Gas Wars, Sahara: The Untold Story, The Descent of Air India

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इस वर्ष मार्च, अप्रैल और मई में कारपोरेट भ्रष्टाचार (पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर दोनो) और सरकार से उनके सांठगांठ पर तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुई। भारत में यह एक नई शुरुआत है। क्योकि इससे पहले इस विषय पर नजर डालने से मात्र एक ही किताब नजर आती थी- आस्ट्रेलियाई पत्रकार Hamish MacDonald की ‘Polyester Prince’ जो रिलायन्स इण्डस्ट्रीज का विशेषकर ‘धीरुभाई अंबानी’ का कच्चा चिट्ठा खोलती है। हालांकि 90 के दशक में छपी इस किताब को भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था। लेकिन इसकी पायरेटेड कापी धड़ल्ले से भारत में बिकती रही।
इन तीनो किताबों को भी रोकने का भरपूर प्रयास किया गया लेकिन किसी तरह ये किताबें अब मार्केट में आ चुकी हैं।
बहरहाल, ये किताबें हैं ‘Tamal Bandyopadhyay’ की ‘Sahara: The Untold Story’, ‘Jitendra Bhargava’ की ‘The Descent of Air India’ और ‘Paranjoy Guha Thakurta’ की ‘Gas Wars:crony capitalism and the Ambanis’ । तीनो ही किताबों पर मानहानि का दावा क्रमशः सुब्रत राय, प्रफुल्ल पटेल (यूपीए सरकार में ‘Civil Aviation Minister’ ) और मुकेश अंबानी ने ठोका और किताब पर बैन की मांग की। सुब्रत राय और मुकेश अंबानी ने तो क्रमशः 200 करोड़ और 100 करोड़ का मानहानि का दावा ठोक दिया। नतीजा यह हुआ कि ‘The Descent of Air India’ के प्रकाशक ‘Bloomsbury India’ ने बिना लेखक से मशवरा किये एकतरफा तरीके से सार्वजनिक मांफी मांग ली और किताबें मार्केट से हटा ली। जबकि लेखक मुकदमा लड़ने को तैयार था। लेखक ‘Air India’ के Executive Director रह चुके हैं। मजबूरत लेखक ने अपनी किताब की ई-कापी जारी की। दूसरे मामले में अन्ततः लेखक को किताब में मजबूरन ‘डिसक्लेमर’ लगाना पड़ा,और तब जाकर किताब प्रकाशित हो पायी। तीसरा मामला तो और भी महत्वपूर्ण है। Paranjoy Guha Thakurta की ‘Gas Wars’ को कोई भी प्रकाशक छापने को तैयार नही हुआ। ‘पालिस्टर प्रिन्स’ का उदाहरण सबके सामने था। अन्ततः लेखक को मजबूरन खुद ही इसे छापना और वितरित करना पड़ा। इस किताब पर मुकदमा अभी कोर्ट में चल रहा है। जहां मुकेश अंबानी ने लेखक पर 100 करोड़ का मानहानि का मामला दर्ज किया है।
इन तीनो किताबों में सबसे महत्वपूर्ण है Paranjoy Guha Thakurta की ‘Gas Wars:crony capitalism and the Ambanis’ । बहुत ही शोध के साथ लिखी इस किताब से पता चलता है कि हमारे देश में राजनीति और व्यवसाय का जो मकड़जाल (इसे लेखक ने उचित ही क्रोनी कैपिटलिज्म की संज्ञा दी है।) है वो प्रायः हमारी आंखों से ओझल रहता है। मीडिया या तो इस पर पर्दा डालता है या फिर इस मकड़जाल का हिस्सा होता है। ‘पी. साइनाथ’ तो इससे आगे जाकर कहते हैं कि क्रोनी कैपिटलिज्म में ‘क्रोनी’ मीडिया ही है।
बात शुरु होती है सन 2000 से जब कृष्णा गोदावरी बेसिन के ब्लाॅक की नीलामी शुरु हुई। रिलायन्स ने यह बोली जीत ली और उसने भारत सरकार के साथ समझौता करके उन ब्लाकों से गैस निकालकर भारत सरकार को बेचने का अधिकार पा लिया। भारत में तेल और गैस निकालने वाली सबसे बड़ी कम्पनी सार्वजानिक क्षेत्र की ‘ओएनजीसी’ है। केजी बेसिन भी ओएनजीसी की ही खोज है। यह भी ध्यान रहे कि इसे उत्पादन लायक बनाने में ओएनजीसी नीलामी के पहले ही काफी खर्च कर चुकी है।
लेखक ने बड़े दिलचस्प तरीके से बताया है कि रिलायन्स को यह नीलामी जितवाने में ओएनजीसी के बड़े अधिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। और नीलामी से पहले रिलायन्स को महत्वपूर्ण गोपनीय सूचनाएं सप्लाई की। ओएनजीसी के पूर्व चेयरमैन ‘सुबीर राहा’ ने भी बाद में बताया कि उनके द्वारा पद संभालने के बाद उन्होने बहुत सी महत्वपूर्ण फाइले मिसिंग पायी। बाद की घटनाओं ने इन्हे और भी पुष्ट कर दिया, जब रिलायन्स को केजी बेसिन का ठेका मिलते ही ओएनजीसी के कई बड़े अधिकारी रिलायन्स में शामिल हो गये।
रिलायन्स के साथ सरकार का समझौता भी बड़ा अजीबोगरीब है। समझौते के अनुसार जब तक रिलायन्स अपने निवेश के बराबर की राशि गैस बेचकर नहीं निकाल लेती तब तक सरकार को कोई प्राफिट नही मिलेगा। इस लूप होल्स का फायदा उठाकर रिलायन्स अपना निवेश बढ़ता जा रहा है और 14 साल बाद भी सरकार को वस्तुतः कोई प्रोफिट नही मिला है। लेखक का कहना है कि ज्यादा संभावना है कि रिलायन्स अपने निवेश में यह बढ़ोत्तरी महज अकाउन्ट में ही करता होगा। असल में नही। यह बात इससे भी पुष्ट होती है कि रिलायन्स अभी तक इसकी आडिट सीएजी से कराने को तैयार नही है। सीएजी कई बार सरकार को इसकी दरख्वास्त दे चुकी है कि रिलायन्स का आडिट किया जाय ताकि पता चले कि वस्तुतः केजी बेसिन में कितना निवेश हुआ है और गैस निकालने पर कितना खर्च आ रहा है। लेकिन सरकार ने अभी तक कोई कार्यवाही नही की है। यह मुद्दा गैस के दाम से सीधे रुप से जुड़ा है। नीलामी के समय रिलायन्स ने $2.34 प्रति यूनिट की दर से एनटीपीसी जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को गैस देने का वादा किया था। उसके बाद बढ़ते निवेश और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में गैस के बढ़ते दाम का वास्ता देकर जून 2007 में गैस का दाम $4.20 प्रति यूनिट करा लिया। यूपीए के समय जो बेहिसाब मंहगायी बढ़ी उसका एक बढ़ा कारण यह वृद्धि थी। क्योकि इससे फर्टलाइजर, पावर व यातायात पर सीधा असर पड़ा। ‘मणिशंकर अय्यर’ ने बाद में इस पर चुटकी लेते हुए कहा कि यह दाम यानी $4.20 भारतीय दंड संहिता की धारा 420 की याद दिलाता है। बहरहाल रिलायन्स का पेट इससे भी नही भरा तो उसने दाम और बढ़ाने की मांग की। रिलायन्स के दबाव में सरकार ने इसके लिए ‘रंगराजन कमेटी’ का गठन किया। इसी रिपोर्ट के आधार पर पिछली सरकार ने गैस का दाम पुनः बढ़ाकर $8.30 प्रति यूनिट कर दिया। इसे 1 अप्रैल 2014 से लागू किया जाना था, लेकिन चुनाव आचार संहिता के कारण चुनाव आयोग ने इस पर रोक लगा दी। अब नयी सरकार को इसे लागू करना है। उम्मीद है कि जुलाई से इसे लागू कर दिया जायेगा। इसके लागू होने से एक बार फिर मंहगाई आसमान छूने लगेगी। लेकिन इसके साथ ही रिलायन्स का मुनाफा भी आसमान छूने लगेगा। सरकार को ज्यादा चिंता रिलायन्स के मुनाफे की है ना कि मंहगाई की। रंगराजन कमेटी ने दाम बढाने का जो फार्मूला निकाला वह भी बड़ा अजीबो गरीब है। रंगराजन कमेटी ने दुनिया के चंद देशों में गैस के दाम का औसत निकाला। और कुछ गुणा भाग करके इस नतीजे तक पहुंच गये। मजे की बात यह है कि इसमें जापान भी शामिल है जो शत प्रतिशत गैस का आयात करता है। और वहां गैस के दाम सबसे ज्यादा है। सवाल बहुत सीधा है, हम अपने घर की चीज का दाम लगाने के लिए दुनिया का चक्कर क्यों लगा रहे है।
गैस के दाम को लेकर चली मुकेश और अनिल अंबानी की लड़ाई का भी बहुत विस्तृत और रोचक विवरण इसमें पेश किया गया है। हालांकि यह अनावश्यक रुप से काफी विस्तृत है और इसलिए कहीं कहीं बोरिंग भी है। खैर दोनो भाइयों की लड़ाई में जो मुख्य बात है वह यह है कि रिलायन्स के बंटवारे के समय दोनों भाइयों में लिखित समझौता हुआ था कि अनिल के दादरी पावर प्लान्ट के लिए मुकेश केजी बेसिन से $2.34 प्रति यूनिट की दर से पर्याप्त गैस उपलब्ध करायेंगे। मुकेश बाद में इससे मुकर गये और कहा कि वह अनिल को उसी दर से गैस देंगे जिस दर पर वह सरकारी कम्पनियों को देंगे और सरकार की प्राथमिकता के हिसाब से ही देंगे। सरकार ने जो प्राथमिकता सूची बनायी है उसमें फर्टिलाइजर पहले और पावर सेक्टर दूसरे स्थान पर है। अनिल अंबानी कोर्ट चले गये। मुंबई हाई कोर्ट ने अनिल अंबानी के पक्ष में फैसला सुनाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मुकेश की जीत हुई और अनिल अंबानी की महत्वाकांक्षी योजना खटाई में पड़ गयी। यहां सवाल यह है कि भारत के एक प्राकृतिक संसाधन पर कब्जेदारी के लिए दो भाई इस तरह से लड़ रहे है मानों यह उनकी अपनी पुश्तैनी संपत्ति हो और सरकार, जिसे जनता की ओर से प्राकृतिक संसाधनों का ट्रस्टी माना जाता है, वह इस सम्बन्ध में मूकदर्शक बनी हुई है। यहा तक की हाई कोर्ट ने भी, दोनो भाइयों के बीच गैस के बंटवारे को लेकर जो समझौता हुआ था, उसे कानूनन सही ठहराया और पुश्तैनी संपत्ति के बंटवारे की तरह अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने जरुर इसे राष्ट्रीय संपत्ति बताते हुए सरकार को उसके कर्तव्य की याद दिलायी।
इस मामले का सबसे गम्भीर पहलू यह है कि 2009 के बाद रिलायन्स ने जितना गैस निकालने का वादा किया था उससे महज 15 प्रतिशत ही निकाल रही है। कम गैस का कारण तकनीकी समस्या बतायी जा रही है। जबकि सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा है कि रिलायन्स जानबूझ कर यह कमी कर रहा है। यह एक तरह की जमाखोरी है। एक तरफ रिलायन्स इससे सरकार को ब्लैकमेल करके गैस के दाम बढ़वाना चाह रही है वही दूसरी तरफ वह ज्यादा से ज्यादा गैस उस समय के लिए सुरक्षित रख रही है जब गैस के दाम बढ़ जायेगे और वह उन्हे मंहगे दामों पर बेच सकेगा। सीएजी की इसी रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री ‘जयराम रमेश’ ने रिलायंस पर 1.8 बिलियन डालर का जर्मुाना लगा दिया। जयराम रमेश को इसकी कीमत अपनी कुर्सी देकर चुकानी पड़ी। इस पूरे घटनाक्रम का काफी रोचक ब्योरा लेखक ने दिया है।
समझौते के अनुसार एक समय सीमा में रिलायन्स को एक एक करके सभी ब्लाॅक्स सरकार को लौटाने होंगे ताकि सरकार इन्हे दुबारा से नीलाम कर सके। लेकिन अभी तक रिलायन्स ने एक भी ब्लॅाक सरकार को नही लौटाया है। वस्तुतः रिलायन्स ने 7000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर अवैध कब्जा जमाया हूआ है।
दूसरा इससे जुड़ा मामला यह है कि अगस्त 2011 में रिलायन्स ने गैस निकालने के अपने 21 ब्लॅाक्स में 30 प्रतिशत हिस्सेदारी ब्रिटिश पेट्रोलियम को 7.2 बिलीयन डालर में बेच दी। यह उसी तरह का मामला है कि जैसे मैने आपको अपना 3 कमरों वाला मकान किराये पर दिया और आपने बिना मुझसे पूछे इसका एक कमरा दुबारा किराये पर उठा दिया। आखिरकार ये ब्लॅाक्स राष्ट्रीय संपत्ति है, अंबानी की कोई निजी मिल्कियत नही। लेकिन सरकार ने इस पर कोई आपत्ति नही की।
इससे जुड़ा एक मामला तो और भी संगीन है। दरअसल ओएनजीसी और रिलायन्स के ब्लाक्स केजी बेसिन में काफी पास पास हैं। ओएनजीसी ने कई बार रिलायन्स पर गंभीर आरोप लगाये हैं कि वह गुप्त तरीके से ओएनजीसी के कुएं से गैस चुरा रहा है। लेकिन अभी तक सरकार ने इस पर कोई कदम नही उठाया है।
इससे जुड़ा एक और मामला अत्यन्त गंभीर है, लेकिन उस पर सबसे कम ध्यान दिया जाता है। वह है पर्यावरण का। कृष्णा और गोदावरी आन्ध्र प्रदेश की दो महत्वपूर्ण नदियां है। या वो कहे कि ये दोनो नदियां प्रदेश की जीवन रेखा हैं। केजी बेसिन से गैस निकालने की प्रक्रिया में जो ‘प्रेशर लास’ होगा उससे आसपास के उर्वर क्षेत्र डूब जायेंगे। एक अनुमान के अनुसार इस प्रक्रिया में 100 लाख टन चावल पैदा करने जितनी जमीन डूब जायेगी। इस क्षेत्र को अभी ‘धान का कटोरा’ कहा जाता है। इससे करीब 1 करोड़ लोगो की रोजी रोटी प्रभावित होगी। इसके खिलाफ इस क्षेत्र के लोगों ने आन्ध्र प्रदेश हाई कोर्ट में याचिका भी डाल रखी है।
रिलायन्स और सरकार के बीच कई जटिल विषयों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मुकदमें चल रहे हैं। इसके अलावा रिलायन्स के खिलाफ कई जनहित याचिकाएं भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। इसमें प्रमुख है- सीपीआई के ‘गुरुदासदास गुप्ता’ की याचिका और ‘कामन काज’ नामक एक एनजीओ की याचिका। गुरुदासदास गुप्ता संसद में अनेको बार रिलायन्स और सरकार की सांठगांठ को बेनकाब कर चुके हैं।
इन मुकदमों की जटिलताओं और इसमें लग रहे लंबे समय को देखते हुए रिलायन्स ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार और रिलायन्स के बीच मध्यस्थता (arbitration) की अर्जी लगायी। रिलायन्स और सरकार दोनो ने अपने अपने मध्यस्थ चुन लिये। इसमें तीसरा मध्यस्थ कौन है? यह तीसरा मध्यस्थ ‘जेम्स जैकब स्पाईगेलमैन’ हैं। ये महाशय आस्ट्रेलिया के चीफ जस्टिस रह चुके हैं। इनका यहां क्या काम। क्या यह लड़ाई दो देशों के बीच की लड़ाई है जिसमें एक तीसरे तटस्थ देश का होना अनिवार्य हो जाता है। इस बात का कोई जवाब सरकार के पास नही हैं।
दरअसल किताब पढ़ते हुए आप पायेंगे कि पूरा मामला इस तरह से चल रहा है जैसे सरकार और रिलायन्स बराबर के कोई देश हो। सरकार का रिलायन्स पर कोई प्रभाव ही नही हैं। शायद इसीलिए मुकेश अंबानी ने काग्रेस को अपनी दुकान बताया था। दो साल पहले रिलायन्स पर 1.8 बिलीयन डालर का जुर्माना लगाया गया था। लेकिन आज तक उस पर कोई कार्यवाही नही हुई। सरकार की तरफ से इसके बारे में कोई चर्चा तक नही होती। यही सरकार आम आदमी से कैसे जुर्माना वसूलती है। इसे आप समझ सकते हैं।
इस पूरे मामले में सरकार को विभिन्न तरीके से जो नुकसान उठाना पड़ा है, यदि उसकी गणना करे तो यह अब तक का सबसे बड़ा घोटाला साबित होगा। या यो कहें कि सभी घोटालों का बाप साबित होगा।
दरअसल ‘सरकार बनाम रिलायन्स’ का मामला इनका दोस्ताना अन्तरविरोध है। अन्दर से इनकी सांठगांठ काफी गहरी है। एक शब्द में कहें तो सरकार ही रिलायन्स हैं और रिलायन्स ही सरकार है।

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