बर्फ के भीतर छिपी आग

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बस अभी ओरहान पामुक का उपन्यास ‘स्नो’ पढ़ कर खत्म किया। अजीब संयोग है कि जब यह उपन्यास अपने पढ़ कर खत्म करने को थी तभी तुर्की में प्रतिरोध आन्दोलन छिड़ा हुआ है। मुद्दा वही चिरपरिचित है-जनता का सरकार के प्रति गुस्सा और तात्कालिक मुद्दा है कि सरकार वहां के एक ग्रीनजोन को उखाड़ कर मॉल बनाना चाहती है।
592 पृष्ठ के इस उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ ने किया है। यह उपन्यास इस मायने में उल्लेखनीय है कि यह दुनिया के एक और देश तुर्की के अन्दरुनी समाज और राजनीति से परिचय कराता है। पूरे उपन्यास में पृष्ठ दर पृष्ठ बर्फ के नाजुक फाहे बरसते रहे और जहन पर भी छाते रहे। पूरे उपन्यास में बर्फ एक प्रतीक बन गयी है। उस समाज के दर्शन की, उस समाज के मनोविज्ञान की तथा उस समाज के भीतर पर्त दर पर्त छिपी आग की……
तुर्की भौगोलिक रूप से यूरोप से सटा हुआ देश है। यह ऐसा देश है जो एशिया को यूरोप से जोड़ता है। ऐसे में वहां की भौगोलिक अवस्थिति का प्रभाव वहां के समाज और राजनीति पर भी पड़ता है। भारत जितनी असंख्य विविधता वहां भले ही न हो पर वहां भी कई तरह का समाज बसता है। यूरोप के पड़ोस में होने के कारण तुर्की भी यूरोपीय साम्राज्यवाद का शिकार रहा है। समूचे ओटोमन साम्राज्य के दौरान तुर्की यूरोप के गले की हड्डी बना रहा। उसके जलडमरूमध्य क्षेत्रों पर कब्जा करने के लिए साम्राज्यवादियों में लगातार होड़ लगी रही। 1918 में ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आन्दोलन ने वहां पर राष्ट्रीय राज्य की एवं 1923 में गणतन्त्र की स्थापना की।
एशिया एवं यूरोप से लगा होने के कारण वहां पर एक साथ एशियाई पिछड़ापन और यूरोपीय आधुनिकता मिलती है। हलांकि वहां का पिछड़ापन भारत जैसा नहीं है फिर भी यूरोप के समक्ष काफी पिछड़ा है। ओरहान पामुक का उपन्यास हमें साफ पता चलता है कि वहां भी अन्तरविरोधों की अनेकों परतें हैं। जो आपस में काफी उलझी हुयी हैं। वहां पर एक तरफ पश्चिमोन्मुखी अभिजात्यवर्ग है जो हर बात में पश्चिम की मिसाल देता है और एक बड़ा तबका वहां पर तुर्की को यूरोप के साथ संलग्न करने की मांग करता रहा है। यह अभिजात्य वर्ग अपने यहां के गरीबों को हिकारत से देखता है या फिर ऐसा मानता है कि उनकी मुक्ति पश्चिम की नकल में ही है। यहां के समाज में एक अन्य तबका है जो पूरी दुनिया के मुसलमानों की तरह साम्राज्यवाद की मुखालफ़त कर रहा है और इसका एक तबका अपनी पहचान को हर हाल में कायम रखने के लिए कट्टरपन्थ का सहारा ले रहा है। वहीं भारत जैसे देशों की तरह तथाकथित लोकतन्त्रवादी, गणतन्त्रवादी व तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शासक वर्ग है जो अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को हर सम्भव फासीवादी तरीके से अपने खुफ़िया तन्त्र, पुलिस और फौज के सहारे कुचल देना चाहता है। समाज का एक बड़ा तबका गरीबी और बदहाली में जीवन जी रहा है। यहां की तरह ही कुछ राष्ट्रवादी यह चाहते हैं कि वहां की गरीबी और बदहाली का जीवन बाहरी दुनिया के सामने उजागर न हो। इसके अलावा यहां के गरीबों में एक बड़ी संख्या कुर्द राष्ट्रीयता के लोगों की है। दुनिया के तमाम राष्ट्रीयता के संघर्ष की तरह ही यहां भी बरसों से कुर्द लोग सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध चला रहे हैं। हरेक जगह के शासक वर्ग की तरह ही इन्हें बूटों तले रौंदने का पूरा प्रयास हो रहा है। यहां की महिलाएं एशियाई समाज की महिलाओं से थोड़ी स्वतन्त्र हैं लेकिन देश में तेजी से बढ़ती धार्मिकता का शिकार हैं। जैसे कट्टरपन्थियों द्वारा उन पर स्कार्फ को थोपा जाना।
राजनीतिक रूप से तुर्की शासकवर्ग अमरीका का बड़ा पिट्ठू है। ईराक युद्ध में वह अमरीका का सहयोगी रहा। नाटो का सक्रिय सदस्य है।
ऐसे अन्तरविरोधों से भरे समाज में ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ का नायक ‘का’ तुर्की के एक छोटे शहर कार्स में एक बर्फीली सांझ में प्रविष्ट होता है। वह यहां पर एक अखबार के पत्रकार के रूप में आया है जो यह जानना चाहता है कि कार्स में युवतियों में खुदकुशी की लत महामारी की तरह क्यों फैल गयी है। कार्स में प्रवेश करने के साथ ही पन्ने दर पन्ने वह बर्फ के फाहों के बीच उपरोक्त तमाम अन्तरविरोधों में घिर जाता है। जर्मनी में निर्वासित जीवन जीने वाला यह कवि, साहित्यकार अपने एक पुराने प्रेम की तलाश में यहां आया है। प्रेम का प्याला उसके लब तक आकर छलक जाता है और वह तमाम अभिजात्य साहित्यकारों और कवियों की तरह चिर अकेला और अवसाद से घिरा रह जाता है। यहां रहने के दौरान उसे कई बार भ्रम (यकीन की हद तक) होता है कि वह भी ख़ुदा में यकीन करने लगा है। उपन्यास की पृष्ठभूमि में प्रेम एक अन्तर्धारा के रूप में चलता है पर मुख्यतः यह उपन्यास राजनीतिक है। समाज के विभिन्न अन्तरविरोध आपस में उलझते हुए अपना अस्तित्व सिद्ध करने की कोशश करते हैं। हालांकि लेखक इन तमाम अन्तरविरोधों में अपना पक्ष खुल कर नहीं रखता है पर कई बार वह आध्यात्मवाद की तरफ झुकता सा नज़र आता है। सड़क पर चलते हुए, कभी कॉफ़ी पीते हुए, कभी आध्यात्मिक गुरू से मिलते हुए और कभी कहीं, कभी कहीं कवि का को कविता का इलहाम होता है और वह बेहतरीन कविताएं रचता है।
उपन्यास के चरम में कार्स में एक फौजी कार्यवाई में धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र विरोधी इस्लामवादियों को बुरी तरह कुचल दिया जाता है। कवि का को जबरन कार्स से बाहर जाने वाली गाड़ी में बिठा दिया जाता है। उसके साथ जर्मनी जाकर जीवन बिताने का वादा करने वाली उसकी प्रेमिका अपना निर्णय बदल देती है। तमाम अभिजात्य कवियों की तरह जनता से बुरी तरह कटा हुआ कवि का अपना अन्तिम समय अकेलेपन और अवसाद में बिताता है। का के कार्स से बाहर निकाले जाने के साथ ही बर्फ पिघलने लगती है। और कार्स शहर के दुनिया से जुड़ने वाले रास्ते खुल जाते हैं। सबकुछ सामान्य सा दिखायी लगने लगता है। उपन्यास में बर्फ को एक दार्शनिक प्रतीक के दौर पर लिया गया है। जिसकी अनगिनत परतों के भीतर आग सुलग रही है। पर पता नहीं क्यों लेखक उस आग को सतह पर आने से बचता है या जानबूझ कर आने नहीं देता। बर्फ जितने ठंडेपन से ही शासक वर्ग उस आग को दबा देता है। उपन्यास का अन्त बर्फ पिघलने और सबकुछ सहज होने से करके लेखक इतने उलझे हुए अन्तरविरोधों का सरलीकरण कर देता है। शायद स्वयं लेखक के पास इन अन्तरविरोधों का कोई जवाब नहीं है।
लगभग 600 पन्ने के भारी भरकम उपन्यास ओरहान पामुक की कलम पर पकड़ को दर्शाता है। कथ्य एवं शिल्प में यह उपन्यास लाजवाब है। इतना बड़ा उपन्यास कहीं से भी बोझिल नहीं होता है। का के जीवन का एक-एक चित्रण लेखक चलचित्र की तरह करता है। ऐसा लगता ही नहीं हम उसके जीवन को पढ़ रहे हैं, लगता है जैसे हम का के जीवन एवं तुर्की समाज को चलचित्र में देख रहे हैं। का के माध्यम से वहां के समाज की बारीकियों को इतनी खूबसूरती से गूंथा है कि पढ़ने वाला दंग रह जाए।
प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ का अनुवाद भी बेहद सहज बन पड़ा है। इतने मोटे इस उपन्यास को पढ़कर ऐसा कहीं से नहीं लगा कि पढ़कर वक्त बरबाद कर दिया। हो सकता है कि तुर्की समाज के प्रति अपनी अज्ञानता के कारण ऐसी सार्थकता का अहसास हो रहा हो। अन्त में एक बेमतलब सा प्रश्न ज+हन में यूं ही कौंध रहा है कि अगर नायक कवि का न होकर हमारा प्रिय कवि नाज़िम हिकमत होता तो उपन्यास कैसा होता???

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