians testify to appalling violations of this principle. A great majority of Indians, forced to inhabit the vast gap between a glossy democratic ideal and a squalid undemocratic reality, have long stored up deep feelings of injury, weakness, inferiority, degradation, inadequacy and envy; these stem from defeats or humiliation suffered at the hands of those of higher status than themselves in a rigid hierarchy.
I both witnessed and experienced these explosive tensions in the late 1980s, when I was a student at a dead-end provincial university, one of many there confronting a near-impossible task: not only sustained academic excellence, but also a wrenching cultural and psychological makeover in the image of the self-assured, English-speaking metropolitan. One common object of our ressentiment — an impotent mix of envy and hatred — was Rajiv Gandhi, the deceased father of main opposition leader Rahul Gandhi, whom Mr. Modi indecorously but cunningly chose to denounce in his election campaign. An airline pilot who became prime minister largely because his mother and grandfather had held the same post, and who allegedly received kickbacks from a Swedish arms manufacturer into Swiss bank accounts, Mr. Gandhi appeared to perfectly embody a pseudo-socialist elite that claimed to supervise post-colonial India’s attempt to catch up with the modern West but that in reality single-mindedly pursued its own interests.
There seemed no possibility of dialogue with a metropolitan ruling class of such Godlike aloofness, which had cruelly stranded us in history while itself moving serenely toward convergence with the prosperous West. This sense of abandonment became more wounding as India began in the 1990s to embrace global capitalism together with a quasi-American ethic of individualism amid a colossal population shift from rural to urban areas. Satellite television and the internet spawned previously inconceivable fantasies of private wealth and consumption, even as inequality, corruption and nepotism grew and India’s social hierarchies appeared as entrenched as ever.
No politician, however, sought to exploit the long dormant rage against India’s self-perpetuating post-colonial rulers, or to channel the boiling frustration over blocked social mobility, until Mr. Modi emerged from political disgrace in the early 2010s with his rhetoric of meritocracy and lusty assaults on hereditary privilege.
India’s former Anglophone establishment and Western governments had stigmatized Mr. Modi for his suspected role — ranging from malign indifference to complicity and direct supervision — in the murder of hundreds of Muslims in his home state of Gujarat in 2002. But Mr. Modi, backed by some of India’s richest people, managed to return to the political mainstream, and, ahead of the 2014 election, he mesmerized aspiring Indians with a flamboyant narrative about his hardscrabble past, and their glorious future. From the beginning, he was careful to present himself to his primary audience of stragglers as one of them: a self-made individual who had to overcome hurdles thrown in his way by an arrogant and venal elite that indulged treasonous Muslims while pouring contempt on salt-of-the-earth Hindus like himself. Boasting of his 56-inch chest, he promised to transform India into an international superpower and to reinsert Hindus into the grand march of history.
Since 2014, Mr. Modi’s near-novelistic ability to create irresistible fictions has been steadily enhanced by India’s troll-dominated social media as well as cravenly sycophantic newspapers and television channels. India’s online population doubled in the five years of Mr. Modi’s rule. With cheap smartphones in the hands of the poorest of Indians, a large part of the world’s population was exposed to fake news on Facebook, Twitter, YouTube and WhatsApp. Indeed, Mr. Modi received one of his biggest electoral boosts from false accounts claiming that his airstrikes exterminated hundreds of Pakistanis, and that he frightened Pakistan into returning the Indian pilot it had captured.
Mr. Modi is preternaturally alert to the fact that the smartphone’s screen is pulling hundreds of millions of Indians, who have barely emerged from illiteracy, into a wonderland of fantasy and myth. An early adopter of Twitter, like Donald Trump, he performs unceasingly for the camera, often dressed in outlandish costumes. After decades of Western-educated and emotionally constricted Indian leaders, Mr. Modi uninhibitedly participates — whether speaking tearfully of his poverty-stricken past or boasting of his bromance with Barack Obama — in digital media’s quasi-egalitarian culture of exhibitionism.
India has witnessed a savage assault on not just democratic institutions and rational discourse but also ordinary human decency.
Posing last weekend as a saffron-robed monk in a cave at a Hindu pilgrimage site, Mr. Modi provoked much mockery among India’s English-speaking intelligentsia. But to many Indians who felt scorned and marginalized by a westernized establishment, an unabashedly Hindu politician with thickly-accented English has appeared, as the novelist Aatish Taseer claimed in 2014, “a rare instance of India trusting to herself, throwing up one of her own, one who did not have the blessings of the West at all.”
He was certainly fortunate to have in Rahul Gandhi a live mascot of India’s defunct dynastic politics and insolvent ideological centrism. However, contrary to what many neoliberal commentators in India and the West hoped for, Mr. Modi is far from alchemizing the passions of left-behind Indians into spectacular economic growth. Rather, he has opened up what Friedrich Nietzsche, speaking of the “men of ressentiment,” called “a whole tremulous realm of subterranean revenge, inexhaustible and insatiable in outbursts.”
Mr. Modi’s appointed task in India is the same as that of many far-right demagogues: to titillate a fearful and angry population with the scapegoating of minorities, refugees, leftists, liberals and others while accelerating predatory forms of capitalism. He may have failed to create job opportunities for disadvantaged Indians. But he has sanctioned them, with his own vengeful contempt for English-speaking elites, to raucously talk back to, and shout down, the already privileged. In lieu of any liberation from injustice, he has emancipated the darkest of emotions; he has licensed his supporters to explicitly hate a range of people from perfidious Pakistanis and Indian Muslims to their “anti-national” Indian appeasers.
As Mr. Modi allowed long-simmering ressentiment to erupt volcanically, India witnessed a savage assault on not just democratic institutions and rational discourse but also ordinary human decency. The India that Mr. Modi has made was never more accurately summed up than both in the demonstrations last year, led by women, and the justifications offered by politicians, police officials and lawyers in support of eight Hindu men accused of raping and murdering an eight-year-old Muslim girl.
Intoxicating voters with the seductive passion of vengeance, and grandiose fantasies of power and domination, Mr. Modi has deftly escaped public scrutiny of his record of raw wisdom — one that would have ruined any other politician. Back in 2014, the Hindu supremacist pioneered the politics of enmity that corrodes many democracies today. This week, he triumphantly reaped one of the biggest electoral harvests of the post-truth age, giving us more reason to fear the future.
Pankaj Mishra is the author, most recently, of “Age of Anger: A History of the Present.”
Curtsey- www.nytimes.com

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The People Vs Tech: How the Internet is Killing Democracy (and how We Save It) by Jamie Bartlett

‘फ्रांसिस फुकोयामा’ के इतिहास के अन्त की घोषणा के ठीक 16 साल बाद ‘क्रिस एण्डरसन’ ने 2008 में अपने एक लेख में थ्योरी के अन्त (The End of Theory: The Data Deluge Makes the Scientific Method Obsolete) की भी घोषणा कर दी। जहां आंकड़ों की बाढ़ हो, वहां थ्योरी की क्या जरूरत है। ‘यूवल नोह हरारी’ ने इसे आंकड़ावाद (dataism) कहा है। इतिहास के अन्त के बाद अब थ्योरी के अन्त और आंकड़ावाद के इस दौर में मनुष्य और लोकतंत्र का भविष्य क्या है। डाटा के पहाड़ पर बैठी गूगल व फेसबुक जैसी टेक कम्पनियां किस तरह से दुनिया के तमाम देशों की लोकतान्त्रिक संस्थाओं को दीमक की तरह चाट रही हैं और इनके साथ मिलकर सरकारें पूरी दुनिया को एक एक्वेरियम [Aquarium] मे तब्दील कर रही है, इसी गंभीर विषय को ‘जेमी बार्टलेट’ ने अपनी पुस्तक The People Vs Tech: How the Internet is Killing Democracy (and how We Save It) में उठाया है।
यह किताब मुख्यतः पश्चिमी लोकतंत्र और वहां फेसबुक व गुगल जैसी विशालकाय टेक कम्पनियों के साथ इसके तनावपूर्ण रिश्ते की पड़ताल करती है। लेकिन इसका सन्दर्भ पूरी दुनिया पर लागू होता है।
जेमी बार्टलेट टेक कम्पनियों की ही भाषा में समस्या को इस तरह से सामने रखते है। लोकतंत्र का ‘हार्डवेयर’ और ‘साफ्टवेयर’ दोनों होता है। हार्डवेयर है वह संरचना जिसके तहत वोट डाले जाते है, फिर उसकी गिनती होती है आदि आदि। साफ्टवेयर है उस जनता का दिमाग जिसका प्रयोग करके वे उपयुक्त उम्मीदवार को वोट डालते है। लेखक कहते हैं कि हार्डवेयर तो वही है लेकिन साफ्टवेयर को यानी हमारे दिमाग को लगातार इन कम्पनियों द्वारा हैक किया जाता है या उसे प्रभावित किया जाता है। और जाहिर सी बात है कि यह किसी एक पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में किया जाता है। इससे सत्ता और इन टेक कम्पनियों का गठजोढ़ स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा बन जाता है। लेखक अपने तर्क केे पक्ष में डोनाल्ड ट्रम्प के चुनाव का उदाहरण देता है। जिसे ‘कैम्ब्रिज एनालिटिका’ ने डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में सफलतापूर्वक प्रभावित किया। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने स्वीकारा कि उसने फेसबुक से मिले डाटा का इस्तेमाल किया। डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थन में यह प्रचार अभियान इतना विशेषीकृत था कि आश्चर्य होता है। कामकाजी माओं को जब डोनाल्ड ट्रम्प का प्रचार प्रेषित किया गया तो उन्हें डोनाल्ड ट्रम्प की सिर्फ आवाज सुनाई गयी। इसके पीछे का तर्क यह था कि गोरे अमरीकी पुरूषों के बीच ट्रम्प की जो ताकतवर नस्लवादी पितृसत्तावादी इमेज गढ़ी गई थी उससे कामकाजी महिलाएं अपने को नहीं जोड़ पायेगी। इसलिए उन्हें सिर्फ आवाज सुनाई गयी वह भी बहुत नरम आवाज में। यहां तक कि ट्रम्प जब अपने चुनाव में आनलाइन चंदा इकट्ठा कर रहे थे तो स्क्रीन पर जो बटन दिखायी देता था वह किसी के लिए लाल रंग का होता था, किसी के लिए हरे रंग और किसी के लिए नीले रंग का। यह व्यक्ति की उसके रंग की पसंद के अनुसार किया गया था। जाहिर है इसे व्यक्तिगत आंकड़ों को बिना उस व्यक्ति की अनुमति के इकट्ठा करके उसकी प्रोफाइलिंग बनाके किया गया था। पहले के प्रचार और आज के प्रचार में यही फर्क है। पहले यदि प्रचार की एक होर्डिग लगी है तो उसे कोई भी देख सकता है। लेकिन डाटा के इस युग में मेरे फोन पर मेरी प्रोफाइलिंग के आधार पर प्रचार आयेगा और आपके फोन पर आपकी प्रोफाइलिंग के आधार पर। यहां आप थ्योरी के अन्त की बात समझ सकते हैं। कोई व्यक्ति क्यो एक खास वेबसाइट्स पर जाता है, इसके पीछे के कारणों को जानने की अब कोई जरूरत नहीं है। टेक कम्पनियों के पास यह आंकड़ा है कि आप इन साइट्स पर जाते है। उन्हें बस इसी आकड़े की जरूरत है। जिन्हें वे अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकते हैं, सरकारों के साथ साझा कर सकते हैं या दूसरी कम्पनियों को बेच सकते है।
किताब की दूसरी महत्वपूर्ण प्रस्थापना यह है कि ‘कनेक्टिविटी’ और ‘वैश्वीकरण’ के इस दौर में हम ‘ट्राइबलवाद’ की ओर जा रहे हैं। लेखक के अनुसार डाटा की बाढ़ ने जनता के बीच की विभिन्नताओं को बुरी तरह से उभार दिया है। लेखक ने उदाहरण दिया है कि भले ही हम अपनी भौगोलिक जगह पर अकेले ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ हो लेकिन इंटरनेट के माध्यम से हमेे यह पता चल जाता है कि दुनिया में दूसरी जगहों पर ‘गे’ या ‘लेस्बियन’ किस हालात में रह रहे हैैं और उनके साथ उनका समाज कैसे पेश आ रहा है। इसी प्रक्रिया में इस तरह के सभी ‘ट्राइब‘ नेट पर अपने जैसे लोगो की तलाश में रहते हैं और उनके साथ लगातार जुड़ते रहते हैं। इस तरह कनेक्टिविटी के साथ साथ ही एक तरह की ‘रिवर्स कनेक्टिविटी’ भी चलती रहती है। और अपने अपने पुर्वाग्रहों के कारण इन ‘ट्राइब्स‘ में दूरियां बढ़ती रहती हैं।
यहां लेखक एक समान्यीकरण का शिकार हो गया है। वह इन ‘ट्राइब्स‘ में शोषित और शोषक या सटीक रूप से कहे तो दबाने वाला और दबा हुआ का बुनियादी फर्क भूल जाता है। निश्चय ही इण्टरनेट ने इस फर्क को बढ़ाया है, लेकिन यह फर्क समाज में पहले से है और इसके अपने निश्चित सामाजिक आर्थिक संास्कृतिक व राजनीतिक कारण हैं।
लेखक ने इस महत्वपूर्ण पहलू की ओर भी संकेत किया है कि गूगल, फेसबुक जैसी विशालकाय कम्पनियां सिर्फ अपनी रिसर्च के बल पर इतनी बड़ी नहीं बनी है। बल्कि इसके पीछे सैकड़ों उन छोटी ‘स्टार्टअप’ कम्पनियों की रिसर्च है जिन्हें ये कम्पनियां समय समय पर निगलती रही है। और आज भी निगल रही हैं। अपने देश में ही ‘ओला’ और ‘फ्लिपकार्ड’ का हस्र हम जानते है। हालांकि लेखक ने इस पहलू को नजरअंदाज किया है कि वास्तव में यह राज्य प्रायोजित फंडिग से संभव हुए रिसर्च का फायदा उठाकर ही ये कम्पनियां आगे बढ़ी है। ‘अप्रानेट’ (जिसे आज इण्टरनेट कहा जाता है) और ‘टच स्क्रीन’ जैसी बुनियादी चीजों की खोज जनता के पैसे से चलने वाले अनुसंधान कार्यक्रमों में हुई है। 1980-90 के बाद के निजीकरण ने इन खोजो का फायदा इन टेक कम्पनियों की झोली में डाल दिया। पिछले साल आई ‘Mariana Mazzucato’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘The Entrepreneurial State: Debunking Public vs. Private Sector Myths’ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। भारत में भी हमेशा से ही पब्लिक सेक्टर का ‘आउटपुट’ प्राइवेट सेक्टर का ‘इनपुट’ हुआ करता था।
लेखक ने इस बात को भी बहुत ही मजेदार तरीके से बताया है कि सभी टेक कम्पनियां लोगों को अपनी टेक्नालाजी के माध्यम से एक सुन्दर भविष्य के सपने के बारे में भरोसा करने को कहती है लेकिन वे लोग व्यक्तिगत तौर पर सुन्दर भविष्य में यकीन नहीं रखते। क्योकि उन्हें पता हैं कि वे अपने बिजनेस माडल के माध्यम से पूरी दुनिया में जो असमानता निर्मित कर रहे हैैं वह किसी ना किसी दिन सामाजिक भूकम्प जरूर लायेगा। इसलिए इन टेक कम्पनियों के मालिक पृथ्वी पर चारों तरफ सम्पत्तियां खरीद रहे है। ताकि एक जगह कोई दिक्कत हो तो तुरन्त दूसरी जगह बसा जा सके। कुछ तो परमाणु रोधी बंकर तक का निर्माण करा रहे है।
इसके अलावा लेखक ने ‘इण्टरनेट आफ थिंग्स’ (Internet of things) के बारे में भी रोचक तरीके से बताया हैं। जब वस्तुएं जैसे आपकी फ्रिज, कार, एयरकंडीशन आदि भी इण्टरनेट से जुड़ जायेंगे और आपस में ‘बात‘ करने लगेंगे तब आपके बारे में जो विशाल डाटा प्रवाहित होगा, उस पर कब्जा रखने वाली कम्पनियां इसका कुछ भी दुरूपयोग कर सकती हैं। और इन कम्पनियों से सांठ गांठ करके राज्य आपको एक्विेरियम [Aquarium] की एक छोटी मछली के रूप में तब्दील करने की क्षमता प्राप्त कर लेगा।
दरअसल लेखक ने जिन खतरों की ओर इशारा किया है, खतरा दरअसल उससे कहीं बड़ा है। खतरा ‘सर्विलान्स कैपीटलिज्म’ (Surveillance capitalism) का है, जो आज के बदले हुए राजनीतिक आर्थिक हालात में और कुछ नहीं बल्कि ‘फासीवाद’ है।
तमाम खूबियों और रोचक शैली के बावजूद इस किताब की बड़ी कमजोरी यह हैै कि यह टेक्नोलाजी को समाज में मौजूद वर्ग सम्बन्धों से अलग करकेे देखती है। इसलिए 20 सूत्री इसका समाधान भी कृत्रिम और यूटोपियन है। दरअसल जो दिक्कत टेक कम्पनियों के साथ बतायी गयी है ठीक उसी तरह की दिक्कत विज्ञान की दुसरी तकनीकों या धाराओं के साथ भी है और रही है। उदाहरण के लिए मेडिसिन के क्षेत्र में क्या हो रहा है। मुनाफे की जकड़न ने ‘प्रेस्क्रिप्शन डेथ’ (Prescription death) नामक एक नया शब्द ही गढ़ दिया है। अकेले अमरीका में 2017 में कुल 72000 लोग दवाओं के ओवरडोज या गलत दवाओं के कारण मरे। यानी 200 लोग प्रति दिन। इसमें डाक्टरों द्वारा लिखी जाने वाली गैर जरूरी दवाओं और प्रचार के असर में खुद मरीजों द्वारा दुकान से खरीदी गयी दवाएं शामिल हैं। एक ‘जीन रिसर्च प्रोग्राम’ को फंड कर रही ‘गोल्डमान साक’ [Goldman Sachs] की एक रिपोर्ट पिछले साल ही लीक हो गयी थी जिसमें उसने कहा कि कैसर के इलाज के लिए किया जा रहा जीन रिसर्च अच्छा बिजनेस माडल नहीं है। क्योकि जीन में परिवर्तन करने से व्यक्ति को अपने जीवन में कभी भी कैन्सर नहीं होगा और इससे दवा उद्योग को लगातार मिलने वाला मुनाफा बन्द हो जायेगा।
दूसरी बड़ी दिक्कत लेखक की यह है कि जब समाधान की बात आती है तो वे मध्य वर्ग की तरफ आशा भरी नजर से देखते हैं। समाज की निचली पायदान पर बैठे वर्ग यानी मजदूरों-किसानों को वे अपने डिस्कोर्स में जगह ही नहीं देते। जबकि बड़ी टेक कम्पनियों सहित तमाम कम्पनियों की मुनाफे की हवस के सबसे ज्यादा शिकार ये वर्ग ही है।
आज जब यह कहा जा रहा है कि ‘Data is the new oil’ तो यह नया आयल आम जनता का ही है। और इस आयल पर जनता की कब्जेदारी के साथ साथ आर्थिक राजनीतिक व सांस्कृतिक सस्थाओं व नीतियो पर भी इनकी कब्जेदारी से ही दुनिया बच सकती है और मानवजाति का भविष्य बच सकता है।

जेमी बार्टलेट ने इसी विषय पर बीबीसी के साथ मिलकर ‘सीक्रेट्स आफ सिलीकान वैली’ (Secrets Of Silicon Valley ) नामक महत्वपूर्ण डाकूमेन्ट्री भी बनायी है। उसे भी देखा जा सकता है।

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