खम्भा

गेहूं काटते-काटते अचानक रीता की नज+र सामने बैठे कक्का पर पड़ी। उनकी नज+रें उसकी खुली हुयी पिण्डलियों पर टिकी हुयी थी। गेंहूं काटने में मगन रीता को इस बात का ख्याल ही नहीं रहा कि कब उसकी साड़ी सरक कर घुटनों तक पहुंच गयी थी और कक्का उसे घूरे जा रहे थे। वह सबेरे से सामने मेड़ पर डेरा जमाए बैठे थे। बहू-बेटियां चैन से काम भी नहीं कर सकती थीं। एक तो सिर पर सूरज तप रहा था। गर्मी के कारण जी बेहाल था। सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। ऊपर से सामने बैठै कक्का के कारण घंूघट और निकालना पड़ रहा था। घंूघट के कारण पिसिया (गंेहूं) के साथ हंसिया मुट्ठी पर लगने का खतरा हमेशा बना रहता। काम बहुत साध कर करना पड़ता था नहीं तो पिसिया के साथ-साथ उनके कटे हाथ का लहू भी उस बामन के परिवार के पेट में चला जाए। इसी चक्कर में रीता की सिन्थेटिक साड़ी न जाने कब सरक कर घुटने पर पहंुच गयी और कक्का मुसलसल उसे घूरे जा रहे थे।
घूंघट में से ही उनकी उस नज+र को देख कर रीता बमक कर खड़ी हो गयी और हाथ का हंसिया नचा कर बोली-‘हे डोकर का घूर रहे हो तुम। इसी पिसिया की तरह तुम्हाओ मूड़ भी उतार लेंगे हम।……… तुम्हारे खेत में मजूरी कर रहे हैं तो ये मत समझना कि बिक गए हैं हम।……. अरे तुम्हारे बाप-दादा ने हमारी जमीन न हड़प ली होती तो आज हम भी तुम्हारे घर की जनानियों की तरह रानी बन कर बैठे होते।…..यूं धूप में न खट रहे होते…..’ चैत की धूप की सारी प्रचण्डता मानो उसकी आवाज+ में उतरती जा रही थी। इससे पहले कक्का सम्हलते आस-पास के खेतों में काम कर रहे सारे लोग वहां इकट्ठे होने लगे थे। …‘का हुआ….का हुआ….’ लोग पूछने लगे। रीता की आवाज और भी तीखी और कर्कश हो उठी-‘अरे अपने घर की बहू-बेटियों को सात तालों में बन्द करके रखत हैं और गरीबों की बहू-बेटियों पर बुरी नज+र रखत हैं ये लोग’….।
बात बढ़ती देख कक्का ने वहां से सरक लेने में ही भलाई समझी। रीता गुस्से से वही मेड़ पर बैठ गयी। बारह तेरह साल की उसकी बेटी पूजा उसके लिए पानी लेकर आयी -‘लो मम्मी पानी पी लो। अच्छा किया तुमने आज कक्का को सुना दयी। बे अच्छे आदमी नहीं। कई बार बे हमें भी घूरन लगत हैं।’ ‘न मोढ़ी, डरियो न किसी से….तुम्हारे ऊपर बुरी नज+र डालें तो मूड़ उतार लेय हम इसी हसिया से हां…….’- रीता की आंखों में खून उतर आया था। पूजा सिर हिलाते हुए अपनी मां के बगल में बैठ गयी। पानी पी कर रीता ने पूजा से कहा-‘चल बेटा कटाई कर लें। घाम तेज होन से पहले कछु काम निपटा लें…..’। मां-बेटी दोनो फिर कटाई में लग गयी थी। इस बार रीता के तमतमाये मुंह पर घूंघट नहीं था……।
सांझ को रीता के घर पहंुचने से पहले ही उसकी कक्का से लड़ने की खबर पहुंच गयी थी। रीता का निकम्मा पति मोहर सिंह वहीं पीपल तले गांव के जुआरियों के साथ लकडि़या खेल रहा था। तभी कक्का अपनी धोती पकड़े तेज गति से चले जा रहे थे। मोहर सिंह ने वहीं से आवाज+ लगायी-‘पांय लगूं कक्का …अरे हम कही, कहां भागे जाय रहें हैं, जा बखत धोती संभाल के।’ कक्का ठहर गए..। जो बात रीता से कहने की हिम्मत नहीं हुयी थी। वह तमतमा कर मोहर सिंह को अर्ज कर दी-‘बहुत लम्बी जबान हो गयी है तेरी बहू की…..। तूने उस पर कन्ट्रोल नहीं रखा है तनिक भी….’। फिर तो कक्का ने खूब नमकमिर्च लगा कर बतायी उसकी बहू की करतूत।
आज से दस साल पहले मजाल थी कोई कक्का लोगों (पंडितोंे) और बाबू साहब (ठाकुरों) लोगों के सामने नीची जाति के लोग बैठे रहें और उनके सामने नज+र उठा सकें। पर आज हालात बदल गए हैं। आज कल के नौजवान लड़के उनको नहीं सेटते। वहीं पीपल के नीचे बैठ के लकड़ी खेलते रहते हैं और कक्का और बाबूसाहब के गुजरने पर अपनी जगह से नहीं हिलते। बाबू साहब लोग तो कतरा कर निकल जाते हैं। हां कक्का लोग थोड़े लचीले होते हैं। समय के साथ चलने वाले। वे अपनी बोली में बनावटी मिठास लाकर बोलते हैं-‘का रे कलुआ कैसा है रे तू? कब आया दिल्ली से कमा के?’ इतना कहते हुए वे उसके जवाब का इन्तज+ार नहीं करते। यह अलग बात है कि दोनो के ही दिलों में इन नीची जाति के लोगों के लिए नफरत पहले से कहीं ज्यादा है।
कक्का ने रीता की शिकायत मोहर सिंह से कर के अपने मन की भड़ास निकाली। लेकिन क्या करता मोहर सिंह। उसकी हिम्मत नहीं थी कि वह आज रीता को कुछ बोलता। आखिर वही घर संभाले हुए थी इस वक्त। एक ज+माना था कि वह घर में उस खम्भे पर बांध कर रीता को पीटता था जिस पर घर की छाजन टिकी हुयी थी। वह गांव के लड़कों के सामने अपने अतीत की डींग हांकने लगा। ‘………घंटो पीटत रहे हम वाको….पर मजाल कि चूं निकल जाए….।’ मोहर सिंह मर्दानगी हांक रहा था। पर आज तो रीता खुद वह खम्भा बन गयी थी जिस पर पूरा घर टिका हुआ था।
थकी हारी रीता पूजा के साथ घर लौटी। अभी सबके लिए रोटी भी पकानी थी। आंचल से पसीना पोछते हुए वह भीतर वाले कमरे में घुसी। आज सुबह की घटना से उसका सिर अभी तक भन्ना रहा था। चारपाई पर बैठते हुए उसके दिमाग में अपना पिछला जीवन कौंध गया।
अपने बाप के घर की हज+ार रोटी मुश्किल से खा पायी होगी कि उसके बाप ने उसे यहां ढकेल दिया था। उससे तो बेहतर वे छिरियां थीं जिन्हें बहुत प्यार से पाला जाता था उनके घर। उनका भी कुछ मोल था। पर उसके बाप ने सोचा ‘ये मोढ़ी की जात… जाने कहां से पैदा होय जाती हैं जे…। इससे तो अच्छा पहले था। पैदा होते ही चरपाइयन के पावा के नीचे धर के बैठ जाओ। बस्स छुट्टी…..। छुट्टी तो आज काल भी मिल जाए है। पर शहरन मा….। बहरहाल, 11 साल की अबोध रीता ब्याह कर आ गयी मोहर सिंह के घर।
मोहर सिंह 20-22 साल का बांका था उस वक्त। काम-धंधा कुछ नहीं। आवारा लड़कों के साथ खुद भी आवारा। सांझ ढलते ही वे हाईवे पर बैठ जाते थे अपना अपना मुंह ढांक कर। आने वाले मोटरसाइकिल सवारों को रोक कर लूटपाट करते। अगर माल देने में कोई हिचकता तो मार पीट करते लेकिन कभी जान से नहीं मारते थे। कौन पुलिस के चक्कर में आए। रोज सौ-पचास हाथ लग जाते सबके। अपने बीड़ी-गुटका के लिए बहुत थे। कभी ज्यादा हाथ में आते तो अम्मा के हाथ में भी रख देते और ढेरों असीस लेते।
ज+मीन के नाम पर एक टुकड़ा भी नहीं था उनके पास। बब्बा यानी डोकर, बाबू साहब के पशुओं की देखभाल करते और बदले मे खाने-पीने को कुछ मिल जाता था। बड़े भइया खेतों में मजूरी करते। इस तरह घर चल रहा था। कहते हैं इनके पुरखों के पास कुछ ज+मीन थी। 10-12 बीघे। पर सब ठाकुर, बामन को होम चढ़ गयी। सम्पत्ति के नाम पर एक टूटा फूटा घर था। जिसमें दो दालान थे। बाद में भइया महान सिंह, मोहर सिंह का घर बस जाने के बाद, उसके निकम्मेपन के कारण तथा रोज-रोज चोरी की शिकायत आने के कारण नाराज होकर अलग हो गए। एक दालान की तरफ का हिस्सा उन्होंने अपने लिए ले लिया और अलग पकाने-खाने लगे। उन्होंने ब्याह नहीं किया था। कहते हैं गांव की एक विधवा से उनके सम्बन्ध थे। इसके विषय में जानते सभी थे पर कहता कोई कुछ नहीं था। बस अम्मा को वो बुआ फूटी आंख नहीं सुहाती थीं।
इस दालान में टी के आकार में दो कमरे थे। एक कमरा बेड़ा लम्बा जिसके बीचों बीच दरवाजा था। उसी दरवाजे से जुड़ा हुआ एक अन्य कमरा लम्बाई में था। दरवाजे की ओर मुंह करके खड़े हो जाएं तो वह अंग्रेजी के टी अक्षर की तरह लगता था। भीतर वाले कमरे में एक ओर वाई आकार का एक मोटा सा पेड़ का तना था जिस पर छत टिकी हुयी थी। छत क्या खपरैल थी। बरसों से जिसकी मरम्मत नहीं हुयी थी। बरसात मंे घर मंे इतना पानी टपकता था कि समझ मंे नहीं आता था कि कहां बैठें, कहां सोएं और कहां पर चूता हुआ पानी बटोरें। घर में सामान के नाम पर कुछ नहीं था। एक चारपाई, कुछ टूटे हुए थरिया गिलास और कुछ ओढ़ने बिछाने के कपडे+ बस्स। कमरे की फर्श भी सीधी नहीं थी। ऊबड़-खाबड़ थी। भीतर वाले कमरे की फर्श तो ढलान लिए हुए थी। रात में सोओ तो ढनक जाओ एक ओर। सुबह सोकर उठो तो करिआंह पिराने लगती थी।

इसी मड़ैया मंे ढकेल दी गयी थी छोटी सी अबोध रीता। गेहुंए रंग की दुबली-पतली रीता की नाक जितनी पतली नुकीली थी, कमर उससे भी पतली थी। उससे न तो कमर में साड़ी सम्भलती न सिर पर घूंघट। लेकिन रात में दारू पीकर लौटे मोहर सिंह ने जब उसे दबोचना चाहा तो उसे धक्का देकर वह तेजी से भागती हुयी अम्मा के पीछे जा छिपी। हंसती हुयी अम्मा ने उसे वापस कमरे में ढकेल दिया। इस बार मोहर सिंह ने जैसे ही उसकी साड़ी खींच कर निकाली तो जैसे उसे मुक्ति मिल गयी। ब्लाउज पेटीकोट में ही वह सरसरा कर कमरे में छत को संभाले उस वाई आकार के खम्भे पर चढ़ गयी और सबसे ऊपर जाकर दुबक गयी। नीचे से मोहर सिंह उसे बुलाता रहा। अन्त दारू के नशे मंे धुत्त मोहर सिंह सो गया। पर वह खम्भा आखिर उसे कहां तक पनाह देता। बाद में कई बार इसी खम्भे से बांध कर उसे मोहर सिंह ने बडी बेरहमी से पीटा था। साढ़े तेरह, चैदह साल की उम्र में रीता पहली बार मां बनी। पूजा की मांं।
चैदह साल की रीता अब अपना सारा प्यार अपनी बेटी पर उड़ेलने लगी। पर मोहर सिंह के लिए उसके मन में अभी भी धिक्कार की भावना थी। क्योंकि वह कुछ करता धरता नहीं था। वे उसके बूढे+ ससुर और बड़े भइया की कमाई पर पल रहे थे। यह बात उसके स्वाभिमानी मन को कभी स्वीकार नहीं थी। इसके अलावा उसके पति की चोर उचक्के होने से सभी पीठ पीछे उसकी निन्दा करते। कल को उसकी बेटी बड़ी होगी तो चोर की बेटी कहलाएगी, यह बात उसे बहुत अखरती। इसलिए उसकी निगाह में हमेशा मोहर सिंह के लिए तिरस्कार होता। यह तिरस्कार मोहर सिंह को बहुत नागवार गुजरता। सारी दुनिया उसकी ‘मर्दानगी’ का लोहा मानती है और ‘जे औरत…जे हमें कुछ समझे ही न है……।’ फिर तो एक रोज उसके सब्र का बांध टूट ही गया। उसने रीता के सिर के बाल पकड़ लिए और हाथों और लातों से कर दी उसकी धुनाई। पर रीता की आंख से आंसू नहीं निकले। ‘जब अपने ही बाप ने रहम नहीं किया और ढकेल दई इस घर में तो इस कसाई से क्यू रहम की भीख मांगूं’ रीता ने सोचा। वह चुपचाप सारे प्रहार सहती रहती। मोहर सिंह को लगता जैसे वह किसी लाश को पीट रहा हो। वह जितना अधिक उसे पीटता उसका पौरुख मानो उतना ही घटता जाता। फिर एक दिन तो उसके उसके हाथ पैरों ने जवाब दे दिया। ये ऐसे नहीं मानेगी। मोहर सिंह ने सरसरा कर उसकी साड़ी खींच कर उतार दी और उसे निर्वस्त्र करके उस वाई आकार के खम्भे पर बांध दिया और लगा पीटने। वह उसे पीटता जाता और गाली देता जाता। तीन साल की नन्ही पूजा खम्भे के नीचे खड़े होकर अपनी पूरी ताकत लगा कर चीख रही थी। वह उसे तब तक पीटता रहा जब उस दलान से भाग कर उसकी मां ने आकर उसका हाथ नहीं पकड़ लिया।‘…… अरे क्या जान से मार डालेगा।’ अम्मा ने धोती उठाकर रीता पर डाल दी और खम्भे में बंधे उसके हाथ पैर खोल दिये। रीता निढाल होकर उसी ढलान वाली फर्श पर लुढ़क गयी।
अपनी जि+न्दगी में रीता कई बार उस खम्भे से बांध कर पीटी गयी। हर बार पूजा कातर भाव से अपनी मां को पिटते देखती। हर बार वह पहले से ज्यादा लम्बी हो जाती। आखिरी बार जब मोहर सिंह ने रीता को खम्भे से बांध कर मारने का प्रयास किया तो उसने आगे बढ़ कर अपने पति का हाथ कस कर पकड़ लिया। ‘खबरदार  जो आगे बढ़े…. हाथ तोड़ कर रख दूंगी…हां…..।’
इस बीच रीता तीन और बच्चों की मां बन गयी थी और काफी मजबूत और समझदार हो गयी थी। अब सारा घर उसकी मेहनत से चल रहा था। वह घर की बहू जरूर थी पर खेतों में काम करने जाती। अपने बच्चों का पेट भरने के लिए मेहनत मजूरी करने में कोई हर्ज नहीं है। वह जितना मेहनत करती उसकी आन्तरिक ताकत उतनी ही मजबूत होती जाती। उधर निकम्मा मोहर सिंह भीतर ही भीतर और अधिक कमजोर होता जा रहा था। आज उसकी हिम्मत नहीं थी कि वह रीता की ओर आंख उठा कर देख ले।
पर पूजा आज भी भीतर वाले कमरे में जाने से डरती। ‘मम्मी जा खम्भा निकरवा देओ या घर मा से। हम जब देखत हैं हमे डर लगन लगत है….जामे ही तो बांध के पापा तुम्हे मारत हते……..। मम्मी जाके निकरवा देओ…..।’ पूजा अकसर अपनी मां से इसरार करती। उसकी मां हंस के रह जाती।  ‘….. अरे खम्भा निकरवाए दंे तो छत कामे टिकी रहे…..।’ लेकिन पूजा देर तक सिहरती खड़ी रहती।
‘……..मम्मी आज पापा नहीं देखाय दे रहे। कहां चले गए…………‘ शाम को स्कूल से लौट कर पूजा ने रीता से पूछा। ‘कहीं रिस्तेदारी में गए हैं…कह रहे थे कोउ ने बुलाओ है किसी काम से..’ रीता ने जवाब दिया। ‘जे पापा कबसे काम करन लगे..’ पूजा ने हंसते हुए कहा। ‘अब भगवान जाने….’ कहकर रीता अपने काम में लग गयी। पूजा भीतर वाले कमरे में स्कूल की ड्रेस बदलने चली गयी।
रात को रोटी बन जाने के बाद मोहर सिंह घर वापस लौटे और भीतर के कमरे में पड़ी चारपाई पर जाकर बैठ गये। पूजा बाहर वाले कमरे में ढिबरी की रोशनी में पढ़ाई कर रही थी। उसने झांक कर देखा उसकी मां नल से लोटे में ठण्डा पानी भर कर उसके पापा को पकड़ा रही थी। पानी पीते हुए मोहर सिंह ने रीता से कहा-‘लाओ मुंह मीठा कराओ, हम तुम्हारी मोढ़ी की बात पक्की कर आए हैं।’ ‘का ऽ ऽ ऽ……’ रीता को तो जैसे करेंट लग गया। ‘पर अभी तो वह छोटी है। पढ़ रही है स्कूल में। अभी इतनी जल्दी का हती तुम्हें….।’
बाहर पूजा ने सुना तो चैंक पड़ी। ये उसके पापा क्या कह रहे हैं। कापी किताब उसके हाथ से छूट गयी। उसके ज+हन में खम्भे से बंधी उसकी मम्मी की तस्वीर घूमने लगी। वह एक दम से लपक कर भीतर आयी और ज+हर बुझे स्वर में अपने पापा से कहा-‘…का कह रहे हो पापा…हमारे लिए रिस्ता पक्का कर आए? घर द्वार खूब अच्छी तरह से देख लयी है के नहीं? कितने खम्भे हैं उनके घर में, जामे बांध कर बे तुम्हारी मोढ़ी को स्वागत करैंगे?’
मोहर सिंह के हाथ से लोटा छूट गया और कमरे की ढलान वाली फर्श पर लुढ़कता हुआ जा कर खम्भे से टिक गया………….।
कृति

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दादा यान मिर्डल दीर्घायु हो…………..

यह महज संयोग की बात है कि मैं अपने हाथ लगी एक जरूरी किताब यान मिर्डल की ‘रेड स्टार ओवर इन्डिया’ (सेतु प्रकाशन, कोलकाता, मूल्य 295 रु.) पढ़ रही थी। अभी इस किताब के कुछ पन्ने पढ़ने शेष थे कि प्रतिरोध.काम तथा जनपथ पर खबर पढ़ी कि भारत सरकार याॅन मिर्डल के भारत आगमन पर प्रतिबन्ध लगाने जा रही है। मैं कल्पना करने लगी एक 85 साल का बूढ़ा व्यक्ति इतनी सशक्त सरकार का क्या बिगाड़ सकता है भला?
ख+ैर, किताब पढ़ने से ही पता चला कि सन 2010 में 84 साल का यह बूढ़ा दो हफ्तों के लिए देश के उस सघन दण्डकारण्य के जंगल में गया था जहां अभी कुछ दिनों पहले भारतीय सेना अपना पूरा लाव-लश्कर लेकर गयी थी, जहां तमाम युवा ‘जांबाज’ पत्रकार जाते रहते हैं और वहां चल रहे संघर्ष की सही-गलत रिपोर्टिंग करते हैं।
84 साल के यह बूढ़े लेखक जब वहां गये तो उनके साथ-साथ गयी- एक लम्बे जीवन अनुभव के साथ एक सम्पन्न इतिहासदृष्टि। इसी इतिहासदृष्टि से उन्होंने वहां चल रहे आन्दोलन का मूल्यांकन किया। प्रसिद्ध लेखक तथा ‘एशियन ड्रामा’ के रचयिता गुन्नार मिर्डल के पुत्र याॅन मिर्डल को यह इतिहासदृष्टि विरासत में मिली है। 1927 में स्टाकहोम के ब्रोम्मा में जन्मे मिर्डल ने इतिहास का एक लम्बा दौर देखा है और अपने दीर्घ जीवन काल में तमाम उतार चढ़ाव देखे है। द्वितीय विश्व युद्ध की भयावहता का अहसास आज भी उनके भीतर जीवित है। उस वक्त तीसरी दुनिया मंे चल रहे उपनिवेशों के मुक्ति संग्राम, चीन की क्रान्ति, 1960, व 1970 के दशक के झंझावातों को उन्हांेने बहुत करीब से देखा है। फिर 1980 और 1990 के बाद से विश्व राजनीति में आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण का दौर और उनके परिणाम से वह अच्छी तरह से वाकिफ हैं। इसके अतिरिक्त रूस, पूर्वी यूरोप एवं चीन में समाजवाद का पराभव। इन सबने उनके भीतर बहुत सी उम्मीदें और नाउम्मीदी के द्वैत को जन्म दिया है। दण्डकारण्य में घुसते वक्त वह इतिहास के इन उतार-चढ़ावों के प्रति बहुत सजग थे। अपनी इस किताब में उन्होंने बार बार उस सजगता का परिचय दिया है।
वह आजीवन एक सक्रिय ऐक्टिविस्ट रहे हैं। अपनी किशोरावस्था से ही वह भारत से परिचित हुए थे। भारत से उनका सबसे पहला परिचय कराया था रजनीपाम दत्त की किताब ‘इन्डिया टुडे’ ने। यह किताब कुछ राजनीतिक कमियों के साथ उस वक्त के भारत का सही परिचय कराती है।
यान मिर्डल 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यांकन के साथ, इतिहास की सीढि़यां चढ़ते हुए भारत के संघर्षक्षेत्र बस्तर के घने दण्डकारण्य में दाखिल होते हैं।
भारत सरकार के सजग खुफिया तन्त्र को धता बताते हुए वह दण्डकारण्य में प्रविष्ट हुए और वहां के कामरेडों के साथ उस कठिन पहाड़ी रास्ते में आगे बढ़ते गए।
84 साल के इस बूढे के घुटनों में भयानक दर्द है। युवा आदिवासी कामरेड उन्हें बांस के स्टेªचर पर उठा लेते हैं। अपने इसी दुखते घुटनों के कारण वह दण्डकारण्य मंे ज्यादा घूम नहीं पाए। शायद इसीलिए यह किताब वहां के रोजमर्रा के हालात के बारे में वह विस्तृत ब्यौरा नहीं देती है। एक कैम्प से दूसरे कैम्प में ही रहते हुए वह वहां की तमाम चीजों को आब्जर्व करते हैं। जैसी कि बुजुर्गों की आदत होती है, वह उम्र के इस अन्तिम पड़ाव पर आकर बार-बार पीछे मुड़कर देखते हैं। मिर्डल भी दण्डकारण्य का जिक्र करते करते बार-बार अतीतग्रस्त हो जाते हैं। अतीत में घटी घटनाओं में वर्तमान को अवस्थित करते हैं। परन्तु उनकी यह अतीतग्रस्तता खलती नहीं है बल्कि वह वर्तमान को बहुत बारीकी से इतिहास मंे पिरोते हैं और हमारे दिमाग में वाजिब सवाल छोड़ देते हैं जिससे हम अपने वर्तमान को इतिहास के उन पन्नों में खंगालें और उनके सही गलत को पहचान सकें। वह चेताते हैं कि अगर यह आन्दोलन जंगल से बाहर जाकर व्यापक नहीं हुआ तो अलगाव में पड़ जाएगा।
तमाम बारीक ऐतिहासिक पड़ताल के साथ-साथ मिर्डल के पास समाज-साहित्य एवं संस्कृति को परखने की भी एक सूक्ष्म दृष्टि है। जनता की कविताओं के गान वाले अध्याय में वह तेलुगू साहित्य के बारे में बताते हैं। चेरबन्डा राजू से लेकर श्रीश्री एवं वरवरराव जैसे कवियों की रचानाओं का वह उल्लेख करते हैं। उन्हें न केवल तेलगू साहित्य की जानकारी है बल्कि वह 1970 के दशक में स्थापित क्रान्तिकारी लेखक संगठन ‘विरसम’ का भी वर्णन करते हैं।
वह आन्दोलनों पर अतीत एवं वर्तमान में हो रहे राज्य के दमन के प्रति बेहद चिन्तित हैं। उन्हें 13 साल की उम्र में पढ़ी हावर्ड फास्ट की रचना ‘द आयरन हील’ बरबस याद हो जाती है। वह भारत तथा अमेरिका में जनता के तमाम आन्दोलनों को कुचलने के लिए तत्पर ‘आयरन हील’ से व्यग्र हैं। फिर भी दण्डकारण्य से उन्हें काफी उम्मीदें हैं।
85 साल का यह बुजुर्ग केवल वहां की ऐतिहासिक-राजनीतिक-साहित्यिक-सामाजिक पड़ताल ही नहीं करते बल्कि वह वहां की सांस्कृतिक विशिष्टता को भी बताते हैं। एक बुजुर्ग के प्रति आदिवासी समाज का सरोकार एवं संवेदनशीलता उन्हें बहुत प्रभावित करती है। वह भारत जैसे समाजों में बूढों के प्रति रवैया एवं स्वीडेन जैसे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देश स्वीडेन के समाज में बूढ़ों के प्रति रुख की तुलना करते हैं। जब वहां युवा कामरेड उन्हें रात में उठकर पेशाब जाने में उनकी मदद करते हैं या उन्हें नहाने एवं अन्य काम में मदद करते हैं तो वह बेहद आप्लावित हो जाते हैं। वह बताते हैं कि स्वीडन में भले ही जीवन प्रत्याशा भारत से अधिक हो, लेकिन वहां बूढे व्यक्तियों द्वारा इच्छामृत्यु का वरण करना एक नार्मल बात है। वहां का समाज अपने बुजुर्गों के प्रति बेहद ठन्डा है इस लिए वह इच्छा व्यक्त करते हैं कि काश उनकी मृत्यु स्वीडेन में न हो!
अजीब दुर्योग है कि 85 वर्ष का यह बुजुर्ग जो यहां के आदिवासी कामरेडों द्वारा उनके प्रति दर्शाए जा रहे सरोकार एवं संवेदनशीलता से आप्लावित है, वहीं यहां की सरकार उनके भारत में प्रवेश को प्रतिबन्धित कर रही है। सम्भवतः वह इस बुजुर्ग से नहीं उनकी उस दृष्टि से भयभीत है जो अपने लेखन से आने वाली पीढ़ी को शिक्षित कर रही है।
लेकिन हम दुआ करते हैं कि हमारा यह दादा यान मिर्डल दीर्घायु होऔर हमारे बच्चों को भी जंगल की कहानियां सुनाए…..।
कृति

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जय सत्य की या बाजार की ?

आमिर खान के ‘सत्यमेव जयते’ सीरियल का कई दिनों से टीवी पर प्रोमो आ रहा था। ऐसा तो लग ही रहा था कि आमिर कुछ अलग करेंगे ही। 6 मई सुबह इंतज+ार खत्म हुआ। आमिर अपना प्रोडक्शन लेकर आए। ज+ाहिर है मुद्दा कुछ ऐसा था जिसने दिल को छू लिया। प्रस्तुति भी बहुत सधी हुयी थी। चेहरे बेहद आम और हममे और आपमें से एक था। टीवी चैनलों पर आ रहे सीरियलों की चकाचैंध, शादीविवाह की प्रतिगामी रस्मों, सास-बहू की फूहड़ प्रस्तुति के बीच यह कार्यक्रम थोड़ा राहत देने वाला था। मुद्दा भी कुछ ऐसा था जिसे देख सुन कर दिल में इतनी नफरत गुस्सा और विवशता भर जाती है कि जी करता है कि कुछ ऐसा करें कि इस पूरे सिस्टम के पूरे ताने बाने को नोच कर रेशा-रेशा कर दें।
खैर, आइये आमिर के सीरियल पर बात करते हैं। आमिर ने अपने पहले सीरियल के लिए जिस मुद्दे को चुना, ज+ाहिर है वह दिल को छूने वाला था। (जिसकी घोषणा उन्होंने अपने कार्यक्रम के प्रचार के दौरान की थी) कई बार दिल भर आया और आंख से आंसू भी निकले। वहां बैठे दर्शकों की आंखों में भी आंसू आ गए। कई बार आमिर भी अपनी आंख के किनारे पोछते नज+र आए। कैमरे ने अपना काम बखूबी किया। आंखों में भरे हुए आंसू, अविरल बहते हुए आंसू , रुमाल में समाते आंसू इन सभी ने हमारी आंखों को बकायदा नम किया। आमिर जिन चेहरों को लेकर आए वह बहुत ही सामान्य थे। और उनकी दिल हिला देने वाली दास्तान ने रोंगटे खड़े कर दिये। एक बार फिर नफरत तीखी हो गयी कि कैसे सड़े हुए समाज में रहते हैं हम। और अन्त में एक औपचारिक हल भी प्रस्तुत किया।
लेकिन यह मुद्दा कोई नया नहीं है। यह भारतीय समाज की एक कड़वी हकीकत है और इसके खिलाफ बहुत से सरकारी और गैरसरकारी औपचारिक अभियान चल भी रहे हैं। अतः आमिर खान का यह अभियान कोई नया नहीं है। न ही यह मसला सिर्फ जागरूकता का है। यह हमारे समाज का एक माइन्डसेट है जिसकी जड़ें इस समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे और सम्पत्ति सम्बन्धों में इनबिल्ट है। तो इस मुद्दे को अगर उठाना है तो इस पितृसत्तात्मक ढांचे व सम्पत्ति सम्बन्धों को बदलने की बात करनी होगी। पितृसता को नष्ट करने की बात करने की जुर्रत तो बड़े-बड़े नारीवादी संगठन भी नहीं करते। फिर तो आमिर खान तो इस व्यवस्था का एक बड़ा प्रहरी है। जिसकी इस व्यवस्था पर बड़ी आस्था है और उन्हें इस देश की न्यायपालिका से बहुत उम्मीदें हैं। जबकि ज्यादातर न्यायाधीशों की महिला विरोधी, सवर्ण एवं सामन्ती मानसिकता जगजाहिर है। भंवरी देवी के केस में जज का घटिया महिलाविरोधी बयान क्या कोई भूल सकता है? खुद आमिर के सीरियल में एक वकील, जो एक महिला का केस लड़ रहे थे, ने उस जज का कथन बताया कि ‘कुल दीपक’ की चाह किसे नहीं होती। ऐसी सामन्ती और महिलाविरोधी सोच वाली न्यायपालिका से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं?
हम अच्छी तरह से जानते हैं कि बाजार हर चीज+ से मुनाफा कमाने के फिराक में रहता है। और आमिर इस बाजार के ब्राण्ड एम्बेसडर हैं। किसी भी वैल्यू को बाजार में कैसे कैश कराना है वह अच्छी तरह जानते हैं। आमिर यह जानते हैं कि अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग कैसे की जाए। ऐसे में कन्या भ्रूण हत्या का मसला भी बाजार में कैश किया जा सकता है। अल्ट्रासाउण्ड मशीनों की मार्केटिंग से जितना मुनाफा कम्पनियों ने कमाया होगा और उससे कहीं ज्यादा आमिर खान के इस कार्यक्रम के प्रचार और प्रस्तुति से इसके प्रायोजक भी शायद कमा लें। इसमंे आमिर के प्रति एपिसोड तीन करोड़ भी शामिल है। निश्चित रूप से आमिर की वजह से कार्यक्रम एवं चैनल की टीआरपी भी बहुत बढ़ेगी। रिलायंस एवं एयरटेल जैसे कारपोरेट घरानों के इस मानवीय चेहरे के पीछे कितनी अमानवीयता है इसकी कल्पना भी आम लोग नहीं कर सकते।  ऐसे में बाजार की इस चकाचैंध से बजबजाती दुनिया में हम कितनी भी अच्छी बात क्यों न करें वह वैसी ही होगी जैसे-
सत्यमेवजयते का नारा लिखा हुआ हर थाने में
जैसे कोई इत्र की शीशी रखी हुयी पैखाने में
(महेन्द्र मिहोनवी)

इस तरह इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुद्दा क्या है। फर्क इससे पड़ता है कि इसे कौन, कैसे, किस फ्रेमवर्क में और किस नीयत से उठा रहा है। अभी यह देखना है कि आने वाले वक्त मंे आमिर जनता की नब्ज को छूने वाले और कौन-कौन से मुद्दे उठाते हैं। या यूं कहें कि और किन मुद्दों की बाजार में बोली लगाते हैं। क्या वह सरोगेसी के मुद्दे को भी छुएंगे? कुछ दिन पूर्व ही आमिर ने अपना बच्चा सरोगेसी से हासिल किया है। क्या किसी महिला के मातृत्व और स्वास्थ्य एवं भावनाओं से खिलवाड़ का हक उन्हें केवल इसीलिए मिल जाता है कि उनके पास अथाह पैसा है? जबकि बच्चे पर हक तो उसे पैदा करने वाली मां का ही होता है। बच्चे की चाहत तो किसी अनाथ बच्चे को गोद लेकर भी पूरी की जा सकती थी। जबकि सरोगसी की अवधारणा पितृसत्ता को ही पोषित करती है और एक महिला की मजबूरी का निर्मम फायदा उठाती है।
पिछले दस पन्द्रह सालों में दुनिया के तेजी से बदलते हालात ने मध्य वर्ग के एक हिस्से में व्यवस्था विरोधी रुझान पैदा किया है। तभी से मध्य वर्ग के इस हिस्से के व्यवस्था विरोधी रुझान को बांधने या सीमित करने के प्रयास भी तेज हो गए हैं। इसमंे जाने अनजाने बहुत से एनजीओ, राजनीतिक-सामाजिक आन्दोलन व हमारी साहित्यिक बिरादरी का एक हिस्सा भी लगा हुआ है। आमिर के इस प्रोग्राम को भी हम इसी व्यापक प्रयास के एक हिस्से के रूप में देख सकते हैं जहां मध्यवर्ग के इस हिस्से की व्यवस्था परिवर्तन की आकांक्षा को महज एसएमएस और चिट्ठी पत्री तक सीमित कर देने की एक सचेत@अचेत साजिश चल रही है।

कृति

srijan@riseup.net

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‘दास्तानगो’ के बहाने पंक्तियों के बीच छिपी कुछ बातें

पाखी के अपै्रल अंक में प्रियम्वद की लम्बी कहानी ‘दास्तानगो’ पढ़ कर खत्म की तो इतिहास का खुमार सा छा गया। अद्भुत! कहानी का जादू इतना जबरदस्त था कि देर तक समय की तकिया पर सोचते सोचते सो गयी और ख+ाब में वे दसों तिलंगे अपने घोड़े पर सवार देर तक युद्ध करते रहे और कत्ले-आम करते रहे। तभी एक तिलंगे ने एक औरत के सीने मंे अचानक भाला उतारा और चैंक कर उठ बैठी और फिर देर तक सिर घूमता रहा। पहले तो इस खाब का अर्थ समझ नहीं आया। फिर धीरे-धीरे चेतना लौटने पर याद आया कि यह प्रियम्वद की कहानी का असर था।
फिर देर तक समय की हथेली पर हथेली रख कर बैठी रही और कहानी के बारे में सोचती रही। लगा कहानी में बहुत कुछ समझ आया बहुत कुछ नहीं समझ आया। चलिए पहले जो समझ में आया उस पर बात कर लेते हैं।
कहानी पढ़कर सबसे पहले समझ में यह आया कि प्रियम्वद की इतिहास पर पकड़ वाकई गहरी है और उन्हें इतिहास को किस्सागोई में ढालना भी आता है। कहानी कहने की कला भी उनके पास है। उनकी इस कहानी को पढ़ते हुए उपनिवेशवाद का वह फ्रांसीसी दौर सजीव हो उठा। समुन्दर के लहरें आकर मन को भिगोने लगीं और उसके किनारे बसे खण्डहरों की रहस्यमयता और उसमें बसा जीवन आकर कानों में फुसफुसाने लगा। कुल मिला कर इस कहानी में इतनी ताकत है कि पढ़ने वाला इतिहास की वीथिकाओं में खुद को भुला दे। समय में तैरते हुए तेजी से इतने पीछे चले जाए कि उस समय के पात्रों में अपनी छवि देखने लगें। फिर तेजी से समय के उसी रथ पर सवार होकर भविष्य के किसी उफक को छू आएं।
पर मुझे यह बात नहीं समझ में आयी कि इस कहानी और उसमें छिपे इतिहास के माध्यम से कहानीकार वर्तमान के लिए क्या सबक निकालना चाहते हैं। कहानी के अन्त में क्या नायक के माध्यम से वह कहानी की दो ‘अबलाओं’ को उनके आने वाले संघर्ष के लिए सशस्त्र करना चाहते है। या इसका निहितार्थ कुछ और है। फिर वही एक पुरुष पुराने जं+ग लगे हथियार उन्हें देने की ‘कृपा’ करता सा लगता है। लेकिन अगर कहीं इन्हीं ज+ंग लगे हथियारों से औरत लड़ने लगे तो???? पता नहीं प्रियम्वद क्या कहना चाहते हैं।
अक्सर मुझे लगता है कि समाज को केन्द्रित करके लिखने वाले इतिहासकार-कहानीकार इतिहास के प्रति बहुत मोहग्रस्त होते हैं। हालांकि वे इतिहास से सबक निकाल कर भविष्य से भी रूबरू होते हैं और यह एक अच्छी बात है। पर दिक्कत है कि वे अतीत से भविष्य की इस यात्रा में वर्तमान को भूल जाते हैं या जानबूझ कर नज+रअन्दाज कर देते हैं। यही दिक्कत प्रियम्वद की कहानी की भी है। कहानी बहुत सफलतापूर्वक अतीत से भविष्य में तैरते हुए बहुत सारी दार्शनिक उंचाइयों को छू लेती है। लेकिन वर्तमान उसमें से नदारद है। वर्तमान के विषय में साफ बात ये लोग क्यों नहीं करते ये बात समझ में नही आती।,ंंंंंंंंंएक अन्य बात जो मुझे समझ में नहीं आती वह है कि ये लेखक लोग औरतों को क्या समझते हैं। मुझे लगता है ये कलावादी और स्वयं को दार्शनिक समझने वाले ये लेखक औरत को न्यूड पेंटिंग के लिए एक आॅब्जेक्ट से अधिक कुछ नहीं समझते। ये बहुत सूफियाना अन्दाज में औरत के स्तन के विषय में चर्चा करते हैं कि पत्नी और प्रेयसी के स्तन को क्या नाम दें।(कहानी से पहले की गयी बातचीत जो पत्रिका में ही छपी है। इसमें प्रियम्वद समेत तीन चार लोग आपस में बात कर रहे हैं) मुझे इस बात पर बेहद गुस्सा आता है। सम्भवतः इस विषय में प्रियम्वद की सोच भी औरत के स्तन के कुचाग्र तक ही सीमित है। सवाल इस बात का नहीं है कि औरत का आप सम्मान करते हैं या अपमान। सवाल यह है कि यह मान और अपमान करने करने वाले दोनो आप ही हैंं। आप कौन होते हैं मान या अपमान करने वाले? आपकी पूरी वार्ता में यह नहीं आता है कि औरत क्या चाहती है? वह न ही आपकी वार्ता का हिस्सा होती है। न ही आपके बगल में रखी किसी कुर्सी पर उसका हक होता है। उसके ही बारे में आप उससे पूछे बगैर न जाने कितनी बात करते रहते हैं। मैं आपसे कोई स्त्री विमर्श का किस्सा लेकर नहीं बैठी हूं। न ही आपसे ऐसा करने की मुझे कोई इच्छा होती है।
आप और राजेन्द्र यादव जैसे लोग कितनी ही ताल ठोक ठोक कर बात करें कि स्त्री की मुक्ति देह की मुक्ति है। पर सच तो यह है कि औरत का मुख्य मामला है कि वह गुलाम है। अभी भी उस पर कब्जा है परिवार का, समाज का, पितृसत्ता का, काफी हद तक पुरुष का, धर्म का और राज्य सत्ता का। जब तक इस कब्जे से उसे मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक वह किसी कीमत पर मुक्त नहीं हो सकती। सुनने में ये बातें घिसी पिटी लग सकती हैं। पर हकीकत यही है। जिस शहर की गली-कूचों के चप्पे-चप्पे के बारे में प्रियम्वद इतना अधिक परिचित हैं। उसी शहर में औरतें किस हाल में जीवन जीती हैं। क्या इसका इल्म उन्हें है? मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के घरों में घुटती हुयी वह अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए तरस जाती हैं। ऐेसे में उन्हें सिर्फ और सिर्फ रचनाकार के सौन्दर्यशास्त्र की पिपासा का माध्यम बना देना बहुत गुस्सा दिलाता है।
अब थोड़ी बातंे सम्पादक द्वारा उठाए सवाल पर कि क्या समाज और नैतिकता की कोई प्रासंगिकता है या नहीं। शायद उनके सवाल का कुछ जवाब मेरी उपरोक्त बातोें में निहित है। वैसे समाज और नैतिकता दोनो ही बहुत सापेक्ष चीज होती है। हो सकता है आपके लिए नैतिकता एक चीज हो और मेरे लिए एक दूसरी चीज। इसी तरह आपका समाज मेरे समाज से बिल्कुल भिन्न हो सकता है। अगर केन्द्रित करके कहें तो प्रियम्वद जैसे लेखक की नैतिकता और समाज पर बात की जा सकती है। प्रियम्वद एक स्वतन्त्र चिन्तक के तौर पर समाज, विवाह समेत इसकी संस्थाओं, संविधान और राज्यसत्ता सभी को नकारते हैं। शायद एक अकेले व्यक्ति के तौर पर परिवार, विवाह और समाज को नकारना बहुत आसान होता है। व्यक्तिगत तौर पर इसे नकारने में कोई हर्ज भी नहीं है। न ही इससे किसी को कोई फर्क पड़ता है। लेकिन प्रियम्वद अगर केवल इन्ही मुद्दों को लेकर किसी आन्दोलन का हिस्सा होते तो उनको फौरन आटे दाल का भाव पता चल जाता। संविधान और राज्यसत्ता को न मानने की बात प्रियम्वद अकेले हाथ लहरा लहरा के कितना भी चिल्ला लें। राज्यसत्ता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन एक बार यदि प्रियम्वद इसके खिलाफ खड़ें लोगों का साथ देने का साहस भी कर लें तो समझ में आएगा कि राजसत्ता को नकारने का दरअसल क्या अर्थ होता है। इस लिए ऐसे फ्री चिन्तक किसी भी चीज पर अपनी राय फ्री होकर दे सकते हैं। उनके लिए नैतिकता और समाज का कोई मायने नहीं होता। वैसे भी नैतिकता के सारे मानदण्ड औरतों के लिए ही बने हैं। खैर, यह हमारी और हमारे जैसे लोगों की लड़ाई है और हम इसे खुद लड़ लेंगे। लेकिन अगर प्रियम्वद जैसे लोग औरतों पर अपनी बहुमूल्य राय देना बन्द कर दें तो बडी कृपा होगी।

-कृति

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जी करता है

जी करता है
यूं ही चलते रहें सारे दिन
न देखें पलट कर
आंखों में डालकर आंखें
मतलब समझा दें
हिमाकत का…
कि यूं ही चलते रहें सारे दिन
के जैसे हवा चलती है..
धूप खिलती है..
बारिश झरती है..
प्रकृति की तरह निर्बाध
चलते रहें यूं ही
बिना रोक टोक
पर बेमानी कभी नहीं……………..

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कुछ रचेंगे…..

कुछ रचेंगे तभी बचेंगे…
रचना है मन के लिए….
रचना है जीवन के लिए….
रचना है सबके लिए….

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जी भर जीने दो…..

शब्द बचेंगे तो हम बचेंगे
अर्थ बचेंगे तो सब बचेेंगे
सब बचेंगे तभी तुम भी बचोगे
बचना चाहते हो तो शब्दों को रचने दो
अर्थों को खुलने दो……
खुल कर अपने मन की कहने दो……………
जीवन को जी भर जीने दो…………..

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