‘साल्ट आफ दि अर्थ’ 1953 में बनी एक बेहतरीन फिल्म है। बनने के लगभग 7-8 साल बाद तक यह थियेटर का मुंह नही देख सकी थी। अमरीकी सरकार ने इस फिल्म के डायरेक्टर समेत लगभग सभी कलाकारों को ब्लैकलिस्ट कर दिया था। अमरीका में यह ‘मैकार्थीवाद’ का समय था।
आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या था कि यह फिल्म अमरीकी सरकार की आंखों की किरकिरी बन गयी।
यह फिल्म न्यू-मैक्सिकों में एक जिंक फैक्टीª के मजदूरों के जीवन व उनके संघर्षों पर आघारित है। फैक्टीª में जबर्दस्त शोषण है और मजदूरों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीें है। वेतन भी बहुत कम है। यहां तक कि मजदूरों के बीच भी नस्लीय नजरिये से भेदभाव किया जाता है। मूल अमरीकी मजदूरों को मैक्सिकन मजदूरों से थोड़ी ज्यादा सुविधायें दी जाती है।
पूरी फिल्म एक मैक्सिकन मजदूर की पत्नी के नजरियें से दिखायी गयी है।
इसी पृष्ठभूमि में एक मजदूर के घायल होने के बाद मजदूर हड़ताल पर चले जाते है। फिल्म की मुख्य पात्र स्पिरांजा जोकि एक हड़ताली मजदूर की पत्नी है, को यूनियन की गतिविधियों में कोई रुचि नही हैं। अपने पति से एक बार तर्क करते हुए वह कहती है-‘तुम्हारी यूनियन सिर्फ पुरुषों की मांगे उठाती है। हमारे कष्टों से उन्हे कोई मतलब नहीं है।’ वह कहती है कि तुम्हे गरम पानी की मांग उठानी चाहिए। वह तर्क करती है कि अमरीकी मजदूरो के घरों में गरम पानी आता है, जबकि हमें ठण्डे पानी में काम करना पड़ता है। पति उसकी बात को टाल जाता है।
हड़ताल शुरु हो जाती है। कम्पनी हड़ताल तोेड़ने का काफी प्रयास करती है। लेकिन मजदूरों की एकता के कारण उनकी हर चाल विफल साबित हो जाती है। इधर अपने अपने पतियों को चाय नाश्ता देने के बहाने धीरे धीरे महिलाएं भी धरना स्थल पर आने लगती हैं। एक दिन स्पिरांजा भी अपने पति को काफी देने के बहाने वहां आ जाती है। तभी एक नाटकीय घटना घटती है। कम्पनी कोर्ट से एक आदेश पाने में सफल हो जाती है। आदेश के अनुसार खनिक मजदूरों का धरना गैरकानूनी है। यानी यदि मजदूरों ने धरना चालू रखा तो उन्हे गिरफ्तार कर लिया जायेगा। नयी परिस्थिति से निपटने के लिए यूनियन की बैठक बुलाई जाती है। हड़ताल में महिलाओं की सहयोगी भूमिका को देखते हुए उन्हे भी आब्जर्वर के तौर पर बैठक में बुलाया जाता है। समस्या बहुत पेचीदा है- यदि वे धरना जारी रखते है तो उन्हे गिरफ्तार कर लिया जायेगा। और यदि वे गिरफ्तारी से बचने के लिए धरना तोड़ देते हैं तो उनकी हार हो जायेगी। यानी दोनों ही तरह से उनकी हार है। कुछ समझ में नही आ रहा है। बैठक में एक निराशा सी छाने लगती है। तभी एक महिला खड़ी होती है और कहती है कि कोर्ट के आदेश को तकनीकी नजर से पढ़ा जाय तो यह कहता है कि खनिकों का धरना गैरकानूनी है। लेकिन हम महिलाए तो खनिक नही है। अतः यदि हम अपने पुरुषों की जगह धरने पर बैठ जाये तो कोर्ट की अवहेलना कतई नहीं होगी और हमारा धरना चलता रहेगा।
इस प्रस्ताव से बैठक कक्ष में सन्नाटा छा जाता है। फिल्म में इस बैठक कक्ष का दृश्य बहुत ही दिलचस्प है। मजदूरों की पितृसत्तात्मक मानसिकता इस बात को पचा नही पाती कि उनकी पत्नियां उनकी जगह धरने पर बैठेंगी। हालांकि वे यह भी जानते हैं कि प्रस्ताव बहुत ही तार्किक है। इस प्रस्ताव पर मतदान का निर्णय लिया जाता है। मतदान से ठीक पहले ही स्पिरांजा कहती है कि चूंकि मामला महिलाओं का है इसलिए महिलाओं को भी वोटिंग करने दिया जाय। तमाम बहस मुबाहिसा के बाद उनको भी इस मुद्दे पर मतदान का अधिकार दे दिया जाता है। महिलाओं के मतदान में शामिल होने के कारण उनका प्रस्ताव बहुत थोड़े अन्तर से पास हो जाता है।
इसके बाद फिल्म बहुत ही प्रभावोत्पादक हो जाती है। धरने पर अब महिलाएं है। कम्पनी के अधिकारी और पुलिस के लोग भी यह देख कर हैरान है।
फिल्म की शुरुआत में स्पिरांजा सात महीने की गर्भवती रहती है। धरने के दौरान ही उसे लेबर पेन उठता है। और उपस्थित महिलाओं की मदद से ही उसे धरना स्थल पर ही बच्चा पैदा हो जाता है।
महिलाओं के धरना स्थल पर होने के कारण न चाहते हुए भी घर का काम पुरुषों को करना पड़ता है। बीच में स्पिरांजा के गिरफ्तार होने पर नवजात बच्चे की जिम्मेदारी भी स्पिरांजा के पति को निभानी पड़ती है। संघर्ष की इस पृष्ठभूमि में पति-पत्नी के बीच जो भूमिका बदलती है और इस कारण उनके बीच जो टकराहट होती है उससे उनके रिश्ते बदलते है और रिश्ते में जनवाद की मात्रा बढ़ने लगती है। यानी रिश्ते और खूबसूरत होने लगते है। यह पक्ष फिल्म की जान है।
इसके डायरेक्टर हरबर्ट बिवरमैन ने बहूत ही खूबसूरती से मजदूर आंदोलत में नारीवादी पहलू को गूंथा है। वास्तव में मजदूर आंदोलन का नारीवादी विमर्श ही इसका मुख्य विषय है। पितृसत्ता पूंजीवाद में जहां नारियों का निर्मम शोषण करता है, वही क्रान्तिकारी आन्दोलनों में महिलाओं की भागीदारी और उनकी पहलकदमी के रास्ते में भी अवरोध बनकर खड़ा रहता है। बिना इस अवरोध को हटाये आन्दोलनो में महिलाओं की व्यापक भागीदारी [विशेषकर नेतृत्व के स्तर पर] संभव नही है। क्रान्तिकारी आन्दोलनों का यह एक प्रमुख विमर्श है। इस संदर्भ में यह फिल्म बहुत ही उपयोगी फिल्म है।
इस फिल्म की एक और दिलचस्प बात यह है कि 2 कलाकारों को छोड़कर शेष सभी कलाकार वास्तव में खनिक कर्मी थे।
इस फिल्म को आप यहां से डाउनलोड कर सकते है। मजे की बात यह है कि इसका हिन्दी सबटाइटल्स आप opensubtitles.com से डाउनलोड करके इस फिल्म का मजा हिन्दी में भी ले सकते है।
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