‘छोटा भीम’ का सन्देश – शिवकुमार राधाकृष्णन

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‘छोटा भीम’ टेलीविजन सीरियल बच्चों के बीच और बड़ों के बीच भी बहुत लोकप्रिय है। कई भाषाओं में यह रोज प्रसारित किया जाता है। इसके दर्शक लाखों में हैं और यह कई वर्षो से लगातार दिखाया जा रहा है। इसकी लोकप्रियता इसी से समझी जा सकती है कि बच्चों के दूसरे कार्यक्रम और एडवरटीजमेन्ट्स कैसे इससे जुड़े होते हैं।
इसे पसन्द करने का कारण मुख्यतः इसका कथानक है जो लगभग प्रत्येक एपीसोड में एक सा ही रहता है। कथानक काफी सरल है। एक राजा अपनी छोटी बेटी राजकुमारी के साथ ढोलकपुर राज्य पर राज्य करता है। और एक खूबसूरत पहाड़ी पर बने महल में रहता हैं। यहां के निवासी कमोवेश अच्छे चरित्र वाले हैं। गांव में बच्चों का एक समूह अक्सर खेलता रहता है जिसमें सबसे स्मार्ट और खूबसूरत है-‘छोटा भीम’। कुछ और बच्चे व बोलने वाला एक बन्दर उसकी मदद करते हैं। अचानक ढोलकपुर की शान्ति को कुछ बुरे लोग अपनी बुरी नियत से भंग करने का प्रयास करते हैं। राजा उनसे पार पाने में असहाय नजर आता है। इसी निर्णायक मौके पर छोटे भीम का प्रवेश होता है और वह अपनी ताकत से ढोलकपुर से उन बुरे लोगों को निकाल बाहर करता है। इस तरह छोटा भीम सही वक्त पर राजा और राज्य को बचा लेता है। नागरिक छोटे भीम की सराहना करते हैं और फिर से खुशी पूर्वक रहने लगते हैं। इस सरल, बुराई को हराने वाली कहानी में गलत क्या हो सकता है।
इसमें एक खास चीज गौर करने लायक है कि सभी ‘छोटा भीम’ सीरीयल में मध्यकालीन ग्रामीण पृष्ठभूमि में आधुनिक वैज्ञानिक उपलब्धियों को लगातार जोड़ा गया है। इसमें समस्या यह है कि विश्व ने वैज्ञानिक उपलब्धियों को कई चरणों में हासिल किया है और हर चरण में पुराने मध्ययुगीन मूल्यों को नकार कर नये तार्किक चिन्तन को हासिल किया गया है। लेकिन यहां एक मध्ययुगीन राज्य में आधुनिक उपकरणों (जैसे राकेट में बैठकर मंगल ग्रह की यात्रा) का इस्तेमाल होता है और ऐसा प्रभाव पड़ता है कि बिना पुराने तरीके का जीवन छोड़े (जैसे सामन्ती राज्य आदि) भी वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल की जा सकती है। यह समय के सतत विकास के साथ वैज्ञानिक उपलब्धियों को चरणों में ना दिखाकर एक तरह का कालभ्रम [anachronism] पैदा करता है। और हास्यास्पद तरीके से ‘सुपर ताकत देने वाले लड्डू’ के साथ ही अन्तरिक्ष में जाने वाले राकेटों को दिखाता है।
इसके अलावा यह जिस तरह रुढि़वादी तस्वीर और पूर्वाग्रह पैदा करता है वह बहुत ही खराब है। भीम का एक साथी ‘कालिया’ है। कालिया को मोटा और मूर्ख दिखाया गया है जो हमेशा मात खाता हैै। इसका रंग और लोगो की अपेक्षा काला है। समस्या सिर्फ यह नही है कि इसके चमड़ी के रंग के आधार पर इसका नाम कालिया रख दिया गया हैै बल्कि जब इस चरित्र को कायर दिखाया जाता है, इसका लगातार मजाक उड़ाया जाता है तो यह अप्रत्यक्ष रुप से इसके रंग की विशेषता हो जाता है।
इसी तरह से ढोलकपुर की शान्ति को भंग करने वाले सभी बुरे लोग विदेशी के रुप में ही दिखाये जाते है। जादूगर, शोमैन और दूसरे धूर्त लोग जो राज्य को जीतना चाहते है या उसे भ्रष्ट करना चाहते है, हमेशा बाहर से ही आते दिखाये जाते हैं। उनके कपडे़, उनका बोलने का ढंग, उनकी प्रतिभा को हमेशा एक खास अजनबी तरीके से दिखाया जाता है। हर बार जब एक विदेशी ढोलकपुर के नागरिकों का मनोरंजन करने या उनकी मदद करने के बहाने से ढोलकपुर आता है तो हमेशा उनका एक गुप्त मकसद होता है। ऐसा देश जिसके बारे माना जाता है कि वह दूसरे देशों के साथ विनिमय करके प्रगति करता है, वहां ‘विदेशी’ लोगों को बुरे लोगों के रुप में दिखाना निश्चित रुप से एक पिछड़ापन है और एक रुढि़वादी तस्वीर का उदाहरण है। विदेशियों को इस रुप में दिखाने से, प्रोग्राम देखने वाले छोटे बच्चों के मन में विदेशियों के प्रति घृणा [xenophobia] पैदा होगी।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में जब अल्पसंख्यकों को प्रायः ‘विदेशियों’ के रुप में दिखाया जाता है, जिन्हें अपनी राष्ट्रीयता व देशीयता बार बार साबित करनी पड़ती है तो इस तरह की ‘विदेशी घृणा’ का चित्रण खतरनाक है।
वर्तमान पीढ़ी को वैज्ञानिक कालभ्रम [anachronism], नस्लवाद [racism] और विदेश घृणा [xenophobia] की शिक्षा देने की बजाय सहयोग पर आधारित वैश्विक दोस्ती और प्रगति का सन्देश देने वाली शिक्षा की जरुरत है। छोटा भीम जो सन्देश दे रहा है उस पर उसे सोचने की जरुरत है।
अनुवाद – कृति
साभार kafila.org से

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किसानों का वेतन आयोग कब आयेगा —- देवेन्द्र शर्मा

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यह खुल्लमखुल्ला पक्षपात है। सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट ( जिसके अनुसार केन्द्रीय कर्मचारियों का वेतन औसतन 23.55 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है) को स्वीकार करते हुए वित्त मंत्री ‘अरुण जेटली’ ने कहा कि इससे राज्य खर्च पर ‘मामूली’ भार पड़ेगा। वेतन की इस भारी बढ़ोत्तरी से उम्मीद है कि आटोमोबाइल, रियल इस्टेट और उपभोक्ता सामानों की मांग बढ़ेगी। दूसरे शब्दों में कहे तो मांग बढ़ने की संभावना से उद्योग ज्यादा उत्साहित है और इसलिए वित्त मंत्री भी उत्साहित हैं कि इससे जीडीपी संख्या भी बढ़ने की उम्मीद है।
कल्पना कीजिए कि 60 करोड़ किसान (इसका मतलब है कि करीब 10 करोड़ किसान परिवार) की खेती से होने वाली आय में भी 23.55 प्रतिशत का इजाफा हो जाय तो मांग अप्रत्याशित तरीके से बढ़ेगी और पूरी अर्थव्यवस्था ऐसी सरपट गति से आगे बढ़ेगी कि हम महज उसकी कल्पना ही कर सकते हैं। फिर ऐसा क्यो है कि सभी सरकारें सिर्फ उन्हीं की जेबें भरती है जिनकी जेब में पहले से ही काफी कुछ है और व्यापक जनता को नजरअंदाज करती हैं। यह एक ऐसा सवाल है जिसे कोई भी अर्थशास्त्री या नीति निर्धारक संबोधित नहीं करना चाहता।
अभी पिछले माह ही सुप्रीम कोर्ट में एक एफीडेविट फाइल करते हुए अतिरिक्त सालीसीटर जनरल ‘मनिन्दर सिंह’ ने कहा कि किसानों को उनकी उत्पादन लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा उपलब्ध कराने में सरकार असमर्थ है (लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफे की सिफारिश ‘स्वामीनाथन कमेटी’ ने की थी।) उन्होने आगे कहा कि ‘‘लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा देने से बाजार पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) और उत्पादन लागत के बीच यान्त्रिक जुड़ाव कुछ मामलों में प्रतिकूल प्रभाव वाला हो सकता है।’’
सत्ता में आने के बाद नरेन्द्र मोदी सरकार ने धान और गेहूं के समर्थन मूल्य में महज प्रति कुन्तल 50 रुपये की बढ़ोत्तरी की थी जो महज 3.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी है जो उस समय के मुद्रास्फीति के अतिरिक्त बोझ को हटाने के मामले में नाकाफी था। इस साल 2015-16 में गेंहू की कीमत 75 रुपयें प्रति कुन्तल बढ़ायी गयी है।
उम्मीद है कि सातवें वेतन आयोग से 47 लाख केन्द्रीय कर्मचारी और 52 लाख पेन्शन भोगी लोगों को फायदा होगा। हांलाकि इस बढ़ोत्तरी से 1.02 लाख करोड़ का अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ेगा, लेकिन यथार्थ में यह कई गुना ज्यादा होगा। एक संकीर्ण अनुमान के अनुसार 3 लाख करोड़ से कम नहीं। क्योकि इसी तरह की वेतन बढ़ोत्तरी राज्य सरकार के कर्मचारियों, स्वायत्त संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और पब्लिक सेक्टर के कर्मचारियों को भी दिया जाने वाला है।
आय में यह असमानता बहुत भयानक है। अब सरकारी कर्मचारी के लिए न्यूनतम वेतन बढ़कर 18000 रुपये हो गया वहीं एक किसान परिवार की औसत मासिक आय (एनएसएसओ 2014 की रिपोर्ट के अनुसार) महज 6000 रुपये है। इसमें से 3078 रुपये खेती से आते है। लगभग 58 प्रतिशत किसान अपनी मासिक आय के पूरक के तौर पर मनरेगा जैसी गैर कृषि गतिविधियों पर निर्भर रहते हैं। खेती से होने वाली आय बहुत कम है क्योकि सभी सरकारोें ने जानबूझकर खेती को संसाधनों से वंचित रखा है और किसानों को उचित दाम देने से इंकार करती रही हैं।
महाराष्ट्र के किसान नेता ‘विजय जावनधिया’ कहते हैंः ‘‘प्रत्येक दस सालों में सरकारी कर्मचारियों के न्यूनतम वेतन में करीब 30 प्रतिशत का इजाफा किया जाता है। 1986 में न्यूनतम वेतन 750 रुपये था। जनवरी 2016 में जब सातवां वेतन आयोग लागू होगा तो यह बढ़कर 18000 रुपये मासिक हो जायेगा। यदि यही पैमाना कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर लागू किया जाय तो 1985-86 में गेंहू का समर्थन मूल्य 315 रुपये था और इस हिसाब से यह बढ़कर इस समय 7505 रुपये हो जाना चाहिए था। लेकिन यथार्थ में 2015-16 के लिए गेंहू के किसानों को जिस समर्थन मूल्य का वादा किया गया है वह है महज 1525 रुपये प्रति कुन्तल।
सरकारी खरीद दाम (या बाजार दाम) ही एकमात्र वह तरीका है जिसके जरिये किसान अपनी आय प्राप्त कर सकता है। उसकी आय बाजार पर निर्भर है जहां वह अपना उत्पाद बेचता है। इसके अलावा और कोई आय का जरिया नही है। डीए (मंहगाई भत्ता) और अन्य सुविधाएं उसकी आय का हिस्सा नही हैं। इसकी तुलना सरकारी कर्मचारी से कीजिए। प्रत्येक छः माह पर उन्हे मंहगाई भत्ता मिलता है। जो बढ़कर उनके मूल वेतन में मिल जाता है। यदि सातवें वेतन आयोग की माने तो कर्मचारियों को मिलने वाले कुल 198 भत्तों में से 108 भत्तों को कायम रखा गया है और उन्हे बढ़ाया गया है। जहां मूल वेतन में 16 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है वही भत्तों में 63 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है।
सरल शब्दों में कहें तो जहां समाज के एक छोटे तबके की आर्थिक समृद्धि लगातार कई गुना बढ़ायी जा रही है वहीं व्यापक जनसमुदाय को नजरअंदाज किया जा रहा है। किसान जनसंख्या का 52 प्रतिशत है। संख्यात्मक रुप से वह 60 करोड़ से ज्यादा है। इसके बावजूद उन्हें जानबूझकर पिरामिड के पायदान पर धकेला जा रहा है। इसी कारण से नवम्बर के पहले सप्ताह में बंगलूरू में सम्पन्न किसान संगठनों के दूसरे राष्ट्रीय कन्वेन्शन ने तब तक सातवें वेतन आयोग के क्रियान्वयन पर रोक लगाने की मांग की है जब तक कर्मचारियों और किसानों की आय में समानता स्थापित नही हो जाती।
सातवें वेतन आयोग के तहत न्यूनतम वेतन की गणना के लिए जो बुनियादी मानदण्ड इस्तेमाल किये गये, वे हैं-एक मजदूर परिवार की जरुरतेंः न्यूनतम कैलोरी सुनिश्चित करने के लिए भोजन की आवश्यकता, वयस्क शरीर के लिए जरुरी प्रोटीन व फैट, औसत मजदूर परिवार के लिए प्रति वर्ष 18 यार्ड प्रति व्यक्ति कपड़े की आवश्यकता, मूल वेतन का 7.5 प्रतिशत घर के किराये के लिए, 20 प्रतिशत ईधन, लाइट व दूसरी जरुरतों के लिए। समर्थन मूल्य निर्धारित करने के लिए खेती की लागत की गणना करते समय भी इन कैटेगरियों को शामिल करना चाहिए।
खेतिहर जनसंख्या के लिए आर्थिक सुरक्षा समय की महती जरुरत है। इसलिए मेरा सुझाव है कि एक ‘नेशनल फार्मर इनकम कमीशन’ (National Farmers Income Commission) स्थापित किया जाय जिसे यह अधिकार दिया जाय कि वह कृषि सेक्टर और संगठित सेक्टर के बीच आय की समानता को सुनिश्चित करे। इसी समय यह ‘फार्मर इनकम कमीशन’ किसान परिवारों के लिए एक मासिक पैकेज की भी घोषण करे जिसे किसान परिवारों को हर माह दिया जाय। तब तक सातवे वेतन आयोग को निष्प्रभावी रखा जाना चाहिए।
अनुवादः कृति
साभार- http://devinder-sharma.blogspot.in/

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‘Blood of the Condor’

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1960 का दशक भारी उथल पुथल का दौर था। पूरे विश्व में समाज के लगभग सभी शोषित तबके व वर्ग अपनी पहचान व अधिकार हासिल करने के लिए शोषणकारी व्यवस्था से सीधे टकराने लगे थे। साहित्य, कला, संगीत इससे मूलभूत तौर पर प्रभावित हो रहा था और पलटकर इस संघर्ष में अपनी भूमिका भी निभा रहा था। अपेक्षाकृत नई कला विधा सिनेमा भी इससे अछूता न था। इसी दशक में यूरोपियन सिनेमा में ‘नवयथार्थवाद’ की धारा आयी जिसने फिल्म की विषयवस्तु के साथ साथ फिल्म मेकिंग को भी मूलभूत तौर पर बदल डाला और यथार्थ के साथ सिनेमा का एक नया रिश्ता बना। लेकिन इसी दशक में एक और कला आन्दोलन की भी नींव पड़ी जिसकी चर्चा आमतौर पर कम होती है। वह है-‘थर्ड सिनेमा’ की धारा। सरल शब्दों में कहें तो यह धारा ‘फ्रैन्ज फैनन’ की मशहूर किताब The Wretched of the Earth से प्रेरणा लेती है। यानी यह धारा महज यथार्थ के ‘सही’ चित्रण तक ही अपने को सीमित नही रखती (जैसा कि नवयथार्थ की योरोपियन धारा में था) बल्कि इस यथार्थ को बदलने में अपनी भूमिका भी निभाने का प्रयास करती है। Third Cinema in the Third World नामक अपनी महत्वपूर्ण किताब में ‘Teshome Gabriel’ लिखते हैं-‘‘क्रान्तिकारी सिनेमा का काम सिर्फ निन्दा करना नहीं है या सिर्फ यथार्थ को प्रतिबिम्बित करना भर नही है बल्कि इसे एक्शन का आहृवान करने वाला होना चाहिए।’’
इसके अतिरिक्त यह फिल्म मेकिंग के यूरोपियन तरीके को भी नकारती है। ‘Imperfect Cinema’ का रिश्ता भी यहीं से हैं।
1969 में दक्षिण अमरीकी देश ‘बोलिविया’ में एक ऐसी ही फिल्म का निर्माण हुआ जो आज थर्ड सिनेमा की प्रतिनिधि फिल्म कही जाती है। यह फिल्म थी ‘Blood of the Condor’
जिसके निर्देशक थे Jorge Sanjines जो जीवन भर ऐसी ही फिल्मों के प्रति समर्पित रहे।
फिल्म में बोलिविया की एक जनजाति को दिखाया गया है। यहां एक अमरीकन ‘पीस संगठन’ काम करता है जो इन जनजातियों का मुफ्त इलाज करता है। और इस बहाने जनजाति की महिलाओं की बिना उनकी जानकारी के नसबन्दी कर देता है। हालांकि यह एक सत्य घटना है और फिल्म के प्रदर्शन के बाद जनता के आन्दोलन के दबाव में इसे अपना बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ा। लेकिन फिल्म में यह एक रूपक के रूप में भी आता है कि कैसे साम्राज्यवाद देशज संस्कृति को मार रहा है। गांव के मुखिया को जब इसकी जानकारी लगती है तो वह इसका विरोध करता है। उसके इस विरोध के कारण स्थानीय पुलिस आफिसर उसे गोली मार देता है। मुखिया की पत्नी घायलावस्था में उसे लेकर शहर आती है जहां मुखिया का छोटा भाई रहता है। छोटा भाई वहां अपनी संस्कृति व रहन सहन छोड़कर योरोपियन तरीके से रहने का प्रयास कर रहा होता है। छोटा भाई अपने भाई को अस्पताल में भर्ती कराता है। डाॅक्टर कहते हैं कि उसे तुरन्त ब्लड देना होगा। लेकिन ब्लड खरीदने के लिए उसके पास पैसे नही है। ब्लड का इन्तजाम करने के लिए वह यहां से वहां भटकता है। पैसे के लिए वह चोरी करने की भी सोचता है। यह दृश्य ‘बाइसिकिल थीफ’ की याद दिलाता है। इसी प्रक्रिया में वह एक बड़े डाॅक्टर से मिलने का प्रयास करता है। लेकिन वह अमेरिकन डेलिगेशन के साथ व्यस्त हैं। यह दृश्य प्रेमचन्द की मशहूर कहानी ‘मंत्र’ की याद ताजा कर देता है।
दरअसल किसी भी कलाकृति की यह सामर्थ्य होती है कि वह आपकी स्मृति को कुरेदती रहती है और इस बहाने आपसे कहती है कि वह कोई अलग थलग चीज नही है बल्कि जनता की एक समृद्ध परम्परा का ही हिस्सा है। बहरहाल इस बहाने फिल्म पूरे बोलिवियाई समाज का कच्चा चिट्ठा सामने रखती है और साम्राज्यवादी-पूंजीवादी संस्कृति और जनता की संस्कृति के बीच एक तनाव पैदा करने में सफल रहती है। फिल्म के अन्त में छोटा भाई अपना यूरोपियन परिधान छोड़कर देशज परिधान में आ जाता है और बड़े भाई की पत्नी के साथ अपने गांव लौट आता है। यह प्रतीक है एक बड़े परिवर्तन का-‘व्यक्तित्वान्तरण’ का। इस वक्त का बैकग्राउण्ड संगीत काफी प्रभावशाली है। फिल्म के अन्त में कई बन्दूकें स्क्रीन पर freeze-framed के रूप में उभर आती हैं। यह स्पष्ट संकेत है बगावत का।
शुरू में फिल्म को बोलिवियाई सरकार ने प्रतिबन्धित कर दिया। लेकिन जन दबाव में इसे रिलीज करना पड़ा। इस फिल्म का असर इतना जबर्दस्त था कि सम्बन्धित अमरीकी ‘पीस कार्प’ को बोलिविया से अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा।
योरोपियन फिल्म कला के विपरीत इसमें ‘क्लोज अप’ का इस्तेमाल काफी कम किया गया है। ‘लांग साट्स’ का प्रयोग अधिक है, ताकि सामाजिक सन्दर्भो को अच्छी तरह समेटा जा सके। लेकिन जब इस फिल्म को बोलिविया की उस जनजाति को दिखाया गया, जिसपर यह बनायी गयी है तो ‘फ्लैश बैक’ के माध्यम से वर्तमान व अतीत को साथ साथ (Interpolation) बयां करने की तकनीक के कारण उन्हे इसे समझने में दिक्कत आयी। बाद में निर्देशक Jorge Sanjines को यह समझ में आया कि वास्तव में कहानी बयां करने की यह सिनेमाई तकनीक भी योरोपियन है। फलस्वरूप अपनी बाद की फिल्मों में Jorge Sanjines ने कहानी बयां करने की यह तकनीक पूरी तरह से छोड़ दी।
अपने देश में भी इस कैटेगरी में फिल्में बनी हैं। लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। यहां का ‘समानान्तर सिनेमा’ अपनी प्रेरणा यूरोपियन नवयथार्थवाद से लेता रहा है, थर्ड सिनेमा से नहीं। ‘निशान्त’, ‘मिर्च मसाला’ जैसी फिल्में जरूर थर्ड सिनेमा की कैटेगरी में आ सकती हैं।

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‘अख़लाक़’ और ‘चिम्मा’ की याद में…….

दादरी की घटना ने हम सभी को स्तब्ध कर दिया है। दादरी की इस घटना को ‘गांधी जयंती’ के दिन एक 90 साल के दलित को हमीरपुर जिले में जिंदा जलाने की घटना से जोड़कर देखा जाना चाहिए। 90 साल के इस दलित ‘चिम्मा’ ने मंदिर में घुसने की जुर्रत की थी।
हिन्दुत्व के निशाने पर प्रगतिशीलों, मुस्लिमों, आदिवासियों के अलावा दलित भी हैं। यह समीकरण ही यह बता देता है कि इनका मुकाबला कैसे किया जा सकता है। लेकिन अभी तक दिक्कत यही रही है कि हम हिन्दुत्व की ताकतों से सिर्फ विचारधारा के स्तर पर ही लड़ते रहे हैं। यह लड़ाई बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन आज नाकाफी है क्योकि हिन्दुत्व आज महज विचारधारा नही है बल्कि मजबूत भौतिक शक्ति में बदल चुका है। और भौतिक शक्ति को भौतिक शक्ति से ही परास्त किया जा सकता है।
बहरहाल मशहूर इतिहासकार ‘डी एन झा’ उन चुने हुए इतिहासकारों में से एक हैं जिन्होंने हिन्दुत्व की विचारधारा को एकदम सामने से चुनौती दी है और उसकी कीमत भी चुकायी है। प्रस्तुत है उनका एक बेहद महत्वपूर्ण साक्षात्कार-

[साक्षात्कार के अन्त में मशहूर कवि ‘राजेश जोशी’ की दादरी की घटना पर लिखी एक बेहद महत्वपूर्ण कविता है।]

भारत में गोमांस के उपभोग के इतिहास पर अपने शोध के दौरान आपने किस तरह की दिक्कतें झेली?
2001 में जब मेरी किताब ‘Holy Cow: Beef in Indian Dietary Traditions’ प्रकाशित हुई तो मुझे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। हिन्दुत्व के एक गिरोह ने मेरे घर में तोड़फोड़ की, मेरी किताब की प्रतियां जलायी और मेरी गिरफ्तारी की मांग की। मुझे मौत सहित सभी तरह की धमकियां मिली।
मुझे दो साल तक पुलिस संरक्षण में रहना पड़ा। एक हिन्दू संगठन ने मेरे खिलाफ केस दायर कर दिया और मेरी किताब के प्रकाशन व वितरण पर रोक लग गयी। इस तरह से मेरी किताब प्रतिबंधित कर दी गयी।
मैंने इस प्रतिबंध को चुनौती दी और प्रतिबंध को हटवाने में मैं कामयाब रहा। मेरी किताब लंदन से भी प्रकाशित हो गयी।
इस तरह मैंने प्रतिबंध तो हटवा लिया लेकिन मुझे सालों तक पुलिस संरक्षण में रहना पड़ा।
गोमांस आज इतना बड़ा मुद्दा क्यों बन गया है?
मेरी किताब प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन पर आधारित है। यह दिखाती है कि वैदिक काल में गोमांस का उपभोग सामान्य बात थी। उस समय पशुओं की अक्सर बलि दी जाती थी। लेकिन ग्रंथों का बारीकी से अध्ययन करने पर पता चलता है कि धीरे धीरे ब्रह्मिनो ने गोमांस खाना बंद कर दिया। उन्होंने इसे अछूत जातियों की ओर हस्तान्तरित कर दिया। मध्यकाल में भोजन के लिए गाय मारने को मुस्लिमों से भी जोड़ कर देखा जाने लगा।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गाय को ‘हिन्दू’ पहचान के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। मुस्लिमों की पहचान गोमांस भक्षक के रुप में बना दी गयी। हिन्दू दक्षिणपंथी हमेशा यह दावा करते हैं कि गोमांस-भक्षण भारत में मुस्लिम लेकर आये। यह सरासर गलत है।
भाजपा के सत्ता में आने के साथ ही समकालीन भारतीय राजनीति में गोमांस ने अभूतपूर्व महत्व ग्रहण कर लिया। गोमांस पर प्रतिबन्ध की राजनीति, भारत को शाकाहारियों के देश के रुप में दिखाने की भाजपा के प्रयास का ही एक हिस्सा है। शिक्षण संस्थानों में मांसाहार पर प्रतिबन्ध इसका एक उदाहरण है।
भारत के नेतागण अतीतग्रस्त क्यों रहते है? आखिर ये नेतागण हैं कौन?
इनका सम्बन्ध हिन्दू दक्षिणपंथियों से है। उनकी यह अतीतग्रस्तता समझ में आती है- चूंकि उन्होंने भारत के मुक्ति संग्राम में हिस्सा नही लिया था, इसलिए वे अतीत से अपने लिए वैधता चाहते हैं। इसी प्रक्रिया में वे अपने हिसाब से मनगढ़न्त इतिहास रच रहे हैं।
अतीत को जिस तरह से हिन्दू दक्षिणपंथी देख रहे हैं वह उस प्रगति का निषेध है जो आजादी के बाद भारतीय इतिहासलेखन ने अपनाया है। यह तार्किक व वैज्ञानिक तरीके से इतिहास पर शोध करने और इतिहास लेखन का नकार हैं।
प्लास्टिक सर्जरी, स्टेम सेल और वायुयान विज्ञान के क्षेत्र में प्राचीन इतिहास की उपलब्धियों की जोरशोर से घोषणायें की जा रही है, वेदों की प्राचीनता को और अधिक प्राचीन बताने का प्रयास किया जा रहा है, प्राचीन ऋषियों को वैज्ञानिक बताया जा रहा है, वेदों से रोबोट तक की एक निरन्तरता को दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। इतिहास पर उनके इस आक्रमण के ये चंद उदाहरण हैं। लेकिन उनका ‘इतिहास’ एक रहस्य है क्योकि यह किसी भी तार्किक विश्लेषण से अपने आपको दूर रखता है।
नेहरु मेमोरियल म्यूजियम एण्ड लाइब्रेरी (NMML) के प्रस्तावित बदलावों पर आपकी क्या राय है?
सम्मानित विद्वानों ने इस संस्था का नेतृत्व किया है। महेश रंगराजन का इस्तीफा शुभ संकेत नही हैं। इसे शासन प्रणाली के एक म्यूजियम में बदलने की घोषणा का मतलब यही है कि यह प्रचार का एक यंत्र बन कर रह जायेगा।
आइसीएचआर (ICHR) में जिस तरह के ‘बदलाव’ किये गये है, उसे देखकर किसी को भी यह सन्देह नही होना चाहिए कि एनएमएमएल (NMML) में किस तरह के बदलाव किये जायेंगे।
[Times of India, October 7 से साभार ]
अनुवाद – कृति

दादरी का अख़लाक़
-राजेश जोशी

हर हत्या के बाद
ख़ामोश हो जाते हैं हत्यारे
और उनके मित्रगण.

उनके दाँतों के बीच फँसे रहते हैं
ताज़ा माँस के गुलाबी रेशे,
रक्त की कुछ बूँदें भी चिपकी होती हैं
होंठों के आसपास,
पर आँखें भावशून्य हो जाती हैं
जैसे चकित सी होती हों

धरती पर निश्चल पड़ी
कुचली-नुची मृत मानव देह को देखकर
हत्या के बाद हत्यारे भूल जाते हैं हिंस्र होना
कुछ समय के लिए
वो चुपचाप सह लेते हैं आलोचनाएँ,
हत्या के विरोध में लिखी गई कविताएँ
सुन लेते हैं बिना कुछ कहे
यहाँ तक कि वो होंठ पोंछकर
दाँतों में फँसे माँस के रेशे को
खोदकर, थूककर
तैयार हो जाते हैं हिंसा की व्यर्थता पर
आयोजित सेमीनारों में हिस्सेदारी को भी
हर हत्या के बाद उदारवादी हो जाते हैं हत्यारे
कुछ समय के लिए

जब तलक अख़बार उबल कर शांत न हो जाएँ
जब तलक पश्चिम परस्त, पढ़े लिखे नागरिक
जी भरकर न कोस लें हत्यारों को
हमारे प्राचीन समावेशी समाज की इस स्थिति पर
जब तलक अफ़सोस जताना बंद न कर दें सर्वोदयी कार्यकर्ता

और जब तलक राइटविंग के उत्थान पर
छककर न बोल लें कम्युनिस्ट टाइप प्रोफ़ेसर
एनजीओ चलाने वाली सुघड़ महिलाएँ

जब तलक ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल
अपनी फैक्ट फ़ाइंडिंग पूरी न कर लें.

जब तलक हत्या के विरोध में सैकड़ों कवि
लिख न डालें अपनी अपनी छंद-मुक्त कविताएँ

तब तलक दयनीय बने रहते हैं हत्यारे.

“देखो – सब उन्हें ही घेर रहे हैं.
बुद्धिजीवी, मास्टर, पत्रकार, कवि और मानवाधिकार वाले
सभी हत्यारों को ही दोषी क्यों ठहरा रहे हैं?
यह कहाँ का न्याय है?
आख़िर जो मारा गया – उसका भी तो दोष रहा ही होगा?”

कोई भरी मासूमियत से सवाल करता है कहीं साइबर-स्पेस में
दूसरी आवाज़ एक माननीय सांसद की होती है:
आख़िर शांति-व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी
हत्यारों की ही क्यों होनी चाहिए?

फिर एक टेलीविज़न का एंकर
एत्तेहादुल मुसलमीन के नेता से पूछता है सवाल:
अब मुसलमानों को भी सोचना ही पड़ेगा
कि बार बार वो ही निशाना क्यों बनते हैं?

क्या आप नहीं मानते कि सिमी राष्ट्र-विरोधी है?
फिर आते है बाहर निकलकर हत्यारों के सिद्धांतकार
ले आते हैं आँकड़े निकाल कर पिछले बरसों के
कितने ख़ुदकुश हमलावर मुसलमान थे और कितने थे दूसरे.
चेचन्या से लेकर यमन और सोमालिया और नाइजीरिया तक
गज़ा पट्टी से लेकर सीरिया, इराक़ और ईरान तक
कश्मीर से लेकर हेलमंद तक –
कहीं पर भी तो चैन नहीं है इन लोगों को.

और फिर एक सहनशील समाज
कब तक बना रह सकता है सहनशील?
एक जागरूक समाज में खुलकर चलती है
हत्या के कारण और निवारण पर स्वस्थ बहस
बहुत से तर्क तैयार हैं कि
हत्या हमेशा नाजायज़ नहीं होती
बहुत से लोग सोचने लगते हैं –
अरे, ये तो हमने सोचा ही नहीं.

वकील अदालत में पेश करते हैं मेडिकल रिपोर्ट
मीलार्ड, हत्यारा धीरे धीरे अंधा हो रहा है,
उसके पेट में गंभीर कैंसर पैदा हो गया है,
उसकी माँ मर गई है – अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं.
मीलार्ड, हत्यारे को ज़मानत दी ही जानी चाहिए.
मुस्लिम्स हैव मूव्ड आन, मीलार्ड.
हत्यारा भी तो आख़िर इंसान है.

वैसे भी हत्या को अब बहुत वक़्त हो चुका है.
अब कब तक गड़े मुरदे उखाड़े जाएँ.
अब कब तक चलता रहेगा ब्लेम-गेम?
समाज में समरसता कैसे आएगी अगर
सब मिलजुलकर नहीं चलेंगे, मीलार्ड?

समझदार न्यायमूर्ति सहमति में हिलाते हैं सिर
वो कम्युनिस्टों के प्रोपेगण्डा से, हह, भला प्रभावित होंगे?
न्याय सबके लिए समान है
और सबको मिलना ही चाहिए – चाहे वो हत्यारा ही क्यों न हो.

फ़ैसला आ गया है, हत्यारो !!!
सब नियम ख़त्म हुए,
सब किताबें हुईं बंद,
सभी आलोचनाएँ भी ख़त्म हुईं,
ख़त्म हुई टीवी की बहसें,
ख़त्म सब आलेख और बयान
ख़त्म हुआ कविता लेखन भी.

जब सब ख़त्म हो रहा होता है,
तब फिर से तुम्हारी तरफ़ देखता है ये उदार समाज
हमारी प्राचीनता और हमारी शुद्धता के रक्षकों,
ओ हत्यारो
[http://kabaadkhaana.blogspot.in/ से साभार]

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‘Gandhi’s Empire’ by Ashwin Desai

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The South African Gandhi: Stretcher-Bearer of Empire, the book I co-authored with Goolam Vahed, has elicited widespread comment, mostly by people who have not yet read it. Rajmohan Gandhi, the grandson and biographer of Mohandas Gandhi, writing in The Indian Express (‘Why attacks on Mahatma Gandhi are good’, September 9), says the book contends that “Gandhi disdained black people and supported British imperialism” during his South Africa years. Rajmohan does not deny the allegations, but his main contention is that these issues are not new — which reveals much of his own way of viewing the liberation struggle in South Africa.

Rajmohan is keen to argue that once Gandhi realised that empire was bad (in the 1920s), he became its foe. But what does it say about Gandhi that during his time in South Africa, he saw empire as a benign, if not progressive, force? In Gandhi’s time in South Africa, the British empire was at its acme. The Zulu kingdom had been decimated through plunder and pillage, while taxes forced African men off the land and into gold and diamond mines. Their wives and children were not allowed to accompany them. It was a brutal system.

What did Gandhi have to say about empire at work? One “where all races would be equal”, as Rajmohan says he believed? He could only envision this because he wrote Africans out of history. When he did write about them, it was of the ways in which empire could further exploit and subjugate them. So it is not just a question of Gandhi’s racism and belief in empire, but his view that Indians should be allowed to join whites in this system of racist super-exploitation. As for nursing the sick, his other passion besides empire, Gandhi did not care for those dying in British concentration camps. His ambulance missions were limited to showing loyalty to empire.

Did the empire’s batons have to land on Indian backs before Gandhi realised its falsity in the 1920s? If so, this aggravates the charge that it took assaults upon those occupying the “Aryan” plane of civilisation to jolt him out of this most obvious error. It is like saying that Gandhi did not care about slavery (except for wanting Indians to be allowed their own slaves) because it was limited to Africans, but when Indians were turned into slaves he saw the fault and fought against it. Gandhi took up empire’s cudgels to ensure that Africans were kept in their place. For us, this is what marked Gandhi — his begging to be the stretcher-bearer of empire in South Africa. And when tired of stretcher-bearing, he asked for guns to defend empire against the rebellious natives. Rajmohan goes on to argue that “the younger Gandhi [was] at times ignorant and prejudiced about South Africa’s blacks… especially when provoked by the conduct of black convicts who were among his fellow inmates in South Africa’s prisons”.

“Provoked”? Were their black bodies a provocation, the same provocation that in a brutal racist system landed them in prison? Rajmohan then argues, “the struggle for Indian rights in South Africa paved the way for the struggle for black rights”. In one sentence he writes out the history of African resistance to colonialism that unfolded much before Gandhi arrived on the scene and which he was quite keen to subvert by siding with white colonial power. Rajmohan holds that “on racial equality, … [Gandhi] was greatly in advance of most if not all of his compatriots”. This is a staggering claim. The South African Gandhi accepted white racist minority rule, and openly proposed that Indians and whites were more civilised than Africans, that they were lazy, and that they needed to have more taxes heaped upon them. Of his prison experience, he wrote: “We could understand not being classed with the whites, but to be placed on the same level with the natives seemed too much to put up with.”

Cherry-picking a quote here or there does not nullify this but does say much about Rajmohan’s own blinkers, which allow him to write so glibly about Gandhi’s siding with empire in the subjugation of Africans.

Rajmohan ends on this resounding note: “Some, however, seem to think that they are wiser than (Martin Luther) King or Mandela.” Mandela said many things. He aligned his name with arch-imperialist Cecil John Rhodes. And many have long gotten over the idea that Mandela’s words are gospel. In any case, given his South African prison record, would Gandhi have shared a cell with Mandela or King?

Rajmohan sets out to exculpate Gandhi but ends up revealing much about his own narrow, even racist, lens by arrogating for Indians a vanguard role and rushing over Gandhi’s complicity in the empire’s brutal project at the turn of the 20th century. Once we are clear and honest about this, we can turn our gaze to the false promises of empire and the provocations of Africans.

[The writer is professor of sociology at the University of Johannesburg]
The Indian Express से साभार

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‘The Act of Killing’

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आज से ठीक 50 साल पहले इण्डोनेशिया में एक भीषण कत्लेआम हुआ था। 1965-66 में हुए इस भीषण कत्लेआम में करीब 10 लाख लोग मारे गये थे। यह जनसंहार मुख्यतः केद्रित था- चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी ‘इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी’ अर्थात पीकेआई के खिलाफ। लेकिन इसकी जद में मजदूर यूनियन के सदस्य और बुद्धिजीवी लोग भी थे। बल्कि यो कहे कि इसकी जद में वे सभी लोग थे जो सत्ता से किसी न किसी रुप में अपनी असहमति रखते थे। इस जनसंहार को अंजाम दिया था- सुहार्तो के नेतृत्व वाली इण्डोनेशिया की सेना ने। और बाहर से सहयोग किया था- ‘सीआईए’ (अमरीकी गुप्तचर संस्था) और ‘एमआइ6′ (ब्रिटिश गुप्तचर संस्था) ने। कुछ जानकारों का तो यहां तक कहना है कि इसकी पटकथा दरअसल सीआईए ने ही लिखी थी।
इस भीषण जनसंहार का कारण बहुत साफ था। इण्डोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति सुकर्णो उस वक्त वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ‘पीकेआई’ के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर भूमिसुधार की तैयारी कर रहे थे। और देश की अर्थव्यवस्था को अपने पैरो पर खड़ा कर रहे थे। इसी क्रम में इण्डोनेशिया ने अपने आपको साम्राज्यवादी संस्था ‘IMF’ और ‘WORLD BANK’ से अलग कर लिया था। यह बात न ही वहां के प्रतिक्रियावादियों को पसन्द आ रही थी और न ही साम्राज्यवादियों विशेषकर अमेरिका को। यह दौर ‘शीत युद्ध’ का दौर था और सुकर्णो का झुकाव जाहिर है रुस और चीन की तरफ था।
यह तथ्य भी गौर तलब है कि 1966 में तख्तापलट और भीषण कत्लेआम के बाद जब सुहार्तो ने शासन की बागडोर संभाली तो तुरन्त ही इण्डोनेशिया पुनः IMF और WORLD BANK का सदस्य बन गया और उसे तुरन्त ही एक बड़ा लोन आईएमएफ से मिल गया।

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तब से लेकर आज तक इण्डोनेशिया की मुख्यधारा की मीडिया और अमरीका और दूसरे यूरोपियन देशों की मीडिया के लिए यह एक वर्जित विषय रहा है। इण्डोनेशिया की इतिहास की किताबों में भी इस पर बहुत कम सामग्री है। वहां की किताबों में इस पूरे अभियान को ‘शुद्धीकरण’ का नाम दिया गया है और इसमें मरने वालों की संख्या महज 85000 बतायी गयी है।
लेकिन 2012 में आयी आस्कर नामांकित फिल्म ‘दि एक्ट आॅफ किलिंग’ ने इसी वर्जित क्षेत्र में प्रवेश किया है। और विशेषकर यूरोपियन दर्शकों को यह बताने की कोशिश की है कि नाजी जनसंहार के अलावा भी ऐसे कई जनसंहार है जो अभी हमारी स्मृति का हिस्सा नही बने हैं।
फिल्म के निर्देशक ‘जोसुआ ओपनहाइमर’ इस फिल्म के लिए पहले उन लोगो के पास गये जो इस जनसंहार के पीडि़त है। अर्थात जिनके परिवार का कोई ना कोई व्यक्ति उस कत्लेआम में मारा गया है। उनसे बात करते हुए उन्होने पाया कि इतने सालों बाद भी वह डर और आतंक कायम है। प्रभावित क्षेत्रों के हर गांव में सेना की टुकड़ी अब भी बनी हुई है जो हर आने जाने वालों पर नज़र रखती है। इसलिए सबने अपने गम और गुस्से का इजहार तो किया लेकिन कोई भी कैमरे पर आने को तैयार नही था। फिर फिल्म कैसे बनेगी? फिर उन्ही पीडि़त लोगों में से कुछ ने इसका क्लू भी दिया। उन्होने फिल्मकार को बताया कि घटना को अंजाम देने वाले लोगो में विशेषकर ‘डेथ स्क्वैड’ के लोग आज भी खुलेआम घूम रहे हैं और उन्हे नेशनल हीरो का दर्जा मिला हुआ है। और उनमें से कुछ किसी फिल्म में काम करने को व्याकुल हैं। यदि उन्हे कैमरे पर आकर अपने पिछले कामों का कच्चा चिट्ठा देने का प्रस्ताव दिया जाय तो शायद वे तैयार हो जाये, क्योकि उन्हे किसी का डर नही और अपने किये का पछतावा भी नही।
इस भीषण जनसंहार को अंजाम देने वालो से मिलना और उनसे इस विषय पर बात करना फिल्म के निर्देशक जोसुआ ओपनहाइमर के लिए बेहद खतरनाक था। लेकिन जोसुआ ओपनहाइमर ने इस खतरे को मोल लिया। और एक के बाद उस समय के कई ‘डेथ स्क्वैड’ सदस्यों से मिले और उनमें से कइयों ने कैमरे के सामने बकायदा एक्टिंग करके बताया कि उन्होने कैसे लोगो को मारा है। इसके लिए उन्होंने मेकअप-कास्ट्यूम आदि का भी सहारा लिए। दृश्य में जान डालने के लिए आपस में ही पीड़ित की भूमिका भी निभायी। दरअसल यह एक तरह से ‘फिल्म के अन्दर एक फिल्म’ है। इसके कुछ वर्णन बहुत ही डिस्टर्ब करने वाले हैं।
फिल्म के मुख्य चरित्र ‘अनवर कांगो’ (जो उस वक्त ‘डेथ स्क्वैड’ का लीडर था और जिसने अपने हाथो से हजारो लोगो को मारा था) बताता है कि परंपरागत तरीके से मारने पर बहुत खून बहता था। इससे बाद में काफी सफाई करनी पड़ती थी। इससे हम कम लोगो को मार पाते थे। फिर हमने एक ऐसी तकनीक निकाली जिससे खून एकदम नही बहता था और मारने में समय भी कम लगता था। इसके बाद हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को मार सके। फिर वह फिल्मकार को अपने घर की छत पर ले गया और बकायदा एक्टिंग करके बताया कि इसी छत पर उसने पतले तार की अलगनी बनाकर कैसे ज्यादा से ज्यादा लोगो को मारा है।
फिल्म के प्रत्येक दृश्य के शूट को ये लोग देखते थे और अपनी और दूसरे की एक्टिंग पर बकायदा कमेन्ट करते थे। लेकिन किसी ने भी अपने किये पर पछतावा व्यक्त नही किया। लेकिन फिल्म का अंत आते आते अनवर कांगो अपने द्वारा अभिनीत दृश्यों को देखकर विचलित हो जाता है और उसे अहसास होता है उसने गलत किया। उसने निर्दोष लोगो को मारा है और किसी के हाथ की कठपुतली बन गया था। उसे अपने किये का पछतावा होता है और वह कैमरे के सामने ही रोने लगता है। कुछ समीक्षकों ने इस दृश्य को फिल्म का सबसे सशक्त दृश्य माना है तो कुछ का कहना है कि इतने जघन्य कृत्यों को अंजाम देने वाले एक व्यक्ति के पछतावे को दिखाकर इसने दर्शकों के अन्दर पनप रहे गुस्से पर पानी का छींटा डालने का प्रयास किया है और इससे फिल्म की धार कमजोर हो जाती है। उनके अनुसार इस हिस्से को हटा देना चाहिए था। खैर इसका फैसला मै आप पर छोड़ती हूं। लेकिन अनवर कांगो का पछतावा कला के एक बुनियादी सिद्धांत की तरफ इशारा करता है कि किसी भी कला की प्रक्रिया अपने भागीदार में कुछ न कुछ बदलाव जरुर करती है। अक्सर यह बदलाव इतना बारीक होता है कि इसे रेखांकित करना मुश्किल होता है। लेकिन कभी कभी यह बदलाव बहुत बुनियादी होता है जैसा कि अनवर कांगो के मामले में हुआ।
खैर फिल्म काफी सशक्त है और डिस्टर्ब करने वाली है। फिल्म का कमजोर पहलू यह है कि इस जघन्य जनसंहार की पीछे की मुख्य ताकत और उसकी राजनीति पर से यह पर्दा नही उठाती। इसलिए जिन्हे इसका संदर्भ नही पता वे इस फिल्म को उसके सही परिप्रेक्ष्य में नही रख पायेंगे।
सच तो यह है कि लगभग सभी ताकतवर सत्ताओं के अपने अपने जनसंहार हैं। यह अन्तर्राष्ट्रीय समीकरणों पर निर्भर करता है कि किस पर चर्चा होगी और किस पर चुप्पी बरती जायेगी।
इस फिल्म की सफलता से प्रभावित होकर जोसुआ ओपनहाइमर इसी विषय पर एक दूसरी फिल्म भी बनाई है- ‘Look of Silence’. यह फिल्म पिछले माह की 17 जुलाई को रिलीज़ हुई है और इसे भी काफी अच्छा रेस्पॉन्स मिला है।

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‘मसान’ के बहाने…………….

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जब हम ऐसी फिल्मों से घिरे हुए होते है जिनमें ‘24 झूठ प्रति सेकेण्ड’ दिखाया जाता है तो ‘मसान’ जैसी फिल्में हमें वैसा ही सकून देती है जैसे उमस के मौसम में बारिश की फुहार। ऐसी फिल्में कला व यथार्थ के फर्क को काफी हद तक पाट देती है। लगता है कि आम जीवन, उनके संघर्ष व उनकी चिन्ताएं भी फिल्म के केन्द्र में हो सकती हैं। हालांकि भारत में ऐसी फिल्मों की एक समृद्ध परंपरा रही है। लेकिन पिछले करीब दो दशकों से यह परंपरा काफी कमजोर हुई है। क्षेत्रीय भाषाओं में तो फिर भी यह परंपरा किसी ना किसी रुप में कमोवेश जारी रही है, लेकिन हिन्दी में तो स्थिति काफी बुरी रही है।
बहरहाल ‘मसान’ का प्लाट काफी जटिल है। इसमें जाति का सवाल है। महिला के अपने निर्णय व अधिकार का सवाल है। निम्न वर्गीय व मध्यवर्गीय पीढ़ी के एक हिस्से और प्रभावी सामाजिक संरचना के बीच अन्तरविरोध का सवाल है। पुलिस की अमानवीय कार्यप्रणाली एवं उसके निर्मम भ्रष्टाचार का सवाल है। हां इसमें एक पात्र बनारस भी है। लेकिन अब तक फिल्मों में जिस बनारस को हम देखते आये हैं वह यहां नही है। यहां बनारस अपने मिथकीय रुप में नही बल्कि उसके ‘एण्टी थीसिस’ के रुप में है और उसका प्रमुख हिस्सा वहां का ‘श्मसान घाट’ है। जहां जलती लाशों की आग में मानों उसके सभी मिथकीय रुप नष्ट हो गये हों। ‘रिचा चड्ढा’ और ‘संजय मिश्रा’ के अलावा सभी पात्र लगभग नये है। जिससे कहानी में एक अलग ताजगी का अहसास होता है। स्क्रिप्ट काफी चुस्त है और आपको पहले ही दृश्य से अपने साथ बांध लेती है।
फिल्म की शुरुआत से ही जैसे जैसे इसके मुख्य चरित्रों का विकास होता है सामाजिक यथार्थ के साथ इनका तनाव भी बढ़ता जाता है। इस तनाव में दर्शक भी हिस्सेदार होता है और उसकी जिज्ञासा बढ़ती जाती है कि ये चरित्र यथार्थ के चौखटे को कैसे तोड़ते हैं। सिनेमा की भाषा में कहें तो निर्देशक का यथार्थ के साथ ‘इनगेजमेन्ट’ किस तरह का होता है। लेकिन अफसोस कि फिल्म यहीं जाकर औंधे मुंह गिर जाती है। ‘डोम’ जाति के लड़के और ‘गुप्ता’ जाति की लड़की के बीच का प्रेम सामाजिक तानेबाने से टकराने से पहले ही खत्म हो जाता है क्योकि केदारनाथ जाते हुए बस खाई में गिर जाती है और लड़की की मौत हो जाती है।
आपने ऐसी कहानियां जरुर सुनी होंगी जहां पात्र अपने लेखक से विद्रोह कर बैठते है और लेखक की योजना के खिलाफ अपना मार्ग खुद तय करते है। मुझे लगता है इस फिल्म में भी शालू पात्र को अपने लेखक और निर्देशक के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए था। और अपने प्रेम को अंजाम तक पहुंचाना चाहिए था। अंजाम अच्छा हो या बुरा, यह महत्वपूर्ण नही है। महत्वपूर्ण है यथार्थ के साथ कलाकार की मुठभेड़। इस मुठभेड़ से बचने के लिए ही शालू को मारा गया है।
कमोवेश देवी के चरित्र के साथ भी ऐसा ही होता है। वह ‘छोटे शहर के लोगों की छोटी सोच’ से बाहर निकल जाना चाहती है। वह अपने पुरुष मित्र के साथ एक होटल में जिज्ञासा वश सेक्स सम्बन्ध बनाती है और उसे इसका कोई अफसोस नही है। वह मजबूत व स्वाभिमानी लड़की है। लेकिन उसके सामने ही पुलिस का आदमी हर महीने उसके पिता से 1लाख रुपये इस लिए ले जाता है कि उसके पास उसी होटल का देवी का एक वीडियो है, जिसे वह यूट्यूब पर डालने की धमकी देता है। पता नही लेखक और निर्देशक इस चीज को कैसे देखते हैं। इसके प्रति देवी की चुप्पी परेशान करती है। यहां तक कि वह नौकरी करके घूस की इस रकम का जुगाड़ करने में अपने पिता की मदद भी करती है। वह तमाम चीजों पर अपने पिता से जिरह करती है। उन पर यह आरोप भी लगाती है कि उनकी मां के प्रति उदासीनता के कारण ही उसकी मां की मृत्यु हुई। लेकिन पुलिस के इस शोषण पर कुछ नही बोलती। फिल्म के अन्त में देवी का पिता पुलिस को तय हुई रकम यानी 3 लाख की अन्तिम किस्त चुकाता है और उधर देवी बनारस छोड़कर इलाहाबाद सेटल होने के लिए आ जाती है। यहीं पर एक दृश्य बहुत महत्वपूर्ण है और उसे बहुत ही कौशल के साथ फिल्माया गया है। दरअसल उसके पुरुष मित्र (जिसने उसी समय होटल में पुलिस की रेड के समय बदनामी के डर से आत्महत्या कर ली थी) का घर इलाहाबाद में ही है। देवी एक बार वहां जाकर उसके मां बाप से मिलना चाहती है। कैमरा एक जगह घर के सामने थोड़ी दूरी पर स्थिर है। देवी अन्दर जाती है, अन्दर से एक आदमी (जाहिर है लड़के का पिता) के जोर जोर से चिल्लाने की आवाज आती है और देवी घर से रोते हुए लगभग भागते हुए बाहर आती है। यहां भी कोई ‘क्लोजअप’ नही है। और यह बेहद कठिन दृश्य आसानी से संम्प्रेषित हो जाता है।
इसी मनःस्थिति में वह इलाहाबाद के संगम घाट पहुचती है और उसकी मुलाकात विवेक (जो शालू की मौत के बाद फिर से अपने को संभालता है और इलाहाबाद आकर रेलवे की नौकरी ज्वाइन करता है और दोबारा अपनी जिन्दगी शुरु करता है।) से होती है। और यहीं पर एक प्रतीकात्मक डायलाग के साथ फिल्म समाप्त हो जाती है।
कई संभावनाएं परिपक्व होने से पहले ही मुरझा जाती हैं। मशहूर फिल्म समीक्षक ‘Jay Weissberg’ ने सही कहा है कि इस फिल्म में काफी संभावना थी जिसे निर्देशक चरितार्थ नही कर पाया।
यह संयोग ही था कि ‘मसान’ देखने के साथ ही मैने ‘हंस’ के अगस्त अंक में एक बेहतरीन कहानी पढ़ी-‘अवधेश प्रीत’ की ‘चांद के पार एक चाभी’। इसमें भी एक मुशहर जाति के लड़के और एक ब्राहमण लड़की की अनछुई सी प्रेम कहानी है। और इस कहानी के इर्द गिर्द वो सामाजिक-राजनीतिक ताना बाना है जिससे टकराकर अब तक ना जाने कितनी ही प्रेम कहानियों ने दम तोड़ा होगा। लेकिन ‘मसान’ के विपरीत यह कथा अपने यथार्थ से टकराती है और उसकी कीमत भी चुकाती है। लेकिन इसी प्रक्रिया में वो जमीन तैयार होती है जिसके कारण आने वाले समय में प्रेम कहानियों की संख्या कम होने की बजाय और बढ़ेगी ही।
फिल्म में यथार्थ के साथ कैसा ‘ट्रीटमेन्ट’ होगा यह कमोवेश निर्देशक की यथार्थ के प्रति अपनी दृष्टि से तय होता है। ‘मसान’ के निर्देशक ‘नीरज घावन’ ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि वे व्यक्ति के नैतिक व उसके अस्तित्व के संकट को दिखाना ज्यादा पसंद करते है बनिस्पद कि उसके सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को। नीरज ने आस्ट्रेलिया के मशहूर डायरेक्टर ‘माइकल हानके’ को अपना आदर्श बताते हुए उनकी फिल्मों के भी उदाहरण दिये जो मजदूर वर्ग के नैतिक व अस्तित्ववादी संकट को सामने लाती है। माइकल हानके तो साफ साफ कहते हैं कि यथार्थ क्या है उन्हे नही पता। उनके अनुसार किसी भी फिल्म की अच्छी व बुरी सभी व्याख्याएं सही होती है। उनके अनुसार फिल्म इस तरह बनानी चाहिए कि लोग उसकी अपने अपने हिसाब से मनमानी व्याख्या कर सके।
यथार्थ के प्रति यह उत्तर-आधुनिक नजरिया ही कला की संभावना को परिपक्व होने से पहले ही मार देता है। और इसी नजरियें के कारण हम यथार्थ से मुठभेड़ नही करते बल्कि उसके कैदी हो जाते हैं। ‘एडुवार्डो गैलियानों’ के शब्दों में कहें तो यथार्थ को हम अपनी नियति बना लेते हैं। यह लिखते हुए मुझे सेनेगल के मशहूर डायरेक्टर ‘उस्मान सम्बेन’ की फिल्म मूलादि याद आ रही है। यह फिल्म भी अफ्रीका की एक सामाजिक समस्या को उठाते हुए पहले ही दृश्य से एक तनाव पैदा कर देती है। लेकिन यह तनाव ‘स्क्रिप्ट के मैनुपुलेशन’ में खत्म नही होता (जैसा कि मसान में हुआ) बल्कि यह तनाव यथार्थ के साथ मुठभेड़ का कारण बनता है। और इस मुठभेड़ से पैदा हुआ नया यथार्थ फिल्म को वो गति प्रदान करता है जिसे हम सब अपने जीवन में अनेक बार महसूस करते हैं। दरअसल यही गति जीवन की भी असली गति है यानी यथार्थ-मुठभेड़-नया यथार्थ-नयी मुठभेड़…………………..।
यहां यह जोड़ना भी जरुरी है कि हमारे ज्यादातर युवा फिल्मकार यूरोप के सिनेमा से खासे परिचित है और उससे प्रभावित भी हैं। लेकिन अफ्रीका, लैटिन अमरीका व एशिया के छोटे देशों व फिलस्तीन के सिनेमा को आमतौर पर ये युवा जाने अनजाने नजरअंदाज करते हैं। जबकि ज्यादातर असली सिनेमा यहीं घटित हो रहा है। यहां की फिल्में व्यक्ति के नैतिक व अस्तित्ववादी संकट को उसके सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में रख कर देखती हैं और कमोवेश इस पृष्ठभूमि से टक्कर भी लेती है। भारत के लिए इन फिल्मों की समसामयिकता कही ज्यादा है बनिस्पद यूरोप व अमेरिका की फिल्मों के।
फिल्म की एक मजेदार विडंबना यह है कि इसकी तारीफ इस लिए भी हो रही है कि यह फिल्म ज्यादातर रियल लोकेशन पर शूट की गयी है। और जलते हुए श्मशान घाट के दृश्य की सभी लोग चर्चा कर रहे है। लेकिन यही दृश्य रीयल लोकेशन पर शूट नही हुआ है।

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Geoengineering, Genetic engineering and Weather warfare

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पिछले दिनों खबर आयी कि महाराष्ट्र सरकार सूखे से निपटने के लिए कृत्रिम बारिश कराने जा रही है। इसके लिए उसने आवश्यक तकनीक भी आयात कर ली है। जिसका दाम निश्चित ही लाखों डालर में होगा। आपको शायद याद होगा कि बीजिंग ओलंपिक में चीन ने ‘क्लाउड सीडिंग’ तकनीक के माध्यम से ओपनिंग सेरेमनी से पहले ही बारिश करा दी थी ताकि सेरेमनी के दौरान बारिश का खतरा ना रहे। उस समय भी इस तकनीक की काफी चर्चा हुई थी।
प्राकृतिक घटनाओं की तरह ही न्यूज भी कार्य-कारण सम्बन्ध में बंधे होते हैं। उन्हे अलग अलग करके नहीं देखा जा सकता। हर समाचार किसी दूसरे समाचार से इसी रुप में जुड़ा होता है।
चलिए उपरोक्त सामान्य से लगने वाले समाचार को दूसरे समाचारों से जोड़ कर देखते हैं।
इस तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ सरकारें ही नहीं बल्कि प्राइवेट कंपनियां भी अपने हित में कर रही हैं। ऐसी ही एक कंपनी ‘अग्नि एरो’ ने ‘हिन्दोस्तान जिंक’ और ‘वेदान्ता’ के लिए राजस्थान में इनके साइट पर बारिश कराने का ठेका लिया हुआ है। महत्वपूर्ण बात है कि इस तकनीक में दूसरी जगह से बादल को खींच कर लाया भी जा सकता है और मनचाही जगह बारिश करायी जा सकती है। अब हम आप इसकी कल्पना ही कर सकते हैं कि वेदान्ता के साइट पर बारिश कराने के लिए किस-किस गांव के खेतों के ऊपर से बादलों को खींचा जायेगा। अब यह साइन्स फिक्शन की बात नही रही। यह यथार्थ बन चुका है। यह बात अलग है कि हमारे मुख्य धारा के मीडिया के लिए इसकी कोई ‘न्यूज वैल्यू’ नही हैं।
कमजोर मानसून से हम और हमारा किसान दुःखी होता हैं। लेकिन क्लाउड सीडिंग (कृत्रिम बारिश) कराने वाली एक कम्पनी ‘क्याथी’ (इसका प्रमुख अमेरिकी कम्पनी ‘वेदर माडिफिकेशन’ के साथ गठजोड़ है।) के डायरेक्टर ‘प्रकाश कोलीवाड’ का यह बयान देखिये- ‘‘कमजोर मानसून और क्लाउड सीडिंग की बेहतर तकनीक और लोगो की सजगता के कारण हमारा बिजनेस इस बार काफी अच्छा रहेगा। हमें उम्मीद है कि हमारा बिजनेस इस वर्ष 20-25 प्रतिशत तक बढेगा।’’
क्लाउड सीडिंग तकनीक से बारिश कराने का पहला दर्ज प्रयोग अमेरिका ने किया। लेकिन किसी खेत को सींचने के लिए नही बल्कि वियतनाम के गुरिल्लों को बारिश की बाढ़ में बहा देने के लिए। यह अलग बात है कि अमेरिका की इस बारिश में वे तो नही बहे लेकिन उनके गुरिल्ला संघर्षों की बारिश से अमरीका जरुर बह गया। खैर
क्लाउड सीडिंग, ‘वेदर माडिफिकेशन’ तकनीक का एक छोटा हिस्सा भर है। सच तो यह है कि वेदर माडिफिकेशन अपने आपमें एक वृहद प्रोजेक्ट है। वास्तव में यह जीओ इंजीनियरिंग (Geo Engineering) के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध है। इस पर इस समय अब तक की सबसे बड़ी रिसर्च चल रही है। और हमेशा की तरह इसका अगुआ भी अमरीका ही है। कुछ लोग तो इसे ‘‘मैनहटन प्रोजेक्ट-2’’ (पहले मैनहटन प्रोजेक्ट मे परमाणु बम बनाया गया था।) की संज्ञा दे रहे हैं। पहले मैनहटन प्रोजेक्ट की तरह ही यह प्रोजेक्ट भी काफी गुप्त रखा गया है। आपको पता ही होगा कि परमाणु बम गिराने के बाद भी काफी समय तक अमरीका ने दुनिया से यह छुपाया कि यह परमाणु बम था। बहरहाल इस प्रोजेक्ट को ‘अमरीकी नेवी’ और ‘अमरीकी एयर फोर्स’, प्राइवेट डिफेन्स कम्पनियों के साथ मिलकर चला रही हैं। इसमें ‘रेथान’ (Raytheon) जैसी डिफेन्स सेक्टर की बड़ी प्राइवेट कम्पनियां हिस्सा ले रही है। इसके अलावा इनसे सम्बन्धित रिसर्च प्रोजेक्ट में ‘बिल गेट्स’ और ‘वारेन बफेट’ जैसे निवेशकों का काफी पैसा लगा हुआ है और ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ (Genetic Engineering) के क्षेत्र में कार्यरत ‘मोनसान्टो’ जैसी कुख्यात कम्पनियां भी इससे नाभिनाल बद्ध हैं।
आइये देखते हैं कि पूरा परिदृश्य क्या है।
‘ग्लोबल वार्मिंग’ के बढ़ते खतरे को देखते हुए पूरी दुनिया में इस पर चिन्ता जाहिर की जाती रही है। इस पर बड़े बड़े सेमीनार होते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी इससे निपटने के लिए समय समय पर कई रणनीतियां बनायी हैं। उनमें से एक है -‘क्योटो प्रोटोकाल’। 1992 में हुए इस करार पर अनेक देशों के हस्ताक्षर है, जिनकी प्रतिबद्धता है कि वे ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार गैसों का उत्सर्जन कम करेंगे। मजेदार बात है कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार देश अमरीका ने इस पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया।
अमरीका ने इसी समय दुनिया को बताया कि वह ऐसी तकनीक पर काम कर रहा है जिससे उद्योगों से बिना गैसों का उत्सर्जन कम किये भी ग्लोबल वार्मिंग को कम किया जा सकता है। इसमें से एक है- हमारे वायुमंडल के ऊपरी हिस्से (Ionosphere) में सूक्ष्म धातुओं (आमतौर से ‘अल्युमिनियम’-‘बेरियम’ के नैनो पार्टिकिल्स) का राकेटों या जेट के द्वारा छिड़काव। ये सूक्ष्म कण सूर्य से आने वाली किरणों की एक बड़ी मात्रा को वापस रिफलेक्ट कर देगे और जिससे सूर्य की गरमी नीचे नही पहुंच पायेगी और पृथ्वी गरम नही होगी। आपने अक्सर आकाश में जहाज के पीछे सफेद धूयें की एक लंबी लकीर सरीखी देखी होगी। इसके बहुत से कारण हो सकते है। लेकिन इसका एक बड़ा कारण अमरीका व उसके सहयोगी देशों का यह प्रयोग भी है। इसे ही ‘केमट्रेल’ (Chemtrail) कहते है यानी वायुमंडल के ऊपरी हिस्से (Ionosphere) में अल्यूमिनियम व बेरियम जैसे तत्वों का छिड़काव।
लेकिन दुनिया के बहुत से जनपक्षधर व गंभीर वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग की बात एक बहाना है। अमेरिका इसकी आड़ में ‘वेदर माडिफिकेशन’ या ‘जीओ इंजीनियरिंग’ तकनीक का इस्तेमाल अपने सैन्य हितो के लिए कर रहा है। और अब यह प्रयोग की स्थिति से निकल कर क्रियान्वयन की स्थिति मे पहुंच गया है। अब प्रयोग ‘वेदर माडिफिकेशन’ पर नही बल्कि ‘वेदर कन्ट्रोल’ पर क्रेद्रित हो गया है। और यह सब बहुत ही गुपचुप तरीके से हो रहा है। ठीक उसी तरह जैसे परमाणु बम का निर्माण बहुत गुपचुप तरीके से हुआ था।
यह बात और भी साफ हो गयी जब 1996 में अमरीकी रक्षा मंत्रालय ने एक दस्तावेज जारी किया-‘Weather as a Force Multiplier: Owning the Weather in 2025’ जैसा कि नाम से स्पष्ट है इसमें 2025 तक पृथ्वी के वायुमंडल और उसके मौसम पर अमरीका के पूर्ण नियत्रण के लिए वैज्ञानिक विधियों की एक रुपरेखा चित्रित की गयी है, जिस पर काम किया जाना है। इस नियंत्रण के असली निहितार्थो के बारे में भी इस दस्तावेज में पर्याप्त संकेत दिया गया है। दस्तावेज में एक जगह साफ साफ लिखा है-‘‘आर्थिक व सैन्य कारणों से वेदर में माडिफिकेशन करने की योग्यता की जरुरत पड़ सकती है।’’ अमरीका के आर्थिक व सैन्य हित क्या है, यह किसी से छिपा नही है। एक दूसरी जगह वेदर कन्ट्रोल के असली निहितार्थ को काफी खोल कर रखा गया है। इसका अनुवाद मुश्किल हो रहा है। इसलिए इसे मूल अंग्रेजी में ही दे रही हूं-‘‘ Prior to the attack, which is coordinated with forecasted weather conditions, the UAVs begin cloud generation and seeding operations. UAVs [unmanned aerial vehicles] disperse a cirrus shield to deny enemy visual and infrared (IR) surveillance. Simultaneously, microwave heaters create localized scintillation to disrupt active sensing via synthetic aperture radar (SAR) systems such as the commercially available Canadian search and rescue satellite-aided tracking (SARSAT) that will be widely available in 2025. Other cloud seeding operations cause a developing thunderstorm to intensify over the target, severely limiting the enemy’s capability to defend. The WFSE monitors the entire operation in real-time and notes the successful completion of another very important but routine weather-modification mission.’’ (उपरोक्त दोनो उद्धरण प्रसिद्ध पर्यावरण विद् और लेखक Peter A. Kirby के लेख ‘Chemtrails Exposed: A History of the New Manhattan Project’
से)
1992 में अमरीका के अलास्का शहर में HAARP (The High Frequency Active Auroral Research Program) की स्थापना उपरोक्त प्रोजेक्ट के तहत ही हुई थी जो अब पूरी तरह से सक्रिय है। इसकी स्थापना का ठेका डिफेन्स सेक्टर की सबसे बड़ी कम्पनी रेथान (Raytheon) को ही मिला था। यह 360 एन्टीना वाला एक ग्रिड है जहां से पृथ्वी के आयनोस्फीयर (वायुमंडल का ऊपरी हिस्सा) के किसी भी हिस्से को ‘हाई फ्रिक्वेन्सी इलेक्ट्रोमैगनेटिक रेज’ भेजकर गर्म किया जा सकता है और उससे अनुकूल परिणाम निकाले जा सकते है। वातावरण के ऊपरी हिस्से में सूक्ष्म तत्वो का छिड़काव भी वास्तव में इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। ग्लोबल वार्निंग तो बस बहाना है।
globalresearch.ca के संपादक और दुनिया के बड़े जन-बुद्धिजीवी ‘माइकल चसोदवस्की’ तो यहां तक कहते हैं कि पिछले 2 दशकों में दुनिया में मौसम जिस तेजी से बदल रहा है, उसका एक प्रमुख कारण अमेरिका व सहयोगी देशों की यह जीओ इंजीनियरिंग हैं। पिछले 2 दशकों में जितने भी भूकंप, सूनामी, बाढ़, सूखा आदि आये है, उनमें से कुछ इन प्रयोगों के कारण हुए है। वो तो यहां तक कहते हैं कि उनमें कुछ अमरीकी ने अपने राजनीतिक व आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए सचेत तरीके से कराये है। इसमें वे क्यूबा, अफगानिस्तान, ईरान, उत्तरी कोरिया, ईराक, चीन और कुछ अफ्रीकी देशों में आयी विपदाओं का विशेष हवाला देते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि उपरोक्त सभी देश अमरीका के किसी ना किसी रुप में विरोधी रहे हैं या हैं। इसी कारण माइकल चासुदोवस्की वर्तमान जीओ इंजीनियरिंग को ‘‘वेदर वारफेयर (weather warfare)’’ की संज्ञा देते हैं। वे यह महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं कि वर्तमान में जो भी पर्यावरण आन्दोलन है वो जलवायु परिवर्तन के कारण को सिर्फ ग्लोबल वार्मिंग तक देख पाता है। उसने अपने एजेण्डे में अभी तक इस ‘वेदर वारफेयर’ या ‘जीओ इंजीनियरिंग’ को नहीं रखा है।
सच तो यह है कि अब साम्राज्यवाद के निशाने पर सिर्फ ओजोन लेयर ही नही है बल्कि हमारी पूरी पृथ्वी है। इसलिए पर्यावरण आन्दोलन के दायरे को अब बढ़ाना चाहिए।
बहरहाल माइकल चासुदोवस्की कोई वैज्ञानिक नही हैं। इसलिए हम शायद उनकी बातों को नजरअन्दाज कर दें। हालांकि उनके अध्ययन विभिन्न वैज्ञानिक शोधो पर ही आधारित हैं। लेकिन अमरीका की मशहूर वैज्ञानिक और पर्यावरण एक्टिविस्ट Dr. Rosalie Bertell (‘आइनोस्फीयर रैडियेशन’ पर ही इनका काम है और ये अमरीकी की कई सरकारी शोध संस्थाओं से जुड़ी रही हैं।) की बातों को हम कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। 2010 में दिये एक साक्षात्कार में (जून 2012 में इनकी मृत्यु हुई) उन्होने कहा-‘‘पिछले 60 साल के प्रयोगों से वेदर माडिफिकेशन की तकनीक विकसित हुई है। और अब हम देख रहे हैं कि कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ लोग इसका इस्तेमाल कर रहे है। निश्चित रुप से सभी तूफान (hurricane) मानव निर्मित नही हैं। लेकिन कुछ निश्चित रुप से हैं। और दोनों का अन्तर बताना मुश्किल है। इसी तरह सभी भूकम्प मानव निर्मित नहीं है लेकिन कुछ हैं। चीन में आया एक भूकम्प निश्चित रुप से कराया गया हैं। इसमें हजारों लोग मारे गये हैं। मुझे तिथि याद नहीं है, लेकिन यह 1980 के दशक में कभी हुआ था। यह बहुत भयंकर घटना थी, इसमें भूकम्प के पहले ऊपर प्लाज्मा का निर्माण हुआ था।’’ (25 मार्च 2014 को globalresearch.ca पर प्रसारित साक्षात्कार से)।
Rosalie Bertell ने इसी साक्षात्कार में कृत्रिम भूकम्प पैदा करने की तकनीक भी बहुत सरल तरीके से समझायी। इलेक्ट्रोमैगनेटिक वेव के माध्यम से पृथ्वी के मोल्टेन कोर (molten core) को डिस्टर्ब करके ऐसा किया जा सकता है। और HAARP के पास यह तकतीक है। दरअसल आयनोस्फीयर को गरम करने के लिए जो उच्च फ्रिक्वेन्सी वाली इलेक्ट्रोमैगनेटिक वेव भेजी जाती हैं वे वापस निम्न फ्रिक्वेन्सी वाली इलेक्ट्रोमैगनेटिक वेव के रुप में पृथ्वी पर वापस लौट आती है और जीवित-निर्जीव सभी चीजो को भेदकर पृथ्वी के अन्दर समा जाती हैं। इससे भी पृथ्वी के अन्दर हलचल पैदा होने की संभावना होती हैं। अमरीका और निजी कंपनियां इसका इस्तेमाल पृथ्वी को स्कैन करने के लिए करते हैं ताकि पृथ्वी के अन्दर तेल, गैस व अन्य खनिज चीजों का पता लगाया जा सके। लेकिन पौधों व जीवित प्राणियों पर इन तरंगों का बहुत ही गंभीर असर होता हैं। मनुष्यों में बढ़ रही ‘न्यूरोलाजिकल समस्या’ और कैंसर का इससे गहरा रिश्ता है। इस पर अनेक शोध मौजूद है।
2012 में इण्डोनेशिया में आयी सूनामी के बारे में बहुत से वैज्ञानिकों का मानना है कि इसी समय इण्डोनेशिया के निकट समुद्र में अमरीका अपना यही प्रयोग कर रहा था, जिसके कारण समुद्र के अन्दर पैदा हुए डिस्टर्बेन्स से यह भारी तबाही आयी। 2011 में जापान में आये विनाशकारी भूकंप के बारे में भी कुछ जानकार अमरीका पर सन्देह करते हैं। (इस भूकंप के कारण जापान का एक परमाणु रिऐक्टर तबाह हो गया और लाखों जापानी नागरिक विकिरण के दायरे में आ गये।) गौरतलब है कि अमरीका जापान के ईरान के प्रति दोस्ताना रुख से नाराज था। जापान ईरान को उसके परमाणु कार्यक्रम में भी मदद कर रहा था। 2010 में हैती में आये विनाशकारी भूकम्प के बारे में भी यही सन्देह है क्योकि हैती के निकट भी अमरीका ऐसे ही एक प्रयोग में लगा हुआ था। लेकिन विज्ञान पर कुछ देशों और कम्पनियों के एकाधिकार के कारण इसे ठीक ठीक साबित कर पाना बहुत कठिन हैं।
पूंजीवाद का विनाश के साथ गहरा रिश्ता है और अक्सर ही विनाश पूंजीवाद के लिए मुनाफा लेकर आता है। नोमी क्लेम ने इस रिश्ते को अपनी किताब ‘शाक डाक्ट्रिन’ में बहुत ही बेबाक तरीके से रखा है।
इस वेदर माडिफिकेशन के माध्यम से सम्बन्धित देशों के जलवायु में जो हानिकारक परिवर्तन हुए है उससे अमरीकी कम्पनियां सीधे सीधे लाभान्वित हुई है। इसलिए इन कम्पनियों की भी भूमिका ‘वेदर वारफेयर’ में जरुर होगी। हालांकि हमारे पास इसके स्पष्ट साक्ष्य नहीं हैं लेकिन ‘परिस्थितिजन्य साक्ष्य’ काफी मात्रा में मौजूद हैं। अफगानिस्तान में 1999-2000 में भीषण अकाल पड़ा और अमेरिका 2001 में अफगानिस्तान पर हमले के तुरन्त बाद अफगानिस्तान को जो ‘खाद्य मदद’ दी उसमें बड़ी मात्रा मोन्सान्टों द्वारा पैदा जीएम (genetically modified) अनाज या जीएम बीज था। इस भीषण अकाल में अफगानिस्तान के बहुत से परंपरागत बीज नष्ट हो गये और उन्हे जीएम बीज पर लगातार निर्भर होना पड़ रहा है। इस प्रक्रिया में वहां छोटे और लघु किसान किस मात्रा में बर्बाद हो गये, इसका कोई आकड़ा फिलहाल मौजूद नही हैं। अपने देश में विदर्भ के लगातार सूखे के बाद ही मोन्सान्टो का ‘बीटी काटन’ लाया गया और कहा गया कि ये बीज अकाल प्रतिरोधी हैं। यानी इन्हे बहुत कम पानी की जरुरत है। और नतीजा आप जानते है कि पिछले दशक भर में इन बीजों ने कितने किसानों की जान ली है। किसानों की आत्महत्या का आकड़ा लाख पर चुका था। और यह आज भी बदस्तूर जारी है। इसी तरह से इराक और अफ्रीका के कई देशों में भी अकाल या बाढ़ के बाद वहां जीएम बीज या जीएम खाद्य पहुंचाये गये। और कालान्तर में ये सभी देश अपने खाद्यान्य के लिए इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर निर्भर हो गये। यह महज संयोग नही हो सकता कि इसी समय मोन्सान्टो जैसी कम्पनियां अपने यहां ऐसे जीएम बीज तैयार कर रही हैं जो बाढ़ और सूखे के प्रति प्रतिरोधक हों । एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय अमरीका और ब्रसेल्स में करीब 500 ऐसे जेनेटिकली माडिफाइड बीज पेटेन्ट पाने की कतार में हैं, जिनके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि ये बाढ़ और सूखे दोनो मौसम में पूरी फसल देंगी।
यानी जीएम सीड बनाने वाली कम्पनियों का हित इसमें है कि निरंतर सूखे व बाढ़ से दुनिया के परम्परागत बीज नष्ट हो जाये और बीज पर तथा प्रकारान्तर से दुनिया के खाद्यान्य पर चंद कम्पनियों का नियन्त्रण हो जाये। पहले ही इसका जिक्र किया जा चुका है कि मोन्सान्टो जैसी कम्पनियों में बिल गेट्स व वारेन बफेट का काफी निवेश है। और यही लोग जिओ इंजीनियरिंग यानी वेदर माडिफिकेशन तकनालाजी या वेदर वारफेयर तकनालाजी के भी प्रमुख निवेशकों में से है।
‘बिल गेट्स’, ‘राकफेलर फाउन्डेशन’, ‘मोन्सान्टो’, ‘सिनजेन्टा’ कारपोरेशन और नार्वे सरकार मिलकर आर्कटिक समुद्र के पास एक बड़ा बीज बैंक बना रहे है जिसमें दुनिया की तमाम प्रजातियों के बीजों को संरक्षित किया जायेगा। यह बहुत ही सुनियोजित चाल है। एक तरफ ‘जिओ इंजीनियरिंग’ और ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ के माध्यम से जैव विविधता को खत्म किया जा रहा है वही दूसरी तरफ हजारों सालों में हमारे किसानों द्वारा विकसित किये गये बीजों को अपनी तिजोरियों में छुपाया जा रहा है ताकि ‘कयामत के दिन’ इनका इस्तेमाल किया जा सके। ‘कयामत’ शब्द का इस्तेमाल मैने यूं ही नही किया है। दरअसल इस प्रोजेक्ट का अनौपचारिक नाम ही है- ‘doomsday seed vault’
वातावरण में निरन्तर अल्यूमिनियम व बेरियम जैसे तत्वों के छिड़काव के कारण बारिश के साथ ये तत्व नीचे जमीन पर आ रहे हैं और पानी को दूषित कर रहे हैं। अमरीका में कैलिफोर्नियां में एक जगह पानी में एल्यूमिनियम की मात्रा सामान्य से 63 हजार गुना ज्यादा पायी गयी। एल्यूमिनियम का हमारे तंत्रिका तन्त्र पर और बेरियम का रक्त संचालन पर काफी बुरा असर पड़ता है। इससे ‘आटिस्म’ (Autism) ‘कैंसर’ व हृदय संबंधित गम्भीर बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। दूसरी ओर इसके कारण वहां पैदावार पर भी बुरा असर पड़ा है। इसी समय मोन्सान्टो ऐसे बीज मार्केट में उतार रही है जो एल्यूमिनियम प्रतिरोधी है। जीएम खाद्य व जीएम बीज का मानव जाति व पर्यावरण पर कितना खतरनाक प्रभाव पड़ रहा है, इसकी एक अलग ही कहानी है। इसी पृष्ठभूमि में दवा कम्पनियां भी नयी नयी दवाइयां व टीके लेकर मार्केट में उतर रही है। इनकी निगाह इन बीमारियों से अकूत मुनाफा कूटने की है। लेकिन यह कहानी फिर कभी।
‘वेदर वारफेयर प्रोग्राम’ से जुड़ी कुछ निजी कंपनियां ऐसी मशीन के निर्माण के शोध में व्यस्त हैं जो वातावरण में एक निश्चित क्षेत्र से एक निश्चित मात्रा में कार्बन सोख ले। सरल तरीके से यह समझ सकते हैं कि पानी शुद्ध करने की ज्यादातर मशीनें जैसे ‘केन्ट’ आदि की तरह इसे आप अपने घर में लगा सकते है जो आपके घर के आसपास कार्बन की मात्रा को कम रखेगा। इस शोध में भी बिल गेट्स का काफी निवेश है। और खबर यह है कि जल्द ही यह तकनीक पेटेन्ट होने जा रही है। वातावरण जितना प्रदूषित होगा ये मशीनें उतनी ही बिकेंगी। एकदम वाटर फिल्टर की तरह।
दरअसल युद्ध तकनीक और व्यवसाय का यह गठजोड़ काफी पुराना है। आज जो कंपनिया बीज व कीटनाशक क्षेत्रों में है उनमें से अधिकांश प्रथम व दूसरे विश्व युद्ध तथा वियतताम युद्ध में इस्तेमाल जहरीली गैसों के उत्पादन में लगी रही हैं। ‘डू पोन्ट’, ‘मोन्सान्टो, ‘डो केमिकल’ आदि कम्पनियां जहां अमरीका व सहयोगी देशों को जहरीली गैसों की सप्लाई करती थी, वही आज की ‘बायर’ जैसी कीटनाशक क्षेत्र की प्रमुख कम्पनी हिटलर को जहरीली गैस की आपूर्ति करती रही है। डो केमिकल और मोन्सान्टो ने वियतनाम युद्ध के दौरान कुख्यात ‘ऐजेन्ट ओरेन्ज’ गैस और ‘नापाम बम’ की सप्लाई अमरीकी सेना को की थी। ‘शान्तिकाल’ में अब यही कम्पनियां उन्ही जहरीले केमिकल का इस्तेमाल इस पर्यावरण के खिलाफ कीटनाशक के रूप में कर रही हैं। इसी तरह आज की तमाम दवा कंपनियां ‘बायलाजिकल वारफेयर’ में भी सक्रिय हैं और अमरीका व सहयोगी देशों को अपनी सेवायें उपलब्ध करा रही है। ‘इबोला’, ‘एड्स’ व ‘सिफलिस’ जैसी बीमारियां फैलाने में इन दवा कंपनियों की भूमिका अब कई दस्तावेजों में कैद हो चुकी है। इस पर एक लेख इसी ब्लाग के पिछले अंकों में है।
जीओ इंजीनियरिंग के क्षेत्र में आज जो प्रयोग किये जा रहे है, उसमें प्रयोगशाला पूरी पृथ्वी है और पूरी मानव जाति ‘गिनी पिग’। भारत इन प्रयोगों में किस हद तक शामिल है, यह स्पष्ट नही है। लेकिन प्रसिद्ध पर्यावरण विद् ‘वन्दना शिवा’ की माने तो भारत इन प्रयोगों में अमरीका के जूनियर की भूमिका मे पूरे तौर पर शामिल है।
मुनाफे और युद्ध की हवस में साम्राज्यवाद यह तथ्य भी भूल गया है कि अब तक ज्ञात ब्रहमाण्ड में सिर्फ पृथ्वी ही ऐसा ग्रह है जहां जीवन है।
आज से ठीक 99 साल पहले जर्मनी की मशहूर कम्युनिस्ट नेता ‘रोजा लक्जमबर्ग’ ने एक छोटी सी पुस्तिका लिखी थी- ‘समाजवाद या बर्बरता’। इसमें उन्होंने कहा था कि आज हम एक चैराहे पर खड़े है जहां से एक रास्ता बर्बरता की ओर जाता है और दूसरा समाजवाद की ओर। यह हमें तय करना है कि हमें किधर जाना है।
लेकिन आज 99 साल बाद एक दूसरा सवाल भी आ खड़ा हुआ है – अपनी इस पृथ्वी को साम्राज्यवादी चंगुल से छुड़ाने में कही इतनी देर ना हो जाय कि यह पृथ्वी हमारे रहने लायक ही ना बचे। इसलिए जल्दी करनी होगी, समय बहुत कम है।

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एक और (अनेक) रानाप्लाजा……..

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बीते माह की 14 तारीख को फिलीपीन्स के ‘वालेन्जुएला’ शहर में हवाई चप्पल बनाने वाली एक फैक्टरी ‘केन्टेक्स’ में आग लग गयी। और इस आग में झुलस कर 72 लोगों की मौत हो गयी। इसमें ज्यादातर महिलाए हैं। 69 लाशें तो इस कदर झुलस गयी हैं कि उन्हें पहचानना अब संभव नही रहा। इसलिए मरने वालों के रिश्तेदारों के डीएनए लिए जा रहे हैं। डीएनए सैम्पल देने के लिए लाइन में लगे मरने वालों के रिश्तेदारों को रोते हुए मीडिया पर देखना बहुत ही ह्दय विदारक है।
अफसोस है कि ‘सूचना क्रान्ति’ और ‘मीडिया-वैश्वीकरण’ के इस दौर में जब हमें ना चाहते हुए भी दुनिया भर के ‘सेलेब्रेटीज’ के खांसने और छींकने की भी खबरें तुरन्त मिल जाती है, वही यह घटना मुख्यधारा की मीडिया से गायब रहा। अभी भी गायब है।
खैर इसके बाद की कहानी वही है जो हमेशा होती है। यहां पर मजदूरों की सुरक्षा का कोई भी उपाय नही था। यहां तक की आग पर काबू पाने का औपचारिक उपकरण भी नही था। राना प्लाजा की तरह ही यहां भी जगह काफी संकरी और निकलने का एक ही रास्ता था। चप्पल बनाने में प्रयुक्त केमिकल की सुरक्षा की भी कोई व्यवस्था नही था। इतनी भीषण आग इसी केमिकल के कारण लगी।
मजदूरों की अपनी वर्गीय हैसियत में भी कोई नई बात नही थी। फिलीपीन्स में निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से भी इन्हें आधी मजदूरी ही मिलती थी। लगभग सभी मजदूर ठेका मजदूर थे। और इनमें अधिकांश महिलाएं थी।
वहां का लेबर विभाग, पुलिस और चप्पल बनाने वाली केन्टेक्स कम्पनी के मालिक आपस में मिले हुए थे और मजदूरों के शोषण में इन तीनों की भागीदारी होती थी।
फिलीपीन्स सरकार की प्रतिक्रिया भी कुछ नयी नहीं – ‘दोषियों को बख्शा नही जायेगा’, ‘जांच कमेटी बैठा दी गयी है’, और ‘पुलिस को हाई एलर्ट पर रखा गया है ताकि कानून व्यवस्था बनी रहे।’
At least 31 people were killed and dozens more are feared dead after a fire razed a footwear factory in the Philippines.

अब अपने देश में आते है। मजदूरों के लिए भारत में भी स्थिति इतनी ही खराब है। बस फर्क यह है कि यहां सब कुछ ‘मैक्रो’ स्तर पर नहीं बल्कि ‘माइक्रो’ स्तर पर घटित हो रहा है। इसलिए राना प्लाजा या केन्टेक्स जैसी राष्ट्रीय न्यूज नही बन पाती। बल्कि सचाई बहुत भयावह है। आपको जानकर आश्चर्य होेगा कि भारत में एक दो नही चार चार राना प्लाजा (राना प्लाजा घटना में 1000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी।) हर साल घटित हो रहा है। ‘अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन’ ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि भारत में औद्योगिक दुर्घटनाओं में हर साल 40 हजार से ज्यादा लोग मारे जाते है। हम अनुमान लगा सकते है कि असली आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा होगा। बहुत सी घटनाएं रिपोर्ट नहीं हो पाती या उन्हे चालाकी से छुपा दिया जाता है। ऐसी ही एक घटना मुझे याद आ रही है। कुछ समय पहले एक ‘फैक्ट फाइन्डिंग’ के दौरान ही एक फैक्टरी की चिमनी से एक मजदूर गिर गया। मेन गेट पर जो गार्ड खड़ा था वह दौड़ा और उसने उस घायल मजदूर की जेब से सबसे पहले ‘जाब कार्ड’ निकाला और उसे फाड़ दिया लेकिन तभी दूसरे मजदूर भी आ गये और उस गार्ड को यह काम करते देख लिया और उसकी धुनाई शुरु कर दी। बाद में पता चला कि कम्पनी की तरफ से उस गार्ड को (और उन जैसे अनेकों गार्डो को) हिदायत दी गयी थी कि जब भी कोई मजदूर घायल हो और उसके मरने की संभावना हो तो मौका मिलते ही उसका जाब कार्ड गायब कर दो ताकि सबूत ही ना रहे कि वह इस फैैक्टरी में काम करता था। बाद में पता चला कि चिमनी से गिरे उस घायल मजदूर की मौत हो गयी।
अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन की यह रिपोर्ट 2001 की हैं। तबसे स्थितियां और बदतर ही हुई हैं। गौरतलब है कि इन 40 हजार मौतों में वे मौतें शामिल नहीं हैं जो औद्योगिक प्रदूषण जनित बीमारियों से होती है। जैसे ‘सिलकोसिस’ आदि से होने वाली मौतें।
वहीं दुनिया के पैमाने पे बात करें तो यह आंकड़ा और भयावह हो जाता है। उसी श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में औद्योगिक दुर्घटनाओं और उद्योग जनित बीमारियों के कारण होने वाली मौतें प्रति वर्ष करीब 22 लाख हैं।
आज का परिदृश्य यह है कि वैश्विक पूंजी ने वैश्विक श्रम के खिलाफ एक जंग छेड़ा हुआ है। यह जंग ना सिर्फ श्रम यानी मजदूरों के खिलाफ है बल्कि पर्यावरण यानी हमारी इस धरती के भी खिलाफ है क्योकि मुनाफा पैदा करने के लिए उन्हे ना सिर्फ मजदूरों की जरुरत है बल्कि कच्चे माल यानी खनिज सम्पदा की भी जरुरत है।
दुःख इस बात का है कि हमारे ज्यादातर बुद्धिजीवी इस युद्ध पर पर्दा डालने का काम करते हैं। लेकिन यह पर्दा बहुत झीना है और जल्द ही मजदूर वर्ग इस युद्ध को साफ साफ देखने लगेगा। पिछले दिनों दुनिया के अनेक देशों में मजदूरों की जो बड़ी बड़ी हड़तालें और प्रदर्शन हुए हैं वो अनेक मायनों में 60 के दशक की याद दिलाते हैं। यानी बहुत से मजदूर अब इस युद्ध को उसके असली रुप में देखने लगे हैं और अपने आपको उसके हिसाब से तैयार भी करने लगे हैं।

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‘John Abraham’, ‘Amma Ariyan’ and ‘Odessa Collective’

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आज ही के दिन (31 मई) 1987 को केरल के समानान्तर सिनेमा के मशहूर फिल्मकार ‘जान अब्राहम’ का निधन हुआ था। यह अजीब संयोग है कि जन फिल्मकार के रुप में मशहूर जान अब्राहम की मृत्यु भी आम आदमी की तरह ही हुई। 30 मई को वे छत से गिर गये थे। दोस्तो ने उन्हे अस्पताल पहुंचाया। वहां कोई भी उन्हे पहचान नहीं पाया और एक आम आदमी की तरह ही उनकी उपेक्षा की गयी और अगले दिन उनकी मृत्यु हो गयी। बाद में करीब 26 साल बाद उस समय वहां तैनात एक सर्जन ने अपनी फेसबुक पर स्वीकार किया कि यदि उन्हे समय रहते पहचान लिया जाता तो उन्हे आसानी से बचाया जा सकता था। यानी जान अब्राहम की मृत्यु भी एक ‘फिल्म’ बन गयी जिसने एक चुभता यथार्थ हमारे सामने खोल दिया। जिस समय उनकी मृत्यु हुई वे महज 49 साल के थे।
जान अब्राहम ‘एफटीआईआई’ में ‘ऋत्विक घटक’ के शिष्य थे और उनसे खासे प्रभावित भी थे। ऋत्विक घटक ने समानान्तर सिनेमा की पूरी एक पीढ़ी को एफटीआईआई के अपने कार्यकाल में प्रशिक्षित किया है। लेकिन उनमें शायद सबसे योग्य उत्तराधिकारी जान अब्राहम ही थे।
जान अब्राहम ने अपने कैरियर की शुरुआत ऋत्विक घटक के ही दूसरे शिष्य ‘मणि कौल’ के असिस्टेन्ट डायरेक्टर (फिल्म -‘उसकी रोटी’) के रुप में की। जान अब्राहम ने अपने जीवन काल में महज 4 फिल्में बनायी। इन चार में से उनकी दो फिल्में भारतीय ही नहीं बल्कि विश्व सिनेमा में भी अपना विशेष स्थान रखती हैं। 1977 में उन्होनें ‘Agraharathil Kazhuthai’ नामक फिल्म तमिल में बनायी। जिसका शाब्दिक अनुवाद होगा- ‘एक गधा ब्राहमणों के गांव में’। गधे को केन्द्र में रखकर इसमें ब्राहमणों के पाखण्ड पर जबर्दस्त चोट की गयी है। उस वक़्त तमिल ब्राहमणों के जबर्दस्त विरोध के कारण दूरदर्शन पर इसका प्रसारण रोक दिया गया था। यह फिल्म फ्रेन्च ‘न्यू वेव सिनेमा’ की एक महत्वपूर्ण फिल्म ‘Au Hasard Balthazar’ से प्रेरित है। लेकिन इसे बहुत मौलिक तरीके से भारतीय परिवेश मेें ढाला गया है।
लेकिन उनकी सबसे महत्वपूर्ण फिल्म उनकी मृत्यु से ठीक एक साल पहले 1986 में आयी। यह फिल्म थी- Amma Ariyan यह फिल्म अब तक की मेरी देखी सबसे चुनौतीपूर्ण फिल्म है। दरअसल इस फिल्म पर ब्रेख्त के alienation effect का जबर्दस्त असर है। जान अब्राहम खुद भी ब्रेख्त के बड़े प्रशंसक रहे हैं। यह फिल्म दर्शकों को engage करती है और कई सवाल अनुत्तरित छोडती चलती है जो दर्शकों को किसी भी मोड़ पर ‘पैसिव’ नही रहने देता। इसी के अनुरुप फिल्म की टेक्निक और कला भी अपनायी गयी है। ‘फिक्शन फार्म’ और ‘डाकूमेन्ट्री फार्म’ आपस में गुथे हुए है। फिल्मकार सायास फिक्शन से डाकूमेन्ट्री और डाकूमेन्ट्री से फिक्शन में विचरण करता है।
फिल्म का मुख्य पात्र ‘पुरुशान’ जब घर से दिल्ली के लिए निकलता है तो उसकी मां उसे पत्र लिखते रहने की हिदायत देती है। रास्ते में उसे एक लाश दिखती है जो पुलिस के कब्जे में है और पुलिस के अनुसार उसने आत्महत्या की है। पुलिस उसकी शिनाख्त के लिए लोगो से पुछती है लेकिन कोई भी उसे नही पहचानता। पुरुशान उसे पहचानता तो है लेकिन ठीक से याद नही कर पाता कि वह कौन है और उसे कहां देखा है। वह दिल्ली जाने का अपना इरादा बदल देता है और उसकी पहचान स्थापित करने के काम में लग जाता है। इस दौरान वह कई लोगों से मिलता है और उसकी पहचान स्थापित हो जाती है कि वह ‘हरी’ है। तबला वादक हरी। अब पुरुशान और उसके दोस्त यह निर्णय लेते हैं कि हरी की मां को हरी की मृत्यु की सूचना देनी है जो कोचीन में रहती है। कोचीन जाने के क्रम में रास्ते में जो भी हरी के परिचित होते है, उन सबको हरी की मृत्यु की सूचना दी जाती है। और वे सब हरी की मां को सूचना देने वाले कारवां में शामिल हो जाते हैं और कारवां बढ़ता जाता है। इसी प्रक्रिया में हरी की पहचान भी उजागर होती हैै। लेकिन यह पहचान सबके लिए अलग अलग है। किसी के लिए वह अन्तर्मुखी ‘ड्रग एडिक्ट’ है तो किसी के लिए ‘क्रान्तिकारी नक्सली’। लेकिन फिल्मकार अंत तक उसकी सही पहचान को उजागर नही करता। यह एक तरह से ’empirical reality’ का एक उदाहरण है। ज्यादातर ‘न्यू वेव सिनेमा’ या ‘समानान्तर सिनेमा’ के फिल्मकार यथार्थ के साथ इसी रिश्ते में बंधे रहते है। और यही उनकी सीमा भी बनती है। इस फिल्म में भी इसे महसूस किया जा सकता है।

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बहरहाल हरी की मां को सूचना देने की यात्रा में 70 के दशक के केरल के आन्दोलनकारी माहौल से दर्शक रूबरू होता है। मेडिकल छात्रों का निजीकरण के खिलाफ आन्दोलन, जमाखोरो के खिलाफ जनता की कार्यवाही और जनता द्वारा उनके गोदामों पर कब्जा, खनन कर्मियों का आन्दोलन व मालिकों व पुलिस के अत्याचार , पुलिस द्वारा उस समय के नक्सलियों का टार्चर, महिला आन्दोलनकारियों की पुलिस से भिड़न्त जैसे अनेको दृश्यों से केरल के उस समय के राजनीतिक इतिहास से हमारी एक मुठभेड़ होती है। इसके अलावा ‘रियल क्लिपिंग’ के माध्यम से उस समय के दुनिया के हालात भी दर्शकों के सामने आते हैं- वियतनाम, कम्बोडिया, अफ्रीका, लैटिन अमरीका में भूख, दमन और प्रतिरोध। यानी विश्व का ‘राजनीतिक लैण्डस्केप’।
खैर अन्ततः पूरा कारवां हरी की मां तक पहुचने में कामयाब हो जाता है और जब उसे यह सूचना दे रहा होता है तो उसी समय वहां पुलिस भी ठीक यही सूचना लेकर आती है। कारवां का मिशन समाप्त। लेकिन इस मिशन की समाप्ति पर कारवां के कुछ लोग उस समय के राजनीतिक हालात पर चर्चा करते हैं। फिल्म का अन्तिम दृश्य काफी प्रतीकात्मक है। फिल्म के अंत में दिखता है कि पुरुशान की मां अपने गांव में गांव वालों के साथ प्रोजेक्टर पर यही फिल्म देख रही है और फिल्म में हरी की मां अपने आंसू पोछ रही है। वास्तव में पूरी फिल्म एक नरेशन के रुप में है। पुरुशान रास्ते में लाश देखने से लेकर आगे का पूरा घटनाक्रम पत्र के माध्यम से अपनी मां को बयां करता है। दरअसल पूरी फिल्म में मां को एक रुपक के रुप में इस्तेमाल किया गया है। जो शायद ‘नेशन’ के अर्थ में है। जो अपने बच्चों यानी ‘सिटिजन’ को लेकर चिन्तित है। हरी की मौत की सूचना देने जा रहे कारवां को भी एक रुपक की तरह इस्तेमाल किया गया है। जिसकी अनेक भिन्न भिन्न ब्याख्यायें समीक्षकों ने की हैं। और कुछ तो एकदम विरोधी है। वैसे ही जैसे फिल्म में हरी की पहचान सबके लिए अलग अलग है। और कुछ तो एकदम विरोधी है।
ग्वाटेमाला के क्रान्तिकारी कवि ‘आटो रीन कैस्तिलों’ की मशहूर कविता Apolitical Intellectuals का इसमें बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है। शायद यह गैर राजनीतिक उस कारवां पर एक कमेन्ट है जो कभी भी इस सवाल से अपना वास्ता नही दिखाता कि हरी की मौत किस वजह से हुई, कि उसने आत्महत्या क्यो की या की यह आत्महत्या है या हत्या। उसका काम महज तकनीकी है। हरी की मां को हरी की मौत की सूचना देना।
फिल्म में ‘उमबई’ [Umbai] द्वारा गाई हिन्दी गजल ‘किस शान से वो आज बेइन्तहा चले’ का बहुत ही खूबसूरत इस्तेमाल किया गया है।
अब कुछ बातें ‘ओदेसा कलेक्टिव’ पर। जान अब्राहम और उनके साथियों ने 1984 में यह ओदेसा कलेक्टिव आंदोलन शुरु किया था। सिनेमा या कहे कि संस्कृति के क्षेत्र में यह एक तरह का जन-आन्दोलन था। ओदेसा-कलेक्टिव की टीम अपनी सिनेमा, नाटक मंडली के साथ गांव गांव जाती थी और अपने कार्यक्रमों के जरिये जनता से फंड इकट्ठा करती थी और फिर उसी पैसे से फिल्म बनाती थी। ओदेसा फंड से बनी पहली फिल्म यही फिल्म यानी Amma Ariyan थी।
ओदेसा कलेक्टिव ने पहली बार सिनेमा को बाजार के चंगुल से सफलतापूर्वक छुड़ा लिया था। Amma Ariyan का न सिर्फ निर्माण जनता के पैसे से हुआ बल्कि इसका प्रदर्शन और वितरण भी जनता के ही नेटवर्क से हुआ। प्रोजेक्टर के माध्यम से इसे केरल के गांव गांव में दिखाया गया। ओदेसा कलेक्टिव के कारण ही केरल की व्यापक जनता ने ‘चार्ली चैपलिन’ समेत अनेक मशहूर जन फिल्मकारों की फिल्में देखी और जनता के सक्रिय सहयोग से केरल में अनेक महत्वपूर्ण जन-फिल्में बनी जो अन्यथा असंभव होती। जान अब्राहम के एक महत्वपूर्ण सहयोगी और मशहूर डाकुमेन्ट्री फिल्म मेकर ‘सत्यान’ ने इस आन्दोलन को आगे बढ़ाया और फलतः उनका नाम ही ‘सत्यान ओदेसा’ पड़ गया। पिछले साल अगस्त में ही उनकी मृत्यु हुई। 70 के दशक के मशहूर नक्सली आन्दोलनकारी ‘वर्गीज’ के फर्जी मुठभेड़ पर उनकी बहुचर्चित डाकूमेन्ट्री इसी तरह बनायी गयी थी। केरल के आम लोगों के लिए जान अब्राहम अपनी फिल्मों से ज्यादा अपने ओदेसा कलेक्टिव के कारण मशहूर हैं।
सच तो यह है कि भारत का समानान्तर सिनेमा अनिवार्य रुप से विभिन्न तरह की फिल्म सोसाइटी का हिस्सा रहा है। ‘सत्यजीत रे’, ‘ऋत्विक घटक’ फिल्म निर्माण के साथ साथ फिल्म सोसाइटी का भी हिस्सा रहे हैं। बाद में ‘गिरीश कासारवली’, ‘जानू बरुआ’, ‘अदूर गोपालकृष्णन’ जैसे फिल्मकार अपनी अपनी फिल्म सोसाइटी को लेकर काफी गंभीर रहे हैं। लेकिन जान अब्राहम द्वारा शुरु किया गया ओदेसा कलेक्टिव इसे एक नई ऊंचाई तक ले गया।
यह सुखद संयोग हैं कि आज फिर से इस तरह की पहलकदमी शुरु हो गयी है। और बाजार की निर्मम ताकतों को नजरअंदाज करते हुए फिल्में विशेषकर डाकूमेन्टरी फिल्मे बनने लगी हैं। जगह जगह फिल्म सोसायटी भी बनने लगी हैं। जिसके माध्यम से सार्थक फिल्में जनता तक भी पहुचने लगी हैं। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ उनमें से एक है। लेकिन अभी भी इनकी पहुंच बहुत सीमित है। ग्रामीण आबादी तो इससे अभी भी दूर है। आज जरुरत है इन छोटे छोटे प्रयासों को ओदेसा कलेक्टिव के स्तर तक उठाने की। तभी सही माने में जन सिनेमा का विचार चरितार्थ हो सकेगा, जिसका सपना जान अब्राहम जैसे बहुत से लोगों ने देखा था। बिना इसके सिनेमा तो क्या कोई भी कला अपूर्ण है। कला की सार्थकता इसी में है कि वह जहां से आयी है वहां दुबारा लौटे यानी जन मानस के पास – ‘अपनी पूरी जीवन्तता और कलात्मकता के साथ’।

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