‘रोजा पार्क’ का जन्म शताब्दी वर्ष…

Rosaparks

यह ‘रोजा पार्क’ का जन्म शताब्दी वर्ष है। उनका जन्म 4 फरवरी 1913 को अमेरिका के अलाबामा शहर में हुआ था। उनके जन्मदिवस (4 फरवरी) और उनकी बहुचर्चित गिरफ्तारी (1 दिसम्बर) को अमेरिका में विशेषकर अफ्रीकन अमरीकियों के बीच ‘रोजा पार्क दिवस’ मनाया जाता है। रोजा पार्क ने 1 दिसम्बर 1955 को अलाबामा के माण्टगोमरी में एक बस में एक गोरे अमरीकी के लिए अपनी सीट से उठने से इन्कार कर दिया था। तत्पश्चात उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। रोजा पार्क की गिरफ्तारी ने अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के लिए एक उत्प्रेरक का काम किया। इस घटना से पहले अमेरिका के कई राज्यों में बसों में पहली पंक्ति से मध्य पंक्ति तक की सीटें गोरों के लिए आरक्षित हुआ करती थीं। इनमें कोई भी काला व्यक्ति नहीं बैठ सकता था। यह कानूनन बाध्यकारी था। लेकिन इसी के साथ एक परम्परा यह भी थी कि यदि गोरों की सभी आरक्षित सीटें भर जाती हैं, ऐसी दशा में गोरों के लिए काले लोगों को अपनी सीट खाली करनी पड़ती थी। यानी तकनीकी तौर पर देखा जाए तो रोजा पार्क ने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया था। क्योंकि वे गोरों के लिए आरक्षित सीट पर नहीं बैठी थीं। लेकिन जब एक गोरे को सीट देने के लिए ड्राईवर ने उनसे सीट छोड़ देने के लिए कहा तो रोजा पार्क ने इन्कार कर दिया। और उन्हें इस ‘अवज्ञा’ के कारण गिरफ्तार कर लिया गया।
रोजा पार्क का यह कदम कोई स्वतःस्फूर्त कदम नहीं था। दरअसल रोजा पार्क 1943 से ही कालों के नागरिक अधिकार आन्दोलन के साथ जुड़ी हुयी थीं और उसके एक संगठन एनएएसीपी की सदस्य थीं। रोजा पार्क की यह ‘अवज्ञा’ अमरीकी इतिहास में काले लोगों के संघर्ष में कोई पहली घटना नहीं थी। इसके पहले भी ऐसी बहुत सी घटनाएं घट चुकी थीं। 1946 में इरीन मोर्गन और 1955 में रोजा पार्क की गिरफ्तारी से सिर्फ एक माह पहले साराह लुई कीज को समान आरोपों गिरफ्तार किया गया था। यह अलग बात है कि रोजा पार्क की गिरफ्तारी नागरिक अधिकार आन्दोलन में मील का पत्थर साबित हुयी और रोजा पार्क नस्लीय भेदभाव के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बन गयी।
स्वयं रोजा पार्क ने 1943 से 1955 तक नागरिक अधिकारों के लिए बहुत सी लड़ाईयां लड़ीं। डा. मार्टिन लूथर किंग जूनियर उनके सहयोगी थे। रोजा पार्क अपनी आत्मकथा ‘माई स्टोरी’ में उस दिन की घटना की पृष्ठभूमि को यूं बयान करती हैं-‘लोग यह सोचते हैं कि उस दिन मैं अपनी सीट से इसलिए नहीं उठी क्योंकि मैं थकी हुयी थी। लेकिन यह सच नहीं है। मैं शारीरिक रूप से थकी हुयी नहीं थी। आमतौर से उससे ज्यादा कतई नहीं जितना एक कामकाजी दिन के अन्त में आमतौर पर थकी होती हूं। मैं बूढ़ी भी नहीं थी जैसा कि कुछ लोगों के दिमाग में मेरी तस्वीर है। उस वक्त मैं 42 साल की थी। बस मैं लगातार अपना अधिकार छोड़ते जाने से थक चुकी थी।’ घटना की पृष्ठभूमि के बारे में मार्टिन लूथर किंग ने 1958 में प्रकाशित अपनी किताब ‘स्ट्राइड टुवर्ड्स फ्रीडम’ में लिखा है कि रोजा पार्क की गिरफ्तारी, विरोध प्रदर्शनों का कारण नहीं बल्कि उत्प्रेरक था। उन्हीं के शब्दों में ‘विरोध प्रदर्शनों का कारण बहुत गहराई से जड़ जमायी हुयी अन्यायी व्यवस्था में था। वस्तुतः रोजा पार्क की उस दिन की कार्यवाई को वही समझ सकता है जिसे इस बात का अहसास हो कि अन्याय का घड़ा भर चुका था और मानवता कराह रही थी। और कह रही थी कि बस अब और नहीं।’
रोजा पार्क की गिरफ्तारी के बाद विभिन्न नागरिक अधिकार संगठनों ने बस के बहिष्कार का नारा दिया। और यह बहिष्कार ऐतिहासिक रूप से 381 दिन चला। चूंकि बसों में लगभग 75 प्रतिशत संख्या काले लोगों की होती थी इसलिए इस बहिष्कार के कारण लगभग सभी बस कम्पनियां आर्थिक रूप से तबाह हो गयीं। बहिष्कार को लागू करने में काले लोगों को भी बहुत कष्ट झेलना पड़ा। बहुतों को अपने काम पर जाने के लिए 30-30 किमी तक पैदल चलना पड़ता था। हालांकि धनी काले लोगों ने अपनी कारें उनकी मदद के लिए दे दीं थी, जिसे वे लोग शेयर टैक्सी के रूप में इस्तेमाल करते थे। तत्कालीन अमरीकी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी इस आन्दोलन का सक्रिय समर्थन किया। इस आन्दोलन ने कुछ ही महीनों में व्यापक रूप ले लिया। अन्ततः अमरीकी सीनेट को बाध्य होना पड़ा और गोरे कालों के अलगाव के इस कानून को रद्द करना पड़ा। अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन की यह बहुत बड़ी जीत थी। अमेरिका का रैडिकल ब्लैक पैन्थर मूवमेन्ट भी इसी जमीन पर पैदा हुआ।
रोजा पार्क की जन शताब्दी पर एक बहुत अच्छी किताब The Rebellious Life of Mrs. Roza Parks आयी है। न्यूयार्क में राजनीतिक विज्ञान की प्रोफेसर जीन थियोहारिस ने इसे बहुत ही शोधपरक तरीके से लिखा है।
रोजा पार्क पार एक बेहद अच्छी डाक्यूमेन्ट्री Eyes On The Prize आप यहां देख सकते हैं।
रोजा पार्क के बाद हुए ब्लैक मूवमेंट ने वो ब्लैक साहित्य पैदा किया जिसकी प्रेरणा से अपने देश में भी दलित पैन्थर और दलित साहित्य का जन्म हुआ। इसकी कहानी फिर कभी……………

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