‘सभ्य’ समाज का निर्मम और बदसूरत चेहरा पेश करती फिल्म- ‘रोटी’

तो बात करते हैं 1942 में महबूब द्वारा निर्देशित फिल्म ‘रोटी’ की। बरसों पहले इस फिल्म को दूरदर्शन पर देखा था। यह फिल्म पूंजीवादी सभ्यता और वर्ग आधारित समाज पर आदर्शवादी नजरिये से बहुत ही तीखा कटाक्ष करती है। फिल्म में बेगम अख्तर को अभिनय करते देखना बहुत ही सुखद था। फिल्म की शुरुआत होती है अमीरों एवं गरीबों के बीच की खाई को दर्शाते हुए कुछ दृश्यों के कोलाज से। जग्गू नामक चरित्र फुटपाथ पर घूमते हुए एक बेघरबार और भूखे व्यक्ति से टकराता है जिसका चेहरा एक धनी बूढ़ी महिला के बेटे लक्ष्मीदास से हूबहू मिलता है। जग्गू को यह पता है कि लक्ष्मीदास मर चुका है अतः वह उस भूखे बेघरबार व्यक्ति को सजा धजा कर बूढ़ी धनी महिला के सामने उसके बेटे के रूप में पेश करता है। बूढ़ी मां ‘अपने बेटे’ को सहर्ष स्वीकार कर लेती है। और वह भूखा बेघरबार व्यक्ति रातों रात सेठ लक्ष्मीदास बन जाता है। सेठ लक्ष्मीदास का रोल चन्द्रमोहन ने बखूबी निभाया है।

उस धनी बूढ़ी महिला के बिजनेस में एक बराबर का हिस्सेदार सेठ ताराचन्द है जिसकी बेटी बेगम अख्तर द्वारा अभिनीत ‘डार्लिंग’ है। बूढ़ी महिला और उसके बिजनेस पार्टनर ताराचन्द ने पहले ही यह तय कर रखा था कि जब उसका बेटा लक्ष्मीदास लौट कर आएगा तो डार्लिंग से उसकी शादी कर दी जाएगी। अपने ‘बेटे’ लक्ष्मीदास को अपना आधा बिजनेस सौंप कर बूढ़ी महिला मर जाती है। सेठ लक्ष्मीदास दूसरे आधे बिजनेस को हड़पने के लिए साजिश करके सेठ ताराचन्द को मार डालता है। ताराचन्द के मुनीम और डार्लिंग दोनो को लक्ष्मी पर संदेह होता है। लेकिन लक्ष्मीदास के हाथ में अब पूरे बिजनेस की बागडोर है इस लिए वे खुले तौर पर कुछ नहीं कर पाते। इस लिए डार्लिंग और मुनीम जी यह तय करते हैं कि वे लक्ष्मीदास से अच्छा सम्बन्ध बनाए रखेंगे और समय आने पर उससे बदला लेंगे।

इस बीच लक्ष्मीदास की लालच की हवस और बढ़ती जाती है। इसी हवस के वशीभूत हो कर वह बाजार से सारा आनाज खरीद लेता है और उनके भाव को काफी बढ़ा देता है। अपनी ही फैक्ट्री के मजदूरों की हड़ताल को भी वह निर्ममता पूर्वक कुचल देता है। इसी बीच उसे कहीं से जानकारी होती है कि दूर कहीं जंगल में सोने की खदानें हैं। लक्ष्मीदास उत्साहित हो जाता है। और इस सोने की खदान की तलाश में डार्लिंग के साथ हवाई जहाज से उस जगह की ओर निकल पड़ता है। बीच जंगल में उसका प्लेन क्रैश हो जाता है। जहाज में इन दोनो के सिवाय सभी मारे जाते हैं। सेठ लक्ष्मीदास और डार्लिंग बेहोश हो जाते हैंं। जंगल के आदिवासियों ने कभी भी जहाज नहीं देखा था। जंगल के आदिवासी उन्हंे बचाते हैं और उनकी पूरी मदद करते हैं। जंगल में रहते हुए ही डार्लिंग एक आदिवासी बालम के प्रति आकर्षित हो जाती है।

फिल्म का यह हिस्सा एक खूबसूरत यूटोपिया रचता है। यहां सभी लोग खेतों पर एक साथ काम करते हैं। और अनाज को सबके बीच बराबर बराबर बांटा जाता है। यहां न सिर्फ लोगों के बीच समानता है वरना स्त्री पुरुषों के बीच भी समानता है।

डार्लिंग पर इस सबका बहुत अच्छा असर पड़ता है। यहां के लोगों ने अमीर और गरीब जैसे शब्द सुने ही नहीं थे। लेकिन बालम अपने ही समुदाय की लड़की किनारी से प्यार करता है। यह रोल बखूबीे सितारा देवी ने निभाया है।

लक्ष्मी दास यहां के रहन सहन और बराबरी के जीवन से कतई प्रभावित नहीं होता। वह स्वस्थ होकर इस जंगल से निकल कर पुनः अपने बिजनेस साम्राज्य में जाना चाहता है। इसके लिए वह कुछ स्वर्ण मुद्राएं बालम और किनारा देवी को देता है कि वे उसे इस जंगल से बाहर उसके शहर तक पहुंचा दें। यहां पर बालम का लक्ष्मीदास के साथ तर्क बहुत दिलचस्प है। बालम कहता है कि मैं इस जंगल के बाहर कभी नहीं जाउंगा क्योंकि मैंने सुना है कि जंगल से बाहर निकलते ही यहां के लोगांे को गुलाम बना लिया जाता है। तुम्हारी ये स्वर्णमुद्राएं हमारे किसी काम की नही। हमारे बापदादाओं ने हमें समझाया है कि ये स्वर्ण मुद्राएं हमारे लिए अपशकुन हैं। इनके पास होने से आदमी बदल जाता हैै। परन्तु लक्ष्मीदास किसी तरह से किनारी को प्रभावित करने में सफल रहता है और किनारी बिना बालम को बताए लक्ष्मी दास से कुछ स्वर्णमुद्राएं लेकर अपने दो प्यारे भैंसों चंगू-मंगू की गाड़ी के साथ लक्ष्मीदास और डार्लिंग को जंगल से बाहर भेजने की व्यवस्था कर देती है। बाद में जब बालम को इस बात का पता चलता है तो वह बहुत नाराज होता है। लेकिन तब तक लक्ष्मीदास और डार्लिंग चंगू-मंगू को लेकर जंगल से निकल चुके होते हैं। किनारी को भी अपनी गलती का अहसास होता है। अन्त में किनारी और बालम यह फैसला करते हैं कि वे जंगल से बाहर शहर में जाकर चंगू मंगू को वापस लेकर आएंगे। लक्ष्मीदास ने उन्हें सोने के सिक्कों का महत्व बताया था। इसलिए वे अपने साथ वे सिक्के रख लेते हैं। एक लम्बी यात्रा के बाद वे शहर पहुंच जाते हैं।
शहर, जहां इंसान नहीं अमीर और गरीब बसते हैं। जहां इंसानों की नहीं पैसों और सोने की पूजा होती है। बराबरी वाले समाज से आए बालम और किनारी के लिए यह सबकुछ अजूबा सा है।

इसके बाद कहानी तेज गति से भागती है। सेठ लक्ष्मीदास उन्हें अपमानित करता है। उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं। इसी घटनाक्रम में बालम को कैद हो जाती है। डार्लिंग जब बालम और किनारी की मदद की कोशिश करती है तो लक्ष्मीदास उसे भी कैद कर लेता है। अन्ततः डार्लिंग लक्ष्मीदास की नज+र बचा कर बालम और किनारी को उसका चंगू-मंगू दिलवा कर वापस जंगल की ओर रवाना करती है और मौका मिलते ही लक्ष्मीदास के बिजनेस को भी धराशायी कर देती है। सेठ लक्ष्मीदास पर काफी कर्ज चढ़ जाता है। सेठ लक्ष्मीदास इन सबसे बौखला कर अपने घर में खुद आग लगा कर अब तक जमा सोना एक गाड़ी में इकट्ठा करके कहीं दूर जंगल की तरफ निकल पड़ता है। जंगल से पहले रेगिस्तान के वीराने में उन्हें प्यास लगती है। यहां लक्ष्मीदास का सोना कुछ काम नहीं आता। वे उस रेगिस्तान में भटकने लगते हैं। वहीं इन दोनों की एक बार फिर बालम और किनाारी से मुलाकात होती है। बालम और किनारी सबकुछ भूलकर अपने स्वभाव के अनुसार एक बार फिर सेठ लक्ष्मीदास और डार्लिंग को बचाने का प्रयास करते हैं। लेकिन सेठ लक्ष्मीदास अपने पैसे की अकड़ में मदद लेने से इंकार कर देता है। इस तरह सेठ लक्ष्मीदास अपनी डार्लिंग और भारी सोने के साथ वहीं मर जाता है और बालम और किनारी अपनी दुनिया में खुशी-खुशी चले जाते हैं। वहां झूमते गेहूं और बराबरी के मूल्य ही उनका सोना है।
फिल्म पूंजीवादी सभ्यता और गैरबराबरी वाले समाज पर बहुत ही तीखा कटाक्ष करती है। कुछ डायलाॅग तो बहुत ही स्पष्ट हैं। जैसे लक्ष्मीदास कहता है कि हमारे सोने के महल मजदूरों की लाशों पर ही बनाए जाते हैं।
1942 में एक ऐसी फिल्म बनी जो बहुत साफ-साफ अपना पक्ष रखती है। यह देख कर बहुत ही सुखद आश्चर्य होता है कि जहां आज की अधिकांश मूल्यविहीन फिल्में लोगों को एक मायालोक में घुमाती हैं वहीं उस वक्त की इस फिल्म में मूल्य कितने स्पष्ट थे।

महबूब को आमतौर पर ‘मदर इण्डिया’ के लिए याद किया जाता है। लेकिन यदि युग की सीमा को ध्यान में रखा जाय तो मेरे ख्याल से ‘रोटी’ उनकी बेहतरीन फिल्म है।

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