जय सत्य की या बाजार की ?

आमिर खान के ‘सत्यमेव जयते’ सीरियल का कई दिनों से टीवी पर प्रोमो आ रहा था। ऐसा तो लग ही रहा था कि आमिर कुछ अलग करेंगे ही। 6 मई सुबह इंतज+ार खत्म हुआ। आमिर अपना प्रोडक्शन लेकर आए। ज+ाहिर है मुद्दा कुछ ऐसा था जिसने दिल को छू लिया। प्रस्तुति भी बहुत सधी हुयी थी। चेहरे बेहद आम और हममे और आपमें से एक था। टीवी चैनलों पर आ रहे सीरियलों की चकाचैंध, शादीविवाह की प्रतिगामी रस्मों, सास-बहू की फूहड़ प्रस्तुति के बीच यह कार्यक्रम थोड़ा राहत देने वाला था। मुद्दा भी कुछ ऐसा था जिसे देख सुन कर दिल में इतनी नफरत गुस्सा और विवशता भर जाती है कि जी करता है कि कुछ ऐसा करें कि इस पूरे सिस्टम के पूरे ताने बाने को नोच कर रेशा-रेशा कर दें।
खैर, आइये आमिर के सीरियल पर बात करते हैं। आमिर ने अपने पहले सीरियल के लिए जिस मुद्दे को चुना, ज+ाहिर है वह दिल को छूने वाला था। (जिसकी घोषणा उन्होंने अपने कार्यक्रम के प्रचार के दौरान की थी) कई बार दिल भर आया और आंख से आंसू भी निकले। वहां बैठे दर्शकों की आंखों में भी आंसू आ गए। कई बार आमिर भी अपनी आंख के किनारे पोछते नज+र आए। कैमरे ने अपना काम बखूबी किया। आंखों में भरे हुए आंसू, अविरल बहते हुए आंसू , रुमाल में समाते आंसू इन सभी ने हमारी आंखों को बकायदा नम किया। आमिर जिन चेहरों को लेकर आए वह बहुत ही सामान्य थे। और उनकी दिल हिला देने वाली दास्तान ने रोंगटे खड़े कर दिये। एक बार फिर नफरत तीखी हो गयी कि कैसे सड़े हुए समाज में रहते हैं हम। और अन्त में एक औपचारिक हल भी प्रस्तुत किया।
लेकिन यह मुद्दा कोई नया नहीं है। यह भारतीय समाज की एक कड़वी हकीकत है और इसके खिलाफ बहुत से सरकारी और गैरसरकारी औपचारिक अभियान चल भी रहे हैं। अतः आमिर खान का यह अभियान कोई नया नहीं है। न ही यह मसला सिर्फ जागरूकता का है। यह हमारे समाज का एक माइन्डसेट है जिसकी जड़ें इस समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे और सम्पत्ति सम्बन्धों में इनबिल्ट है। तो इस मुद्दे को अगर उठाना है तो इस पितृसत्तात्मक ढांचे व सम्पत्ति सम्बन्धों को बदलने की बात करनी होगी। पितृसता को नष्ट करने की बात करने की जुर्रत तो बड़े-बड़े नारीवादी संगठन भी नहीं करते। फिर तो आमिर खान तो इस व्यवस्था का एक बड़ा प्रहरी है। जिसकी इस व्यवस्था पर बड़ी आस्था है और उन्हें इस देश की न्यायपालिका से बहुत उम्मीदें हैं। जबकि ज्यादातर न्यायाधीशों की महिला विरोधी, सवर्ण एवं सामन्ती मानसिकता जगजाहिर है। भंवरी देवी के केस में जज का घटिया महिलाविरोधी बयान क्या कोई भूल सकता है? खुद आमिर के सीरियल में एक वकील, जो एक महिला का केस लड़ रहे थे, ने उस जज का कथन बताया कि ‘कुल दीपक’ की चाह किसे नहीं होती। ऐसी सामन्ती और महिलाविरोधी सोच वाली न्यायपालिका से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं?
हम अच्छी तरह से जानते हैं कि बाजार हर चीज+ से मुनाफा कमाने के फिराक में रहता है। और आमिर इस बाजार के ब्राण्ड एम्बेसडर हैं। किसी भी वैल्यू को बाजार में कैसे कैश कराना है वह अच्छी तरह जानते हैं। आमिर यह जानते हैं कि अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग कैसे की जाए। ऐसे में कन्या भ्रूण हत्या का मसला भी बाजार में कैश किया जा सकता है। अल्ट्रासाउण्ड मशीनों की मार्केटिंग से जितना मुनाफा कम्पनियों ने कमाया होगा और उससे कहीं ज्यादा आमिर खान के इस कार्यक्रम के प्रचार और प्रस्तुति से इसके प्रायोजक भी शायद कमा लें। इसमंे आमिर के प्रति एपिसोड तीन करोड़ भी शामिल है। निश्चित रूप से आमिर की वजह से कार्यक्रम एवं चैनल की टीआरपी भी बहुत बढ़ेगी। रिलायंस एवं एयरटेल जैसे कारपोरेट घरानों के इस मानवीय चेहरे के पीछे कितनी अमानवीयता है इसकी कल्पना भी आम लोग नहीं कर सकते।  ऐसे में बाजार की इस चकाचैंध से बजबजाती दुनिया में हम कितनी भी अच्छी बात क्यों न करें वह वैसी ही होगी जैसे-
सत्यमेवजयते का नारा लिखा हुआ हर थाने में
जैसे कोई इत्र की शीशी रखी हुयी पैखाने में
(महेन्द्र मिहोनवी)

इस तरह इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुद्दा क्या है। फर्क इससे पड़ता है कि इसे कौन, कैसे, किस फ्रेमवर्क में और किस नीयत से उठा रहा है। अभी यह देखना है कि आने वाले वक्त मंे आमिर जनता की नब्ज को छूने वाले और कौन-कौन से मुद्दे उठाते हैं। या यूं कहें कि और किन मुद्दों की बाजार में बोली लगाते हैं। क्या वह सरोगेसी के मुद्दे को भी छुएंगे? कुछ दिन पूर्व ही आमिर ने अपना बच्चा सरोगेसी से हासिल किया है। क्या किसी महिला के मातृत्व और स्वास्थ्य एवं भावनाओं से खिलवाड़ का हक उन्हें केवल इसीलिए मिल जाता है कि उनके पास अथाह पैसा है? जबकि बच्चे पर हक तो उसे पैदा करने वाली मां का ही होता है। बच्चे की चाहत तो किसी अनाथ बच्चे को गोद लेकर भी पूरी की जा सकती थी। जबकि सरोगसी की अवधारणा पितृसत्ता को ही पोषित करती है और एक महिला की मजबूरी का निर्मम फायदा उठाती है।
पिछले दस पन्द्रह सालों में दुनिया के तेजी से बदलते हालात ने मध्य वर्ग के एक हिस्से में व्यवस्था विरोधी रुझान पैदा किया है। तभी से मध्य वर्ग के इस हिस्से के व्यवस्था विरोधी रुझान को बांधने या सीमित करने के प्रयास भी तेज हो गए हैं। इसमंे जाने अनजाने बहुत से एनजीओ, राजनीतिक-सामाजिक आन्दोलन व हमारी साहित्यिक बिरादरी का एक हिस्सा भी लगा हुआ है। आमिर के इस प्रोग्राम को भी हम इसी व्यापक प्रयास के एक हिस्से के रूप में देख सकते हैं जहां मध्यवर्ग के इस हिस्से की व्यवस्था परिवर्तन की आकांक्षा को महज एसएमएस और चिट्ठी पत्री तक सीमित कर देने की एक सचेत@अचेत साजिश चल रही है।

कृति

srijan@riseup.net

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2 Responses to जय सत्य की या बाजार की ?

  1. Pingback: जय सत्य की या बाजार की: जनसत्ता में ‘कृति मेरे मन ??

  2. दिलचस्प है कि आपने अपने इस पोस्ट में जो राय जाहिर की है, लगभग इसी मिलती-जुलती राय मैंने भी फेसबुक पर रखी है। आपका शुक्रिया…

    1.
    “देल्ही बेली” बनाने वाले पुरुष (यहां इस शब्द को लैंगिक पहचान नहीं, कृपया गाली के रूप में देखें), धूर्त, शातिर और अगर ये सब नहीं तो फिर मूर्ख आमिर खान को अगर माफ न भी करूं तो “सत्यमेव जयते” में भ्रूण हत्या पर आधारित पहले एपिसोड के लिए उन्हें शुक्रिया कहना चाहता हूं और बधाई भी देना चाहता हूं। लेकिन अच्छा होता कि अमीरों के इस शगल, यानी भ्रूण हत्या के मसले पर बात करते हुए इसके “क्या” के बजाय “क्यों” की खोज करने और उसे सरेआम करने की कोशिश की जाती…!!!

    2.
    “सत्यमेव जयते” के पहले एपिसोड के लिए आमिर खान का तहेदिल से शुक्रिया… इस त्रासदी के बीच कि देश का प्रधानमंत्री भी भ्रूण हत्या के खिलाफ चिल्लाए तो उसकी नहीं सुनी जाएगी, लेकिन अगर आमिर इस “विचार” का बाजार भी लगाएं तो लोग ज़ार-ज़ार रोएंगे। याद रखना चाहिए कि जमीन को जहर बनाने और जहर बेचने वाली कोका कोला कंपनी के ब्रांड दूत और “सत्यमेव जयते” के हर एपिसोड के लिए तीन करोड़ वसूलने वाले आमिर खान एक बेहतरीन मार्केटियर भी हैं। जितनी हिम्मत और रचनात्मकता के साथ वे “फना”, “तारे जमीं पर” और “सत्यमेव जयते” बनाते हैं, उतनी ही बेशर्मी से “देल्ही बेली” भी परोसते हैं। और उनके सरोकार “भाड़े के गर्भ” से हासिल किए गए उसे बच्चे की शक्ल में आकार पाते हैं, जिसकी बुनियाद ही रक्त शुद्धता का … सिद्धांत है। (कृपया Fill in the blank)

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