दादा यान मिर्डल दीर्घायु हो…………..

यह महज संयोग की बात है कि मैं अपने हाथ लगी एक जरूरी किताब यान मिर्डल की ‘रेड स्टार ओवर इन्डिया’ (सेतु प्रकाशन, कोलकाता, मूल्य 295 रु.) पढ़ रही थी। अभी इस किताब के कुछ पन्ने पढ़ने शेष थे कि प्रतिरोध.काम तथा जनपथ पर खबर पढ़ी कि भारत सरकार याॅन मिर्डल के भारत आगमन पर प्रतिबन्ध लगाने जा रही है। मैं कल्पना करने लगी एक 85 साल का बूढ़ा व्यक्ति इतनी सशक्त सरकार का क्या बिगाड़ सकता है भला?
ख+ैर, किताब पढ़ने से ही पता चला कि सन 2010 में 84 साल का यह बूढ़ा दो हफ्तों के लिए देश के उस सघन दण्डकारण्य के जंगल में गया था जहां अभी कुछ दिनों पहले भारतीय सेना अपना पूरा लाव-लश्कर लेकर गयी थी, जहां तमाम युवा ‘जांबाज’ पत्रकार जाते रहते हैं और वहां चल रहे संघर्ष की सही-गलत रिपोर्टिंग करते हैं।
84 साल के यह बूढ़े लेखक जब वहां गये तो उनके साथ-साथ गयी- एक लम्बे जीवन अनुभव के साथ एक सम्पन्न इतिहासदृष्टि। इसी इतिहासदृष्टि से उन्होंने वहां चल रहे आन्दोलन का मूल्यांकन किया। प्रसिद्ध लेखक तथा ‘एशियन ड्रामा’ के रचयिता गुन्नार मिर्डल के पुत्र याॅन मिर्डल को यह इतिहासदृष्टि विरासत में मिली है। 1927 में स्टाकहोम के ब्रोम्मा में जन्मे मिर्डल ने इतिहास का एक लम्बा दौर देखा है और अपने दीर्घ जीवन काल में तमाम उतार चढ़ाव देखे है। द्वितीय विश्व युद्ध की भयावहता का अहसास आज भी उनके भीतर जीवित है। उस वक्त तीसरी दुनिया मंे चल रहे उपनिवेशों के मुक्ति संग्राम, चीन की क्रान्ति, 1960, व 1970 के दशक के झंझावातों को उन्हांेने बहुत करीब से देखा है। फिर 1980 और 1990 के बाद से विश्व राजनीति में आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण का दौर और उनके परिणाम से वह अच्छी तरह से वाकिफ हैं। इसके अतिरिक्त रूस, पूर्वी यूरोप एवं चीन में समाजवाद का पराभव। इन सबने उनके भीतर बहुत सी उम्मीदें और नाउम्मीदी के द्वैत को जन्म दिया है। दण्डकारण्य में घुसते वक्त वह इतिहास के इन उतार-चढ़ावों के प्रति बहुत सजग थे। अपनी इस किताब में उन्होंने बार बार उस सजगता का परिचय दिया है।
वह आजीवन एक सक्रिय ऐक्टिविस्ट रहे हैं। अपनी किशोरावस्था से ही वह भारत से परिचित हुए थे। भारत से उनका सबसे पहला परिचय कराया था रजनीपाम दत्त की किताब ‘इन्डिया टुडे’ ने। यह किताब कुछ राजनीतिक कमियों के साथ उस वक्त के भारत का सही परिचय कराती है।
यान मिर्डल 1857 में भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यांकन के साथ, इतिहास की सीढि़यां चढ़ते हुए भारत के संघर्षक्षेत्र बस्तर के घने दण्डकारण्य में दाखिल होते हैं।
भारत सरकार के सजग खुफिया तन्त्र को धता बताते हुए वह दण्डकारण्य में प्रविष्ट हुए और वहां के कामरेडों के साथ उस कठिन पहाड़ी रास्ते में आगे बढ़ते गए।
84 साल के इस बूढे के घुटनों में भयानक दर्द है। युवा आदिवासी कामरेड उन्हें बांस के स्टेªचर पर उठा लेते हैं। अपने इसी दुखते घुटनों के कारण वह दण्डकारण्य मंे ज्यादा घूम नहीं पाए। शायद इसीलिए यह किताब वहां के रोजमर्रा के हालात के बारे में वह विस्तृत ब्यौरा नहीं देती है। एक कैम्प से दूसरे कैम्प में ही रहते हुए वह वहां की तमाम चीजों को आब्जर्व करते हैं। जैसी कि बुजुर्गों की आदत होती है, वह उम्र के इस अन्तिम पड़ाव पर आकर बार-बार पीछे मुड़कर देखते हैं। मिर्डल भी दण्डकारण्य का जिक्र करते करते बार-बार अतीतग्रस्त हो जाते हैं। अतीत में घटी घटनाओं में वर्तमान को अवस्थित करते हैं। परन्तु उनकी यह अतीतग्रस्तता खलती नहीं है बल्कि वह वर्तमान को बहुत बारीकी से इतिहास मंे पिरोते हैं और हमारे दिमाग में वाजिब सवाल छोड़ देते हैं जिससे हम अपने वर्तमान को इतिहास के उन पन्नों में खंगालें और उनके सही गलत को पहचान सकें। वह चेताते हैं कि अगर यह आन्दोलन जंगल से बाहर जाकर व्यापक नहीं हुआ तो अलगाव में पड़ जाएगा।
तमाम बारीक ऐतिहासिक पड़ताल के साथ-साथ मिर्डल के पास समाज-साहित्य एवं संस्कृति को परखने की भी एक सूक्ष्म दृष्टि है। जनता की कविताओं के गान वाले अध्याय में वह तेलुगू साहित्य के बारे में बताते हैं। चेरबन्डा राजू से लेकर श्रीश्री एवं वरवरराव जैसे कवियों की रचानाओं का वह उल्लेख करते हैं। उन्हें न केवल तेलगू साहित्य की जानकारी है बल्कि वह 1970 के दशक में स्थापित क्रान्तिकारी लेखक संगठन ‘विरसम’ का भी वर्णन करते हैं।
वह आन्दोलनों पर अतीत एवं वर्तमान में हो रहे राज्य के दमन के प्रति बेहद चिन्तित हैं। उन्हें 13 साल की उम्र में पढ़ी हावर्ड फास्ट की रचना ‘द आयरन हील’ बरबस याद हो जाती है। वह भारत तथा अमेरिका में जनता के तमाम आन्दोलनों को कुचलने के लिए तत्पर ‘आयरन हील’ से व्यग्र हैं। फिर भी दण्डकारण्य से उन्हें काफी उम्मीदें हैं।
85 साल का यह बुजुर्ग केवल वहां की ऐतिहासिक-राजनीतिक-साहित्यिक-सामाजिक पड़ताल ही नहीं करते बल्कि वह वहां की सांस्कृतिक विशिष्टता को भी बताते हैं। एक बुजुर्ग के प्रति आदिवासी समाज का सरोकार एवं संवेदनशीलता उन्हें बहुत प्रभावित करती है। वह भारत जैसे समाजों में बूढों के प्रति रवैया एवं स्वीडेन जैसे पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देश स्वीडेन के समाज में बूढ़ों के प्रति रुख की तुलना करते हैं। जब वहां युवा कामरेड उन्हें रात में उठकर पेशाब जाने में उनकी मदद करते हैं या उन्हें नहाने एवं अन्य काम में मदद करते हैं तो वह बेहद आप्लावित हो जाते हैं। वह बताते हैं कि स्वीडन में भले ही जीवन प्रत्याशा भारत से अधिक हो, लेकिन वहां बूढे व्यक्तियों द्वारा इच्छामृत्यु का वरण करना एक नार्मल बात है। वहां का समाज अपने बुजुर्गों के प्रति बेहद ठन्डा है इस लिए वह इच्छा व्यक्त करते हैं कि काश उनकी मृत्यु स्वीडेन में न हो!
अजीब दुर्योग है कि 85 वर्ष का यह बुजुर्ग जो यहां के आदिवासी कामरेडों द्वारा उनके प्रति दर्शाए जा रहे सरोकार एवं संवेदनशीलता से आप्लावित है, वहीं यहां की सरकार उनके भारत में प्रवेश को प्रतिबन्धित कर रही है। सम्भवतः वह इस बुजुर्ग से नहीं उनकी उस दृष्टि से भयभीत है जो अपने लेखन से आने वाली पीढ़ी को शिक्षित कर रही है।
लेकिन हम दुआ करते हैं कि हमारा यह दादा यान मिर्डल दीर्घायु होऔर हमारे बच्चों को भी जंगल की कहानियां सुनाए…..।
कृति

This entry was posted in General. Bookmark the permalink.

One Response to दादा यान मिर्डल दीर्घायु हो…………..

  1. Pingback: दादा यान मिर्डल: जनसत्ता में ‘कृति मेरे मन की’

Comments are closed.