‘जय भीम कामरेड’ – एक वीडियो दस्तावेज

आनन्द पटवर्धन की अन्य फिल्मों की तरह ही, यह भी एक वीडियो दस्तावेज है। ‘जय भीम कामरेड’ में आनन्द पटवर्धन ने दलित लोकगायक विलास घोघरे के बहाने पूरे महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन और ‘मुख्यधारा’ की राजनीति के साथ उसके अन्तरसम्बन्धों के कई पहलुआंे को समेटा है। 1997 में रमाबाई नगर में डाॅ. अम्बेडकर की मूर्ति पर कुछ अज्ञात लोगों (जो कि जाहिर है कि मनु परंपरा के ही होंगे) ने रात के अंधेरे मे चप्पल की माला पहना दी। सुबह उस दलित बस्ती के लोग जब यह देखते हंै तो वे आक्रोशित हो उठते हंै। इसी प्रकिया में वे स्वाभाविक रुप से वहां जमा होने लगते हंै। इसी बीच वहां पुलिस भी आ जाती है। और बिना किसी उकसावे के भीड़ पर अन्धाधुन्ध फायरिंग करने लगती है। इस गोलीबारी में 10 लोगों की मौत हो जाती है। फिल्म इन दसों लोगों और उनके परिवार से हमें बहुत संवेदनशील तरीके से परिचित कराती है।
विलास घोघरे को जब इसकी जानकारी होती है, तो वे तुरन्त घटनास्थल की ओर भागते हंै। वहां का दारुण दृश्य उन पर इतना भारी पड़ता है कि वह वापस लौट कर चुपचाप आत्महत्या कर लेते हैं।
फिल्म इस घटना की पड़ताल करते हुए विलास घोघरे से हमारा आत्मीय परिचय कराती है। विलास घोघरे के गाये कई गीतों की रिकार्डिंग का इसमे बेहद खूबसूरत इस्तेमाल हुआ है।
दलित आंदोलन के दबाव में पुलिस फायरिंग का आदेश देने वाले मनोहर कदम को सेशन कोर्ट से उम्र कैद की सजा हो जाती है। लेकिन अगले माह ही हाईकोर्ट से उसे जमानत मिल जाती है। न्याय व्यवस्था भी मनुवादी ढ़ांचे से बाहर नही है।
फिल्म का अंत ‘कबीर कला मंच’ की प्रस्तुति से होता है। ‘कबीर कला मंच’ के नवयुवक-नवयुवतियां विलास घोघरे की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए दलित आंदोलन को एक नयी सतह पर ले जाने का प्रयास कर रहे हंै। उन्हीं के शब्दों में -‘भीम’ को अब भजन, कीर्तन और किताबों से निकल कर हमारे बीच आना होगा और इस लड़ाई को आगेे बढा+ना होगा। फिल्म आगे हमे सूचित करती है कि पुलिस की ज्यादतियों से परेशान होकर ‘कबीर कला मंच’ अब भूमिगत हो गया है। पुलिस की फाइल मे ‘कबीर कला मंच’ नक्सलवादी संगठन के रुप में दर्ज है और पुलिस को उनकी तलाश है।
पूरी फिल्म महाराष्ट्र में दलितों की उस संघर्ष परंपरा को हमारे सामने बखूबी रखती है जो आज भी बदस्तूर जारी है। ‘कबीर कला मंच’ जिसका ताजा प्रमाण है।
यदि फिल्म दलित आंदोलन के अन्तरविरोधों को भी थोड़ा स्पष्ट तरीके से सामने रखती और दलित आन्दोलन की आज की जरुरत के आइने में डाॅ. अम्बेडकर की विचारधारा की सीमाओं की भी पड़ताल करती, तो यह और भी सशक्त फिल्म साबित होती।
बहरहाल, सभी सामाजिक एक्टिविस्टों के लिए यह फिल्म आनन्द पटवर्धन की अन्य फिल्मों की तरह ही एक जरुरी फिल्म है।

This entry was posted in General. Bookmark the permalink.