‘Cultural Revolution’: Revolution within Revolution

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16 मई 1966 को शुरु हुई चीन की ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ को 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। लेकिन अभी भी इतिहास के पन्नों में इसे वह जगह हासिल नही है जिसकी यह हकदार है। सच तो यह है कि संभवतः इतिहास की यह अकेली ऐसी घटना है जिस पर दुनिया के इतिहासकार आज भी बुरी तरह बंटे हुए है। कुछ के अनुसार यह माओ का पागलपन भर था। और कुछ के अनुसार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर का सत्ता संघर्ष। फिर सच क्या है? कहावत है कि सच हमेशा क्रान्तिकारी होता है। लेकिन यह भी सच है कि क्रान्तिकारी सच को पकड़ने के लिए क्रान्तिकारी अवस्थिति जरुरी होती है।
जनता सच के इर्द गिर्द अपने मिथक गढ़ती है जबकि शासक वर्ग झूठ के इर्द गिर्द अपने मिथक गढ़ता है। सच्चे इतिहासकार को दोनो मिथकों मेें फर्क करना पड़ता है और दोनों को क्रमशः सच और झूठ में ‘रिड्यूस’ करना होता है।
मशहूर अमरीकी लेखक ‘विलियम हिन्टन’ ने सांस्कृतिक क्रान्ति पर लिखी अपनी बहुचर्चित किताब ‘इतिहास ने जब करवट बदली’ [Turning Point in China] में इस क्रान्ति को 1917 की रुसी क्रान्ति के बाद सदी (20वीं सदी) की दूसरी महत्वपूर्ण क्रान्ति करार दिया। उनके अनुसार 1949 की क्रान्ति एक तरह से 1917 की क्रान्ति की ही निरन्तरता थी। लेकिन 1966 की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति गुणात्मक रुप से भिन्न क्रान्ति थी क्योकि यह ‘क्रान्ति के भीतर क्रान्ति’ थी।
दरअसल 1917 की क्रान्ति और 1949 की क्रान्ति ने तत्कालीन शासक वर्ग से सत्ता तो छीन ली थी लेकिन उसके बाद जो सत्ता बनी उसमें मजदूरों-किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी व उसके नेता आ गये। सर्वहारा क्रान्ति से पहले चीन में और 1956 तक रुस में जो दो लाइनों के संघर्ष चले उसके मूल में यही था कि कौन मजदूरों-किसानों का सच्चा प्रतिनिधित्व कर रहा है और कौन मजदूरों-किसानों के नाम पर बुर्जुआ वर्ग हितों को बढ़ावा दे रहा है। यानी कौन सी नीति सर्वहारा वर्ग के पक्ष में है और कौन सी नीति उसके हितों के विरुद्ध है।
यह संघर्ष अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण था। लेकिन असल सवाल तो यह था कि राज्य और समाज को चलाने में और उस पर निगरानी रखने में ‘प्रतिनिधियों’ की बजाय वास्तविक मजदूरों-किसानों की प्रत्यक्ष भागीदारी कैसे हो। यह सवाल इससे भी जुड़ा था कि पार्टी के अन्दर चलने वाले दो लाइनों के संघर्ष में जनता की यानी मजदूरों किसानों की प्रत्यक्ष भागीदारी कैसे हो। यानी समाज में यह संघर्ष कैसे चलाया जाय। राज्य के ‘विलोपीकरण’ की प्रक्रिया इसके बिना असम्भव थी जो किसी भी कम्युनिस्ट क्रान्ति का दूरगामी लक्ष्य होता है। यह सही है कि रुसी क्रान्ति और 1949 की चीनी क्रान्ति ने उत्पादन के साधनों पर कब्जा करके समाज के आर्थिक आधार (मूलाधार) को बदल दिया था। लेकिन अधिरचना (शिक्षा, कला, साहित्य, धर्म आदि) का क्रान्तिकारी रुपान्तरण अभी बाकी था जहां पूंजीवादी-सामन्ती मूल्यों, विचारधाराओं व उनके पैरोकारों का अभी भी नियन्त्रण था। फलतः जनता अभी भी मुख्यतः पुराने विचारों और मूल्यों से चिपकी हुई थी। मार्क्सवादी शब्दावली में कहें तो 1917 और 1949 की क्रान्तियां मूलतः मूलाधार में क्रान्ति थी। इस क्रान्तिकारी मूलाधार के अनुसार क्रान्तिकारी अधिरचना का काम अभी बाकी था। इसके अलावा मूलाधार में क्रान्ति भी कोई स्थिर चीज नही है यह भी लगातार विकासमान है। जैसे खेती में जमीन्दारों से जमीन छीनने के बाद- ‘आपसी सहायता ग्रुप’, ‘कोआपरेटिव’, ‘कम्यून’……………।
इस समस्या के सूत्र ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ में भी मिलेंगे- ‘‘कम्युनिस्ट क्रान्ति परम्परागत सम्पत्ति सम्बन्धों से क्रान्तिकारी विच्छेद है और यह आश्चर्य की बात नही कि यह अपने विकास के दौरान परम्परागत विचारों से भी क्रान्तिकारी विच्छेद करती है।’’
क्रान्ति की इस समस्या या सच कहें तो क्रान्ति की निरन्तरता की इस समस्या की जड़ मार्क्सवादी दर्शन में थी। दरअसल प्राकृतिक विज्ञानों की तरह ही सामाजिक विज्ञान भी वस्तुगत नियम के अनुसार चलता है और ये नियम सतत विकासमान होते हैं। मार्क्सवादी दर्शन में अन्तरविरोध के नियम के अनुसार सभी चीजों में अन्तरविरोध है। यानी एक दो में विभाजित है। इसके अनुसार समाजवादी समाज भी दो में विभाजित है। लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नही गया था कि अन्तरविरोध के नियम के अनुसार ही समाजवादी समाज के अन्तरविरोध भी इतने तीखे हो सकते हैं कि वे दुश्मनाना अन्तरविरोध का रुप ले लें और उनके पहलू आपस में बदल जायें। यानी सर्वहारा की जगह पूंजीवादी ताकतें हावी हो जायें और राज्य का चरित्र समाजवादी से पूंजीवादी हो जाय। जैसा कि रुस में 1956 में हो गया था। दर्शन की इस गहराई पर पकड़ ना होने के कारण ही ‘स्टालिन’ ने 1936 में जारी रुस के संविधान में यह ऐलान कर दिया था कि रुस में अब दुश्मनाना वर्ग (शोषक वर्ग) खत्म हो चुके है यानी वर्ग संघर्ष खत्म हो चुका है और रुस अब साम्यवाद की अन्तिम मंजिल में प्रवेश करने जा रहा है। मजेदार बात यह है कि अगले साल ही पार्टी के दो बड़े नेताओं ’कामनेव’ व ‘जिनोवियेव’ को देश से गद्दारी के आरोप मेें फांसी दे दी गयी। और इनके सैकड़ों समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया, कुछ को साइबेरिया निर्वासित कर दिया गया। यानी वर्ग संघर्ष खत्म नही हुआ था बल्कि और तीखा हो गया था।
माओ ने पहली बार इस सवाल को दर्शन के स्तर पर हल किया और बताया कि समाजवाद एक लंबा संक्रमण काल है जिसमें अनेको सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद ही सर्वहारा की जीत सुनिश्चित हो सकती है। इस पूरे संक्रमण काल के दौरान वर्ग संघर्ष जारी रहेगा और अन्तरविरोध के नियम के अनुसार ही कुछ कुछ समय पर तीखा भी होता रहेगा और यदि क्रान्तिकारी ताकतें कमजोर पड़ी तो प्रधान पहलू के गौण पहलू में बदलने की यानी पूंजीवादी पुर्नस्थापना की संभावना हमेशा बनी रहेगी। अधिरचना में यदि लगातार क्रान्ति नही चलाई गयी तो यह पलट कर आधार को प्रभावित करेगी और इसे अपने अनुरुप बदल देगी। इसके अलावा उन्होने यह भी बताया कि पुराने शोषक वर्ग के साथ ही एक नया शोषक वर्ग भी पैदा हो चुका है जो कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर ही है। जिसे ‘पूंजीवादी पथगामी’ कहा गया।
‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ दर्शन में आये इस महत्वपूर्ण छलांग का मूर्त रुप था जिसने क्रान्ति के विज्ञान को और समृद्ध बनाया। यानी सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले क्रान्ति करने का विज्ञान था, लेकिन क्रान्ति को टिकाये रखने और निरन्तर उसे साम्यवाद तक ले जाने का विज्ञान इसी सर्वहारा क्रान्ति के दौरान ही अस्तित्व में आया।
1966 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी स्पष्ट रुप से ‘दो’ में विभाजित हो चुकी थी। माओ की भाषा में एक ‘पूंजीवादी पथगामी’ थे तो दूसरे ‘सर्वहारा पथगामी’। जमीन पर जनता और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच फासला बढ़ता जा रहा था। ज्यादातर कम्युनिस्ट पार्टी के पदाधिकारी सत्ता का सुख भोगते हुए एक नये शोषक वर्ग में तब्दील होने लगे थे। जनता से उनका रिश्ता और इसी कारण उत्पादन से उनका रिश्ता टूट चुका था।
पुरानी दुनिया के सभी बंटवारे जस के तस बने हुए थे। मसलन गांव व शहर का बंटवारा, मानसिक श्रम व शारीरिक श्रम का बंटवारा, औरत व मर्द के बीच का बंटवारा आदि। शिक्षा अभी भी सीमित थी और श्रम व उत्पादन से कटी हुई थी। परीक्षा प्रणाली के कारण बहुमत छात्र छांट दिये जाते थे,जो प्रायः मजदूर किसान घरों से ही आते थे। यहां तक कि प्राथमिक शिक्षा भी सभी बच्चों को उपलब्ध नहीं थी। राज्य प्रशासन में जनता की भागीदारी ना के बराबर थी।
एक तरह से कहा जाय तो चीन 1966 में पूंजीवाद के मुहाने पर खड़ा था।
लेकिन 1966-76 के बीच चली इस सांस्कृतिक क्रान्ति ने इस पूरी तस्वीर को बदल दिया। छात्रों-नौजवानों की लाखों लाख की रैली ने और इस दौरान बनी ‘रेड गार्डस’ की टोलियों ने ‘शंघाई’ और ‘बीजिंग’ जैसे बड़े शहरों के प्रशासन को पूरी तरह से बदल दिया। देश की लगभग तीन चौथाई पार्टी कमेटियां बदल दी गयी। आलोचना-आत्मालोचना ने एक व्यापक अभियान की शक्ल ले ली। पार्टी के वरिष्ठ से वरिष्ठ पदाधिकारियों, नेताओं को भी हजारों और कभी कभी लाखों की संख्या के बीच आकर आत्मालोचना करने पर मजबूर किया गया। जिन्होंने आनाकानी की उनके साथ जबर्दस्ती भी की गयी।
मजदूरों ने फैक्टरी संचालन को अपने हाथ में ले लिया जो पहले उनके नाम पर मैनेजरों के हाथ में थी। किसानों ने इसी समय गांवों में बड़े पैमाने पर कम्यूनों का निर्माण किया। इन कम्यूनों ने अपने सीमा क्षेत्र में आने वाले लगभग सभी काम अपने हाथ में ले लिये। शिक्षा उनमें से एक महत्वपूर्ण काम था। इसी दशक में चीन के हर गांव में कम्यून ने प्राइमरी स्कूल खोला। फिर कुछ गांवों ने मिलकर मिडिल स्कूल खोला और कम्यून के पैमाने पर हाईस्कूल खोले गये। इनमें शिक्षक और अन्य सुविधाएं व संसाधन कम्यून की तरफ से ही दिये गये। और इन स्कूलों का प्रबन्धन भी वहां के मजदूरों किसानों ने अपने पास रखा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि पाठ्यक्रम भी कम्यून के नेतृत्व में मजदूरों किसानों शिक्षकों और छात्रों ने मिलकर तैयार किया जो स्थानीय जरुरतों और सर्वहारा राजनीति को ध्यान में रखकर बनाया गया। प्राथमिक स्तर पर विषय को मोटा मोटी दो भागों में बांट दिया गया। एक था ‘कृषि आधारित ज्ञान’ (जिसमें जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान आदि आ जाता था) और दूसरा था ‘उद्योग आधारित ज्ञान’ (जिसमें भौतिक विज्ञान, गणित जैसे विषयों को शामिल कर लिया गया)। ‘संगीत’ और ‘भाषा’ ज्ञान को भी उत्पादन से जोड़ दिया गया। स्कूल के सत्र को स्थानीय जरुरतों के हिसाब से लचीला बनाया गया। जब कृषि का काम ज्यादा होता था तो स्कूल बन्द कर दिया जाता था और बच्चे व शिक्षक किसानों की खेती के काम में मदद करते थे। ज्यादा छोटे बच्चे उन्हे गाना सुनाकर उनका श्रम हल्का करने का प्रयास करते थे।
खेती के ज्यादातर उपकरण गांव के स्तर पर ही कम्यून के नेतृत्व में बनाये जाते थे। छात्र इन छोटी छोटी फैक्टरियों में भी समय समय पर काम देखने व सीखने आते थे और इस प्रक्रिया में मजदूरों की मदद भी करते थे।
स्कूल का माहौल काफी जनवादी होता था। छात्रों को शिक्षक से असहमत होने, अपनी बात कहने व शिक्षक की आलोचना करने का अधिकार था। इसके लिए ‘बिग करैक्टर पोस्टर’ का भी इस्तेमाल किया जाता था, जिसका चलन सांस्कृतिक क्रान्ति ने ही शुरु किया था, जहां आप अपनी आलोचना लिख कर सम्बन्धित स्थानों पर चिपका सकते थे। चीन में इस दौरान बिग कैरैक्टर पोस्टर ने इतनी लोकप्रियता हासिल की कि बीजिंग, शंघाई जैसे शहरों की लगभग सभी दिवारें इन पोस्टरों से भर गयी थी।
हाई स्कूल तक किसी तरह की परीक्षा प्रणाली नही थी। स्कूल सभी के लिए खुले थे। कालेजों में प्रवेश परीक्षा बन्द हो चुकी थी। अब कम्यून से मजदूर किसान जिन छात्रों को अनुमोदित करते थे, वे ही कालेज में प्रवेश पा सकते थे। शर्त यह थी कि वे कालेज की पढ़ाई पूरी करके वापस अपने कम्यूनों में लौट जायेगे। और वहां के उत्पादन में मदद करेंगे। सच कहें तो शिक्षा में ये क्रान्तिकारी बदलाव आज तक के इतिहास की एक अनोखी घटना है। 1970 के दशक के बाद पैदा हुई ‘वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली’ पर इसका असर आज भी देखा जा सकता है। हालांकि दुःख की बात यह है कि आज वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली की बात करने वाले लोग इसके सन्दर्भ को यानी सांस्कृतिक क्रान्ति को जाने या अनजाने भुला देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में और देशों ने भी कई व्यापक अभियान चलाये हैं। ‘क्यूबा’ और ‘सोवियत संघ’ के शिक्षा के क्षेत्र में किये गये परिवर्तन काफी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन चीन का यह शिक्षा अभियान उससे बुनियादी तौर पर भिन्न था। यहां शिक्षा के सभी पहलुओं पर कम्यून यानी मजदूरों किसानों का प्रत्यक्ष नियत्रण था। शिक्षा उत्पादन से और जनता की चेतना के क्रान्तिकारी रुपान्तरण से सीधे जुड़ी हुई थी।
इतिहास के इसी क्रान्तिकारी दौर में ‘जिमो काउण्टी’ कम्यून के तहत शिक्षा पाने वाले ‘डोन्गपिन्ग हान’ (Dongping Han) ने अपने अनुभवों व इसी काउण्टी के गांवों के फील्ड-शोध के आधार पर शिक्षा में आये इन क्रान्तिकारी बदलावों का बहुत ही रोचक वर्णन 2008 में आयी अपनी पुस्तक The Unknown Cultural Revolution में किया है।
शिक्षा के इन क्रान्तिकारी बदलावों को सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान बनी एक फिल्म Breaking With Old Ideas में बहुत ही प्रभावी तरीके से दिखाया गया है।
शिक्षा के अलावा कला साहित्य संगीत के क्षेत्र में भी बहुत से संघर्ष हुए और रचनात्मकता के नये कीर्तिमान बनाये गये और इस क्षेत्र में बुर्जुआ गढ़ को काफी नुकसान पहुंचाया गया। यहां तक बहस हुई कि ‘शुद्ध संगीत’ (absolute music) का भी वर्ग चरित्र होता है या नही।
नये क्रान्तिकारी यथार्थ के अनुसार जनवादी क्रान्ति के दौर के प्रगतिशील नृत्य नाटिकाओं के भी नये संस्करण तैयार किये गये। ‘सफेद बालो वाली लड़की’ जैसे प्रगतिशील नृत्य नाटिकाओं में नायिका के रोल को और ज्यादा क्रान्तिकारी बनाया गया जो सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान आयी नयी चेतना का प्रतिनिधित्व करे।
इसी दौरान सोवियत संघ के ‘समाजवादी साहित्य’ की भी आलोचनात्मक पड़ताल की गयी और उसकी कमियों को उजागर किया गया। ‘शोलोखोव’ जैसे मशहूर उपन्यासकार की उनके उपन्यासो में चित्रित प्रति क्रान्तिकारी पहलू की तीखी आलोचना की गयी। ’धीरे बहो दोन‘ (And Quiet Flows the Don) में ‘ग्रिगोरी’ को प्रतिक्रान्तिकारी पात्र सिद्ध किया गया और लेखक की उसके प्रति सहानुभूति की आलोचना की गयी। मशहूर नाटककार ‘स्तानिसलवस्की’ की उनके Stanislavsky’s system की आलोचना की गयी और बताया गया कि अभिनय का यह तरीका बुर्जुआ है क्योकि इसमें मानवीय भावनाओं को वर्ग के परे बताया गया है। बहुचर्चित फिल्म “Ballad of a Soldier” की आलोचना इस आधार पर की गयी कि यह फिल्म बारीकी से क्रान्तिकारी-प्रगतिशील युद्ध की भर्त्सना करती है।
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शिक्षा के बाद सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन महिलाओं और पुरुषों के सम्बन्धों में आया बदलाव था। जैसा कि ‘एंगेल्स’ ने बताया है कि इतिहास का पहला वर्ग-अन्तरविरोध महिलाओं और पुरुषों के बीच के अन्तरविरोध के रुप में सामने आया। समाजवादी समाज में यह अन्तरविरोध बरकरार रहता है। समाज के जनवादीकरण की पहली शर्त है कि इस अन्तरविरोध को कम किया जाय और इसे खत्म करने की ओर बढ़ा जाय। इसी को ध्यान में रखकर प्रत्येक गांव, फैक्ट्ररी, स्कूल, और सरकारी कार्यालयों में ‘महिला फेडरेशन कमेटी’ बनायी गयी। सम्बन्धित क्षेत्र में महिला सम्बन्धी किसी भी समस्या को देखने और उसे हल करने का काम इसी कमेटी का था। राजनीतिक, प्रशासनिक व उन सभी कामों में उनकी भागीदारी को सचेत तरीके से बढ़ाया गया जो पहले पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में आते थे। दूसरी ओर पुरुषों को भी ऐसे काम करने के लिए प्रोत्साहित किया गया जो परम्परागत रुप से महिलाओं के माने जाते थे जैसे-बच्चे पालना, खाना बनाना, छोटे बच्चों को पढ़ाना या नर्स का काम आदि। महिलाओं के लिए यदि यह नारा था कि महिलाएं वे सभी काम कर सकती हैं जो पुरुष करते हैं तो पुरुषों के लिए भी यह नारा दिया गया कि पुरुष भी वे सभी काम कर सकते हैं जो महिलाएं कर सकती हैं। सांस्कृतिक क्रान्ति ने महिलाओं को किस हद तक प्रभावित किया था यह इस तथ्य से पता चल जाता है कि क्रान्ति के दौरान एक समय महिलाओं ने विशेषकर नौजवान महिलाओं ने अपना नाम बदलना शुरु कर दिया। भारत की तरह ही वहां भी महिलाओं के नाम तथाकथित नारी सुलभ स्वभाव को अभिव्यक्त करने वाले रखे जाते थे। जैसे (भारतीय सन्दर्भ में देखे तो) शीतल, सुमन, सावित्री आदि। इस तरह के नामों को त्यागकर उन्होेंने ऐसे नामों को अपनाया जो उनकी उस समय की क्रान्तिकारी चेतना को अभिव्यक्त करे। नृत्य नाटिकाओं में भी उन्होंने पुराने ‘नारी सुलभ’ भावों को त्याग दिया और नारी की बिल्कुल नयी तस्वीर सामने रखी। इसे The Red Detachment of Women और The White Haired Girl जैसी नृत्य नाटिकाओं में देखा जा सकता है।
1970 के बाद दुनिया के पैमाने पर चलने वाले नारी आन्दोलनों पर सांस्कृतिक क्रान्ति के इस पहलू की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।
समग्रता में देखे तो 1917 की रुसी क्रान्ति ने पूरी दुनिया को जिस तरह से प्रभावित किया था, लगभग उसी तरह का प्रभाव पूरी दुनिया पर चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का भी पड़ा। अमेरिका का ‘ब्लैक पैन्थर आन्दोलन’, फ्रान्स का ‘1968 का छात्र आन्दोलन’,‘वियतनाम का संघर्ष’ और पूरी दुनिया में वियतनाम के समर्थन में हुए प्रदर्शनों पर इसके गहरे असर की छाप आज भी दिखती है। एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमरीकी के क्रान्तिकारी आन्दोलनों पर सांस्कृतिक क्रान्ति का ना सिर्फ जबर्दस्त प्रभाव था, बल्कि उस दौरान इन संघर्षो को चीन ने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष भरपूर मदद भी की थी।
प्रतिक्रियावादी ताकतें और उनके अकादमिक बुद्धिजीवी इतिहास के इस सुनहरे दौर को लगातार अपने झूठ के पुलिन्दों से ढक देने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन चीन के प्रख्यात साहित्यकार ‘लू शुन’ के शब्दों में कहे तो- ‘‘खून से लिखे गये तथ्यों को स्याही से लिखे गये झूठ मिटा नही सकते।’’

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