मार्कन्डेय काटजू का यही लेख भाजपा और विशेषकर अरुण जेटली की तिलमिलाहट का कारण है। हालांकि यह लेख बेहद एकतरफा है। और वस्तुगत तौर पर काग्रेस के पक्ष में जाता है। मोदी के बहाने जिस फासीवाद के खतरे की ओर इसमे आगाह किया गया है वह बहुसंख्यक जनता के लिए यथार्थ बन चुका है। और इस यथार्थ में कांग्रेस और भाजपा का बराबर का साझा है। सच तो यह है कि पिछले दो दशको से देश पर कांगेस-भाजपा गठबंधन की ही सत्ता है। पक्ष-विपक्ष में चाहे जो भी हो।
फिर भी सिर्फ गुजरात-मोदी परिघटना के लिहाज से देखे तो काटजू का यह लेख बेहद धारधार है। इसलिए इसे आपसे साझा करने का लोभ संवरण नही कर पा रही हूं-
नरेन्द्र मोदी के समर्थन में हल्ला मचाने वाले लोगांे को यह समझना चाहिए कि भारत प्र्रगति के रास्ते पर सिर्फ तभी आगे बढ़ सकता है जब सभी समुदायों के साथ बराबर सम्मान का व्यवहार किया जाय।
भारतीयों के एक हिस्से द्वारा नरेन्द्र मोदी को आधुनिक मूसा के रुप में प्रोजेक्ट किया जा रहा है जो प्रताडि़त और निराश भारतीयों को वहां ले जायेेगा जहां दूध और शहद की नदियां बह रही होंगी। और यही आदमी अगले प्रधानमंत्री के लिए सबसे उपयुक्त है। सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और आर.एस.एस ही यह बात कुम्भ मेले में नहीं कह रही है बल्कि भारत का तथाकथित पढ़ा लिखा वर्ग जिसमें ‘पढ़ा लिखा युवा वर्ग भी शामिल है भी यह बात कर रहा है। क्योकि मोदी के प्रचार अभियान में यह वर्ग बह गया है।
हाल ही में मैं दिल्ली से भोपाल की यात्रा कर रहा था। मेरी बगल में एक गुजराती बिजनेसमैन बैठे हुए थे। मैने उनसे मोदी के बारे पूछा। उनके दिल में मोदी के लिए काफी तारीफ+ थी। मैंने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि 2002 में मारे गए लगभग 2000 मुसलानों के बारे में आपकी क्या राय है? उसने कहा कि गुजरात में मुसलमान हमेशा से समस्या पैदा करते रहे हैं लेकिन 2002 के बाद उन्हें उनकी औकात बता दी गयी। तभी से राज्य मंे शान्ति है। मैंने कहा कि यह शान्ति तो कब्र की शान्ति है और जब तक शान्ति न्याय के साथ जुड़ी नहीं होती तब तक यह स्थायी नहीं हो सकती। मेरी इस टिप्पणी पर वह आक्रामक हो गया और प्लेन में ही अपनी सीट बदल दी।
सत्य यह है कि गुजरात में मुस्लिम बहुत भयभीत हैं। और उन्हें डर है कि यदि वे 2002 के आतंक के खिलाफ कुछ बोलेंगे तो उन पर हमला हो सकता है और उन्हें आसान शिकार बनाया जा सकता है। पूरे भारत के 20 करोड़ से ज्+यादा मुसलमान मोदी के खिलाफ हैं। हालांकि कुछ गिने चुने मुस्लिम कुछ कारणों से इससे असहमत हैंं।
छद्म स्वतःस्फूर्तता
मोदी के समर्थक यह दावा करते हैं कि गुजरात में जो कुछ भी हुआ वह गोधरा में 59 हिन्दुओं के मारे जाने की ‘स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी। पहली बात तो यह है कि गोधरा में ठीक-ठीक क्या हुआ यह अभी तक रहस्य ही है। दूसरी बात यह है कि गोधरा हत्याकांड के लिए जो भी व्यक्ति जिम्मेदार है उसे कड़ी सज+ा मिलनी चाहिए। लेकिन इसके कारण गुजरात के पूरे मुस्लिम समुदाय पर हमले को कैसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है। गुजरात में मुस्लिमों की जनसंख्या महज 9 प्रतिशत है। बाकी हिन्दू हैं। 2002 में मुस्लिमों का नरसंहार किया गया उनके घरों को जलाया गया और उनके खिलाफ अन्य भयानक अपराध किये गए।
2002 में मुस्लिमों के नरसंहार को स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया बताने से जर्मनी में Kristallnacht की घटना याद आ जाती है। नवम्बर 1038 में जर्मनी में समूचे यहूदी समुदाय पर हमला किया गया था कइयों की हत्या की गयी थी उनके प्रार्थना स्थलों को जला दिया गया था और दुकानों को नष्ट कर दिया गया था। इस घटना से पहले पेरिस में एक यहूदी नौजवान ने जिसके परिवार को नाजियों ने मार दिया था ने एक जर्मन राजनयिक की हत्या कर दी थी। नाजी सरकार का दावा था कि यह सब इसी की ‘स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी। जबकि सच यह है कि इस कत्लेआम को नाजी सरकार ने उन्मादी लोगों का इस्तेमाल करके बहुत योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया था।
ऐतिहासिक विकासक्रम में देखें तो भारत मुख्यतः अप्रवासियों का देश है। और इसी लिए यहां अत्यधिक विविधता है। इसीलिए सिर्फ एक नीति ही इसे साथ रख सकती है और इसे विकास के पथ पर आगे बढ़ा सकती है-वह है-धर्मनिरपेक्षता यानी सभी समुदायों एवं तबकों के साथ बराबरी और सम्मान का व्यवहार। यह महान सम्राट अकबर की नीति थी जिसे हमारे संस्थापक पूर्वजों ने (पंडित नेहरू एवं उनके साथी) लागू किया और हमें एक धर्मनिरपेक्ष संविधान दिया। जब तक हम इस नीति का पालन नहीं करते हमारा देश एक दिन के लिए भी जीवित नहीं रह पाएगा। क्योंकि यहां बहुत विविधता है बहुत से धर्म हैं बहुत से धर्म जाति भाषाएं और जातीय समूह हैं।
इसलिए भारत सिर्फ हिन्दुओं का नहीं है। यह जितना हिन्दुओं का है, उतना ही मुस्लिमों सिक्खों इसाईयों पारसियों जैनियों आदि का भी है। इसलिए ऐसा नहीं हो सकता कि हिन्दू यहां प्रथम श्रेणी के नागरिक हों और दूसरे दूसरे द्वितीय या तृतीय श्रेणी के नागरिक हों। यहां सभी प्रथम श्रेणी के नागरिक हैं। 2002 में गुजरात में हजारों मुसलमानों का मारा जाना न भुलाया जा सकता है और न ही इसे माफ किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में मोदी के हाथों पर जो खून के धब्बे हैं उसे अरब का समूचे इत्र से भी धोया नहीं जा सकता।
मोदी के समर्थकों द्वारा कहा जाता है कि इस हत्याकांड में मोदी का कोई हाथ नहीं है। और किसी भी न्यायालय ने उन्हें दोषी नहीं ठहराया है। मैं अपने न्यायालय पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता। लेकिन मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूं कि 2002 की घटनाओं में मोदी का कोई हाथ नहीं है। गुजरात में जिस समय इतने बड़े पैमाने पर भयानक घटनाएं घट रही थीं तब मोदी गुजरात के मुख्यमन्त्री थे। क्या इस पर विश्वास किया जा सकता है कि इन सबमंे उनका कोई हाथ नहीं था कम से कम मैं तो विश्वास नहीं कर सकता।
मैं इस मुद्दे पर और विस्तार में नहीं जाना चाहता यह मामला न्यायालय में विचाराधीन है।
मोदी का दावा है कि उन्होंने गुजरात का विकास किया है। इसलिए यह जरूरी है कि ‘विकास’ के अर्थ को समझा जाए। मेरे लिए विकास का सिर्फ एक ही मतलब है कि इससे जनता का जीवन स्तर ऊंचा होना चाहिए। बड़े औद्योगिक घरानों को छूट देना उन्हें सस्ते में बिजली और भूमि उपलब्ध कराना विकास नहीं हो सकता। जबकि यह जनता के जीवनस्तर को भी ऊपर नहीं उठाता।
यह कैसा विकास
आज गुजरात में 48 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। यह औसत राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। गुजरात में शिशु मृत्युदर औरतों की प्रसवकालीन मृत्युदर कहीं अधिक है। आदिवासी क्षेत्रों में और अनुसूचित जाति-जनजाति में गरीबी रेखा की दर 57 प्रतिशत से ज्यादा है। जैसा कि रामचन्द्र गुहा ने हिन्दू में 8 फरवरी में लिखे अपने लेख ‘The Man who would rule India’ में बताया है कि गुजरात में पर्यावरणीय क्षरण तेजी से बढ़ रहा है, शिक्षा का स्तर घट रहा है और बच्चों में कुपोषण असामान्य रूप से ऊंचा है। गुजरात में एक तिहाई वयस्क व्यक्तियों का बाडी मास इन्डेक्स 18.5 से भी कम है। देश में यह सातवीं सबसे खराब दर है। 2010 में जारी यूएनडीपी की रिपोर्ट में कहा गया है कि गुजरात बहुआयामी विकास यानी स्वास्थ्य शिक्षा आय आदि के लिहाज से भारत में नौवें नम्बर पर है।
बड़े बिजनेसमैन यह दावा करते हैं कि मोदी ने गुजरात में व्यापार-अनुकूल माहौल बनाया है। लेकिन क्या भारत में सिर्फ व्यापारी ही बसते हैं
मैं भारत की जनता से अपील करता हूं कि यदि वे देश के भविष्य से वास्ता रखते हैं तो इन सब चीज+ों पर विचार करें। अन्यथा वे वही गलती करेंगे जो जर्मनों ने 1933 में की थी।
साभार ‘दि हिन्दू’
बहुत जरूरी मेहनत की आपने। दरअसल, जिन चीजों की जरूरत हिंदी वालों को है, वे अंग्रेजी में आती हैं और अंग्रेजी जान-समझ सकने वालों को समृद्ध करती हैं। जबकि आमतौर पर बहुत सारी जड़ताओं के भुक्तभोगी और हमलावरों तक कोई ऐसी बात नहीं पहुंच पातीं, जो उन्हें रोक सके या उनकी दिशा पर सवाल उठा सके।
आपका बहुत शुक्रिया…