I am a troll: Inside the secret world of BJP’s digital army

जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री ‘मोदी’ ने अपने आधिकारिक आवास ‘रेसकोर्स रोड’ पर 150 सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले अपने समर्थकों की मीटिंग की। इस मीटिंग में सोशल मीडिया (विशेषकर ट्विटर पर) पर सक्रिय रहने वाले वे ‘ट्रोल’ (troll-जिसका हिन्दी में साधारण अनुवाद होगा ‘साइबर गुण्डा’) भी शामिल थे, जो साइबर जगत में औरतों, अल्पसंख्यकों और पत्रकारों के खिलाफ गन्दी, भड़काऊ और हिंसक भाषा का इस्तेमाल करने के लिए कुख्यात हैं। इनमें से कुछ के खिलाफ तो ‘एफआइआर’ तक दर्ज है। उस वक्त इस मीटिंग की काफी आलोचना भी हुई थी। इनमें से 22 ऐसे ट्रोल है जिसे खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘फालो’ करते हैं। इनमें हाल ही में अनुराग कश्यप को ट्रोल करने वाला @bhak_sala और @HDL_Global [Hindu Defence League] जैसे कुख्यात ट्रोल भी शामिल हैं।
पिछले वर्ष दिसम्बर में आयी अपने तरह की अकेली और महत्वपूर्ण किताब I am a troll: Inside the secret world of BJP’s digital army में इस किताब की लेखिका पत्रकार ‘स्वाती चतुर्वेदी’ ने अपने खोजपूर्ण अध्ययन से यह साबित किया है कि ‘आरएसएस’ की तरह ही साइबर जगत में भी बीजीपी की डिजीटल आर्मी बहुत सुनियोजित तरीके से ‘आरएसएस’ के ही एजेण्डा को आगे बढ़ा रही है। इस डिजिटल आर्मी का नाम है-‘नेशनल डिजिटल आपरेशन्स सेन्टर’ (NDOC) जिसके मुखिया बीएचयू आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई किये हुए ‘अरविन्द गुप्ता’ है, जो सीधे ‘नरेन्द्र मोदी’ और ‘अमित शाह’ से निर्देश लेते है। इस डिजिटल आर्मी का मुख्यालय दिल्ली में ‘11 अशोक रोड’ पर है, जहां करीब 200 लोग काम करते हैं। इनमें से कुछ ‘स्वयंसेवक’ हैं और कुछ ‘पेड’ है। इन्हीं में से कुछ ‘ट्रोल’ के साक्षात्कार के बहाने लेखिका इनके काम करने का तरीका और और इनकी बीमार मानसिकता का पूरा चिट्ठा सामने रखती हैं। इनमें से ज्यादातर ऊंची जाति के वे नौजवान हैं जो ‘नवउदारवादी नीतियों’ की शुरुआत और ‘बाबरी मस्जिद’ के विघ्वंस के दौरान पैदा हुए है और मूलतः मुस्लिम विरोधी-दलित विरोधी-महिला विरोधी है। इन नौजवानों का दिमाग पढ़कर आप 1991 के बाद की आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक नीतियों की असफलता का अन्दाजा लगा सकते हैं। ‘स्क्रीन शाट्स’ के माध्यम से बीजेपी डिजिटल आर्मी के इन ‘सैनिकों’ के जो ‘ट्विट्स’ किताब में दिये गये है वे बेहद आक्रामक और इतने अश्लील है कि उनमें से किसी को भी उद्घृत करना यहां सम्भव नहीं है। तमाम महिला पत्रकारों की तरह ही स्वाती खुद ऐसे हमलों का शिकार हुई हैं और उन्हें इसके खिलाफ ‘एफआइआर’ तक कराना पड़ा है। ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ पत्रिका के ताजा अंक में पत्रकार ‘नेहा दीक्षित’ ने भी अपने ऐसे ही अनुभवों को साझा किया है।
किताब मुख्यतः आधारित है, ‘साध्वी खोसला’ के साक्षात्कार पर। खोसला 2013 से बीजेपी की डिजीटल आर्मी का महत्वपूर्ण हिस्सा थी, लेकिन 2015 की शुरुआत में उनका मोहभंग हो गया और उन्होंने बीजेपी छोड़ दी। यह साक्षात्कार बहुत दिलचस्प है और बीजेपी की भीतरी पर्ते बखूबी खोलता है। खोसला को डिजिटल आर्मी में काम करने के लिए खुद मोदी ने आमंत्रित किया था। खोसला बताती हैं कि लगभग रोज ही चुने हुए लोगो की अरविन्द गुप्ता के साथ बैठक होती थी जहां टारगेट तय किये जाते थे कि किसकी ट्रोलिंग करनी है। यहां तक कि कभी कभी मैसेज भी पहले से तय होते थे और यह निर्देश दिये जाते थे कि इनमें ही थोड़ा हेर फेर करके इसे ही पोस्ट किया जाना है। लेखिका ने कुछ ‘स्क्रीन शाट्स’ के माध्यम से दिखाया है कि एकदम अलग अलग एकाउन्ट से पोस्ट हुए मैसेज हूबहू एक से है। यहां तक कि कामा-फुलस्टाप भी समान है। जिससे उपरोक्त बात की पुष्टि होती है। इस डिजिटल आर्मी ने सोशल मीडिया पर बहुत से फर्जी अकाउन्ट बना रखे हैं। जिसका इस्तेमाल करके मुद्दे विशेष को ‘ट्रेन्ड’ कराया जाता है और इसे अभियान की शक्ल दी जाती है। ‘आमिर खान’ के केस में इसी तरह से प्रायोजित अभियान, इस डिजिटल आर्मी ने ‘स्नैपडील’ के खिलाफ चलाया कि वो अमीर खान से अपना करार तोड़ दें। और इस अभियान का ही असर था कि स्नैपडील को बयान देना पड़ा और आमिर खान से करार तोड़ना पड़ा।
‘कैराना’ से हिन्दुओं के कथित पलायन की बात भी इसी डिजिटल अभियान का हिस्सा था।
किताब का ‘अपेन्डिक्स बी’ काफी रोचक है। इसमें डाटा एनलिस्ट ‘अंकित लाल’ के एक अध्ययन का इस्तेमाल किया गया है। अंकित लाल ने ‘डाटा एनिलिटिकल टूल’ का इस्तेमाल करते हुए जब यह देखना चाहा कि मोदी भक्त आखिर किस किस जगह से मोदी-विरोधियों को गाली दे रहे हैं तो आश्चर्यजनक रुप से उसमें ‘थाईलैण्ड’ का नाम प्रमुख रुप से उभरा। मतलब साफ है- बीजेपी की डिजीटल आर्मी अपना वास्तविक ‘आईपी एड्रेस’ छुपाने के लिए ‘वीपीएन’ (virtual private network) का इस्तेमाल कर रही है, जिसका सर्वर थाइलैण्ड में है या इसने थाइलैण्ड स्थित किसी ‘आईटी फर्म’ के साथ करार किया हुआ है जो बीजेपी के निर्देशानुसार वही से सोशल मीडिया पर बीजेपी का प्रतिनिधित्व कर रही है।
किताब में यह भी महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है कि जेएनयू के ‘कन्हैया’ वाले केस में जिस ‘डाक्टर्ड वीडियो’ की बात सामने आती है उसे ‘शिल्पी तिवारी’ ने तैयार किया था। यह वही शिल्पी तिवारी हैं जो स्मृति ईरानी के चुनाव अभियान की महत्वपूर्ण सदस्य थी। आपको पता ही होगा कि इस फर्जी वीडियों के कारण क्या क्या हुआ।
किताब यह बात पुरजोर तरीके से बताती है कि बीजेपी ने अन्य सभी पार्टियों से पहले सोशल मीडिया की ताकत को पहचान लिया था। और उस पर विधिवत काम भी शुरु कर दिया था। आज अनेक आईटी फर्म में आरएसएस की ‘आईटी शाखा’ भी लगना शुरु हो गयी है। इसका भी जिक्र किताब में है।
बीजेपी अपनी प्रतिक्रियावादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए अपनी डिजीटल आर्मी का तो बखूबी प्रयोग कर रही है। लेकिन अपनी इमेज को चमकाने के लिए इसने अमरीका की शक्तिशाली पीआर फर्म ‘एपीसीओ’ (APCO) के साथ करोड़ों का समझौता किया था। इस पीआर के साथ दुनिया के कई तानाशाह भी जुड़े हुए है। ‘वाइब्रेन्ट गुजरात’ कैम्पेन का ठेका इसी ‘पीआर फर्म’ को दिया गया था। जिसका मुख्य काम था- 2002 के दंगे की कालिमा से गुजरात को बाहर निकालना।
इस पहलू को बिना छुए बीजीपी की डिजिटल आर्मी की बात पूरी नही होती। लेकिन किताब में इस बात का जिक्र तक ना होना एक अधूरेपन का अहसास कराता है। इसके अलावा पूरी किताब पड़ते समय ऐसा लगता है कि किताब बहुत जल्दबाजी में लिखी गयी है। कई महत्वपूर्ण जानकारी छूटने का यह भी एक कारण है। इसे ‘श्रिया मोहन’ ने ‘कैचन्यूज डाटकाम’ में इस पुस्तक की अपनी समीक्षा में उचित ही ‘impatient journalism’ कहा है। इस कारण से इस किताब में ‘न्यूज’ ज्यादा है जो ‘व्यूज’ पर भारी पड़ते हैं।
आज सोशल मीडिया की ‘आभासी दुनिया’ और हमारी ‘वास्तविक दुनिया’ का अन्तरसम्बन्ध बहुत गहरा है। सोशल मीडिया की हिंसा को वास्तविक दुनिया की हिंसा में बदलते आज देर नहीं लगती। इसलिए सोशल मीडिया को गम्भीरता से लेने की जरुरत है। यह किताब यह बताती है कि इस आभासी दुनिया में भी प्रतिक्रियावादी ताकतें अपने आप को संगठित करती जा रही हैं। प्रगतिशील ताकतें इसका जवाब स्वतःस्फूर्तता के साथ कितना दे पायेंगी, यह सोचने की बात है।
किताब को ‘Juggernaut’ ने छापा है और इसकी कीमत 250 रुपये है।

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जहां प्रतिरोध जीने का सलीक़ा है….

कई दिनो से एक किताब मेरे सिरहाने खामोश (?) पड़ी थी… पढ़े जाने का इन्तज़ार करते हुए… न जाने क्यों मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी उस किताब को पढ़ने की….पता नहीं क्यों मुझे लगता कि मेरे कलेजे की तरह यह किताब भी धड़क रही है….धीरे-धीरे सुलग रही है…कश्मीर की तरह…जहां आग पिछले 25 वर्षों से अधिक समय से कभी बुझी ही नहीं…………..
‘डू यू रिमेम्बर कुनान पोशपोरा?’ (क्या आपको कुनान पोशपोरा याद है?). यही किताब थी वह जो सुलग रही थी मेरे बिस्तर पर. मुझे कुनान पोशपोरा याद था. जिसका जिक्र मैंने बशारत पीर की ‘कर्फ़्यूड नाइट’ में पढ़ा था. आखिरकार मैंने एक दिन हिम्मत करके उस किताब को पढ़ना शुरू ही कर दिया. मुझमें पूर्व प्रस्तावना व प्रस्तावना पढ़ने की ताब नहीं थी. मैं सीधे किताब के पहले अध्याय पर आ गई. ‘कुनान पोशपोरा और कश्मीर की औरतें’.
कुनान और पोशपोरा कश्मीर के संवेदनशील कुपवारा ज़िले के एक दूसरे से लगे दो छोटे- छोटे गांव है. 23 फ़रवरी 1991 की सर्द रात 11 बजे 4थी राजपुताना रायफ़ल्स के ‘जवानो’ ने इन दोनो गांव में क्रैक डाउन किया. हरेक घर से पुरुषों को यातना देने के लिये बाहर निकाल दिया गया. घर की औरतों पर बारी-बारी से ‘जवानों’ ने बलात्कार किया. इनमें 11 साल से लेकर 60 साल की 31 औरतें शामिल थीं. ‘जवानों’ ने एक 8 माह की गर्भवती औरत का भी बलात्कार किया, जिसके परिणामस्वरूप पेट में ही उसके बच्चे की हड्डियां टूट गईं.
आरम्भिक यातना के बाद शुरू हुआ सेना के ‘जवानों’ के खिलाफ़ प्रतिरोध का अन्तहीन सिलसिला. 8 मार्च 1991 को त्रेहगाम पुलिस स्टेशन में पहली एफ़आईआर दर्ज़ हुई. पुलिस वालों की शर्मनाक ‘कार्यवाई’ के बाद 21 अक्टूबर 1991 को इस केस को समाप्त कर दिया गया. लेकिन मजिस्ट्रेट के समक्ष क्लोज़र रिपोर्ट नहीं दर्ज़ की गई.
इसके पूर्व बी.जी वर्गीज़ के नेतृत्व में सरकार और सेना प्रायोजित प्रेस काउंसिल आफ़ इन्डिया की टीम ने कुनान पोशपोरा की घटना को झूठ करार दिया. इसने ‘जवानों’ के मनोबल को और बढ़ा दिया. इसी को आधार बना कर कोर्ट और पुलिस ने मामले की ठीक से तफ़्तीश ही नहीं की. ज़ाहिर है सेना को राज्य का वरद हस्त मिला हुआ था.
कहते हैं कश्मीरी औरतें दुनिया में सबसे अधिक यौनिक हिंसा की शिकार औरतों में से एक हैं. सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत के बाद कश्मीर में सेना ने पहला रेप बिदाई की बस से निकाल कर एक नववधु का किया था. तबसे लेकर आज तक औरतों के साथ सेना के दुर्वयव्हार का अन्तहीन सिलसिला जारी है. 10 अक्टूबर 2010 को शोपियां में 11 साल और 60 साल की दो औरतों के साथ हुए बलात्कार ने कश्मीर कॊ जला दिया था. तब से आज तक कश्मीर की औरतें सेना की ज़्यादतियां झेल रही हैं. वे यौनिक और मानसिक दोनो तरह से यातना की शिकार हैं. इनमें वे आधी विधवाएं हैं, जिनके शौहर को सेना उठा के ले गई और आज भी वे हर दस्तक पर चौंक उठती हैं, कहीं ये वही तो नहीं. इनमें वे मांएं हैं जिनके बच्चे अपनी आज़ादी की राह पर कुर्बान हो गए, जो सेना की गोली या पैलेट गन का शिकार हो गए. इनमे अगली पीढ़ी की वे बेटियां हैं जिनके भाई-पिता सुरक्षा बलों की यातना के शिकार हुए. (इनमें इस किताब की एक लेखिका के पिता भी शामिल हैं). आज ये औरतें प्रतिरोध आन्दोलन में आगे बढ़ कर हिस्सा ले रही हैं. आज उनके हाथों में पत्थर है, तख्तियां हैं, बैनर है. आज भी कश्मीर में औरत होना और देश में और हिस्सों में औरत होना बिल्कुल भिन्न बात है. कश्मीर की औरतों का दर्द आज प्रतिरोध में अभिव्यक्त हो रहा है. कुनान पोशपोरा में घटी उस घटना के विरोध में 23 फ़रवरी को आज कश्मीर की औरतों के प्रतिरोध दिवस के रूप में मनाया जाता है.
संवेदनशील लोगों के लिये अतीत की कुछ घटनाएं, परम्पराएं व इतिहास दिल में फ़ांस की तरह चुभते रहते हैं और वक्त आता है जब उन्हें इतिहास में अपनी भूमिका तय करनी ही पड़ती है. और अगर बात कश्मीर, उत्तर-पूर्व या युद्धरत क्षेत्रों की औरतों की हो तो दोहरी मानसिक यातना से गुज़रना होता है. एक, राज्य मशीनरी द्वारा औरतों के खिलाफ़ सोचे-समझे तरीके से की जाने वाली यौनिक हिंसा के आक्रमण से होने वाली यातना तो दूसरी ओर पितृसत्तात्मक सोच के कारण होने वाली यातना. ये यातना पीढ़ी दर पीढ़ी छन कर नई पीढ़ी पर तारी हो जाती है. ऐसा ही हुआ कुछ कश्मीरी युवतियों के साथ.
उन्होंने कश्मीर की घायल स्मृतियों को कुरेद कर कुनान पोशपोरा में 25 साल पहले हुई उस घटना को फ़िर से जीवित किया. अप्रैल 201३ में कश्मीर की 50 औरतों ने इस केस को फ़िर से खोलने के लिये हाईकोर्ट में पीआईएल दर्ज़ की. हालांकि कोर्ट ने इसे ‘प्री मच्योर्ड’ कह कर खारिज कर दिया. जब पीआईएल की तैयारी हो रही थी, तो रहस्यात्मक रूप से पुलिस ने मजिस्ट्रेट के समक्ष इस केस के क्लोज़र की पेशकश की. कुनान पोशपोरा के नागरिकों ने इसके खिलाफ़ प्रतिरोध जताया. कुपवारा के सेशन कोर्ट के जज ने इसके पुन: जांच के आदेश दिया.
कश्मीर की पांच युवतियों एसार बतूल, इफ़्रा बट्ट, समरीना मुश्ताक, मुनाज़ा राशिद, नताशा राथेर ने प्रकाशक ज़ुबान की श्रृंखला के लिये इस घटना को पुनर्रचित किया. ये लड़कियां कुनान पोशपोरा की घटना के वक्त या तो दो-तीन साल की थीं या पैदा ही नहीं हुईं थीं. लेकिन कश्मीर में जवान होना और एक लड़की के रूप में जवान होना बेहद जुदा अनुभव हैं. ये लेखिकाएं बहुत बाद में यह समझ पाईं कि उनकी मां और दादी उन्हें उस रास्ते से बचने की सलाह क्यों देती थीं जहां पर कोई फौजी खड़ा हो. जैसे-जैसे ये लेखिकाएं बड़ी हुईं, कुनान पोशपोरा में घटी घटनाएं उनके मन मस्तिष्क पर छाने लगीं. उन्होंने वकील और मानवाधिकार कार्य्कर्ता परवेज़ इमरोज़ के सहयोग से इस केस को पुन: सतह पर लाने का फ़ैसला किया. उन्होंने कश्मीर की औरतों से इसके खिलाफ़ एक पीआईएल पर हस्ताक्षर करने की अपील की. उनके सामने उन्होंने एक प्रश्न रखा – ‘क्या आपको कुनान पोशपोरा याद है?’ अन्त में 100 औरतें इस पर हस्ताक्षर करने को तैयार हो गईं. राज्य ने उनसे अपना पहचान पत्र जमा करने को कहा. कुछ औरतें विभिन्न कारणों से इससे पीछे हट गईं. अन्तत: कुल 50 औरतों ने पीआईएल दर्ज किया.
लेखिकाओं मे से एक इस किताब में कहती हैं -‘भारत एक आज़ाद मुल्क है. यहां सभी के लिये कुछ मौलिक अधिकारों की गारण्टी की गई है. भारतीय सुरक्षा बलों को भी कुछ आज़ादी है. हमारे हिसाब से इस आज़ादी का मतलब है- हत्या करना, विकलांग बनाना, यातना देना और बलात्कार करना….कश्मीरियों के लिये इस आज़ादी का अर्थ है – खामोश रहना, अपनी आवाज़ कभी न उठाना और भारत की अधीनता को स्वीकार करना. कश्मीर ही नहीं, उत्तर-पूर्व के अनेकों हिस्सों मे भारतीय सेना को ये ‘अधिकार’ मिले हुए हैं. अफ़्पसा के रूप में भारतीय राज्य ने उन्हें वह अमोघ अस्त्र दिया हुआ है जिसका इस्तेमाल करते हुए वे किसी को भी यातना दे सकते हैं, किसी की भी हत्या कर सकते हैं और किसी का भी बलात्कार कर सकते हैं. दुनिया की किसी भी अदालत में इस पर कोई अर्ज़ी दाखिल नहीं कर सकता. मणिपुर औरतों का प्रदर्शन हम कभी नहीं भूल सकते जिसमें उन्होंने सेना मुख्यालय के समक्ष नंगे हो कर प्रदर्शन किया था – ‘भारतीय सेना आओ हमारा बलात्कार करो’.
सम्भवत: पूरी दुनिया में शासक वर्ग की सेना को यह प्रशिक्षण दिया जाता है कि प्रतिरोध आन्दोलन को मानसिक रूप से तोड़ने के लिये उनकी औरतों का बलात्कार करो. लेकिन जहां प्रतिरोध जीने का सलीका बन जाता है वहां दमन की कोई भी इन्तेहां अन्तिम नहीं होती.
यही जज़्बा दिखाया है इस किताब की लेखिकाओं ने और कश्मीर की औरतों ने. लेखिकाओं ने न केवल कुनान पोशपोरा में घटे इस सोचे-समझे हमले से जुड़े दस्तावेजों को एकत्र किया, बल्कि इस दौरान उन्होंने उन शिकार औरतों और अन्य ग्रामीणों से तदनुभूतिक रिश्ता भी कायम किया. और बहुत ही समझदारी और संवेदनशील तरीके से इसे कलमबद्ध किया. उनके इस प्रयास से कुनान और पोशपोरा में 25 साल पहले हुई वह घटना फ़िर से सतह पर आ गई. सवाल फ़िर से उठने लगे.
कुछ वर्ष पहले दिल्ली में बलात्कार के बाद एक युवती की मौत ने सबको हिला दिया था. एक बड़ा आन्दोलन उठ खड़ा हुआ. जिसने संसद को अधिनियम बनाने पर मजबूर कर दिया. लेकिन यह किताब सवाल करती है जब कश्मीर में या उत्तरपूर्व में वर्दी में लोग बलात्कार करते हैं तो पूरे देश में कोई तूफ़ान नहीं उठ खड़ा होता. क्यों?????? 23 फ़रवरी केवल कश्मीर की औरतों का ही प्रतिरोध दिवस क्यों है, पूरे भारत की औरतों का प्रतिरोध दिवस क्यों नहीं.???

चिनार तले
आफ़रीन फ़रीदी

नंगे चिनार अपनी झाड़ियों मे सिहर उठे
चांदनी रात में अपने गांव को नींद से जागते देख
भयावह तूफ़ानी तरंग की तरह आते उस काफ़िले से दूर
चूल्हे के सामने पनाह के लिये तड़पते देख.

दर्द में भी वह चिलक उठी
जब उसके बच्चे ने हौले से कोख में उसे कोहनी मारी.
एक गरमाहट तारी हो गई
मानो कांगेर को और कस कर समेट लिया हो.
एक खिलता मौसम बेताब है, वसन्त के फूलने को……..

(इसी किताब से)

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The richest 1% of Indians now own 58.4% of wealth

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The richest 1% of Indians now own 58.4% of the country’s wealth, according to the latest data on global wealth from Credit Suisse Group AG, the financial services company based in Zurich. Credit Suisse has published the report every year since 2010.

The share of the top 1% is up from 53% last year. In the last two years, the share of the top 1% has increased at a cracking pace, from 49% in 2014 to 58.4% in 2016. The accompanying Chart 1 has the details.

Does that mean the trend of the very rich getting richer is because of the Modi government? Not really—as the chart shows, the share of the top 1% in the country’s total wealth improved from 40.3% in 2010 to 49% in 2014. But the numbers do suggest that the very rich are expanding their share at a faster clip now. The richest 10% of Indians haven’t done too shabbily either, increasing their share of the pie from 68.8% in 2010 to 80.7% by 2016. In sharp contrast, the bottom half of the Indian people own a mere 2.1% of the country’s wealth.

Data from Credit Suisse shows that India’s richest do well for themselves whichever government is in power. In 2000, for instance, the share of the richest 1% was a comparatively low 36.8% of the country’s wealth. In the last 16 years, they have increased their share from a bit more than a third to almost three-fifths of total wealth.

Very clearly, most of the gains from the country’s high rate of economic growth have gone to them.

How does India compare with other countries? Well, the Credit Suisse numbers confirm what we see on a daily basis—that India is one of the most unequal societies. Consider this: while the top 1% in India own 58.4% of the country’s wealth, the top 1% in China own 43.8%, in Indonesia they own 49.3%, in Brazil 47.9%, in South Africa 41.9%. Chart 2 has the details. But perhaps our richest need to try harder—the top 1% in kleptocratic Russia own 74.5% of the nation’s wealth.
[http://www.anirudhsethireport.com से साभार]

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Decision to Demonetise Currency Shows They Don’t Understand Capitalism: Prabhat Patnaik

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You have written recently about the misconceptions around the idea of black money. What really is black money?
There is a feeling that black money is basically a stock of money, which is put in pillow cases or trunks or underground. That’s not the case. Black money is something which refers to a whole range of activities which are undertaken either illegally or in order to avoid taxes.
In other words, there may be, let’s say, arms trade or drug running and so on which are completely illegal activities. Alternatively, there are activities which are legal but nonetheless undeclared because they want to avoid taxes. So we have to really think in terms of black business or undisclosed business as opposed to black money. In any business, you are using money. When you use money for a greater or a less period of time, you will be holding money. That is true in any business and for black business as well.
It is not even the case that black business is carried out with cash while normal business is carried out with cheques and so on. Because normal business also requires cash transactions. So normal cash holding and black cash holding are not qualitatively two different things; and as a result to say that if we demonetise a range of currency, we will be able to catch black money is not correct because everybody then needs to change. It is not only those doing black business but even normal businessmen who need to change it. And if so, you can actually have black businessmen coming to normal businessmen to help them change their black money for money which is not accounted for.
How much of the gains from this sort of undisclosed business would be kept in currency format?
Gains, again – since it’s a business, you do what you do in a normal business. You invest the gains in enlarging the business. That’s exactly like any other business, except for the fact that it is something which is not disclosed to the government or to the tax authorities.
So it’s not as if the money is simply held. In fact, Marx had brought in a distinction between the miser and the capitalist. The miser believes that you become rich by hoarding money, while the capitalist rightly believes that you become rich by actually using the money, throwing it into circulation. Black money holders are not misers, they are capitalists. They are trying to expand their business much the way normal business is trying to expand. So they are forever throwing their money back into circulation. The amount they will be holding at any point in time will only be a fraction of their total transactions.
How useful will the government’s move of demonetising Rs 500 and Rs 1000 notes be in flushing out this amount?
This move betrays a lack of understanding of capitalism in the government. Typically, what happens in capitalism in a situation like this is that there would be a new business opening up about how to change old currency notes into new ones. This is was Schumpeter called innovation – and in capitalism that is forever happening. A whole range of people would come up who will say you give us Rs 1000 and we will give you Rs 800 or 700 or whatever. Consequently, instead of curbing black business it will actually give rise to the proliferation of black business. Likewise, for instance,
Likewise, for instance, since there is no distinction between black money held as part of business and white money held as part of business, many of those engaged in black business would like to get others engaged in white business to change money for them. And they would, therefore, backdate bills and apparently purchase from them, etc. Millions of such transactions would be happening and if they do, no tax authority will be able to catch these transactions. This way of unearthing black money is something which inconveniences people enormously, without really being successful in stopping the flow of black money.
Demonetisation of large currency has been carried out in the past as well. Does it have a successful history in terms of tackling black money?
In fact, demonitisation, whenever it has been done, has been done with very large currency notes. Something which ordinary people don’t even get to see, let alone use. Therefore, it was completely without inconveniencing people. The first demonetisation in the more recent period – 1946, which was under the colonial administration – they actually demonitised higher value notes. Subsequently, under Morarji Desai’s government in post-independence India, 1978, they demonitised large value notes –Rs 1000, Rs 5000, Rs 10000 notes. In 1978, Rs 1000 was a lot of money. Ordinary people simply did not use them and as a result life went on normally as it was.
I don’t think it succeeded very much in shaking black business but at least it did not inconvenience anyone. Now we are in a situation where people are getting inconvenienced – enormous long queues outside banks. What is more is that the peasantry has just harvested their crop and they are about to sell. If they don’t get cash the crops will be just be lying there and might get damaged. This is causing enormous inconvenience to everybody without being particularly effective in unearthing black money.
How would you say this move will impact those in the informal economy and people without bank accounts?
The point is… let me give you an analogy. If there is a crime that happens in a particular locality, you don’t go and call all the residents of that locality to the police station to find out whose hands have bloodstains or whose eyes are bloodshot and so on. Typically, you just pursue the case and you investigate. Same with black money.
Ideally, if you have an honest tax administration which operates without interference, either to exonerate people who are not guilty or to catch people who are guilty, in that case, through sheer painstaking effort, they would be able to unearth a substantial amount of black money at any time. Important cases, if properly pursued, would actually act as a signal to others.
This is what happens in other countries, but this is not what we are doing. What we are doing is demonetising Rs 500 and Rs 1000 notes, and causing great inconvenience to people. It is going to have all kinds of impacts as far as the economy is concerned – business will come to a standstill for several days. If people move from money to commodities there will be a sudden upsurge in prices, etc. In other words, these are not things which can be easily predicted because these are not things which happen in the normal course of life. But on the other hand, to go through all this and inconvenience people for a chimera – that this will unearth black money – is to my mind really inane.
The government has access now to information about people with offshore accounts, like you said, things that could be further investigated with the leads they have. There’s also the issue of people holding “participatory notes” in stock markets (that many have argued is a convenient vehicle to park black money). Why do you think the government chose this particular method to try and tackle the black money issue?
This particular route is not even going to effect the kind of black business that operates internationally. Those who carry out this business and keep all their money in Swiss banks – will not be affected by demonitising rupee notes. As a result, even as an attack on black money, it really is targetting only a relatively small proportion of it. I think it is probably just to create a dramatic impact… to project that the government is actually doing something. But on the other hand, it does amount to treating people as sheep.
The government has announced a new Rs 2000 note, Rs 500 note and more recently also a Rs 1000 notes. If the idea behind the demonetisation is to prevent large stocks of cash and move towards a cashless economy, is that a logical move?
You can’t hold a gun to people’s heads and ask them to move to as cashless economy. This is something which should occur over the normal course of things because it is easy and convenient to do so. That is not the case. Even as of now if you want to open an account with a bank, even the State Bank of India, you have to fill a 16-page questionnaire.
So the point is that this is going to be very difficult and what is more is that on every cheque transaction, a certain amount is charged by the bank. So effectively, you are affecting a transfer from just ordinary, common people to the pockets of banks, while that is not the case with currency transactions. And what is also odd, in a situation where people are not used to cheques and signatures are not standardised, this is something which is going to cause a lot of inconvenience. I think this transition to a cashless economy should be a more gradual, normal process.
Do you think this particular move will effect the generation of black business or black money?
I don’t think so. Let’s assume that a certain amount of currency notes are simply transferred from black money transactors to the government – assuming the best scenario from the government’s point of view. But as I said, black money is a business and business is not being affected because obviously that business is profittable. For example, if a factory is destroyed by fire the whole industry doesn’t shut down. Even under the best assumptions, it would be a once-for-all loss for some people, but on the other hand they would carry on generating black money. Black money is a flow and not a stock… that’s the basic thing.
What do you think the government could do if they wanted to take a serious step in this regard?
I think there are a lot of leads the government would have. It has leads about foreign holdings and foreign businesses. I think an example should be made by catching some people who are really very large operators of black business and prosecuting them. Steffi Graf’s father went to jail in Germany, while here you cannot imagine anything of that kind happening where the government actually catches one the favoured businessmen who is dishonest. So I really think an honest, painstaking tax administration is what is required and honesty of purpose on the part of the government.
The government has also given a few other reasons for this move – the existence of counterfeit currency and curbing terrorism funding…
Suppose there is counterfeit currency, if you want to move from one kind of notes to another kind of notes you can do so over a period of time. Counterfeit currency is going to be flooding the Indian market in the next day or two. We have been having old currencies disappearing, new currency notes coming into being. We had a time when we had aanas and paisas and so on but these days we don’t. So a change of that kind, where existing currency notes have been phased out, is something which will anyway get rid of the current counterfeit notes. New counterfeiting if you can guard against, well and good, but even if you can guard against new counterfeiting, this is a matter which could have been done in the normal course over a period of time, without putting people into inconvenience.
It seems like the government was not completely prepared for this move – there are reports of banks already having only Rs 2000 and running out of smaller currency, while nobody has change – Rs 100 notes are only about 15% of the total liquidity in the country. How long do you think it will take for the situation to normalise to a certain extent?
It is difficult to say but I certainly think for a couple of weeks, life is going to be very difficult for most people. But I am really surprised that if the RBI governor was in the know of it, why they were not prepared with the new currency notes in time, before they went into operation like this. Because it’s just inconveniencing everybody. How can you suddenly demonitise a substantial part of your currency without having it in your possession, i.e., the central bank’s possession, currency to exchange it with.
It’s going to pretty abysmal state of affairs for a while. And let’s be clear… almost everybody has a range of cash transactions. You don’t pay cheques to buy vegetables or groceries. And as a result almost everybody is going to be inconvenienced, not only those who don’t have bank accounts. I am inconvenienced because I cannot take an auto rickshaw, let us say. I think this is a very ham-handed mission.
[http://thewire.in से साभार]

Posted in General | Comments Off on Decision to Demonetise Currency Shows They Don’t Understand Capitalism: Prabhat Patnaik

‘Son of Saul’ : a unique film on Holocaust

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9 अक्टूबर को जब पोलैण्ड के मशहूर फिल्मकार और ‘आस्कर’ के ‘लाइफ टाइम अचीवमेन्ट अवार्ड’ से सम्मानित ‘आन्द्रेइ वायदा’[Andrzej Wajda] की मृत्यु हुई तो ‘मंगलेश डबराल’ ने उन पर एक अच्छा आलेख लिखा। इसका शीर्षक था- ‘महान सिनेमा का आखिरी आदमी’। इस लेख को पढ़ने के बाद पिछले साल विदेशी भाषा में आस्कर से सम्मानित हंगरी की फिल्म ‘सन ऑफ सोल’[Son of Saul] देखी। फिल्म खत्म होते होते यह समझ में आ गया कि आन्द्रेइ वायदा महान सिनेमा के आखिरी आदमी नहीं हैं महान सिनेमा अभी भी बन रहा है। मंगलेश डबराल का यह नास्टेल्जिया ही है कि वह आन्द्रेइ वायदा की मौत के साथ महान सिनेमा के मौत की भी घोषणा कर दे रहे हैं।
‘सन ऑफ सोल’ 1944 में हंगरी के एक नाजी शिविर की महज डेढ दिनों की कहानी है। यह पूरी तरह से महज एक व्यक्ति ‘सोल असन्डर’[Saul Ausländer] के नजरिये से बतायी गयी है जो इस नाजी शिविर में ‘सन्दरकोमान्डो’[Sonderkommando] हैं। यहूदी कैदियों में से ही कुछ को सन्दरकोमान्डो बनाया जाता था जो आम यहूदियों को मारने की फैक्ट्री के कल पुर्जे की तरह काम करते थे। और इसके एवज में उन्हें अपनी जिन्दगी के कुछ हफ्ते या महीने मिल जाते थे। गैस चैम्बर में जाते यहूदियों के कपड़े समेटना, गैस चैम्बर में यहूदियों के मारे जाने के बाद लाशों को बाहर निकालना और पुनः गैस चैम्बर की सफाई करना आदि उनके काम होते थे। नाजी जर्मन लगातार उनकी निगरानी करते थे। इसी ‘रुटीन’ काम के दौरान ही सोल असन्डर को एक ‘लाश’ मिलती है जिसकी सांसे अभी भी चल रही है। डाक्टर को बुलाया जाता है। डाक्टर आकर चुपचाप अपना काम करता है और उसकी सांसे बन्द कर देता है। सोल असन्डर अपने साथ के सन्दरकोमान्डो से कहता है कि यह उसका बच्चा है। लेकिन उसके दोस्त कहते हैं कि उसकी तो अभी शादी ही नहीं हुई है। लेकिन फिर भी सोल असन्डर जिद करता है कि यह उसका ही बच्चा है। दरअसल यह पूरा मामला एक ‘सुर्रियलिस्ट’ अंदाज में दिखाया गया है। शायद संभावित मेलोड्रामा से बचने के लिए और फिल्म को एक आध्यात्मिक उंचाई प्रदान करने के लिए। फिल्म के अन्त में यह समझ में आ जाता है कि फिल्म का ताना बाना ऐसा है कि इस बात का कोई मतलब नही है कि यह बच्चा सच में उसका है या नही।
बिना मकसद के मशीन की तरह, अपनी भावनाओं को मार कर काम कर रहे सोल असन्डर को अब एक मकसद मिल जाता है- ‘अपने बच्चे’ का अन्तिम संस्कार करने का। वहां सभी लाशों को एक साथ जला दिया जाता था। यहूदी धर्म में लाश को जलाना पाप है।
उस नाजी शिविर में एक लाश को गुपचुप तरीके से दफनाना बहुत ही खतरनाक था। लेकिन सोल असन्डर इस खतरनाक मिशन में लग जाता है। दूसरी तरफ उसके साथी सन्दरकोमान्डो इसी विपरीत परिस्थिति में इस नाजी शिविर के अन्दर ही एक बगावत खड़ी करने की गुपचुप तैयारी कर रहे हैं जिसमें सोल असन्डर की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन सोल असन्डर का अपना व्यक्तिगत मिशन ना सिर्फ इस बगावत की तैयारी में बाधा बन रहा है वरन् पूरी योजना को ही संकट में डाल सकता है।
पूरी फिल्म में हर चीज सोल असन्डर के ही दृष्टिकोण से दिखायी गयी है। इसके लिए ‘फिल्म स्टाइल’ भी वैसी ही रखी गयी है। पूरी फिल्म को हाथ के कैमरे से शूट किया गया है जो हर वक्त सोल असन्डर को ही बहुत नजदीक से फालो करता है और दर्शकों को उतना ही दिखाता है जितना सोल असन्डर देखता है। इस प्रयोग के कारण सोल असन्डर और दर्शकों के ‘विजन’ में एक तरह का तनाव पैदा होता है और परिणामस्वरुप उलझन पैदा होती है। दिलचस्प बात यह है कि ‘होलोकास्ट’ के सभी दृश्यों को ‘आउट ऑफ फोकस’ रखा गया है। दर्शकों को यह बात प्रेषित हो जाती है कि सोल असन्डर अपने रुटीन में इन दृश्यों को इतनी बार देख चुका है कि अब वह इसके प्रति जड़ हो चुका है यानी इन चीजों को वह देख कर भी नहीं देखता। बैकग्राउन्ड से लगातार आने वाले शोर-चीत्कार भी वैसी ही फीलिंग पैदा करते है जैसा ट्रैफिक में फंसे होन पर आप अनुभव करते है, जब आसपास की ‘मशीनों’ के साथ आपकी ज्ञानेन्द्रियां भी मशीनी हो जाती है। पूरी फिल्म में ‘लाइट’ को भी ‘डिफ्यूज्ड’ रखा गया है जो उस पूरे यातना शिविर के मूड को बहुत ही असरकारक तरीके से संप्रेषित कर देता है।
फिल्म के डायरेक्टर ‘लेज्लो नेमिस’[László Nemes] ने आजकल की आम फिल्मों से हटकर ‘लांग टेक्स’ का ज्यादा इस्तेमाल किया है, जो एक खास तरह के मूड की निरन्तरता को बनाये रखने में मदद करता है। फिल्म के साथ एक और विशेष बात यह है कि आज के डिजीटल युग में यह 35 एमएम ‘फिल्म’ पर शूट की गयी है।
यह फिल्म आसान फिल्म नही है और ना ही ‘खूबसूरत’ फिल्म है। लेज्लो नेमिस ने अपने एक साक्षात्कार में कहा भी है कि हम शुरु से ही इसे एक खूबसूरत और बड़ी फिल्म नहीं बनाना चाहते थे। इस विषय पर बनी दूसरी फिल्मों जैसे ‘सिन्डलर्स लिस्ट’ से तुलना करते हुए नेमिस कहते हैं कि सिन्डलर्स लिस्ट ‘सरवाइल’ और उम्मीद की फिल्म है। सन ऑफ सोल ‘इनर सरवाइल’ की फिल्म है जहां कोई उम्मीद नहीं है।
दरअसल लेज्लो नेमिस का और प्रकारान्तर से इस फिल्म का यह दर्शन ही फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी है। यह कमजोरी इसलिए बहुत उजागर नही होती क्योकि आज हम जानते है कि नाजीवाद का और हिटलर का क्या हुआ। लेकिन कल्पना कीजिए कि नाजीवाद के रहते यह फिल्म बनती तो इस पर कैसी प्रतिक्रिया होती। नाजीवाद का सवाल या यहूदी कत्लेआम का सवाल एक राजनीतिक सवाल है। इससे सम्बन्धित नैतिक सवाल इसके मातहत ही है। लेकिन इस फिल्म में इसे एक नैतिक सवाल की तरह देखा गया है और इसे राजनीतिक सवाल से ऊपर रखा गया है।
दरअसल लेज्लो नेमिस लंबे समय तक हंगरी के ही मशहूर फिल्मकार ‘बेला तार’[Bela Tarr] के सहायक रहे है। नेमिस पर और उनकी इस फिल्म पर उनका प्रभाव साफ है। ना सिर्फ स्टाइल के मामले में वरन दृष्टिकोण के मामले में भी। बेला तार की लगभग सभी फिल्में जीवन और भविष्य के प्रति निराशा से भरी होती है। 2012 में जब उन्होने फिल्म निर्माण से सन्यास ले लिया तो इसका कारण यही बताया कि अब उनके पास कहने के लिए कुछ नही बचा। इसी से जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण समझा जा सकता है।
‘सन ऑफ सोल’ लेज्लो नेमिस की पहली फिल्म है। और इसने काफी उम्मीद जगायी है। उम्मीद है कि आने वाले वक्त में वे बेला तार के दार्शनिक प्रभाव से निकलेंगे और सिनेमा के क्षितिज को और विस्तार देंगे।

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‘The Many Faces of Kashmiri Nationalism: From the Cold War to the Present Day’

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कश्मीर के वर्तमान हालात में ‘नन्दिता हक्सर’ की पिछले साल आई किताब ‘मेनी फेसेज आॅफ कश्मीरी नेशनलिज्म: फ्राम दि कोल्ड वार टू दि प्रजेन्ट डे’ से गुजरना एक बेचैन कर देना वाला अनुभव रहा। नन्दिता हक्सर ‘उत्तर पूर्व’ और कश्मीर में मानव अधिकार आंदोलन की जमीनी कार्यकर्ता है और वहां के जन-संघर्षो से उनकी पूरी सहानुभूति है। इसके अलावा सत्ता समीकरणों और उनकी खुली व गुप्त रणनीतियों पर भी उनकी पैनी नज़र रहती है। यही कारण है कि उनकी सभी किताबें अकादमिक बुद्धिजीवियों और आम पाठकों दोनों को अपील करती है।
इस किताब में नन्दिता ने ‘सम्पत प्रकाश’ और ‘अफजल गुरु’ के जीवन के वस्तुगत विवरणों के माध्यम से कश्मीर के संघर्षां और उसकी जटिलताओं पर रोशनी डालने का प्रयास किया है। उनकी प्रखर राजनीतिक दृष्टि अन्तराष्ट्रीय समीकरणों के साथ इसके अन्तर-सम्बन्धों को भी लगातार परखती चलती है।
सम्पत प्रकाश वाम विचारधारा वाले एक कश्मीरी पंडित हैं जो लगातार जम्मू-कश्मीर के ट्रेड यूनियन आन्दोलन में सक्रिय रहे हैं और जम्मू कश्मीर की आजादी और उसकी ‘कश्मीरियत’ के पक्के समर्थक हैं। वे उन कुछ गिने चुने कश्मीरी पंडितों में से है जो आज भी घाटी में सक्रिय हैं। और अभी भी ट्रेड यूनियन के मुद्दों के साथ ही कश्मीर की आजादी के मुद्दे को भी उठाते रहते हैं। इसलिए वे अलग अलग कारणों से ‘मुस्लिम साम्प्रदायिकता’ और ‘हिन्दू साम्प्रदायिकता’ दोनो के निशाने पर रहते हैं।
सम्पत प्रकाश जम्मू-कश्मीर की वर्गीय संरचना और उसमें हिन्दू-मुसलमानों की स्थिति को बहुत ही रोचक तरीके से बताते है-‘‘कश्मीरी पंडित यह भूल चुके हैं कि वर्षो से किस तरह अनेकों तरीकों से मुस्लिमों ने उनकी सेवा की है। कश्मीरी मुस्लिमों के बनाये ईटों से ही कश्मीरी पंडितों के घर बने। उनके मंदिरों के लिए उन्होंने पत्थर तोड़े। मुस्लिम कारपेन्टरों ने उनके मंदिरों के लिए बीम और दरवाजे बनाये। मुस्लिम राजगीरों ने ही सीमेन्ट तैयार किया और यहां तक की उनके भगवानों की मूर्तियां भी तैयार की। ‘खीर भवानी’ मंदिर का फर्श मुस्लिमों ने ही तैयार किया था। कश्मीरी पंडितों ने क्या किया? उन्होंने देवताओं की मूर्तियां बिठायी और पवित्र जल व दूध से मंदिर का शुद्धिकरण किया और कश्मीरी मुस्लिमों के मंदिर में प्रवेश करने पर पाबन्दी लगा दी।’’
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सम्पत प्रकाश के बहाने 50-60 और 70 के दशक के उस कश्मीर से परिचय होता है जब कश्मीर में ‘वाम’ का काफी प्रभाव था। शुरु में कम्युनिस्ट पार्टी ‘शेख अब्दुल्ला’ की ‘नेशनल कान्फ्रेन्स’ में ही काम करती थी। इसी दौर में ट्रेड यूनियन आन्दोलन में जबर्दस्त विकास हुआ और ट्रेड यूनियन आन्दोलन ने कई महत्वपूर्ण जीतें दर्ज की। श्रीनगर के मशहूर लाल चौक का नाम इसी दौर में ‘लाल चौक ’ पड़ा जो स्पष्ट रुप से रुस के मशहूर ‘रेड स्क्वायर’ से प्रभावित था।
यह तथ्य भी कम लोगों को ही पता है कि जब 1947 में पाक की तरफ से हमला हुआ था तो यहां के कम्युनिस्टों ने उनसे लड़ने के लिए ‘जन मिलीशिया’ का निर्माण किया था। और हमले को वापस खदेड़ने में इस जन मिलीशिया की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसमें कई कामरेडों की जाने भी गयी थी।
इस दौरान ‘मई दिवस’ की विशाल रैलियां, उनमें मुस्लिमों-हिन्दुओं की समान भागीदारी तथा गूंजते मजदूर नारों का विस्तृत विवरण हमें आश्चर्यचकित करता है कि चंद दशक पहले ही कश्मीर की एक अन्य पहचान भी थी। शेख अब्दुल्ला पर भी इसका काफी असर था। उनका ‘नया कश्मीर का घोषणापत्र’ इसका सबूत है। जिसमें ना सिर्फ बिना क्षतिपूर्ति दिये जमीन्दारों से जमीन जब्त करने का प्रावधान था बल्कि महिलाओं को भी सभी क्षेत्रों में समान अधिकार की बात की गयी थी। शिक्षा पूरी तरह से निशुल्क करने का प्रावधान था। बाद के वर्षो में इनमें से कई चीजें (जैसे शिक्षा और भूमि सुधार आदि) लागू भी हुई।
लेकिन यह ट्रेड यूनियन आन्दोलन शुरु में सीपीआई और 1964 के बाद मुख्यतः सीपीएम से जुड़ा रहा। ये दोनो कम्युनिस्ट पार्टियां शुरु से ही सत्ता के साथ दोस्ताना समीकरणों में रही। कश्मीर पर इनकी नीति कमोवेश दिल्ली सरकार की नीति से ही मेल खाती थी। ये दोनों पार्टियां ‘आत्म निर्णय के अधिकार’ यानी कश्मीर की आजादी की विरोधी थी। 1967 में नक्सलबाड़ी का आन्दोलन शुरु होने पर कश्मीर के कम्युनिस्टों का एक धड़ा भी इसके प्रभाव में आया। सम्पत प्रकाश भी उनमें से एक थे। इसी समय उनकी मुलाकात भी ‘चारु मजुमदार’ से हुई। वे चारु से काफी प्रभावित हुए क्योकि चारु मजुमदार ने स्पष्ट रुप से जम्मू कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया। नक्सलबाड़ी आन्दोलन के कुचले जाने और इसके अन्दर पैदा हुई टूटन के बाद सम्पत प्रकाश ने ‘जार्ज फर्नान्डिस’ की ‘हिन्द मजदूर किसान युनियन’ से अपने आप को जोड़ लिया। हिन्द मजदूर किसान यूनियन भी कश्मीर की आजादी का समर्शन नहीं करती थी।
बाद के वर्षो में ट्रेड यूनियन के बहुत से हिस्से (विशेषकर घाटी के) ‘हुर्रियत कान्फ्रेन्स’ या ‘जेकेएलएफ’ से जुड़ गये। दूसरी ओर जम्मू लगातार हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों विशेषकर ‘आरएसएस’ का गढ़ बनता जा रहा था। इसके प्रभाव में जम्मू की ट्रेड यूनियन पर आरएसएस का प्रभाव (जाहिर है उसके हिन्दू सदस्यों पर) बढ़ने लगा।
हुर्रियत कान्फ्रेस और जेकेएलएफ दोनों के पास अपना कोई ट्रेड यूनियन एजेण्डा नही था। और दोनो का ही वाम विचारधारा से कोई लेना देना नहीं था। फलतः राज्य में ट्रेड यूनियन आन्दोलन महज अनुष्ठान बनकर रह गया। दूसरी ओर कश्मीर में बहुत से कश्मीरी पंडित जो वाम आन्दोलन से जुड़े हुए थे उन्हें कश्मीर घाटी से पलायन करना पड़ा। वहीं बदली परिस्थिति में वाम विचारधारा रखने वाले मुस्लिमों के लिए घाटी में अपनी गतिविधियों को अंजाम देना ज्यादा से ज्यादा खतरनाक होने लगा। उनमें से कइयों को तो अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। और इस तरह जम्मू कश्मीर में ‘वाम आन्दोलन’ लगभग खत्म हो गया।
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यहां गौरतलब है कि नक्सलबाड़ी के छोटे से दौर को छोड़ दे तो जम्मू कश्मीर के कम्युनिस्टों ने कभी भी जम्मू कश्मीर के आत्मनिर्णय यानी आजादी के अधिकार का समर्थन नहीं किया। शीत युद्ध के समीकरणों के कारण और विशेषकर अपनी संशोधनवादी अवस्थिति के कारण तत्कालिन ‘सोवियत रुस’ जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानता था। चूंकि यहां की कम्युनिस्ट पार्टी रुस की कम्युनिस्ट पार्टी के चरण कदमों पर चल रही थी और खुद भी संशोधनवाद की गिरफ्त में थी, इसलिए इसकी पोजीशन भी यही थी। यहां तक की कश्मीर की आजादी की मांग करने वालों को यह शक की नज़र से देखती थी और उसे अमरीका का एजेन्ट समझती थी।
कल्पना कीजिए कि यदि ‘सीपीआई’ और ‘सीपीएम’ कश्मीर के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन कर रहे होते और इसे अपने संघर्ष के एजेण्डे में शामिल करते तो शायद कश्मीर की आजादी का संघर्ष मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्वों के हाथ में नही जाता और जम्मू कश्मीर का इतिहास और प्रकारान्तर से भारत का इतिहास अलग होता।
हालांकि नन्दिता हक्सर और सम्पत प्रकाश दोनो ही सीपीआई और सीपीएम की इस गलत नीति के प्रति ज्यादा आलोचनात्मक नहीं दिखते और रोजमर्रा की ट्रेड यूनियन गतिविधियों के विवरण को ही गौरवान्वित करते रहते हैं।
इसी तरह का एक तरह से ‘राजनीतिक सुसाइड’ अरब देशों में काम कर रही वहां की तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी किया था। 1948 के पहले अरब के कई देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां बेहद ताकतवर थी। 1948 में अरब भूमि पर इजरायल के अस्तित्व में आते ही रुस ने उसे मान्यता दे दी। रुस के कदमों पर चलते हुए अरब देशों की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी उसे मान्यता दे दी। परिणामस्वरुप तत्काल ही इन कम्युनिस्ट पार्टियों की साख वहां की जनता की नज़र में तेजी से गिर गयी। अब इनका स्थान ‘राजनीतिक इस्लाम’ ने लेना शुरु कर दिया। नतीजा आज सबके सामने है। इस बारे में ‘तारिक अली’ ने अपनी किताब ‘बुश इन बेबीलोन’ में विस्तार से बताया है।
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दूसरी कहानी यानी अफजल गुरु की कहानी और उसके बहाने कश्मीर के बगावत की कहानी अपेक्षाकृत ज्यादा जानी पहचानी है। इसे बहुत ही रोचक और भावपूर्ण तरीके से लिखा गया है। इसके साथ ही जेकेएलएफ के संस्थापक ‘मकबूल भट्ट’ की भी रोचक कहानी इस किताब में है। इण्टरोगेशन सेन्टर में मकबूल भट्ट से सम्पत प्रकाश का परिचय और दोनों के बीच बातचीत का ब्योरा बहुत ही दिलचस्प और मूविंग है। मकबूल भट्ट के ‘मकबूल भट्ट’ बनने की कहानी भी यहां पता चलती है। मकबूल भट्ट का बचपन निरंकुश ‘डोगरा राज’ में बीता था। मकबूल भट्ट के हवाले से नन्दिता मकबूल भट्ट के बचपन की एक घटना को यो बयां करती है, जिसका मकबूल भट्ट के भावी राजनीतिक जीवन पर निर्णायक प्रभाव पड़ा- ‘‘जब जागीरदार कार से जाने लगा तो हमारे बड़ों ने गांव के सभी बच्चों को कार के सामने लेट जाने को कहा। गांव के सैकड़ों बच्चें कार के सामने लेट गये और जागीरदार से याचना करने लगे कि उन पर लगा अतिरिक्त कर माफ कर दिया जाय। मैं भी उनमें से एक था और मुझे आज भी वह डर और बेचैनी याद है जो उस वक्त हम पर हावी थी। सभी बच्चों और बूढ़ों की आंखों में आँशु थे। वे जानते थे कि यदि जागीरदार कर में छूट दिये बिना लौट गया तो उनकी जिन्दगी नरक हो जायेगी। अंततः जागीरदार अपने अन्तिम फैसले में कुछ संशोधन करने पर सहमत हो गया।’’
मकबूल भट्ट को पाकिस्तान और हिन्दोस्तान दोनो जगहों पर अलग अलग समयों पर गिरफ्तार किया गया। दोनों जगह आरोप समान थे- भारत में ‘पाक जासूस’ होने का आरोप और पाक में ‘भारत का जासूस’ होने का आरोप। भारत और पाक दोनो से अलग होने की मांग करने वाले मकबूल भट्ट और उनके द्वारा स्थापित ‘जेकेएलएफ’ की यही नियति थी। वे किसी के हाथ की कठपुतली बनने को तैयार नही थे। फलतः भारत और पाकिस्तान दोनों ही उसे खत्म कर देने पर आमादा थे। इसके अलावा दोनों ही देशों को इसके सेकुलर चरित्र से एलर्जी थी। क्योकि इससे जेकेएलएफ को हिन्दू-मुस्लिम खाने में फिट नहीं किया जा सकता था, जो दोनों ही देशों का एजेण्डा था। नन्दिता हक्सर ने साफ साफ लिखा है कि कश्मीर का पाकिस्तान में विलय चाहने वाले ‘हिजबुल मुजाहिदीन’ ने भारतीय सुरक्षा एंजेसियों को जेकेएलएफ के लड़ाकों के बारे में जानकारियां उपलब्ध करवायी। इस जानकारी के कारण ही इनसर्जेन्सी के दौरान करीब 500 जेकेएलएफ के लड़ाकों को भारतीय सुरक्षा एंजेन्सियों ने मार दिया। जेकेएलएफ का कमजोर होना दोनों ही देशों के हित में था।
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अफजल गुरु 89-90 के इसी उथलपुथल भरे दौर में ‘एमबीबीएस’ की पढ़ाई कर रहा था। और घट रही घटनाओं को ध्यान से देख रहा था। इसी समय कश्मीर के नौजवानों में फिल्म ‘उमर मुख्तार’ बेहद लोकप्रिय थी। अफजल ने भी यह फिल्म दर्जनों बार देखी। बाद में कश्मीर में इस फिल्म को बैन कर दिया गया। अफगानिस्तान में रुस की फौजों को हराया जा चुका था। और अफजल की पीढ़ी को यह मानने में कोई दिक्कत नहीं थी कि उसी तरह भारत को भी हराया जा सकता है। यहां नन्दिता ने इस पहलू पर भी पर्याप्त ध्यान दिया है कि कैसे रुस के खिलाफ इस लड़ाई में अमरीका ने हस्तक्षेप किया और हथियारों से ‘तालीबान लड़ाकों’ की मदद की और एक तरह से ‘राजनीतिक कट्टर इस्लाम’ को बढ़ावा दिया। बहरहाल अफजल गुरु अपनी पढ़ाई छोड़ कर ‘लाइन उस पार’ हथियारों की ट्रेनिंग के लिए गया जहां खाली समय में वह ‘इस्मत चुगताई’ की रचनाएं पढ़ता था। वहां उसने देखा कि पाकिस्तान उनकी आजादी की लड़ाई को अपने हित में इस्तेमाल कर रहा है। इसके अलावा भारत वापस लौटने पर उसने यह भी देखा कि कश्मीर के लिए लड़ने वाले लोग ही आपस में कितने मुद्दों पर बंटे हुए हैं। इस्लाम में पूरा विश्वास होने के बावजूद आजादी की लड़ाई को निरन्तर इस्लामी रंग दिये जाने से वह असहमत था। फलतः जल्दी ही उसका मोहभंग हो गया। लेकिन एक लड़ाके का सामान्य जिन्दगी में वापस लौटना इतना आसान न था। इसके लिए सेना के सामने समर्पण करना और उनसे इस सम्बन्ध में एक सर्टीफिकेट प्राप्त करना बेहद जरुरी था। और उसके बाद समय समय पर थाने में या सेना हेडक्वार्टर में हाजिरी लगाना था। खैर इन सबकी त्रासद कहानी इस किताब में दर्ज है। ‘पार्लियामेन्ट अटैक’ केस में अफजल को फंसाये जाने का बहुत विश्वसनीय विवरण यहां मौजूद है। और इसी के साथ दर्ज है अफजल की पत्नी ‘तबस्सुम’ का दर्द और उसका अन्तहीन संघर्ष।
‘हब्बा खातून’ से ‘तबस्सुम’ तक की यह त्रासद-दुखद यात्रा मानों खुद कश्मीर की ही यात्रा है।
किताब के नाम के अनुरुप ही नन्दिता हक्सर ने दमन और प्रतिरोध की इस अन्तहीन गाथा के सभी पहलुओं को समेटने की कोशिश की है। लेकिन जम्मू-कश्मीर इतिहास की एक बेहद महत्वपूर्ण घटना के बारे में किताब में कुछ भी नही है। 1947-48 में विभाजन के समय जम्मू प्रान्त में हजारों की संख्या में मुस्लिमों का कत्लेआम हुआ और उन्हें जबर्दस्ती पाकिस्तान भेजा गया। यह कत्लेआम राज्य मशीनरी और आरएसएस के सहयोग से घटित हुआ। इस कत्लेआम से पहले जम्मू में भी मुस्लिम बहुसंख्यक थे। लेकिन इसके बाद ही यहां मुस्लिम अल्पसंख्यक हो गये। अभी पिछले माह प्रकाशित हुई ‘सईद नकवी’ की किताब ‘बीइंग अदर्स’ में इस घटना का जिक्र किया गया है। इसके अलावा जम्मू के प्रसिद्ध पत्रकार ‘वेद भसीन’ ने इस पर काफी काम किया है। उनकी माने तो यह कत्लेआम दिल्ली की सहमति से हुआ और इसके पीछे एक बेहद सुनियोजित रणनीति काम कर रही थी। वह यह कि यदि भविष्य में कश्मीर की आजादी का आन्दोलन उठ खड़ा होता है तो जम्मू को इस आजादी के खिलाफ खड़ा किया जा सके और प्रकारान्तर से ‘जम्मू बनाम कश्मीर’ को ‘हिन्दू बनाम मुस्लिम’ में परिवर्तित किया जा सके। बाद में कश्मीर घाटी से पंडितोें का पलायन भी सरकार की उसी रणनीति का हिस्सा था। नन्दिता ने भी अपनी किताब में इसका जिक्र किया है कि कैसे तत्कालिन गवर्नर ‘जगमोहन’ अपने रेडियों प्रसारण के जरिये पंडितों से घाटी छोड़ने की अपील कर रहे थे और उन्हे डरा रहे थे कि यहां उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।
सच तो यह है कि जम्मू का यह कत्लेआम और इसी दौरान हैदराबाद में 40 हजार मुस्लिमों का कत्लेआम वह घटना है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते है और इसका विवरण अभी भी सात तालों के अन्दर कैद है। हैदराबाद कत्लेआम पर ‘ए जी नूरानी’ ने काफी विस्तार से लिखा है।
जम्मू के उस कत्लेआम का जम्मू-कश्मीर की भावी राजनीति विशेषकर उसकी आजादी की लड़ाई पर निर्णायक प्रभाव पड़ा। इसलिए इस बारे में सम्पत प्रकाश की चुप्पी और नन्दिता हक्सर की अनभिज्ञता बेचैनी पैदा करती है।
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इसके अलावा किताब का सबसे कमजोर पहलू वह है जहां ‘अफजल के लिए बनी कमेटी’ द्वारा लिये गये अभियान के दौरान ‘नन्दिता’ और ‘जीलानी’ के बीच अन्तरविरोधों का विवरण है या इसी दौरान अफजल के परिवार विशेषकर अफजल के बड़े भाई केे साथ तबस्सुम या खुद नन्दिता हक्सर के अन्तरविरोधों का जिक्र है। नन्दिता ने यहां विस्तार से अपना पक्ष रखा है।
वास्तव में इस तरह के ब्योरों की इस तरह की किताब में कोई जरुरत नही थी। कश्मीर जैसे किसी भी बड़े आन्दोलनों में इस तरह के अन्तरविरोध आम बात है। और दूसरी बात की किताब के विषय से इसका कोई सीधा वास्ता नहीं है। मेरे हिसाब से इस तरह के विवरण विषय को समझने में कतई मदद नहीं करते वरन् उसे डायलूट ही करते हैं।
‘कश्मीरी राष्ट्रवाद’ और उसके प्रतिरोध की कहानी यहां के साहित्य में विशेषकर ‘कविता’ और ‘पेन्टिग’ में काफी मुखर है। लेकिन पूरी किताब में इस पहलू का कोई जिक्र नही है जो एक अधूरेपन का अहसास पैदा करता है। इस पोस्ट में प्रस्तुत कुछ पेंटिंग्स से आपको इस कला की एक बानगी मिल सकती है.
इसके बावजूद यह एक बेहद महत्वपूर्ण किताब है। जो भी जम्मू-कश्मीर में या नन्दिता हक्सर के शब्दों में कहें तो ‘भारतीय लोकतंत्र’ में रुचि रखते हैं उन्हें यह किताब जरुर पढ़नी चाहिए।

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‘बिकनी’ और ‘बिकनी एटोल’ के 70 साल….

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ब्रिटेन की लोकप्रिय पत्रिका ‘मिरर’ में 4 जुलाई 2016 को फैशन परिधान ‘बिकनी’ के 70 साल पूरे होने पर एक लम्बा लेख छपा। इसमें यह जानकारी भी दी गयी थी कि बिकनी का नाम ‘बिकनी’ क्यो पड़ा। पता चला कि बिकनी के ‘आविष्कारक’ फ्रान्स के मशहूर फैशन डिजायनर ‘लुइस रीयर्ड’ [Louis Reard] ने इसका नाम प्रशान्त महासागर में स्थित एक द्वीप ‘बिकनी एटोल’[Bikini Atoll] के नाम पर रखा। जब मैंने सर्च इंजन में ‘बिकनी एटोल’ डाला तो मुझे इसके बारे में भयावह जानकारियां मिली। आज से ठीक 70 साल पहले 1 जुलाई 1946 को अमरीका ने इस द्वीप पर ‘हिरोशिमा-नागासाकी’ पर गिराये गये [6 august और 9 august 1945] परमाणु बम से भी कई गुना शक्तिशाली परमाणु बम का परीक्षण शुरु किया था। 1946 से 1958 तक इस द्वीप पर और आसपास कुल 67 परमाणु बम का परीक्षण किया गया। इसमें से कई की ताकत हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराये गये बम से 1000 गुना ज्यादा थी। 1954 में इसी द्वीप पर पहली बार हाईड्रोजन बम का भी ‘सफल’ परीक्षण किया गया।
बिकनी एटोल पर एक पूरी सभ्यता निवास करती थी। 17वीं शताब्दी में स्पेन की इस पर नज़र पड़ी और उसने इस पर कब्जा जमा लिया। उसके बाद जर्मनी से होते हुए द्वितीय विश्व युद्ध में यह जापान के कब्जे में रहा। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के हार जाने के बाद यह अमरीका के कब्जे में आ गया।
परीक्षण शुरु करने से पहले अमरीका ने यहां के आदिवासी समाज के मुखियाओं की एक बैठक बुलाई। उनसे कहा गया कि उन्हे यह द्वीप खाली करना पड़ेगा। यहां ‘मानवता की बेहतरी’ के लिए कुछ परीक्षण किये जायेगे। इसके बाद उन्हे जबर्दस्ती जहाजों पर लाद कर यहां से 200 किलोमीटर की दूरी पर एक दूसरे निर्जन द्वीप ‘रोन्गेरिक एटोल’ पर भेज दिया गया। उन्हें महज कुछ सप्ताह का राशन मुहैया कराया गया। यह द्वीप रहने लायक नहीं था। इसलिए राशन खत्म होने के बाद वे भूखमरी के शिकार होने लगे। विश्व मीडिया में अमरीका की आलोचना होने के बाद उन्हें पुनः कुछ हफ्तों के राशन के साथ पास के दूसरे निर्जन द्वीप पर भेजा गया। तब से लेकर आज तक वे आसपास के द्वीपों पर भटक रहे है। उनमें से अधिकांश परमाणु विकिरण के घातक असर से भी जूझ रहे है। उनका अपना देश ‘बिकनी एटोल’ पूरी तरह तबाह हो गया। यहां विकिरण स्तर समान्य से कई गुना ज्यादा है।
‘बिकनीएटोलडाटकाम’[www.bikiniatoll.com] ने परमाणु परीक्षण वाले दिन और उसके तुरन्त बाद की स्थितियों को इन शब्दों में कैद किया है-‘‘रोन्गेरिक एटोल पर विस्थापित लोगों को नही पता था कि वहां क्या हो रहा है। उन्होंने उस दिन आसमान में दो सूरज देखे। उन्होंने आश्चर्य से देखा की उनके द्वीप के ऊपर दो इंच मोटा रेडियोएक्टिव धूल के बादल छा गये। उनका पीने का पानी खारा हो गया और उसका रंग बदलकर पीला पड़ गया। बच्चे रेडियोऐक्टिव राख के बीच खेल रहे थे, मांए भय से यह सब देख रही थी। रात होते होते उनके शरीर पर इसका असर साफ दिखने लगा। लोगों को उल्टियां और दस्त पड़ने लगे, बाल झड़ने लगे। पूरे द्वीप पर आतंक की लहर दौड़ पड़ी। इन लोगों को कुछ नही बताया गया था और ना ही अमरीका द्वारा किसी तरह की चेतावनी ही जारी की गयी थी। परीक्षण के दो दिन बाद उन्हे ‘इलाज’ के लिए पास के ‘क्वाजालेन द्वीप’ पर ले जाया गया।’’
बिकनी एटोल पर इस परीक्षण के लिए आसपास कुल 42 हजार अमरीकी सैनिक तैनात थे। इसके अलावा परीक्षण का असर जानने के लिए 5400 चूहे, बकरी और सूअरों को भी इस द्वीप पर लाया गया।

protest march of Bikini Atoll's people

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1980 के आसपास ‘सीआइए’ की एक स्रीक्रेट रिपोर्ट ‘डिक्लासीफाइड’ हुई। बिकनी एटोल के निवासी और बिकनी एटोल की घटना पर नज़र रखने वाले लोग इस रिपोर्ट से बुरी तरह सकते में आ गये। इसमें साफ साफ बताया गया था कि चूहों, बकरियों और सूअरों के साथ ही बिकनी एटोल के निवासी भी परमाणु परीक्षण के औजार थे। इसलिए उन्हें जानबूझकर बिकनी एटोल से इतनी दूरी पर विस्थापित किया गया था कि वे परमाणु विस्फोट से मरे भी ना और पूरी तरह से परमाणु विकिरण की जद में रहें ताकि उन पर इसके प्रभावो का अध्ययन किया जा सके। इस रिपोर्ट के बाद ही बिकनी एटोल के लोगो और इस पर नज़र रखने वाले लोगों को यह समझ में आया कि क्यों अमरीका के डाक्टर नियमित अन्तराल पर उनके बीच आते थे और उनका ‘मुफ्त’ ‘इलाज’ करते थे। यही नही उन 42000 अमरीकी सैनिकों में से भी कई इस विकिरण की जद में आ गये। और उनमें कई कैन्सर जैसी घातक बीमारियों के शिकार हो गये। इस विकिरण से प्रभावित सैनिकों ने बाद में अपना संगठन बना कर अमरीकी सरकार पर केस भी दायर किया है। हालांकि यह पता नहीं चल सका है कि क्या ये सैनिक भी इस प्रोजेक्ट में ‘गिनी पिग’ की तरह इस्तेमाल किये गये या यह अमरीकी साम्राज्यवाद का ‘कोलैटरल डैमेज’ था। इसी से जुड़ा यह तथ्य कम लोगों को ही पता होगा कि ‘हिरोशिमा-नागासाकी’ पर गिराये गये बम में लाखों जापानियों के साथ ही वहां की जेलों में बन्द 100 के करीब अमरीकी युद्ध बन्दी भी मारे गये थे। और अमरीका को यह तथ्य अच्छी तरह पता था कि वहां की जेलों में अमरीकी भी कैद हैं।

इस विवरण को पढ़कर मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि कैसे इस त्रासद कहानी से ‘टू पीस बिकनी’ को जोड़ा गया। बाद में मुझे पता चला कि ‘सेक्स बम’ जैसे शब्द भी हमारे शब्दकोश में इस समय जुड़े।
बिकनी एटोल के निवासियों के साथ हुई इस त्रासद अमानवीय घटना के रुपक को यदि फैशन पर लागू करे तो हम देखेंगे कि इसी समय से विशेषकर अमेरिका और यूरोप में महिलाओं पर फैशन का ‘आक्रमण’ होना शुरु हुआ। प्रयास किया जाने लगा कि उनकी मानवीय रुह को विस्थापित करके उन्हे महज ’फैशन डाॅल’ में बदल दिया जाय। सोवियत संघ और चीन में समाजवाद और तीसरी दुनिया में राष्ट्रीय मुक्ति युद्धों के कारण जो चेतना पैदा हो रही थी, उसका मुकाबला करने के लिए उनके लिए यह जरुरी था कि सामूहिकता के बरक्स व्यक्ति को स्थापित किया जाय। यानी व्यक्तिवाद को बढ़ाया दिया जाय। इस सन्दर्भ में फैशन उस परमाणु बम की तरह था जिससे महिलाओं में आ रही ‘मुक्ति की चेतना’ को तबाह किया जा सकता था और उन्हें सामूहिकता के द्वीप से विस्थापित करके अलग अलग निर्जन द्वीपों पर विस्थापित किया जा सकता था। 2005 में आयी ‘एडम कुरटिस’ की मशहूर डाक्यूमेन्ट्री ‘सेन्चुरी आॅफ दि सेल्फ’ में इस परिघटना को बेहद बारीकी से दिखाया गया है।
अमरीकन और यूरोपियन फैशन के इसी विध्वंसक और अमानवीय स्वरुप के कारण ‘टू पीस परिधान’ का नाम बिकनी पड़ा। इसमें कोई शक नही।
साम्राज्यवाद-पूंजीवाद में हर चमकती जगमगाती आकर्षक चीज के पीछे त्रासदी, दुःख और खून पसीना होता है। जब भी आप फैशन का कोई आकर्षक परिधान देंखे तो बांग्लादेश का ‘रानाप्लाजा’ जरुर याद कर लें। और जब भी आप कोई आकर्षक इलेक्ट्रानिक सामान देंखे तो कांगो के उन बच्चों को याद कर लीजिए जो इन इलेक्ट्रानिक सामानों में प्रयुक्त होने वाले धातुओं को निकालने के लिए लंबी अंधेरी सुरंग नुमा खानों में प्रवेश करते हैं और कई तो वही दम तोड़ देते हैं।
‘कार्ल मार्क्स’ ने इन सब का निचोड़ पेश करते हुए लिखा है- ‘पूँजी सर से पांव तक खून और गंदगी में सनी हुई है।’
हमसे से कितने लोग इसे देख पाते हैं।
बहरहाल बिकनी एटोल की इस त्रासदी पर एक डाक्यूमेन्ट्री ‘रेडियो बिकनी’ आप यहां देख सकते हैं।

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‘Cultural Revolution’: Revolution within Revolution

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16 मई 1966 को शुरु हुई चीन की ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ को 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। लेकिन अभी भी इतिहास के पन्नों में इसे वह जगह हासिल नही है जिसकी यह हकदार है। सच तो यह है कि संभवतः इतिहास की यह अकेली ऐसी घटना है जिस पर दुनिया के इतिहासकार आज भी बुरी तरह बंटे हुए है। कुछ के अनुसार यह माओ का पागलपन भर था। और कुछ के अनुसार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर का सत्ता संघर्ष। फिर सच क्या है? कहावत है कि सच हमेशा क्रान्तिकारी होता है। लेकिन यह भी सच है कि क्रान्तिकारी सच को पकड़ने के लिए क्रान्तिकारी अवस्थिति जरुरी होती है।
जनता सच के इर्द गिर्द अपने मिथक गढ़ती है जबकि शासक वर्ग झूठ के इर्द गिर्द अपने मिथक गढ़ता है। सच्चे इतिहासकार को दोनो मिथकों मेें फर्क करना पड़ता है और दोनों को क्रमशः सच और झूठ में ‘रिड्यूस’ करना होता है।
मशहूर अमरीकी लेखक ‘विलियम हिन्टन’ ने सांस्कृतिक क्रान्ति पर लिखी अपनी बहुचर्चित किताब ‘इतिहास ने जब करवट बदली’ [Turning Point in China] में इस क्रान्ति को 1917 की रुसी क्रान्ति के बाद सदी (20वीं सदी) की दूसरी महत्वपूर्ण क्रान्ति करार दिया। उनके अनुसार 1949 की क्रान्ति एक तरह से 1917 की क्रान्ति की ही निरन्तरता थी। लेकिन 1966 की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति गुणात्मक रुप से भिन्न क्रान्ति थी क्योकि यह ‘क्रान्ति के भीतर क्रान्ति’ थी।
दरअसल 1917 की क्रान्ति और 1949 की क्रान्ति ने तत्कालीन शासक वर्ग से सत्ता तो छीन ली थी लेकिन उसके बाद जो सत्ता बनी उसमें मजदूरों-किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी व उसके नेता आ गये। सर्वहारा क्रान्ति से पहले चीन में और 1956 तक रुस में जो दो लाइनों के संघर्ष चले उसके मूल में यही था कि कौन मजदूरों-किसानों का सच्चा प्रतिनिधित्व कर रहा है और कौन मजदूरों-किसानों के नाम पर बुर्जुआ वर्ग हितों को बढ़ावा दे रहा है। यानी कौन सी नीति सर्वहारा वर्ग के पक्ष में है और कौन सी नीति उसके हितों के विरुद्ध है।
यह संघर्ष अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण था। लेकिन असल सवाल तो यह था कि राज्य और समाज को चलाने में और उस पर निगरानी रखने में ‘प्रतिनिधियों’ की बजाय वास्तविक मजदूरों-किसानों की प्रत्यक्ष भागीदारी कैसे हो। यह सवाल इससे भी जुड़ा था कि पार्टी के अन्दर चलने वाले दो लाइनों के संघर्ष में जनता की यानी मजदूरों किसानों की प्रत्यक्ष भागीदारी कैसे हो। यानी समाज में यह संघर्ष कैसे चलाया जाय। राज्य के ‘विलोपीकरण’ की प्रक्रिया इसके बिना असम्भव थी जो किसी भी कम्युनिस्ट क्रान्ति का दूरगामी लक्ष्य होता है। यह सही है कि रुसी क्रान्ति और 1949 की चीनी क्रान्ति ने उत्पादन के साधनों पर कब्जा करके समाज के आर्थिक आधार (मूलाधार) को बदल दिया था। लेकिन अधिरचना (शिक्षा, कला, साहित्य, धर्म आदि) का क्रान्तिकारी रुपान्तरण अभी बाकी था जहां पूंजीवादी-सामन्ती मूल्यों, विचारधाराओं व उनके पैरोकारों का अभी भी नियन्त्रण था। फलतः जनता अभी भी मुख्यतः पुराने विचारों और मूल्यों से चिपकी हुई थी। मार्क्सवादी शब्दावली में कहें तो 1917 और 1949 की क्रान्तियां मूलतः मूलाधार में क्रान्ति थी। इस क्रान्तिकारी मूलाधार के अनुसार क्रान्तिकारी अधिरचना का काम अभी बाकी था। इसके अलावा मूलाधार में क्रान्ति भी कोई स्थिर चीज नही है यह भी लगातार विकासमान है। जैसे खेती में जमीन्दारों से जमीन छीनने के बाद- ‘आपसी सहायता ग्रुप’, ‘कोआपरेटिव’, ‘कम्यून’……………।
इस समस्या के सूत्र ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ में भी मिलेंगे- ‘‘कम्युनिस्ट क्रान्ति परम्परागत सम्पत्ति सम्बन्धों से क्रान्तिकारी विच्छेद है और यह आश्चर्य की बात नही कि यह अपने विकास के दौरान परम्परागत विचारों से भी क्रान्तिकारी विच्छेद करती है।’’
क्रान्ति की इस समस्या या सच कहें तो क्रान्ति की निरन्तरता की इस समस्या की जड़ मार्क्सवादी दर्शन में थी। दरअसल प्राकृतिक विज्ञानों की तरह ही सामाजिक विज्ञान भी वस्तुगत नियम के अनुसार चलता है और ये नियम सतत विकासमान होते हैं। मार्क्सवादी दर्शन में अन्तरविरोध के नियम के अनुसार सभी चीजों में अन्तरविरोध है। यानी एक दो में विभाजित है। इसके अनुसार समाजवादी समाज भी दो में विभाजित है। लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नही गया था कि अन्तरविरोध के नियम के अनुसार ही समाजवादी समाज के अन्तरविरोध भी इतने तीखे हो सकते हैं कि वे दुश्मनाना अन्तरविरोध का रुप ले लें और उनके पहलू आपस में बदल जायें। यानी सर्वहारा की जगह पूंजीवादी ताकतें हावी हो जायें और राज्य का चरित्र समाजवादी से पूंजीवादी हो जाय। जैसा कि रुस में 1956 में हो गया था। दर्शन की इस गहराई पर पकड़ ना होने के कारण ही ‘स्टालिन’ ने 1936 में जारी रुस के संविधान में यह ऐलान कर दिया था कि रुस में अब दुश्मनाना वर्ग (शोषक वर्ग) खत्म हो चुके है यानी वर्ग संघर्ष खत्म हो चुका है और रुस अब साम्यवाद की अन्तिम मंजिल में प्रवेश करने जा रहा है। मजेदार बात यह है कि अगले साल ही पार्टी के दो बड़े नेताओं ’कामनेव’ व ‘जिनोवियेव’ को देश से गद्दारी के आरोप मेें फांसी दे दी गयी। और इनके सैकड़ों समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया, कुछ को साइबेरिया निर्वासित कर दिया गया। यानी वर्ग संघर्ष खत्म नही हुआ था बल्कि और तीखा हो गया था।
माओ ने पहली बार इस सवाल को दर्शन के स्तर पर हल किया और बताया कि समाजवाद एक लंबा संक्रमण काल है जिसमें अनेको सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद ही सर्वहारा की जीत सुनिश्चित हो सकती है। इस पूरे संक्रमण काल के दौरान वर्ग संघर्ष जारी रहेगा और अन्तरविरोध के नियम के अनुसार ही कुछ कुछ समय पर तीखा भी होता रहेगा और यदि क्रान्तिकारी ताकतें कमजोर पड़ी तो प्रधान पहलू के गौण पहलू में बदलने की यानी पूंजीवादी पुर्नस्थापना की संभावना हमेशा बनी रहेगी। अधिरचना में यदि लगातार क्रान्ति नही चलाई गयी तो यह पलट कर आधार को प्रभावित करेगी और इसे अपने अनुरुप बदल देगी। इसके अलावा उन्होने यह भी बताया कि पुराने शोषक वर्ग के साथ ही एक नया शोषक वर्ग भी पैदा हो चुका है जो कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर ही है। जिसे ‘पूंजीवादी पथगामी’ कहा गया।
‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ दर्शन में आये इस महत्वपूर्ण छलांग का मूर्त रुप था जिसने क्रान्ति के विज्ञान को और समृद्ध बनाया। यानी सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले क्रान्ति करने का विज्ञान था, लेकिन क्रान्ति को टिकाये रखने और निरन्तर उसे साम्यवाद तक ले जाने का विज्ञान इसी सर्वहारा क्रान्ति के दौरान ही अस्तित्व में आया।
1966 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी स्पष्ट रुप से ‘दो’ में विभाजित हो चुकी थी। माओ की भाषा में एक ‘पूंजीवादी पथगामी’ थे तो दूसरे ‘सर्वहारा पथगामी’। जमीन पर जनता और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच फासला बढ़ता जा रहा था। ज्यादातर कम्युनिस्ट पार्टी के पदाधिकारी सत्ता का सुख भोगते हुए एक नये शोषक वर्ग में तब्दील होने लगे थे। जनता से उनका रिश्ता और इसी कारण उत्पादन से उनका रिश्ता टूट चुका था।
पुरानी दुनिया के सभी बंटवारे जस के तस बने हुए थे। मसलन गांव व शहर का बंटवारा, मानसिक श्रम व शारीरिक श्रम का बंटवारा, औरत व मर्द के बीच का बंटवारा आदि। शिक्षा अभी भी सीमित थी और श्रम व उत्पादन से कटी हुई थी। परीक्षा प्रणाली के कारण बहुमत छात्र छांट दिये जाते थे,जो प्रायः मजदूर किसान घरों से ही आते थे। यहां तक कि प्राथमिक शिक्षा भी सभी बच्चों को उपलब्ध नहीं थी। राज्य प्रशासन में जनता की भागीदारी ना के बराबर थी।
एक तरह से कहा जाय तो चीन 1966 में पूंजीवाद के मुहाने पर खड़ा था।
लेकिन 1966-76 के बीच चली इस सांस्कृतिक क्रान्ति ने इस पूरी तस्वीर को बदल दिया। छात्रों-नौजवानों की लाखों लाख की रैली ने और इस दौरान बनी ‘रेड गार्डस’ की टोलियों ने ‘शंघाई’ और ‘बीजिंग’ जैसे बड़े शहरों के प्रशासन को पूरी तरह से बदल दिया। देश की लगभग तीन चौथाई पार्टी कमेटियां बदल दी गयी। आलोचना-आत्मालोचना ने एक व्यापक अभियान की शक्ल ले ली। पार्टी के वरिष्ठ से वरिष्ठ पदाधिकारियों, नेताओं को भी हजारों और कभी कभी लाखों की संख्या के बीच आकर आत्मालोचना करने पर मजबूर किया गया। जिन्होंने आनाकानी की उनके साथ जबर्दस्ती भी की गयी।
मजदूरों ने फैक्टरी संचालन को अपने हाथ में ले लिया जो पहले उनके नाम पर मैनेजरों के हाथ में थी। किसानों ने इसी समय गांवों में बड़े पैमाने पर कम्यूनों का निर्माण किया। इन कम्यूनों ने अपने सीमा क्षेत्र में आने वाले लगभग सभी काम अपने हाथ में ले लिये। शिक्षा उनमें से एक महत्वपूर्ण काम था। इसी दशक में चीन के हर गांव में कम्यून ने प्राइमरी स्कूल खोला। फिर कुछ गांवों ने मिलकर मिडिल स्कूल खोला और कम्यून के पैमाने पर हाईस्कूल खोले गये। इनमें शिक्षक और अन्य सुविधाएं व संसाधन कम्यून की तरफ से ही दिये गये। और इन स्कूलों का प्रबन्धन भी वहां के मजदूरों किसानों ने अपने पास रखा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि पाठ्यक्रम भी कम्यून के नेतृत्व में मजदूरों किसानों शिक्षकों और छात्रों ने मिलकर तैयार किया जो स्थानीय जरुरतों और सर्वहारा राजनीति को ध्यान में रखकर बनाया गया। प्राथमिक स्तर पर विषय को मोटा मोटी दो भागों में बांट दिया गया। एक था ‘कृषि आधारित ज्ञान’ (जिसमें जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान आदि आ जाता था) और दूसरा था ‘उद्योग आधारित ज्ञान’ (जिसमें भौतिक विज्ञान, गणित जैसे विषयों को शामिल कर लिया गया)। ‘संगीत’ और ‘भाषा’ ज्ञान को भी उत्पादन से जोड़ दिया गया। स्कूल के सत्र को स्थानीय जरुरतों के हिसाब से लचीला बनाया गया। जब कृषि का काम ज्यादा होता था तो स्कूल बन्द कर दिया जाता था और बच्चे व शिक्षक किसानों की खेती के काम में मदद करते थे। ज्यादा छोटे बच्चे उन्हे गाना सुनाकर उनका श्रम हल्का करने का प्रयास करते थे।
खेती के ज्यादातर उपकरण गांव के स्तर पर ही कम्यून के नेतृत्व में बनाये जाते थे। छात्र इन छोटी छोटी फैक्टरियों में भी समय समय पर काम देखने व सीखने आते थे और इस प्रक्रिया में मजदूरों की मदद भी करते थे।
स्कूल का माहौल काफी जनवादी होता था। छात्रों को शिक्षक से असहमत होने, अपनी बात कहने व शिक्षक की आलोचना करने का अधिकार था। इसके लिए ‘बिग करैक्टर पोस्टर’ का भी इस्तेमाल किया जाता था, जिसका चलन सांस्कृतिक क्रान्ति ने ही शुरु किया था, जहां आप अपनी आलोचना लिख कर सम्बन्धित स्थानों पर चिपका सकते थे। चीन में इस दौरान बिग कैरैक्टर पोस्टर ने इतनी लोकप्रियता हासिल की कि बीजिंग, शंघाई जैसे शहरों की लगभग सभी दिवारें इन पोस्टरों से भर गयी थी।
हाई स्कूल तक किसी तरह की परीक्षा प्रणाली नही थी। स्कूल सभी के लिए खुले थे। कालेजों में प्रवेश परीक्षा बन्द हो चुकी थी। अब कम्यून से मजदूर किसान जिन छात्रों को अनुमोदित करते थे, वे ही कालेज में प्रवेश पा सकते थे। शर्त यह थी कि वे कालेज की पढ़ाई पूरी करके वापस अपने कम्यूनों में लौट जायेगे। और वहां के उत्पादन में मदद करेंगे। सच कहें तो शिक्षा में ये क्रान्तिकारी बदलाव आज तक के इतिहास की एक अनोखी घटना है। 1970 के दशक के बाद पैदा हुई ‘वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली’ पर इसका असर आज भी देखा जा सकता है। हालांकि दुःख की बात यह है कि आज वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली की बात करने वाले लोग इसके सन्दर्भ को यानी सांस्कृतिक क्रान्ति को जाने या अनजाने भुला देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में और देशों ने भी कई व्यापक अभियान चलाये हैं। ‘क्यूबा’ और ‘सोवियत संघ’ के शिक्षा के क्षेत्र में किये गये परिवर्तन काफी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन चीन का यह शिक्षा अभियान उससे बुनियादी तौर पर भिन्न था। यहां शिक्षा के सभी पहलुओं पर कम्यून यानी मजदूरों किसानों का प्रत्यक्ष नियत्रण था। शिक्षा उत्पादन से और जनता की चेतना के क्रान्तिकारी रुपान्तरण से सीधे जुड़ी हुई थी।
इतिहास के इसी क्रान्तिकारी दौर में ‘जिमो काउण्टी’ कम्यून के तहत शिक्षा पाने वाले ‘डोन्गपिन्ग हान’ (Dongping Han) ने अपने अनुभवों व इसी काउण्टी के गांवों के फील्ड-शोध के आधार पर शिक्षा में आये इन क्रान्तिकारी बदलावों का बहुत ही रोचक वर्णन 2008 में आयी अपनी पुस्तक The Unknown Cultural Revolution में किया है।
शिक्षा के इन क्रान्तिकारी बदलावों को सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान बनी एक फिल्म Breaking With Old Ideas में बहुत ही प्रभावी तरीके से दिखाया गया है।
शिक्षा के अलावा कला साहित्य संगीत के क्षेत्र में भी बहुत से संघर्ष हुए और रचनात्मकता के नये कीर्तिमान बनाये गये और इस क्षेत्र में बुर्जुआ गढ़ को काफी नुकसान पहुंचाया गया। यहां तक बहस हुई कि ‘शुद्ध संगीत’ (absolute music) का भी वर्ग चरित्र होता है या नही।
नये क्रान्तिकारी यथार्थ के अनुसार जनवादी क्रान्ति के दौर के प्रगतिशील नृत्य नाटिकाओं के भी नये संस्करण तैयार किये गये। ‘सफेद बालो वाली लड़की’ जैसे प्रगतिशील नृत्य नाटिकाओं में नायिका के रोल को और ज्यादा क्रान्तिकारी बनाया गया जो सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान आयी नयी चेतना का प्रतिनिधित्व करे।
इसी दौरान सोवियत संघ के ‘समाजवादी साहित्य’ की भी आलोचनात्मक पड़ताल की गयी और उसकी कमियों को उजागर किया गया। ‘शोलोखोव’ जैसे मशहूर उपन्यासकार की उनके उपन्यासो में चित्रित प्रति क्रान्तिकारी पहलू की तीखी आलोचना की गयी। ’धीरे बहो दोन‘ (And Quiet Flows the Don) में ‘ग्रिगोरी’ को प्रतिक्रान्तिकारी पात्र सिद्ध किया गया और लेखक की उसके प्रति सहानुभूति की आलोचना की गयी। मशहूर नाटककार ‘स्तानिसलवस्की’ की उनके Stanislavsky’s system की आलोचना की गयी और बताया गया कि अभिनय का यह तरीका बुर्जुआ है क्योकि इसमें मानवीय भावनाओं को वर्ग के परे बताया गया है। बहुचर्चित फिल्म “Ballad of a Soldier” की आलोचना इस आधार पर की गयी कि यह फिल्म बारीकी से क्रान्तिकारी-प्रगतिशील युद्ध की भर्त्सना करती है।
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शिक्षा के बाद सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन महिलाओं और पुरुषों के सम्बन्धों में आया बदलाव था। जैसा कि ‘एंगेल्स’ ने बताया है कि इतिहास का पहला वर्ग-अन्तरविरोध महिलाओं और पुरुषों के बीच के अन्तरविरोध के रुप में सामने आया। समाजवादी समाज में यह अन्तरविरोध बरकरार रहता है। समाज के जनवादीकरण की पहली शर्त है कि इस अन्तरविरोध को कम किया जाय और इसे खत्म करने की ओर बढ़ा जाय। इसी को ध्यान में रखकर प्रत्येक गांव, फैक्ट्ररी, स्कूल, और सरकारी कार्यालयों में ‘महिला फेडरेशन कमेटी’ बनायी गयी। सम्बन्धित क्षेत्र में महिला सम्बन्धी किसी भी समस्या को देखने और उसे हल करने का काम इसी कमेटी का था। राजनीतिक, प्रशासनिक व उन सभी कामों में उनकी भागीदारी को सचेत तरीके से बढ़ाया गया जो पहले पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में आते थे। दूसरी ओर पुरुषों को भी ऐसे काम करने के लिए प्रोत्साहित किया गया जो परम्परागत रुप से महिलाओं के माने जाते थे जैसे-बच्चे पालना, खाना बनाना, छोटे बच्चों को पढ़ाना या नर्स का काम आदि। महिलाओं के लिए यदि यह नारा था कि महिलाएं वे सभी काम कर सकती हैं जो पुरुष करते हैं तो पुरुषों के लिए भी यह नारा दिया गया कि पुरुष भी वे सभी काम कर सकते हैं जो महिलाएं कर सकती हैं। सांस्कृतिक क्रान्ति ने महिलाओं को किस हद तक प्रभावित किया था यह इस तथ्य से पता चल जाता है कि क्रान्ति के दौरान एक समय महिलाओं ने विशेषकर नौजवान महिलाओं ने अपना नाम बदलना शुरु कर दिया। भारत की तरह ही वहां भी महिलाओं के नाम तथाकथित नारी सुलभ स्वभाव को अभिव्यक्त करने वाले रखे जाते थे। जैसे (भारतीय सन्दर्भ में देखे तो) शीतल, सुमन, सावित्री आदि। इस तरह के नामों को त्यागकर उन्होेंने ऐसे नामों को अपनाया जो उनकी उस समय की क्रान्तिकारी चेतना को अभिव्यक्त करे। नृत्य नाटिकाओं में भी उन्होंने पुराने ‘नारी सुलभ’ भावों को त्याग दिया और नारी की बिल्कुल नयी तस्वीर सामने रखी। इसे The Red Detachment of Women और The White Haired Girl जैसी नृत्य नाटिकाओं में देखा जा सकता है।
1970 के बाद दुनिया के पैमाने पर चलने वाले नारी आन्दोलनों पर सांस्कृतिक क्रान्ति के इस पहलू की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।
समग्रता में देखे तो 1917 की रुसी क्रान्ति ने पूरी दुनिया को जिस तरह से प्रभावित किया था, लगभग उसी तरह का प्रभाव पूरी दुनिया पर चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का भी पड़ा। अमेरिका का ‘ब्लैक पैन्थर आन्दोलन’, फ्रान्स का ‘1968 का छात्र आन्दोलन’,‘वियतनाम का संघर्ष’ और पूरी दुनिया में वियतनाम के समर्थन में हुए प्रदर्शनों पर इसके गहरे असर की छाप आज भी दिखती है। एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमरीकी के क्रान्तिकारी आन्दोलनों पर सांस्कृतिक क्रान्ति का ना सिर्फ जबर्दस्त प्रभाव था, बल्कि उस दौरान इन संघर्षो को चीन ने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष भरपूर मदद भी की थी।
प्रतिक्रियावादी ताकतें और उनके अकादमिक बुद्धिजीवी इतिहास के इस सुनहरे दौर को लगातार अपने झूठ के पुलिन्दों से ढक देने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन चीन के प्रख्यात साहित्यकार ‘लू शुन’ के शब्दों में कहे तो- ‘‘खून से लिखे गये तथ्यों को स्याही से लिखे गये झूठ मिटा नही सकते।’’

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‘लातीन अमरीका के रिसते जख्म’: एक चीखती किताब

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एदुवार्दो गालिआनो की किताब ’ओपेन वेन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका’ [OPEN VEINS OF LATIN AMERICA] लम्बे समय से पढ़ने की फेहरिस्त में थी। गार्गी प्रकाशन ने हाल ही में इसका हिन्दी अनुवाद ’लातिन अमेरिका के रिसते जख्म’ के नाम से प्रकाशित किया है। इत्तेफाक से हिन्दी अनुवाद हाथ में आया और पढ़ना शुरू किया। पन्ने दर पन्ने इस किताब को पढ़ते हुए अजीब-अजीब से मनोभावों से गुजरना हुआ। अन्याय शोषण का ऐसा नंगा नाच जितना लैटिन अमरीकी देशों में हुआ, शायद ही कहीं हुआ हो। दमन और प्रतिरोध का बेमिसाल उदाहरण है समूचा दक्षिण अमरीकी महाद्वीप। इस किताब को पढ़ते हुए कभी ग़म की शिकार हुयी तो कभी गु़स्से की। पढ़ते हुए कभी पेट की अंतड़ियां तक ऐंठने लगती हैं, कभी यह चेतना को इतना झकझोरती है कि आप उठ कर चक्कर लगाने लगते हैं। इससे पहले इतनी चीखती हुयी किताब मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी थी। इसको पढ़ने के बाद आप इतिहास के रोज़ाना के चक्र में अपने कदमों के निशान को तलाशने लगते हैं। प्रश्न करते हैं कि अन्याय की यह रवायत आखिर कब तक?? इससे पहले हावर्ड जिन की असाधारण किताब ’पीपुल्स हिस्ट्री आफ अमेरिका’ पढ़ी थी। इन दोनो किताबों ने मिल कर समूचे अमरीकी महाद्वीपों का असली इतिहास सामने रख दिया। उत्तरी अमेरिका ने न केवल दक्षिणी अमरीकी जनता के श्रम को लूटा था बल्कि बहुत संस्थागत तरीके से उत्तरी अमरीकी मूलनिवासियों का कत्लेआम किया और बचे हुए लोगों को संग्रहालय की वस्तु बना कर रख दिया।
1971 में प्रकाशित एदुवार्दो गालिआनो की इस किताब ने समूचे लैटिन अमेरिका में तहलका मचा दिया था। उरुग्वे के नागरिक एदुआर्दो गालियानो एक पत्रकार थे। वह लैटिन अमेरिका की धरती और लोगों में रचे बसे थे। वह अपने बेमिसाल साहित्य और जनता के प्रति अपने सरोकारयुक्त लेखन के लिए जाने जाते हैं। 1971 में जब यह किताब आयी तो लैटिन अमेरिका एक उथलपुथल से गुजर रहा था। दुनिया की राजनीति में शीत युद्ध का दौर था। उत्तरी अमेरिका के नेतृत्व में इस महाद्वीप के सैनिक शासकों को शह थी। ऐसे माहौल में जब यह किताब आयी तो अर्जेन्टीना, चिली, ब्राजील और उनके अपने देश उरुग्वे में इस किताब को प्रतिबन्धित कर दिया गया। कई वर्षों तक एदुवार्दो को निर्वासन में जीवन जीना पड़ा। सन 2009 में जब वेनेजुएला के राष्ट्रपति शावेज ने 5वे अमरीकी समिट में यह किताब राष्ट्रपति ओबामा को भेंट की तो ओबामा अचकचा गया। क्योंकि ओबामा इस लूट की निरन्तरता का वाहक रहा है। लेकिन इस किताब की सेल एकाएक बहुत ज़्यादा बढ़ गयी। इसलिए नहीं कि शावेज इसके प्रचारक बने बल्कि इसलिए कि वाकई यह किताब चीखते हुए खुद को पढ़ने के लिए आमन्त्रित करती है।
लैटिन अमरीकी महाद्वीप 20 से अधिक छोटे बड़े देशों का एक समूह है। यहां की रत्नगर्भा धरती वस्तुतः यहां के इतिहास के लिए एक अभिशाप बन गयी। इतिहास गवाह है कि दुनिया में जहां-जहां भी धरती के नीचे सम्पदा है उसके ऊपर रहने वाले वहां के मूल निवासी इतिहास के सबसे अधिक शोषित लोगों में से एक हैं। हालांकि वे सदियों से इसकी रक्षा करते आए हैं और आज भी जहां-जहां वे संघर्ष करते हुए लड़ रहे हैं, वहां की सम्पदा बची हुयी है। स्वयं भारत इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है। आज भारत में भी आदिवासी लोग अपने जल, जंगल व ज़मीन की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं। नियमगिरी के आदिवासियों ने प्रतिरोध की मिसाल कायम करते हुए अपने समूचे पहाड़ को वेदान्ता के पंजे में जाने से रोक लिया। आज भी उनका संघर्ष जारी है।
समूचे लैटिन अमेरिका में धरती के नीचे सोना, चांदी, टिन, पेट्रोलियम के अकूत भण्डार पर आक्रान्ताओं की गिद्ध नजर रही तो धरती के ऊपर कोको, काफ़ी, केला, रबर व चीनी की पैदावार लूट का सबब बनी। यूरोप के बाज़ार ने एशिया की समृद्धि की कहानी सुनी थी। कोलम्बस इसी भ्रम में अमरीकी महाद्वीप पहुंच गया। इसके साथ ही शुरू हुयी यहां बाज़ार की निर्मम लूट और नरसंहार। लैटिन अमरीका की प्राकृतिक समृद्धि यूरोप और बाद में चलकर उत्तरी अमेरिका की समृद्धि का सबब बनी। यहां की अकूत ग़रीबी वहां की अमीरी का आधार बनी। शुरू हुआ हत्याओं और नरसंहारों का ऐसा अन्तहीन चक्र जिसके निशान आज भी लैटिन अमरीका की धरती पर यहां वहां बिखरे नज़र आ जाएंगे। उन्होंने वहां के निवासियों के श्रम का जबरन इस्तेमाल कर वहां की धरती खोद डाली। धरती की नसों में प्रवाहित होता सोना, चांदी और टिन खुरच-खुरच कर निकाल लिया। अपने घोड़ों की नाल में चांदी ठुकवा कर हाथों में हथियार लहराते लाखों लोगों का कत्लेआम किया। पूंजीवाद कितना निर्मम हो सकता है, इसका गवाह है लैटिन अमेरिका के 500 सालों की लूट का यह इतिहास। मार्क्स की यह पंक्ति कि ‘पूंजी सिर से पांव तक खून व कीचड़ में लथपथ है’ का अर्थ इस किताब को पढ़ने पर पूरी तरह से खुल जाता है।
लैटिन अमरीकी शासक वर्ग ने लगातार दलाल की भूमिका अदा की। पहले उसने यूरोपीय आक्रान्ताओं के समक्ष समर्पण किया फ़िर उत्तरी अमरीकी बहुराष्ट्रीय निगमों को अपने देश की अकूत सम्पदा बेच दी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमरीका दुनिया का ठेकेदार बना और उसकी दो प्रमुख आर्थिक संस्थाएं आईएमएफ़ व विश्वबैंक ने कर्ज़ की राजनीति शुरू की और प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से लैटिन अमरीकी जनता के खुले जख्मों को चूस लिया। वही कहानी दोहराई गयी। जनता लगातार ग़रीब बनी रही और मुट्ठी भर लोग उनकी अंतड़ियों को चांदी की प्लेट में परोस कर मौज करते रहे। एदुआर्दो गालियानो की यह किताब 500 साल की इसी भयानक लूट का राजनीतिक अर्थशास्त्र का इतिहास बताती है। पंक्ति दर पंक्ति यह किताब अपनी विशिष्ट किस्सागोई की शैली में इस भीषण लूट की दास्तान बताती है।
पुस्तक की 1997 संस्करण की प्रस्तावना लिखी है ईसाबेल अलेन्दे ने। ईसाबेल चिली के लोकप्रिय शासक सल्वाडोर अलेन्दे की जीवनसाथी हैं। 11 सितम्बर 1973 अमेरिका ने अलेन्दे का तख्तापलट करवा दिया था। घर से भागते समय ईसाबेल के सामानों में चिली की मिट्टी के अलावा ’ओपेन वेन्स ऑफ लैटिन अमेरिका’ व पाब्लो नेरुदा की किताब ‘ओड्स’ थी। ईसाबेल लातीन अमेरिका में उत्तरी अमरीकी ताण्डव की प्रत्यक्ष गवाह थीं। इस किताब की भूमिका इस किताब का एक बेहतरीन हिस्सा है। अनुवाद की दृष्टि से भी यह सबसे बेहतरीन हिस्सा है।
अब थोड़ी बात अनुवाद पर। इस बेहद महत्वपूर्ण किताब को हिन्दी के पाठको के लिए लाने का श्रमसाध्य काम करने के लिए अनुवादक दिनेश पोसवाल को बधाई! निश्चित रूप से यह एक जरूरी किताब है जिसे हिन्दी में आना ही चाहिए था। प्रकाशक गार्गी प्रकाशन को भी शुक्रिया! अनुवाद के लिए निश्चित रूप से यह एक कठिन किताब है। मूल स्पेनी से अंग्रेजी फिर अंग्रेजी से हिन्दी। मूल भाव बचा पाना एक कठिन काम है। सम्भवतः इस कारण से अनुवादक किताब में प्रवाह को पूरी तरह से बचा नहीं पाए हैं। हिन्दी में अंग्रेजी के तरह का वाक्य विन्यास किताब को और दुरूह बनाता है। अनुवादक को इससे बचना चाहिए। इसके अलावा व्यक्तिगत रूप से लैटिन अमेरिका के इतिहास की कम जानकारी, सन्दर्भों से अपरिचय एवं कठिन व लम्बे लातीन अमरीकी नाम भी प्रवाह में बाधक बने। अन्त में इसी किताब से एक उद्धरण –
जब तक
हिरन अपना इतिहास
खुद नहीं लिखेंगे
शिकारियों की
शौर्यगाथाएं
लिखी जाती रहेंगी
-चिनुआ अचीबी

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‘Nostalgia for the Light’

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9/11 आज एक मुहावरा बन चुका है। 2001 के बाद की दुनिया और 2001 के बाद की अमरीकी विदेश नीति को इन दो जादुई अंकों से ‘डीकोड’ किया जा सकता है। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि दुनिया में एक और 9/11 है जिस पर निरंतर पर्दा डाला जाता है। 11 सितम्बर 1973 को दक्षिण अमरीकी देश चिली में समाजवादी-जनवादी ‘सल्वादोर अलेन्दे'(Salvador Allende) की सरकार का तख्तापलट किया गया था। और इस तख्तापटल की पटकथा लिखी गयी थी अमरीका में।
चिली के मशहूर डाकूमेन्ट्री मेकर ‘पैट्रिसियो गुजमान’ (Patricio Guzmán) ने इस तख्तापलट के पहले और बाद की घटनाओं को अपनी मशहूर फिल्म ‘बैटल आफ चिली’ में समेटा है। यह फिल्म उन चंद फिल्मों में से हैं जो एतिहासिक घटनाओं का दस्तावेजीकरण इस तरह से करती है कि प्रकारान्तर में खुद इतिहास का जीवंत दस्तावेज बन जाती है। आज चिली के इस कालखण्ड का कोई भी अध्ययन इस फिल्म के बगैर अधूरा ही माना जायेगा। फिल्म की स्टाइल भी ‘थर्ड वल्र्ड सिनेमा’ की क्रान्तिकारी परंपरा में है। इसी फिल्म में वह मशहूर और दुःखद दृश्य भी है जहां अर्जेन्टीना के मशहूर कैमरा-जर्नलिस्ट ‘लियोनार्डो हेनरिचसेन’ [Leonardo Henrichsen] ने चिली की सेना के एक जनरल के हाथों अपनी खुद की मौत को कैमरे में कैद कर लिया था।
2011 में पैट्रिसियो गुजमान ने एक और फिल्म बनाई-‘नास्टेल्जिया फार दि लाइट’ (Nostalgia for the Light)। सल्वादोर अलेन्दे के तख्ता पलट के बाद ‘अगस्तो पिनोसेट’ (Augusto Pinochet) की अमरीकी समर्थक सैन्य सरकार ने वहां के ‘वाम’ और ‘प्रगतिशील तबकों’ का जो कत्लेआम किया वह इतिहास के कुछ चुने हुए जनसंहारों में शामिल है। और जैसा कि ऐसे मामलों में हमेशा होता है इनमें से बहुत से लोगों की लाश भी नहीं मिलती और उनके नजदीकी ताउम्र मानसिक प्रताड़ना झेलते हुए उनके अवशेष ढ़ूढते रहते हैं। चिली में ऐसे लापता मृत लोगों की संख्या हजारों में है। उनके नजदीकी रिश्तेदार आज भी उनके अवशेष ढ़ूढ रहे हैं। यह फिल्म उन्ही लोगों की स्मृतियों पर है जो आज भी अपने भाइयों, बेटों, पतियों और अन्य नजदीकी लोगों की स्मृतियों के धुंधला होने के खिलाफ निरंतर लड़ रहे हैं। और इस बहाने यह फिल्म विस्मृति के खिलाफ एक अनोखी जंग का दस्तावेज बन जाती है। मशहूर राजनीतिक चिंतक ’तारिक अली‘ कहते हैं कि इतिहास का सबसे बड़ा दुरुपयोग इतिहास को भूल जाना है। यह फिल्म उन चंद फिल्मों में से है जो इतिहास के अंधेरे कोनों को ढ़ूढ़ती है और फिर उन्हे अपने कैमरे की रोशनी से रोशन करती हैं। ‘विस्मृति’ और ‘स्मृति’ का यह संघर्ष विशुद्ध कला का या अकादमिक संघर्ष नहीं है बल्कि प्रत्येक जनसंघर्षों का एक अनिवार्य मोर्चा है।
इस पूरे विषय को गुजमान ने अपनी इस फिल्म में बहुत ही अनोखे और प्रभावकारी अंदाज में निभाया है। चिली-पेरू-बोलीविया-अर्जेन्टीना में फैले विशाल रेगिस्तान ’अटाकामा‘ (Atacama) ही वह जगह है जहां लापता लोगों की लाशों को दफ्न किया गया है। ऐसा माना जाता है कि कुछ की लाश को इस रेगिस्तान से लगने वाले समुद्र में भी फेका गया है। इसलिए ज्यादातर लोग अपने साथ छोटे छोटे फावड़े लेकर आते हैं और इस विशाल रेगिस्तान की मिट्टी पलटते रहते है। कुछ लोगों को सफलता तो मिली लेकिन साबुत कंकाल शायद ही किसी को मिल पाया। एक महिला अपने साक्षात्कार में बताती है कि उसे उसके भाई का महज एक पैर मिला। उसने मोजे और जूते से उसे पहचाना। यहां हम स्मृति की ताकत को पहचान सकते हैं। वह महिला उस पैर के साथ दिन भर बैठी रही। अभी भी उसे उम्मीद है कि वह अपने भाई का शेष हिस्सा भी खोज निकालेगी। इससे यह भी पता चलता है कि लोगों को मारने के बाद उन्हें कई टुकड़ों में विभक्त कर दिया गया और इधर उधर रेगिस्तान में फेंक दिया गया। हैवानियत की कोई सीमा नही होती।
फिल्म में एक ‘एन्थ्रोपालाजिस्ट’ के हवाले से बताया गया है कि यह रेगिस्तान सुदूर अतीत काल के मानव अवशेषों से भी भरा हुआ है। यहां एन्थ्रोपालाजिस्ट सुदूर अतीत के मानव इतिहास को खोज रहे हैं तो महिलाएं अपने नजदीक के ’इतिहास‘ को खोज रही हैं। सुदूर अतीत और आधुनिक काल के अवशेषों के रिश्तों पर यह फिल्म सीधे सीधे तो कुछ नही कहती। लेकिन संकेत साफ है। ‘बर्बरता’ से ‘सभ्यता’ तक की मानव यात्रा रैखिक नही हैं। इनके बीच बहुत कुछ ऐसा है, जो हमारे बने बनाये सांचे में फिट नही होता।

यह रेगिस्तान दुनिया का सबसे शुष्क रेगिस्तान है। इसलिए अन्तरिक्ष को खंगालने के लिए यह आदर्श जगह है। यहां दुनिया की आधुनिकतम आब्जरवेटरी है। यहां दुनिया के तमाम वैज्ञानिक ब्रहमाण्ड का इतिहास जानने में लगे हुए हैं। दरअसल फिल्म इसी आब्जरवेटरी से शुरु होती है और अन्तरिक्ष के इतिहास के साथ चिली के इस तात्कालिक इतिहास की समस्या को दार्शनिक धरातल पर जोड़ने का प्रयास करती है। फिल्म में इस आब्जरवेटरी में काम करने वाले वैज्ञानिकों के कुछ रोचक साक्षात्कार भी हैं, जिससे रेगिस्तान में सतह के नीचे अपने नजदीकियों को खोजने वाली महिलाओं और ब्रहमाण्ड की अतल गहराइयों से आने वाले प्रकाश को खोजने वाले वैज्ञानिकों के बीच एक खूबसूरत रिश्ता बनता है। अपने पति के अवशेषों को इस रेगिस्तान में खोज रही एक महिला कहती है कि काश ऐसा होता कि अन्तरिक्ष की तरफ जो मशीनें अपनी नज़र गड़ाये हुए हैं वे मशीनें इस रेगिस्तान की तरफ अपनी नज़र मोड़ ले और हम इसमें दबे हुए अपने लोगों को खोज निकालें। इसी आब्जरवेटरी का एक वैज्ञानिक कहता है कि हम दोनों ही इतिहास खोज रहे हैं। लेकिन दोनों के बीच एक बड़ा फर्क यह है कि हम रोज अपने हिस्से का काम करके चैन की नींद ले सकते हैं, लेकिन इस रेेगिस्तान में अपनों को खोजने वाली ये महिलाएं कभी चैन की नींद नही ले पाती।
हांलाकि मुझे लगता है कि ब्रहमाण्ड के इतिहास और अपनों को खोजने के इतिहास के बीच साम्य पर आवश्यकता से ज्यादा जोर देने के कारण विषय का तीखापन प्रभावित होता है। और फिल्म के अन्त में हमारे भाव कुछ हद तक ‘विरेचित’ (catharsis) होने लगते हैं।
फिल्म में स्मृति की ताकत का एक रोचक उदाहरण है। इसी रेगिस्तान में पिनोसेट ने एक यातना शिविर बनवाया था, जिसके बारे में बाहरी दुनिया को कोई खबर नही थी। इसमें बन्द एक व्यक्ति रोज रात को इस यातना शिविर का नक्शा बनाता था और सुबह पकड़े जाने के भय से इसे फाड़कर टायलेट में फेंक देता था। रोजाना के इस अभ्यास द्वारा उसने अपने दिमाग में इस यातना शिविर का एक पूरा नक्सा दर्ज कर लिया और छूटने के बाद इसी के माध्यम से दुनिया को पता चला कि यह यातना शिविर कैसा था।
फिल्म में ‘अटाकामा’ रेगिस्तान के ‘लांग शाट्स’ काफी खूबसूरत हैं। बिना बैकग्राउण्ड संगीत के ये लांग शाट्स रेेगिस्तान की सतह के नीचे दबे इतिहास की रोशनी में एक साथ खूबसूरत भी लगते है और भयावह भी। इतिहास भी तो ऐसा ही है- ‘खूबसूरत और भयावह’।

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