जोक कवियार कौन हैं ?

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जोक कवियार [Joke Kaviaar] नीदरलैण्ड की मशहूर कवियित्री और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। पिछले दिनों उन्होंने अपने वेबसाइट http://www.jokekaviaar.nl पर एक लेख लिखा। इसमें इन्होंने नीदरलैण्ड राज्य की अप्रवासी नीतियों की तीखी आलोचना की। नीदरलैण्ड सरकार पिछले कुछ सालों से अप्रवासियों को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार कर रही है, उन्हे कई तरह से परेशान कर रही है और यहां तक कि उन्हे डिपोर्ट भी कर रही है। जाहिर है इनमें से ज्यादातर के पास कोई ‘कानूनी’ कागजात नही होते हंै। इन लोगो को जोक कवियार ने अपने लेख में उचित ही ‘पीपुल विदआउट पेपर’ कहा है। इसी का बहाना बना कर नीदरलैण्ड राज्य उन्हे परेशान कर रहा है और उन पर अपना दमन चला रहा है।
इसकी तीखी आलोचना करते हुए जब जोक कवियार ने इससे सम्बन्धित कुल चार लेख लिखे तो सरकार ने जोक कवियार से इसे तुरन्त अपनी वेबसाइड से हटाने को कहा। लेकिन जोक डटी रही और उन्होने अपने चारों लेखों को हटाने से इन्कार कर दिया। इसके बाद उन्हे तुरन्त गिरफ्तार कर लिया गया और तीन दिनों तक हिरासत में रखा गया। उनके वेबसाइट को भी बन्द कर दिया गया। लेकिन Anonymous group ने 24 घण्टे के भीतर ही इसे फिर चालू कर दिया। इसके बाद उनके समर्थन में इसकी कई मिरर साइट अस्तित्व में आ गई। सरकार का यह दांव उल्टा साबित हुआ। उनकी वेबसाइट दुनिया भर में मशहूर हो गयी।
इसके अलावा तलाशी के नाम पर उनके घर को उलट-पुलट दिया गया। इसके बाद उन्हे रिहा तो कर दिया गया लेकिन उन पर ‘आतंक भड़काने ‘ का मुकदमा लाद दिया गया, जिस पर फैसला 22 जनवरी को आना है। इसमें उन्हे 6 माह तक की सजा हो सकती है। यानी 4 लेख लिखने की सजा 6 माह की कैद।
यह भी एक विरोधाभास ही है कि अंतराष्ट्रीय न्यायालय का मुख्यालय नीदरलैण्ड के ही हेग शहर में है।
ट्रायल के दौरान कोर्ट में उनके समर्थन में काफी लोग आये। दुनिया के दूसरे हिस्से से भी काफी लोग उनके समर्थन में वहां एकजुट हुए। कोर्ट में जोक कवियार ने अपना विद्रोही तेवर बनाये रखा और कोर्ट के अपने बयान में कहा कि मुकदमा उन पर नही बल्कि राज्य पर चलाया जाना चाहिए जिसकी नीतिया आतंककारी है। ज्ञातव्य हो कि नीदरलैण्ड, अमेरिकी नेतृत्व में चल रहे विश्वव्यापी ‘आतंक के खिलाफ युद्व’ का हिस्सा है। और नीदरलैण्ड की सेनाए दुनिया के कई हिस्सों में तैनात है। इस प्रक्रिया में नीदरलैण्ड के कई सैनिक मारे भी गये है। जोक कवियार ने इसके खिलाफ भी अपनी कविताओं व अन्य रचनाओं में काफी लिखा है।

जोक कवियार अपनी विद्रोही कविताओं के लिए भी काफी समय से सरकार की आखों में गड़ रही थी।
इस केस से तो यही लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी पर तालाबन्दी सिर्फ तीसरी दुनिया के देशों की ही विशेषता नही है।
दरअसल जनअसंतोष अब एक विश्वव्यापी परिघटना है। प्रतिक्रिया स्वरुप सभी देशों के शासक धीरे धीरे फासीवाद की शरण में जाने लगे हैं।
पेश है जोक कवियार की एक महत्वपूर्ण कविता –

WRITE IT — IGNITE IT

Charged with the crime of speaking your mind
You better shut up — or we’ll lock you up
It is time to define we got the right to incite
Call out — Call out — Call out — Call out!

We gotta write it — ignite it
Burn the prosecution
and the ministry of justice!

We gotta light it and fight it
Burn down the profits
of the prisons, institutions!

Charged with the crime of speaking your mind
It is time now to fight — Don’t listen to the lies!
They make ya do time for a thought crime
Only one solution is to call out revolution!

One solution — Revolution!

Charged with the crime of speaking your mind
You better shut up — or we’ll lock you up
Charged with the crime of speaking your mind
Down with the nations – Stop deportations!
It is time to define we got the right to incite
Call out — Call out — Call out — Call out!

We gotta write it- ignite it
Burn the prosecution
and the ministry of justice!

We gotta light it and fight it
Burn down the profits
of the prisons, institutions!

Charged with the crime of speaking your mind
Down with the borders — Fuck law and order!
They make ya do time for a thought crime
Only — one — solution — is — to call out — revolution!

इस कविता का विडियो आप यहां देख सकते है।

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“मैं अपनी जिंदगी के लिए लड़ी… और जीत हासिल की”-सोहेला अब्दुलाली

तीन साल पहले मेरा गैंगरेप हुआ था, उस वक्त मैं 17 साल की थी. मेरा नाम और मेरी तसवीर इस आलेख के साथ प्रकाशित हुए हैं. 1983 में मानुशी पत्रिका में. मैं बंबई में पैदा हुई और आजकल यूएसए में पढ़ाई कर रही हूं. मैं बलात्कार पर शोधपत्र लिख रही हूं और दो हफ्ते पहले शोध करने घर आयी हूं. हालांकि तीन साल पहले भी जब मेरे साथ यह हुआ था, मैं रेप, रेप के अभियुक्तों और पीड़ितों को लेकर लोगों में फैली गलत धारणाओं के बारे में समझती थी. मुझे उस ग्रंथि का भी पता था जो पीड़ित के मन के साथ जुड़ जाती हैं. लोग बार-बार यह संकेत देते हैं कि अमूल्य कौमार्य को खोने से कहीं बेहतर मौत है. मैंने इसे मानने से इनकार कर दिया. मेरा जीवन मेरे लिए सबसे कीमती है.

मैंने महसूस किया है कि कई महिलाएं इस ग्रंथि के कारण चुप्पी साध लेती हैं, मगर अपने मौन के कारण उन्हें अपार वेदना का सामना करना पड़ता है. पुरुष पीड़ितों को कई वजहों से दोषी ठोहराते हैं और हैरत की बात तो यह है कि कई दफा महिलाएं भी पीड़ितों को ही दोषी ठहराती हैं, संभवतः आंतरिक पितृसत्तात्मक मूल्यों के कारण, संभवतः खुद को ऐसी भीषण संभावनाओं से बचाये रखने के लिए.

यह घटना जुलाई की एक गर्म शाम की घटी. उस साल महिलाओं का समूह रेप के खिलाफ कानून में संशोधन की मांग कर रहा था. मैं अपने दोस्त राशिद के साथ थी. हम लोग घूमने निकले थे और बंबई की उपनगरी चेंबूर स्थित अपने घर से करीब डेढ़ मील दूर एक पहाड़ी के पीछे पहुंच गये थे और वहां बैठे थे. हम पर चार लोगों ने हमला किया, वे लोग दरांती से लैस थे. उन्होंने हमारे साथ मारपीट की, पहाड़ी पर चढ़ने के लिए मजबूर किया और वहां हमें दो घंटे तक बिठाये रखा. हमें शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया गया, और जैसे ही अंधेरा गहराया, हमें अलग कर दिया गया और अठ्ठाहस करते हुए उन्होंने राशिद को बंधक बनाकर मेरे साथ रेप किया. हममें से कोई प्रतिरोध करता तो दूसरे को वे चोट पहुंचाते. यह एक प्रभावी तरीका था.

वे तय नहीं कर पा रहे थे कि वे हमारी हत्या करें या नहीं. हमें अपने दम भर वह सब कुछ किया जिससे हम जिंदा बच जायें. मेरा जिंदा बचना था और वह हर चीज से अधिक महत्वपूर्ण था. मैं पहले उन लोगों का शारीरिक रूप से प्रतिरोध किया और जब मुझे गिरा दिया गया तो मैं शब्दों से प्रतिरोध करने लगी. गुस्से और चीखने-चिल्लाने का कोई असर नहीं हो रहा था, इसलिए मैंने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, मैं उन्हें प्रेम, करुणा और मानवता के लिए प्रेरित करने लगी, क्योंकि जिस तरह मैं इंसान थी, वे भी तो इंसान ही थे. इसके बाद उनका रवैया नर्म पड़ने लगा, खास तौर पर उनका जो उस वक्त मेरे साथ बलात्कार नहीं कर रहे थे. मैंने उनमें से एक से कहा कि अगर मुझे और राशिद को जिंदा छोड़ दिया गया तो मैं अगले दिन उनसे मिलने आउंगी. हालांकि इन शब्दों के बदले मुझे कहीं अधिक भुगतना पड़ा, मगर दो जिंदगियां दांव पर थीं. यही एकमात्र तरीका था कि मैं वहां से लौट पाती और अगली दफा खुद को रेप से बचा पाती.

जिसे बरसों की पीड़ा कहा जा सकता है उसे झेलने के बाद(मुझे लगता है मेरा 10 बार बलात्कार किया गया और कुछ देर बाद मैं यह समझना भूल गयी कि क्या हो रहा है), हमें जाने दिया गया. जाते वक्त उन लोगों ने हमें एक नैतिक उपदेश के साथ विदा किया कि मेरा एक लड़के के साथ इस तरह घूमना अनैतिक था. इस बात ने उन्हें सबसे अधिक नाराज किया था. उन्होंने ऐसा मेरे हित में ही किया था, वे मुझे एक पाठ पढ़ाना चाहते थे. यह बड़ी कट्टर किस्म की नैतिकता थी. उन्होंने हमें पहाड़ के नीचे छोड़ दिया और हम लड़खड़ाते हुए अंधेरी सड़क पर चलते रहते, एक-दूसरे पर टगते हुए और धीरे-धीरे चलते हुए. वे कुछ देर तक हमारा पीछा करते रहे, दरांती हिलाते हुए, और वह संभवतः सबसे बुरा पहलू था कि भागना इतना आसान था मगर मौत हमारे उपर ठहल रही थी. अंततः हम घर पहुंचे, टूटे हुए, क्षत-विक्षत, चूर-चूर. यह बच कर आने का एक अतुलनीय अनुभव था, अपने जीवन के लिए मोलभाव करना, हर शब्द तोलकर बोलना क्योंकि हम उन्हें नाराज करने की कीमत जानते थे, दरांती का वार कभी भी हमारे जीवन को समाप्त कर सकती थी. हमारी हड्डियों और हमारी आंखों में राहत दौड़ रही थी और हम ऐतिहासिक विलाप के साथ ढेर हो गये.

मैंने बलात्कारियों से वादा किया था कि मैं इस बात को किसी और से नहीं बताउंगी, मगर घर पहुंचते ही सबसे पहले मैंने अपने पिता से कहा कि वे पुलिस को बुलाएं. वे इस बात को सुनकर चिंतित हो गये. मैं परेशान थी कि किसी और को उस अनुभव से नहीं गुजरना पड़े जिससे मुझे गुजरना पड़ा था. पुलिस असंवेदनशील थी, घृणित भी और वह किसी तरह मुझे दोषी साबित करने पर तुली थी. जब मैंने कहा कि मेरे साथ क्या हुआ, तो मैंने सीधे-सीधे कह डाला और इस बात को उन्होंने मुद्दा बना लिया कि अपने साथ हुए इस हादसे को बताने में मैं शर्मा नहीं रही थी. जब उन्होंने कहा कि इस बात का प्रचार हो जायेगा तो मैंने कहा, कोई बात नहीं. मैं इमानदारी से कभी यह सोच नहीं सकी थी कि मुझे या राशिद को दोषी माना जायेगा. जब उन्होंने कहा कि मुझे मेरी सुरक्षा किशोर रिमांड होम भेजा जायेगा. मुझे बलात्कारियों और दलालों के बीच रहना होगा ताकि मुझ पर हमला करने वालों को न्याय के सामने लाया जा सके.

बहुत जल्द मैंने समझ लिया कि इस कानून व्यवस्था के तहत महिलाओं के लिए न्याय मुमकिन नहीं है. जब उन्होंने पूछा कि हम पहाड़ी के पीछे क्या कर रहे थे तो मैं क्रुद्ध हो गयी. जब उन्होंने राशिद से पूछा कि वह क्यों निष्क्रिय हो गया, तो मैं चीख पड़ी. क्या वे यह नहीं समझते थे कि राशिद का प्रतिरोध मेरे लिए और पीड़ा का कारण बन सकता था. वे ऐसे सवाल क्यों पूछते थे कि मैंने कैसे कपड़े पहने थे, राशिद के शरीर पर कोई चोट का निशान क्यों नहीं है (पेट पर लगातार हमले के कारण उसे इंटरनल ब्लीडिंग हो रही थी), मैं दुख और निराशा में डूबने लगी, और मेरे पिता ने उन्हें घर से बाहर भगा दिया यह कहते हुए कि वे उनके बारे में क्या सोचते हैं. यह वह सहायता थी जो मुझे पुलिस से मिली. पुलिस ने बयान दर्ज किया कि हम टहलने गये थे और लौटते वक्त देर हो गयी.

उस बात के तीन साल हो गये हैं, मगर ऐसा एक दिन भी नहीं बीता जब मुझे इस बात ने परेशान नहीं किया कि उस दिन मेरे साथ क्या हुआ. असुरक्षा, भय, गुस्सा, निस्सहायपन- मैं उन सब से लड़ती रही. कई दफा, जब मैं सड़क पर चलती थी और अपने पीछे कोई पदचाप सुनायी पड़ती तो मैं पसीने-पसीने होकर पीछे देखती और एक चीख मेरे होठों पर आकर ठहर जाती. मैं दोस्ताना स्पर्श से परेशान हो जाया करती, मैं कस कर बंधे स्कार्फ को बर्दास्त नहीं कर पाती, ऐसा लगता कि मेरे गले को हाथों ने दबा रखा है. मैं पुरुषों की आंखों में एक खास भाव से परेशान हो जाती- और ऐसे भाव अक्सर नजर आ जाते.

इसके बावजूद कई दफा मैं सोचती कि मैं अब मजूबत इंसान हूं. मैं अपने जीवन की सराहना पहले से अधिक करती. हर दिन एक उपहार था. मैंने अपने जीवन के लिए संघर्ष किया था और मैं जीती थी. कोई भी नकारात्मक भाव मुझे यह सोचने से रोकती कि यह सकारात्मक है.

मैं पुरुषों से घृणा नहीं करती. ऐसा करना सबसे आसान था, और कई पुरुष ऐसे विभिन्न किस्म के दबाव के शिकार थे. मैं जिससे नफरत करती वह पितृसत्ता थी और उस झूठ की विभिन्न परतों से जो कहती कि पुरुष महिलाओं से बेहतर होते हैं, पुरुषों के पास अधिकार हैं जो महिलाओं के पास नहीं, पुरुष हमारे अधिकार संपन्न विजेता हैं. मेरी नारीवादी मित्र सोचतीं कि मैं महिलाओं के मसले पर इसलिए चिंतित हूं क्योंकि मेरा रेप हुआ है. मगर ऐसा नहीं है. रेप उन तमाम प्रतिक्रियाओं में से एक है जिसकी वजह से मैं नारीवादी हूं. रेप को किसी खाने में क्यों डाला जाये? ऐसा क्यों सोचा जाये कि रेप ही अकेला अवांछित संभोग है? क्या हर रोज गलियों में गुजरते वक्त हमारा रेप नहीं होता? क्या हमारा रेप तब नहीं होता जब हमें यौन वस्तु के तौर पर देखा जाता है, हमारे अधिकारों से इनकार कर दिया जाता है, कई तरीकों से दबाया जाता है? महिलाओं के दमन को किसी एक नजरिये से नहीं देखा जा सकता है. उदाहरण के लिए, वर्ग विश्लेषम आवश्यक है, मगर क्यों बहुत सारे बलात्कार अपने ही वर्ग में किये जाते हैं.

जब तक महिलाएं विभिन्न तरीकों से दमित की जाती हैं. सभी महिलाएं लगातार बलात्कार के खतरे में हैं. हमें रेप को पेचीदा बनाने से रोकना पड़ेगा. हमें समझना पड़ेगा कि यह हमारे चारो तरफ अस्तित्व में है, और इसके विभिन्न स्वरूप हैं. हमें इसे गुप्त तौर पर दफन करना बंद कर देना होगा और इसे अपराध के एक रूप के तौर पर देखना होगा- इसे हिंसात्मक अपराध मानना होगा और बलात्कारी को अपराधी के तौर पर देखना होगा. मैं उत्साहपूर्वक जीवन जी रही हूं. बलात्कार का शिकार होना बहुत खौफनाक है, मगर जिंदा रहना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. मगर जब एक औरत को इसे महसूस करने से रोका जाता है, इसे तो हमारे तंत्र की गड़बड़ी माना जाना चाहिये. जब कोई बेवकूफ बनकर जिंदगी के एवज में खुद पर हमले को झेल लेती है तो किसी को ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि वह स्वेच्छा से मार खाना चाहती थी. बलात्कार के मामले में एक औरत से पूछा जाता है कि उसने ऐसा क्यों होने दिया, उसने प्रतिरोध क्यों नहीं किया, कहीं उसने इसका मजा तो नहीं लिया.

रेप किसी खास समूह की औरतों के साथ नहीं होता और न ही रेपिस्ट एक खास तरह के पुरुष होते हैं. रेपिस्ट एक क्रूर पागल भी हो सकता है और पड़ोस में रहने वाला लड़का भी या एक दोस्ताना अंकल भी. हमें अब रेप को किसी अन्य महिला की समस्या के तौर पर देखना बंद करना होगा. इसे हमें सार्वभौमिक तरीके से देखना होगा और एक बेहतर समझ की तरफ बढ़ना होगा. जब तक रिश्तों का आधार शक्तियां होंगी, जब तक महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति के तौर पर देखा जाता रहेगा, हम लगातार अपनी इज्जत गंवाने के खतरे में रहेंगे. मैं बचकर निकली हूं. मैं रेप किये जाने के लिए नहीं कहती और न ही मैंने इसका मजा लिया. यह एक सबसे बुरा किस्म का टार्चर है. मगर यह महिलाओं की गलती नहीं है.
आज सोहेला लिखती हैं, पढ़ती हैं और घूमती हैं. उसके दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. द मैडवुमन ऑफ जोगर एंड इयर ऑफ टाइगर, बच्चों की तीन किताबें, और कई छोटी कहानियां, लेख, खबरें, ब्लाग, कॉलम, मैनुअल आदि वे लिख चुकी हैं. उनके लिखित सामग्रियों को उनकी साइट www.sohailaink.com पर देखा जा सकता है.
http://kumarambuj.blogspot.in से साभार

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फसल के गीत

harvest song
सावित्री राॅय के बांग्ला उपन्यास का अंगे्रजी अनुवाद ‘हार्वेस्ट सांग’ पढ़ा। पढ़ कर इतिहास का वह हिस्सा मन में मूर्त होने लगा। यह उपन्यास मूलतः तेभागा आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। बांग्ला में यह उपन्यास ‘पाका धानेर गान’ नाम से सबसे पहली बार तीन भाग में क्रमशः 1956,1957 व 1958 में प्रकाशित हुआ था। इसका अंगे्रजी अनुवाद 2006 मंे छपा।
अंग्रेजों के आने के बाद से ही बंगाल की धरती विप्लव की धरती में तब्दील हो गयी थी। बंगाल की क्रान्तिकारी परम्परा की एक कड़ी में ही 1940 के दशक में तेभागा आन्दोलन हुआ। और 1946 में कम्युनिस्ट पार्टी की किसान सभा के नेतृत्व मे जमीन्दारों के खिलाफ एक जबरदस्त आन्दोलन छिड़ गया। बंगाल के एक व्यापक क्षेत्रों में यह आन्दोलन छिड़ गया। अपने उरूज के समय इस आन्दोलन में लगभग 60 लाख लोगों ने हिस्सेदारी की।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, तेभागा आन्दोलन में किसान जमीन्दारों से अपनी उपज के दो तिहाई हिस्से की मांग कर रहे थे। किसान हाड़तोड़ मेहनत करके खेत में धान पैदा करते तो जमीन्दार उनकी उपज का आधे से ज्यादा हिस्सा हड़प लेते। इसके अलावा अन्य कर आदि अलग से लेते। इसके अतिरिक्त किसानों पर सामन्ती उत्पीड़न की कोई इन्तहां नहीं थी। 1930 के दशक से ही किसान सभा के कार्यक्रम में दोतिहाई हिस्से का मांग थी। 1940 के दशक में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा और जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। और फिर एक दिन जनता ने विद्रोह कर दिया। पूरे उत्तर बंगाल में यह आन्दोलन तेजी से फैल गया और इसने काफी जुझारु रूप ग्रहण कर लिया। रातों-रात तैयार फसल को किसानों ने काटकर उस पर अपना कब्जा कर लिया। जमीन्दारों के गोदामों में इकट्ठा धान लूट लिया। जाहिर है आन्दोलन जितना उग्र था, दमन भी उतना ही तीव्र हुआ। स्वतःस्फूर्त रूप से इस आन्दोलन में महिलाओं की हिस्सेदारी उल्लेखनीय है। जगह-जगह पर ग्रामीण महिलाओं ने नारीबाहिनियां बनायीं और अर्धमिलिीशिया के रूप में आत्मरक्षा दस्ते बनाए। वे न केवल फसलों को काटने में हिस्सेदारी कर रही थीं बल्कि वे आगे बढ़कर अपने सहभागी पुरुषों को दमन से भी बचा रही थीं। नन्दीग्राम के सुदूर गांवों की औरतों ने इस आन्दोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। यह सच है कि उस वक्त औरतों को घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी। वे पर्दे में रहती थीं। तमाम मेहनत करने के बावजूद फसलों पर उनका कोई कब्जा नहीं होता था। (हालांकि फसल और सम्पत्ति में औरतों की हिस्सेदारी तो आज भी नहीं है।) फिर भी बड़ी संख्या में औरतों ने तेभागा आन्दोलन में हिस्सेदार की।
ऐसे ही ऐतिहासिक दौर के बंगाल की कथा कही है बंगाल की मशहूर लेखिका साबित्री राॅय ने। उनका नाम बांग्ला साहित्य में महाश्वेता देवी सुलेखा सान्याल की कड़ी में लिया जाता है। इन्होंने अपने साहित्य में न केवल महिलाओं के मुद्दे को उठाया बल्कि राजनीतिक मुद्दों पर अपनी कलम चलायी। जैसा कि इतिहासकार तनिका सरकार अपने प्राक्कथन में लिखती हैं कि साबित्री राॅय का यह उपन्यास कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है लेकिन पूरा उपन्यास पढ़ने के बाद उस समय के बंगाल की एक छवि जरूर मिलती है। इस उपन्यास को पढ़ कर तेभागा आन्दोलन की ऐतिहासिक तस्वीर नहीं मिलती। लेकिन कई छोटी-छोटी कथाओं और उपकथाओं के माध्यम से उस समय के ग्रामीण एवं शहरी बंगाल की एक छवि जरूर मिलती है।
उपन्यास का मुख्य नायक पार्थदास है। वह किसान सभा का भूमिगत कार्यकर्ता है और तेभागा आन्दोलन का नेता है। अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को वह हर सम्बन्ध से ऊपर रखता है। चाहे उसे अपनी बेहद प्यार करने वाल मां हो, कठिनाई में जीवन बसर कर रहे पिता हों या परिवार हो या उनकी प्रेयसी भद्रा हो। वह इन सारे सम्बन्धों को बहुत बारीकी से अहसास करता है। पर ये सम्बन्ध कभी भी उसे कमज+ोर नहीं कर पाते। वह अपने इन सम्बन्धों से, खासकर प्रेम सम्बन्ध से एक नयी ऊर्जा लेता है और अन्त में किसानों के लिए लड़ता हुआ शहीद हो जाता है।
इसी तरह से इस उपन्यास में बहुत से पात्र ऐसे हैं जो राजनीतिक गुलामी को तोड़ने के क्रम में अपनी व्यक्तिगत गुलामी के चक्र को भी तोड़ने का प्रयास भी करते हैं। उपन्यास में कहीं-कहीं इसका उलटा भी होता है। उपन्यास में देबकी नामक एक पात्र जिसकी पढ़ने की इच्छा को दरकिनार कर उसकी शादी एक लम्पट आदमी से कर दी जाती है। तमाम अत्याचार करते हुए एक दिन उससे उसके नन्हे से बच्चे को छीन कर घर से निकाल दिया जाता है। वह कलकत्ता में आकर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है और एक अस्पताल में नौकरी करती है और एक दक्षिण भारतीय पत्रकार कुनाल से प्यार करती है और उसके साथ घर बसाती है। किसान सभा का एक अन्य कार्यकर्ता अली गांव की एक बाल विधवा ब्राह्मणी मेघी से शादी करता है। इसकी कीमत उसे घर एवं गांव छोड़ कर चुकानी पड़ती है। एक अन्य पात्र सुलक्षण की प्रेयसी पत्नी लता अपने छोटे से बेटे के साथ अपने भूमिगत पति का इंतज+ार करती है और जीवन जीने का संघर्ष करती है। इस तरह यह उपन्यास अपने अलग-अलग आख्यानों में तमाम सामाजिक वर्जनओं को तोड़ता है।यह दिखाता है कि उस समय की औरत कितनी बंधी हुयी थी और साथ ही उस बन्धन तोड़ने का प्रयास भी कर रही थी। न केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि सामाजिक रूप से भी।
tebhaga
हालांकि शरत्चन्द्र के उपन्यासों में नारीपात्र बहुत सशक्त और बोल्ड दिखायी देते हैं। पर मुझे उनका एक भी उपन्यास नज+र नहीं आता जिसमें उन्होंने विधवा विवाह दिखाया हो। साबित्री राॅय का उपन्यास इन्हीं अर्थों में उनसे अलग है कि वे अपने पात्रों को गढ़ते हुए उस युग की सीमा से आगे जाती हैं और उसे ऐसे गढ़ती हैं जैसे उसे होना चाहिए। चाहे वह भद्रा हो, देबकी हो या मेघी हो या लता हो। इस उपन्यास के सारे पात्र अपने अपने जीवन में संघर्ष करते हैं और खुद को सामाजिक राजनीतिक संघर्ष से किसी न किसी रूप में जोड़ते हैं।
इस उपन्यास का अंग्रेजी रूपान्तरण किया है-चन्द्रिमा भट्टाचार्य एवं अद्रिता मुखर्जी ने। हिन्दी में इसका अनुवाद होना चहिए। जिससे एक बड़े पाठक वर्ग तक इसकी पहुंच बनेगी और एक आन्दोलन जिसके बारे में मुख्य धारा के इतिहास में बहुत कम जगह दी जाती है, उसकी एक झलक पाठकों को मिल सकेगी।

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नये साल पर यह कविता पढि़ये…………..

यह कविता Egypt की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी है। लेकिन हमारे देश में हाल के दिनों में जो घटनाक्रम रहा है, उसके मद्देनजर यह कविता हमारे लिए भी काफी प्रासंगिक हो जाती है। यह कविता Hughe ने लिखी है।
Dream deferred
What happens to a dream deferred?
Does it dry up like a raisin in the sun?
Or fester like a sore– And then run?
Does it stink like rotten meat?
Or crust and sugar overlike a syrupy sweet?
Maybe it just sags like a heavy load.
Or does it explode?
Egypt is exploding.
The deferred
dreams of the Arab world are exploding.

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वह मरी नहीं………………मार दी गयी………………….


13 दिनों तक जि+न्दगी और मौत से जूझते हुए आखिरकार वह लड़की मर गयी। ऐसा लग रहा है जैसे मौत उसकी नहीं हुयी है बल्कि हमारे भीतर का एक हिस्सा खामोश हो गया है। इतना खामोश कि हमें हमारी भावनाएं व्यक्त करने के लिए अल्फाज+ नहीं मिल रहे। उसकी मौत के खिलाफ हर तरफ आक्रोश है, हमारा दिल भी ग+म और ग+ुस्से से भरा हुआ है। वह चेहराविहीन लड़की जिसकी मौत हो गयी है वह दरअसल मरी नहीं है उसका चेहरा हम सबके चेहरे में समा गया है। देश के तमाम लोगों की तरह हम उस लड़की को सलाम करते हैं और अपना ग+म और ग+ुस्सा ज+ाहिर करते हैं!!!!
दरअसल 23 साल की वह लड़की मरी नहीं उसे मार दिया। उसे मारने के लिए चेहरा भले ही 6 लोगों का हो पर हज+ारों सालों से उसे बार बार मारा जाता रहा है। वर्चस्व की लड़ाई में वह बार-बार मारी जाती रही है। जी हां-बलात्कार औरतों पर वर्चस्व साबित करने का ही एक अस्त्र है। जिसका प्रयोग कभी राजसत्ता करती है तो कभी पुरुषसत्ता। दरअसल राजसत्ता और पितृसत्ता यानी पुरुषसत्ता एक दूसरे के पर्याय ही हैं। दोनो आपस में इस कदर जुड़े हुए हैं कि उन्हें अलग-अलग करना मुश्किल है। इसलिए बलात्कार के लिए कुछ बलात्कारियों को फांसी देने से बात नहीं बनेगी। यह राजसत्ता और पितृसत्ता मिल कर न जाने कबसे गरीब, दलित और अपने हक में आवाज+ उठाने वाली जनता और औरतों के जीने की इच्छा से बलात्कार करते रहे हैं। इस लिए इस कठिन सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है। फिलहाल इतना ही। विस्तार से फिर कभी……………

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‘साल्ट आफ दि अर्थ’-मजदूर आंदोलन का नारीवादी विमर्श


‘साल्ट आफ दि अर्थ’ 1953 में बनी एक बेहतरीन फिल्म है। बनने के लगभग 7-8 साल बाद तक यह थियेटर का मुंह नही देख सकी थी। अमरीकी सरकार ने इस फिल्म के डायरेक्टर समेत लगभग सभी कलाकारों को ब्लैकलिस्ट कर दिया था। अमरीका में यह ‘मैकार्थीवाद’ का समय था।
आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या था कि यह फिल्म अमरीकी सरकार की आंखों की किरकिरी बन गयी।
यह फिल्म न्यू-मैक्सिकों में एक जिंक फैक्टीª के मजदूरों के जीवन व उनके संघर्षों पर आघारित है। फैक्टीª में जबर्दस्त शोषण है और मजदूरों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीें है। वेतन भी बहुत कम है। यहां तक कि मजदूरों के बीच भी नस्लीय नजरिये से भेदभाव किया जाता है। मूल अमरीकी मजदूरों को मैक्सिकन मजदूरों से थोड़ी ज्यादा सुविधायें दी जाती है।
पूरी फिल्म एक मैक्सिकन मजदूर की पत्नी के नजरियें से दिखायी गयी है।

इसी पृष्ठभूमि में एक मजदूर के घायल होने के बाद मजदूर हड़ताल पर चले जाते है। फिल्म की मुख्य पात्र स्पिरांजा जोकि एक हड़ताली मजदूर की पत्नी है, को यूनियन की गतिविधियों में कोई रुचि नही हैं। अपने पति से एक बार तर्क करते हुए वह कहती है-‘तुम्हारी यूनियन सिर्फ पुरुषों की मांगे उठाती है। हमारे कष्टों से उन्हे कोई मतलब नहीं है।’ वह कहती है कि तुम्हे गरम पानी की मांग उठानी चाहिए। वह तर्क करती है कि अमरीकी मजदूरो के घरों में गरम पानी आता है, जबकि हमें ठण्डे पानी में काम करना पड़ता है। पति उसकी बात को टाल जाता है।
हड़ताल शुरु हो जाती है। कम्पनी हड़ताल तोेड़ने का काफी प्रयास करती है। लेकिन मजदूरों की एकता के कारण उनकी हर चाल विफल साबित हो जाती है। इधर अपने अपने पतियों को चाय नाश्ता देने के बहाने धीरे धीरे महिलाएं भी धरना स्थल पर आने लगती हैं। एक दिन स्पिरांजा भी अपने पति को काफी देने के बहाने वहां आ जाती है। तभी एक नाटकीय घटना घटती है। कम्पनी कोर्ट से एक आदेश पाने में सफल हो जाती है। आदेश के अनुसार खनिक मजदूरों का धरना गैरकानूनी है। यानी यदि मजदूरों ने धरना चालू रखा तो उन्हे गिरफ्तार कर लिया जायेगा। नयी परिस्थिति से निपटने के लिए यूनियन की बैठक बुलाई जाती है। हड़ताल में महिलाओं की सहयोगी भूमिका को देखते हुए उन्हे भी आब्जर्वर के तौर पर बैठक में बुलाया जाता है। समस्या बहुत पेचीदा है- यदि वे धरना जारी रखते है तो उन्हे गिरफ्तार कर लिया जायेगा। और यदि वे गिरफ्तारी से बचने के लिए धरना तोड़ देते हैं तो उनकी हार हो जायेगी। यानी दोनों ही तरह से उनकी हार है। कुछ समझ में नही आ रहा है। बैठक में एक निराशा सी छाने लगती है। तभी एक महिला खड़ी होती है और कहती है कि कोर्ट के आदेश को तकनीकी नजर से पढ़ा जाय तो यह कहता है कि खनिकों का धरना गैरकानूनी है। लेकिन हम महिलाए तो खनिक नही है। अतः यदि हम अपने पुरुषों की जगह धरने पर बैठ जाये तो कोर्ट की अवहेलना कतई नहीं होगी और हमारा धरना चलता रहेगा।
इस प्रस्ताव से बैठक कक्ष में सन्नाटा छा जाता है। फिल्म में इस बैठक कक्ष का दृश्य बहुत ही दिलचस्प है। मजदूरों की पितृसत्तात्मक मानसिकता इस बात को पचा नही पाती कि उनकी पत्नियां उनकी जगह धरने पर बैठेंगी। हालांकि वे यह भी जानते हैं कि प्रस्ताव बहुत ही तार्किक है। इस प्रस्ताव पर मतदान का निर्णय लिया जाता है। मतदान से ठीक पहले ही स्पिरांजा कहती है कि चूंकि मामला महिलाओं का है इसलिए महिलाओं को भी वोटिंग करने दिया जाय। तमाम बहस मुबाहिसा के बाद उनको भी इस मुद्दे पर मतदान का अधिकार दे दिया जाता है। महिलाओं के मतदान में शामिल होने के कारण उनका प्रस्ताव बहुत थोड़े अन्तर से पास हो जाता है।
इसके बाद फिल्म बहुत ही प्रभावोत्पादक हो जाती है। धरने पर अब महिलाएं है। कम्पनी के अधिकारी और पुलिस के लोग भी यह देख कर हैरान है।
फिल्म की शुरुआत में स्पिरांजा सात महीने की गर्भवती रहती है। धरने के दौरान ही उसे लेबर पेन उठता है। और उपस्थित महिलाओं की मदद से ही उसे धरना स्थल पर ही बच्चा पैदा हो जाता है।
महिलाओं के धरना स्थल पर होने के कारण न चाहते हुए भी घर का काम पुरुषों को करना पड़ता है। बीच में स्पिरांजा के गिरफ्तार होने पर नवजात बच्चे की जिम्मेदारी भी स्पिरांजा के पति को निभानी पड़ती है। संघर्ष की इस पृष्ठभूमि में पति-पत्नी के बीच जो भूमिका बदलती है और इस कारण उनके बीच जो टकराहट होती है उससे उनके रिश्ते बदलते है और रिश्ते में जनवाद की मात्रा बढ़ने लगती है। यानी रिश्ते और खूबसूरत होने लगते है। यह पक्ष फिल्म की जान है।
इसके डायरेक्टर हरबर्ट बिवरमैन ने बहूत ही खूबसूरती से मजदूर आंदोलत में नारीवादी पहलू को गूंथा है। वास्तव में मजदूर आंदोलन का नारीवादी विमर्श ही इसका मुख्य विषय है। पितृसत्ता पूंजीवाद में जहां नारियों का निर्मम शोषण करता है, वही क्रान्तिकारी आन्दोलनों में महिलाओं की भागीदारी और उनकी पहलकदमी के रास्ते में भी अवरोध बनकर खड़ा रहता है। बिना इस अवरोध को हटाये आन्दोलनो में महिलाओं की व्यापक भागीदारी [विशेषकर नेतृत्व के स्तर पर] संभव नही है। क्रान्तिकारी आन्दोलनों का यह एक प्रमुख विमर्श है। इस संदर्भ में यह फिल्म बहुत ही उपयोगी फिल्म है।
इस फिल्म की एक और दिलचस्प बात यह है कि 2 कलाकारों को छोड़कर शेष सभी कलाकार वास्तव में खनिक कर्मी थे।
इस फिल्म को आप यहां से डाउनलोड कर सकते है। मजे की बात यह है कि इसका हिन्दी सबटाइटल्स आप opensubtitles.com से डाउनलोड करके इस फिल्म का मजा हिन्दी में भी ले सकते है।

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‘सभ्य’ समाज का निर्मम और बदसूरत चेहरा पेश करती फिल्म- ‘रोटी’

तो बात करते हैं 1942 में महबूब द्वारा निर्देशित फिल्म ‘रोटी’ की। बरसों पहले इस फिल्म को दूरदर्शन पर देखा था। यह फिल्म पूंजीवादी सभ्यता और वर्ग आधारित समाज पर आदर्शवादी नजरिये से बहुत ही तीखा कटाक्ष करती है। फिल्म में बेगम अख्तर को अभिनय करते देखना बहुत ही सुखद था। फिल्म की शुरुआत होती है अमीरों एवं गरीबों के बीच की खाई को दर्शाते हुए कुछ दृश्यों के कोलाज से। जग्गू नामक चरित्र फुटपाथ पर घूमते हुए एक बेघरबार और भूखे व्यक्ति से टकराता है जिसका चेहरा एक धनी बूढ़ी महिला के बेटे लक्ष्मीदास से हूबहू मिलता है। जग्गू को यह पता है कि लक्ष्मीदास मर चुका है अतः वह उस भूखे बेघरबार व्यक्ति को सजा धजा कर बूढ़ी धनी महिला के सामने उसके बेटे के रूप में पेश करता है। बूढ़ी मां ‘अपने बेटे’ को सहर्ष स्वीकार कर लेती है। और वह भूखा बेघरबार व्यक्ति रातों रात सेठ लक्ष्मीदास बन जाता है। सेठ लक्ष्मीदास का रोल चन्द्रमोहन ने बखूबी निभाया है।

उस धनी बूढ़ी महिला के बिजनेस में एक बराबर का हिस्सेदार सेठ ताराचन्द है जिसकी बेटी बेगम अख्तर द्वारा अभिनीत ‘डार्लिंग’ है। बूढ़ी महिला और उसके बिजनेस पार्टनर ताराचन्द ने पहले ही यह तय कर रखा था कि जब उसका बेटा लक्ष्मीदास लौट कर आएगा तो डार्लिंग से उसकी शादी कर दी जाएगी। अपने ‘बेटे’ लक्ष्मीदास को अपना आधा बिजनेस सौंप कर बूढ़ी महिला मर जाती है। सेठ लक्ष्मीदास दूसरे आधे बिजनेस को हड़पने के लिए साजिश करके सेठ ताराचन्द को मार डालता है। ताराचन्द के मुनीम और डार्लिंग दोनो को लक्ष्मी पर संदेह होता है। लेकिन लक्ष्मीदास के हाथ में अब पूरे बिजनेस की बागडोर है इस लिए वे खुले तौर पर कुछ नहीं कर पाते। इस लिए डार्लिंग और मुनीम जी यह तय करते हैं कि वे लक्ष्मीदास से अच्छा सम्बन्ध बनाए रखेंगे और समय आने पर उससे बदला लेंगे।

इस बीच लक्ष्मीदास की लालच की हवस और बढ़ती जाती है। इसी हवस के वशीभूत हो कर वह बाजार से सारा आनाज खरीद लेता है और उनके भाव को काफी बढ़ा देता है। अपनी ही फैक्ट्री के मजदूरों की हड़ताल को भी वह निर्ममता पूर्वक कुचल देता है। इसी बीच उसे कहीं से जानकारी होती है कि दूर कहीं जंगल में सोने की खदानें हैं। लक्ष्मीदास उत्साहित हो जाता है। और इस सोने की खदान की तलाश में डार्लिंग के साथ हवाई जहाज से उस जगह की ओर निकल पड़ता है। बीच जंगल में उसका प्लेन क्रैश हो जाता है। जहाज में इन दोनो के सिवाय सभी मारे जाते हैं। सेठ लक्ष्मीदास और डार्लिंग बेहोश हो जाते हैंं। जंगल के आदिवासियों ने कभी भी जहाज नहीं देखा था। जंगल के आदिवासी उन्हंे बचाते हैं और उनकी पूरी मदद करते हैं। जंगल में रहते हुए ही डार्लिंग एक आदिवासी बालम के प्रति आकर्षित हो जाती है।

फिल्म का यह हिस्सा एक खूबसूरत यूटोपिया रचता है। यहां सभी लोग खेतों पर एक साथ काम करते हैं। और अनाज को सबके बीच बराबर बराबर बांटा जाता है। यहां न सिर्फ लोगों के बीच समानता है वरना स्त्री पुरुषों के बीच भी समानता है।

डार्लिंग पर इस सबका बहुत अच्छा असर पड़ता है। यहां के लोगों ने अमीर और गरीब जैसे शब्द सुने ही नहीं थे। लेकिन बालम अपने ही समुदाय की लड़की किनारी से प्यार करता है। यह रोल बखूबीे सितारा देवी ने निभाया है।

लक्ष्मी दास यहां के रहन सहन और बराबरी के जीवन से कतई प्रभावित नहीं होता। वह स्वस्थ होकर इस जंगल से निकल कर पुनः अपने बिजनेस साम्राज्य में जाना चाहता है। इसके लिए वह कुछ स्वर्ण मुद्राएं बालम और किनारा देवी को देता है कि वे उसे इस जंगल से बाहर उसके शहर तक पहुंचा दें। यहां पर बालम का लक्ष्मीदास के साथ तर्क बहुत दिलचस्प है। बालम कहता है कि मैं इस जंगल के बाहर कभी नहीं जाउंगा क्योंकि मैंने सुना है कि जंगल से बाहर निकलते ही यहां के लोगांे को गुलाम बना लिया जाता है। तुम्हारी ये स्वर्णमुद्राएं हमारे किसी काम की नही। हमारे बापदादाओं ने हमें समझाया है कि ये स्वर्ण मुद्राएं हमारे लिए अपशकुन हैं। इनके पास होने से आदमी बदल जाता हैै। परन्तु लक्ष्मीदास किसी तरह से किनारी को प्रभावित करने में सफल रहता है और किनारी बिना बालम को बताए लक्ष्मी दास से कुछ स्वर्णमुद्राएं लेकर अपने दो प्यारे भैंसों चंगू-मंगू की गाड़ी के साथ लक्ष्मीदास और डार्लिंग को जंगल से बाहर भेजने की व्यवस्था कर देती है। बाद में जब बालम को इस बात का पता चलता है तो वह बहुत नाराज होता है। लेकिन तब तक लक्ष्मीदास और डार्लिंग चंगू-मंगू को लेकर जंगल से निकल चुके होते हैं। किनारी को भी अपनी गलती का अहसास होता है। अन्त में किनारी और बालम यह फैसला करते हैं कि वे जंगल से बाहर शहर में जाकर चंगू मंगू को वापस लेकर आएंगे। लक्ष्मीदास ने उन्हें सोने के सिक्कों का महत्व बताया था। इसलिए वे अपने साथ वे सिक्के रख लेते हैं। एक लम्बी यात्रा के बाद वे शहर पहुंच जाते हैं।
शहर, जहां इंसान नहीं अमीर और गरीब बसते हैं। जहां इंसानों की नहीं पैसों और सोने की पूजा होती है। बराबरी वाले समाज से आए बालम और किनारी के लिए यह सबकुछ अजूबा सा है।

इसके बाद कहानी तेज गति से भागती है। सेठ लक्ष्मीदास उन्हें अपमानित करता है। उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। इसी घटनाक्रम में बालम को कैद हो जाती है। डार्लिंग जब बालम और किनारी की मदद की कोशिश करती है तो लक्ष्मीदास उसे भी कैद कर लेता है। अन्ततः डार्लिंग लक्ष्मीदास की नज+र बचा कर बालम और किनारी को उसका चंगू-मंगू दिलवा कर वापस जंगल की ओर रवाना करती है और मौका मिलते ही लक्ष्मीदास के बिजनेस को भी धराशायी कर देती है। सेठ लक्ष्मीदास पर काफी कर्ज चढ़ जाता है। सेठ लक्ष्मीदास इन सबसे बौखला कर अपने घर में खुद आग लगा कर अब तक जमा सोना एक गाड़ी में इकट्ठा करके कहीं दूर जंगल की तरफ निकल पड़ता है। जंगल से पहले रेगिस्तान के वीराने में उन्हें प्यास लगती है। यहां लक्ष्मीदास का सोना कुछ काम नहीं आता। वे उस रेगिस्तान में भटकने लगते हैं। वहीं इन दोनों की एक बार फिर बालम और किनाारी से मुलाकात होती है। बालम और किनारी सबकुछ भूलकर अपने स्वभाव के अनुसार एक बार फिर सेठ लक्ष्मीदास और डार्लिंग को बचाने का प्रयास करते हैं। लेकिन सेठ लक्ष्मीदास अपने पैसे की अकड़ में मदद लेने से इंकार कर देता है। इस तरह सेठ लक्ष्मीदास अपनी डार्लिंग और भारी सोने के साथ वहीं मर जाता है और बालम और किनारी अपनी दुनिया में खुशी-खुशी चले जाते हैं। वहां झूमते गेहूं और बराबरी के मूल्य ही उनका सोना है।
फिल्म पूंजीवादी सभ्यता और गैरबराबरी वाले समाज पर बहुत ही तीखा कटाक्ष करती है। कुछ डायलाॅग तो बहुत ही स्पष्ट हैं। जैसे लक्ष्मीदास कहता है कि हमारे सोने के महल मजदूरों की लाशों पर ही बनाए जाते हैं।
1942 में एक ऐसी फिल्म बनी जो बहुत साफ-साफ अपना पक्ष रखती है। यह देख कर बहुत ही सुखद आश्चर्य होता है कि जहां आज की अधिकांश मूल्यविहीन फिल्में लोगों को एक मायालोक में घुमाती हैं वहीं उस वक्त की इस फिल्म में मूल्य कितने स्पष्ट थे।

महबूब को आमतौर पर ‘मदर इण्डिया’ के लिए याद किया जाता है। लेकिन यदि युग की सीमा को ध्यान में रखा जाय तो मेरे ख्याल से ‘रोटी’ उनकी बेहतरीन फिल्म है।

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खालरा साहब कौन थे?


‘इंटरनेशनल पीपुल्स ट्रीब्यूनल आन हयुमन राइट्स एण्ड जस्टिस इन इंडिया एडमिनिस्टर्ड काश्मीर‘ [IPTK], की रिपोर्ट इसी महीने प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट की खास बात यह है कि कश्मीर में पिछले 22 सालों में हुए मानवाधिकार उल्लंघन के लिए भारतीय सेना और जम्मू कश्मीर पुलिस केे जवानों को उनके नाम और उनकेे पदनाम के साथ चिन्हित किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार 235 सेना के जवान, 123 अर्धसैनिक बलों के जवान, 111 जम्मू-कश्मीर पुलिस केे जवान और 31 सरकार समर्थित मिलिटेन्ट और उनके सहयोगियों के बारे में पुख्ता सबूत है कि उन्होंने मानवाधिकार का घोर उल्लंघन किया है। इसमें मेजर जनरल, ब्रिगेडियर, कर्नल, लेफ्टिनेन्ट कर्नल, मेजर और कैप्टन तक के अधिकारी शमिल है।
कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन पर यदि आकड़ो में नज+र डाले तो पिछले 22 वर्षो में 8000 लोग गायब कर दिये गये है, 700000 लोग मारे जा चुके है। अभी पिछले दिनों ही 6000 अपरिचित, अनजानी कब्रगाहें पायी गयी है। इसके अलावा रेप के अनगिनत मामले है। पूरी रिपोर्ट में इन सब का विस्तृत ब्योरा है।
लेकिन इसी समय हमे पंजाब को भी याद कर लेना चाहिए। पंजाब मिलिटैन्सी के दौरान लगभग ऐसे ही मानवाधिकार उल्लंघन के मामले सामने आये थे। इन मामलो को उजागर करने में वहां के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता जसवंत सिंह खालरा का बड़ा योगदान था। उन्हे इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। उन्हे उनके घर से दिनदहाड़े उठा लिया गया। और कुछ दिनो बाद उनकी लाश एक नहर के किनारे पड़ी पायी गयी। जसवंत सिंह खालरा ने रात दिन एक करके उन 2000 लोगो की लिस्ट जारी की जिन्हे 2 साल के अन्दर गायब करके मार दिया गया था और एक ही जगह पर उनकी बारी बारी से अन्तेष्टि कर दी गयी थी। अनेको बार दो दो तीन तीन लोगो को एक साथ जला दिया जाता था।
जसवंत सिंह खालरा ने मरने से पहले इसी विषय पर कनाडा में एक भाषण दिया था। यह भाषण बहुत ही मर्मस्पर्शी है। मूल भाषण पंजाबी में है। लेकिन इसका अंग्रेजी टेक्स्ट यहां दिया जा रहा है। मूल भाषण आप यहां सुन सकते है। कश्मीर की इस रिपोर्ट के सन्दर्भ में यह भाषण और भी प्रासंगिक हो उठता है।
The following are excerpts from the English version of the last international speech given by Jaswant Singh Khalra:
I have come to Canada to talk about a report. That report describes the story of oppression of the past ten years. When we started that report, we had before us hundreds of reports, but there was one question to which none of those reports provided the answer. That question was: Thousands of mothers await their sons even though some may know that the oppressor has not spared their son’s lives on this earth. But a mother’s heart is such that even if she sees her son’s dead body, she does not accept that her son has left her. And those mothers who have not even seen their children’s dead bodies, they were asking us: at least find out, is my son alive or not?
But when we started talking about this issue, then countless mothers, countless sisters weren’t ready to say that their loved one has disappeared. They said, “Son, if you take this issue further and our son is still alive, they will kill him – don’t talk about this, we are not going to tell even you.”
So we produced a rough estimate for the public that in Amritsar district alone, 2,000 children are missing and the government must tell us where they are. The government was quiet. Then, we filed a petition before the High Court on behalf of some families, asking the Court to tell us where those children are. The government then gave an affidavit denying any knowledge about these children.
When the issue progressed, then the person in-charge of the oppression, KPS Gill said in a press conference in Amritsar, “These Human Rights Wing folks are not doing anything on human rights. They have one motive, to prop up their agenda, so that there is no peace in Punjab . They are ISI [Pakistan ’s Inter-Service Intelligence] agents and are hatching a conspiracy to discourage the police machinery to re-incite militancy.” KPS Gill went onto the extent of saying, “I’ll tell you where those kids are.” He said, “These kids are in Europe, in Canada , and in America , where they are earning their daily wages. And these human rights organizations are telling us that thousands of kids have disappeared.” This was a challenge to us. This was a challenge to that truth which we sought to bring forward. Then, brothers, in order to bring this truth to the public, accompanied by evidence, we put ourselves on an arduous task where we had to confront various dangers. But we went there where our brothers had gone. We went to the cremation grounds. We went and asked the employees there just tell us this much that during this time, how many dead bodies did the police give you? Some said we burned 8-10 every day. Some said there was no way to keep an account; sometimes a truck full of bodies came, and sometimes 2-4 dead bodies. When we said we need an account, they told us we could get the account from one place: “The police gave us the dead bodies, and the municipal committee gave us the firewood.”
So brothers! when we received this truth, we went to that country’s High Court. We knocked on the doors of Punjab and Haryana High Court, and asked, Oh Oppressors!, at least give us the detail that which dead body belongs to whom so that we can tell each mother, sister, so we can tell each father. So they can say their prayers to Almighty which they have been keeping in their heart, “Almighty, please let my son rest at your feet”… But that country, that calls itself the largest democracy and lover of justice, its High Court told us,”This is not public interest litigation. This creates a huge issue. Instead, do this – Send to us each of that family to whom the dead bodies belong and we will give them the information.” A mockery has been made of the law. A mockery has been made of the Sikh nation. And a mockery has been made of those people, who are not asking for anything other than a death certificate.
But the biggest court of all is the people’s court and we want to go to the people’s court on a worldwide level and say to the world, “You have called us terrorist. You have called us communalists. But those whom you have called the prophets of democracy, recognize their reality and then tell us who is ultimately the terrorist and who is righteous?” We can say often that we have suffered much oppression. But we have not had the practice or training of keeping a complete record of that oppression. About 50,000, about 1 million – we say all of that. The educated people of the world do not trust that, they need exact figures. And for that, I also say, that you all should unite on this issue. This issue is not just the issue for those families. This is the [Sikh] nation’s issue, humanity’s issue. You all should present this issue, in whatever way you can. Condemn that government, that machinery, that justice system, and tell the truth to people. Please Brothers help us in this work.
So my brothers, pray to the Guru that we maintain our self-respect. We must safeguard the work for which we were created and earn the pleasure of the Guru. We ask the Guru for everything, but we’re afraid to ask the Guru for that one gift. The Guru has many gifts, but what is the greatest gift the Guru has? The greatest gift is not milk, is not a son. And now the Guru does not even pass on the guruship to anyone. The Guru cannot make any saint a guru now. When the Guru gave the guruship to the Sri Guru Granth Sahib, the Guru kept one special gift, which any Sikh could invite. And after the time of the (Ten) Gurus, Sikhs paid so much respect to that special gift.
And that special gift, which the Guru possesses, is the gift of martyrdom. Those who receive this gift – they don’t get to be Guru but after the Guru, they are the most respected people of our (Sikh) nation.
I hope – I am not a political leader, which could give you some political line or pull a political antic – from a human rights platform I will definitely say this to you: the Khalsa was inaugurated to protect human rights, the human rights of the world. And if you cannot protect your own human rights, you will not be able to give any definition of the Khalsa in the world.

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बाला साहेब ठाकरे होने का मतलब

87 साल की उम्र में बाला साहब की मौत हो गयी। जीने के लिए इससे ज्यादा और उम्र की भला क्या जरूरत? एक भरी पुरी जि+न्दगी। जीते जी इतनी शोहरत, इतनी दौलत! मरने के बाद इतना मातम! अन्तिम संस्कार में 20 लाख की जनता का शोक। चैबीसों घण्टे घड़ी के कांटे से भी तेज गति से चलने वाली मुम्बई थम गयी। दो करोड़ की आबादी में से 20 लाख आबादी बालासाहेब की अन्तिम संस्कार में शामिल थी। बाकी सारे लोग सांस रोके समय के बीत जाने का इंतज+ार कर रहे थे। समूचा राष्ट्रीय मीडिया बालासाहेब के जीवन की कशीदाकारी उकेरने में पूरी शिद्दत से लगा रहा। चिल्ला-चिल्ला के टीवी एंकरों का गला बैठ गया। प्रधानमंत्री ने नेताओं के लिए आयोजित डिनर पार्टी रद्द कर दी। सारे मन्त्री सन्तरी, फिल्मी हस्तियां और बिजनेस टाईकून उनके लिए शोक सन्तप्त दिखे। और इसकी परिणति हुयी दो युवतियों की गिरफ्तारी से। शाहीन नामक एक लड़की ने अपने फेसबुक एकाउण्ट पर उनके निधन पर हुई बन्दी एवं इस दिखावे के औचित्य पर सवाल उठाया। उसकी एक सहेली ने उसे लाइक कर लिया। फिर क्या था। शिव सैनिको ने बालासाहेब की विरासत सम्भाल ली और उनके सच्चे उत्तराधिकारी की रवायत सम्भालते हुए शाहीन के डाक्टर चाचा के क्लीनिक पर हमला कर दिया। तोड़ फोड़ की और लड़की के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दी। मुम्बई पुलिस ने भी बगैर किसी देरी के उन दोनो लड़कियों को गिरफ्तार कर लिया।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर क्या हुआ कि एक प्रान्तवादी, साम्प्रदायिक एवं फासीवादी बुजुर्ग के अपनी प्राकृतिक मौत मर जाने पर इतना शोक क्यों उमड़ पड़ा। क्या था उस व्यक्ति में कि अधिकांश मध्यवर्गीय मराठी मानुष, नेता, अभिनेता, बिल्डर, उद्योगपति इतने शोकाकुल हो उठे।
यहां हम बाला साहब ठाकरे के बहाने भारत के शासकवर्ग का असली चेहरा भी देख सकते हैं। आखिर शासक वर्ग के इन रहनुमाओं को बालठाकरे से इतनी हमदर्दी क्यों है?
दरअसल जिस समय बाला साहेब ठाकरे ने शिव सेना की बागडोर सम्भाली, उस समय मुम्बई के बड़े पूंजीपति संगठित मजदूर आंदोलन का सामना कर रहे थे। मजदूर यूनियनंे ज्यादातर सीपीई के हाथ में थी। गिरनी कामगार यूनियन, मजदूरो की बड़ी और जुझारु यूनियन थी। मुंबई 1947 से पहले से ही मजदूर आंदोलन का बड़ा क्रेन्द्र रहा है। 1946 में नौसैनिकों के विद्रोह के समर्थन में सबसे बड़ी और असरकारक हड़ताल मुम्बई में ही हुई थी। शिवसेना के अविर्भाव के समय तक भी यह परंपरा बरकरार थी।
कांग्रेस पर पूंजीपतियों की तरफ से मजदूरों को ‘अनुशाषित करने’ का बहुत दबाव था। वह समय ‘निजीकरण’, ‘उदारीकरण’ का भी नहीं था। अतः काग्रेस चाहते हुए भी यह काम खुले तौर पर कानून का सहारा लेकर नहीं कर सकती थी। उस समय काग्रेस को कानून व्यवस्था के बाहर एक ऐसी फोर्स की जरुरत थी जो राज्य और कानून व्यवस्था के मौन समर्थन से यह काम भी कर दे और राज्य और काग्रेस का मजदूर विरोधी चरित्र भी उजागर ना हो। ‘संयुक्त महाराष्ट्र’ आन्दोलन से शिवसेना और बाल ठाकरे को एक पहचान और अहमियत मिल चुकी थी। और अब काग्रेस और मुम्बई के रुलिंग क्लास वह मिल चुका था, जिसकी उसे तलाश थी। एक बालठाकरे नामक व्यक्ति को शेर की खाल पहनाने की कवायद शूरु हो गयी। और जन्म हुआ उस ‘शेर’ का जिसके दांतो से मजदूरों, दलितो और मुसलमानोे का खून रिस रहा था। क्या आज का रुलिंग क्लास मजदूरो, दलितों और मुसलमानों के खिलाफ खड़ा नही है? तो बाला साहेब की मौत पर इनका टेसुवे बहाना स्वाभाविक ही है।
जून 1970 में इस ‘शेर’ का पहला राजनीतिक निशाना बने मजदूर आन्दोलन के जुझारु नेता और सीपीई के तत्कालीन एमएलए कृष्णा देसाई। एक शिव सैनिक ने उनकी हत्या कर दी। खुलेआम इस हत्या का अनुमोदन करते हुए बाला साहेब ने कहा कि मुम्बई पर ‘लाल भैया’ लोगो की नही बल्कि शिवसेना की हूकूमत चलेगी।
कृष्णा देसाई की हत्या से खाली हुई सीट पर हुए उपचुनाव से पहला शिवसैनिक एमएलए बनकर महाराष्ट्र विधानसभा में पहुंचा। यानी शिवसेना की चुनावी राजनीतिक यात्रा एक मजदूर नेता की लाश पर चढ़कर शुरु हुई। इससे पहले शिवसैनिको ने 1967 में एक बडा+ हमला करते हुए ‘गिरनी कामगार युनियन’ के दफ्तर को पूरी तरह जला दिया था। उस समय के मुख्यमंत्रियों क्रमशः बसंतराव नाइक और बसंतदादा पाटिल का इन्हे जबर्दस्त संरक्षण मिला हुआ था। यह संरक्षण इस हद तक था कि शिवसेना बसंत सेना के रुप में भी जानी जाने लगी थी।
महाराष्ट्र डाॅ. अम्बेडकर और दलित आंदोलन की भी कार्यस्थली रहा है। महाराष्ट्र विशेषकर मुम्बई के सवर्ण शासक वर्ग के लिए यह आंदोलन हमेशा से उसकी आंख में चुभता रहा है। शिवसेना इस मोर्चे पर भी उसके लिए राहत लेकर आयी। हालांकि यहां शिवसेना ने दोहरी नीति अपनायी – कुचलने के साथ साथ कोआप्ट करने की नीति। महाराष्ट्र के बहुचर्चित दलित आंदोलन ‘दलित पैंथर’ को कुचलने में राज्य के साथ साथ शिवसेना की भूमिका अब किसी से छिपी नही है। ‘दलित पैंथर’ के सक्रिय कार्यकर्ता ‘भागवत जाधव’ की शिवसेना ने जघन्य हत्या कर दी। दूसरी और नामदेव ढसाल जैसे बड़े दलित लेखक को शिवसेना में महत्वपूर्ण जगह देकर उन्हे ‘कोआप्ट’ कर लिया। और उनके दलित आन्दोलनकारी रुप की हत्या कर दी। आनन्दपटवर्धन ने अपनी कई फिल्मों में इस पहलू पर रोशनी डाली है।
1990 आते आते तो पूरा परिदृश्य ही बदल गया था। ‘निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण’ की आंधी के साथ साथ साम्प्रदायिकता का बुखार भी चरम पर था। साम्प्रदायिक ताकतों के बीच एक तरह की होड़ सी मच गयी कि कौन अधिक साम्प्रदायिक है। परिणाम था- बाबरी मस्जिद का विध्वंस और तत्पश्चात मुम्बई में करीब 2000 मुसलमानों का सुनियोजित कत्लेआम । जस्टिस श्री कृष्णा आयोग ने इस दंगे के लिए सीधे सीधे बाल ठाकरे को दोषी ठहराया, लेकिन शासक वर्ग के चहेते बाल ठाकरे पर कोई आंच नही आयी। लता मंगेशकर जब यह कहती हैं कि बाला साहेब के जाने के बाद मुम्बई अनाथ हो गयी तो क्या उन्हे अहसास है कि 1992 के कत्लेआम में कितने मुस्लिम बच्चें अनाथ हो गये थे ?
कहना ना होगा कि इस बीच साम्प्रदायिक राजनीति का वोट बैंक इतना ठोस हो चुका था कि बाला साहेब को नजरअंदाज करना किसी के लिए भी मुश्किल हो गया था।
अभी अभी खबर आयी कि कसाब को फांसी दे दे गयी। आतंक के एक रुप को फांसी और दूसरे रुप को गार्ड आफ आनर ।
भारतीय राज्य को यह अच्छी तरह पता है कि आतंक के किस रुप को कुचलना है और किस रुप को गले लगाना है। बाल ठाकरे परिघटना भी इसका अपवाद नहीं है।

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बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!


नागार्जुन ने ‘बाल ठाकरे’ पर यह कविता 1970 में लिखी थी। इस कविता को याद करने का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता है।

बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!
कैसे फासिस्टी प्रभुओं की —
गला रहा है दाल ठाकरे!
अबे संभल जा, वो आ पहुंचा बाल ठाकरे !
सबने हां की, कौन ना करे !
छिप जान, मत तू उधर ताक रे!
शिव-सेना की वर्दी डाटे जमा रहा लय-ताल ठाकरे!
सभी डर गए, बजा रहा है गाल ठाकरे !
गूंज रही सह्यद्रि घाटियां, मचा रहा भूचाल ठाकरे!
मन ही मन कहते राजा जी; जिये भला सौ साल ठाकरे!
चुप है कवि, डरता है शायद, खींच नहीं ले खाल ठाकरे !
कौन नहीं फंसता है, देखें, बिछा चुका है जाल ठाकरे !
बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!
बर्बरता की ढाल ठाकरे !
प्रजातंत्र के काल ठाकरे!
धन-पिशाच के इंगित पाकर ऊंचा करता भाल ठाकरे!
चला पूछने मुसोलिनी से अपने दिल का हाल ठाकरे !
बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे! बाल ठाकरे!

—–नागार्जुन
(जनयुग, 7 जून 1970)

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