अभी-अभी एक शानदार फिल्म देख कर उठी हूं-‘द ग्रेप्स आफ राथ’। जान फोर्ड द्वारा 1940 में बनायी गयी यह फिल्म इसी नाम के जान स्टीनबेग के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित है। 1929-30 की मन्दी की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म मानव जाति के अन्तहीन दुखों और उसके शाश्वत संघर्ष और बेहतर जीवन के प्रति उसकी दुर्धष जिजीविषा की अद्भुत कहानी है।
मन्दी के चक्रव्यूह में फंस कर या कहें कि फंसा कर जब बड़े पैमाने पर किसानों की जमीनें बड़े-बड़े फार्मरों और पूंजीपतियों के पास चली गयी तो उनके पास पेट की भूख मिटाने के लिए बड़े शहर की ओर कूच करना उनकी मजबूरी बन गयी। अमेरिका में विकसित पूंजीवाद की जो भव्य तस्वीर खींची जाती है, उसकी नींव इन्हीं गरीब किसानों के दुखों, उनकी बेबसी, उनके दर्द और उनके खून पसीने से बनी है। यह फिल्म ऐसे ही किसान परिवार की कहानी कहती है जो एक कम्पनी के हाथों अपनी जमीन छिन जाने के बाद मजदूरी करने के लिए कैलीफोर्निया की ओर चल देता है। इस यात्रा के दौरान बहुत से हृदय विदारक दृश्य उत्पन्न होते हैं। उन्हें देख कर कई अन्य क्लासिक फिल्में याद आती हैं। परिवार का सबसे बूढ़ा बुजुर्ग किसी भी स्थिति में अपनी धरती नहीं छोड़ना चाहता। वह इस तर्क को कतई नहीं समझ पाता कि पीढि़यों से जिस जमीन पर अपना मेहनत व पसीना बहाया वह आज अपनी क्यों नहीं है। इसी गम में रास्ते में ही उसकी मौत हो जाती है।
70 के दौरान बनी फिल्म ‘गर्महवा’ का वह दृश्य याद कीजिये जिसमें परिवार की बूढ़ी अम्मा अपना पुश्तैनी घर किसी कीमत पर छोड़ कर नहीं जाना चाहती। हालांकि विस्थापन का वह एक अलग पहलू था। ये दोनो दृश्य दर्शक को भीतर तक हिला देते हैं।
आगे चलकर बूढ़े दादा के गम में बूढ़ी दादी भी चल बसती हैं। परिवार के दो सबसे अहम और प्रिय लोगों को खोकर वे अन्ततः कैलीफोर्निया पहुंचते हैं। कैलीफोर्निया में इसी परिवार की तरह लाखों और परिवार अपना भविष्य तलाशने के लिए पहले से ही उपस्थित हैं। उन्हें मजबूरन शहर के बाहर बनी झुग्गियों में आश्रय लेना पड़ता है। जिसकी कल्पना आप अपने शहर की झुग्गी-झोपडि़यों से आसानी से कर सकते हैं। कैलीफोर्निया शहर में बेरोजगारों की भीड़ है। वेतन नाममात्र का है। लेकिन वहां मजदूरों के संघर्ष भी हैं। इन संघर्षों के सम्पर्क में आकर परिवार का बड़ा बेटा टाम उससे प्रभावित हो जाता है और विस्थापन बेरोजगारी, झुग्गी-झोपडि़यों व पूंजीवाद को एक नए कोण से देखना शुरू करता है। उसके इस रूपान्तरण से परिवार कई बार संकट में भी पड़ जाता है और उन्हें तत्काल वह जगह छोड़नी पड़ती है। लेकिन उसकी मां अपने बेटे की इस भावना को समझती है और दिल से उसके साथ होती है। मां-बेटे का यह रिश्ता फिल्म का सबसे प्रभावशाली हिस्सा है। फिल्म के अन्त में जब बेटा परिवार छोड़कर जा रहा होता है तो वह मां से कहता है मेरी जरूरत इस परिवार से ज्यादा उन जगहों पर है जहां अन्याय, शोषण और अत्याचार है। अन्ततः उसकी बातों से सहमति जताते हुए मां उसे भारी मन से विदा कर देती है। बेटे से मां के बिछड़ने का यह दृश्य भीतर तक हिला देता है और फिल्म को एक नया आयाम देता है।
फिल्म में मां का किरदार बेहद सशक्त है। वह कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हमेशा आशावान बनी रहती है। ज्यादातर मांओं की तरह वह हर समय संघर्षरत रहते हुए जीने की राह निकाल ही लेती है।
फिल्म को देखकर हमें अपने आस-पास भी वही तस्वीर नजर आती है जो उस वक्त के अमेरिका की थी। तथाकथित विकास के नाम पर हर तरफ लोगों को जल-जंगल-जमीन से बेदखल किया जा रहा है। यानी आदिम संचय की जो प्रक्रिया अमेरिका में अपनायी गयी वही प्रक्रिया और भी क्रूर रूप में भारत में अपनायी जा रही है।
दृश्य दर दृश्य फिल्म रोंगटे खड़े कर देती है। अपने देश में भी हालात आज यही कहानी कह रहे हैं। अपने जल-जंगल और जमीन के एक-एक इंच के लिए संघर्षरत जनता के हालात एक-एक करके उसमें जुड़ते जाते हैं। फिल्म देखकर लगता है कि दमन और प्रतिरोध का वह मुसलसल सिलसिला अब तक जारी है। कुछ ही फिल्में ऐसी होती हैं जो दुनिया भर की संघर्षरत जनता का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह फिल्म भी उनमें से एक है। फिल्म के पात्र और उनका सांस्कृतिक परिवेश यदि बदल दिया जाए वह अनिवार्य रूप से किसी भी समाज का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं।
स्पाइडरमैन एवं मैट्रिक्स जैसी वायवीय और तड़क भड़क वाली हालीवुड फिल्मों के देश में ‘द ग्रेप्स आफ राथ’ जैसी फिल्में भी बनी होंगी, सहसा यकीन नहीं होता!!