‘हारुद’

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कल रात आमिर बशीर की फिल्म ‘हारुद’ देखी। रात भर बेचैन रही। फ्रेम दर फ्रेम यह फिल्म जो टेन्शन क्रियेट करती है। उसे आसानी से झटकना संभव नही। वर्तमान परिदृश्य में जब ‘सामूहिक चेतना’ को संतुष्ट करने के लिए एक पूरी कौम को ‘सामूहिक दण्ड’ दिया जा रहा हो तो इस संदर्भ में यह फिल्म और भी प्रासंगिक हो जाती है। फिल्म की खास बात यह है कि फिल्म में कुछ भी खास नही है। ना ही ड्रामा है ना ही कोई खास स्टोरी लाइन है और ना ही क्लाइमेक्स है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से कश्मीर का जीवन भी क्या ऐसा ही नही हो गया है।
फिल्म का प्रमुख पात्र रफीक का बड़ा भाई सुरक्षा एजेन्सियों द्वारा गायब कर दिया गया है। फिल्म में यह खबर एक आम खबर के रुप में ही दिखायी देती है। सच है कि जिस समाज में इस तरह ‘गायब’ लोगो की संख्या 10000 से भी ज्यादा हो तो उस समाज में रफीक के बड़े भाई का ‘गायब’ होना सचमुच ‘खास’ नही है।
फ्रेम दर फ्रेम बन्दूक की नली और कंटीले बाड़ को इस तरह दिखाया जाता है कि देखने वाले का भी दम घुटने लगता है। लेकिन बन्दूक की नली के साये में और कंटीले बाड़ में फंसी जिन्दगी ‘सामान्य’ तरीके से चल रही होती है। यही ‘सामान्य’ चीज आपको बेचैन कर देती है।
फिल्म में रफीेक के चेहरे का क्लोज-अप बार बार आता है। और बिना कुछ बोले बहुत कुछ कह जाता है। रफीक के चेहरे पर जो गम, गुस्सा, बेबसी और असहायता का भाव है, उससे यह अहसास हो जाता है कि पूरे कश्मीर की मनोदशा क्या होगी। फिल्म में डायलाग बहुत कम है, इतने कम कि कभी कभी मूक फिल्म का बोध होने लगता है। इसके बावजूद यह फिल्म बहुत कुछ कहती है और बहुत तरह से कहती है। हां यदि आप बालीवुड टाइप राष्ट्रवाद से पीडि़त है तो शायद आप वह सब नही सुन पायेंगे।
हारुद का अर्थ होता है – पतझड़। पूरी फिल्म में इसे एक प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। पूरी फिल्म में झड़ती पत्तियां अलग अलग फ्रेम के साथ मिलकर बहुत कुछ बयां करती हंै। और यह सवाल छोड़ जाती हैं कि कश्मीर में बसन्त कब आयेगा।
पूरी फिल्म आप यहां देख सकते हैं।

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One Response to ‘हारुद’

  1. tinnu says:

    bina music ki is film ka music abhee bhee dimaag ko chain nahee lene de raha hai.. is film se sabako parichay karane ke liye shukriya.

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