‘साइबर स्पेस का तेजी से सैन्यीकरण हो रहा है। एक तरह से कहे तो साइबर स्पेस पर सैन्य आधिपत्य स्थापित हो रहा है। जब आप इन्टरनेट के माध्यम से अपनी सूचनाओं का आदान प्रदान करते है या नेट से जुड़े फोन का उपयोग करते है तो आप की यह सभी गतिविधियां सैन्य खुफिया तंत्रों द्वारा इन्टरसेप्ट की जाती है। यह ऐसा ही है जैसे आपके बेडरुम में एक टैंक रखा हो। यह ऐसा ही है जैसे आपके और आपकी पत्नी के बीच हो रहे एसएमएस [sms] के बीच में एक सैनिक खड़ा हो। जहां तक सूचनाओं के आदान प्रदान की बात है तो हम आज ‘मार्शल ला’ के अधीन रह रहे हैं। भले ही हम टैंक को ना देख पाये, लेकिन वह अस्तित्वमान है।‘
‘विकीलीक्स’ के संस्थापक जूलियन असांज ने यह विचारोत्तेजक बात अपनी नयी किताब cypherpunks में की है। यह किताब वास्तव में बातचीत की शैली में लिखी गयी है। इसमें इन्टरनेट डेमोक्रेसी और ओपन साफ्टवेयर के पक्ष में पुरजोर अभियान चलाने वाले लोगो के साथ जूलियन असांज की विचारोत्तेजक बातचीत दर्ज है। बातचीत इस अंदाज में की गयी है कि इन्टरनेट की तकनीकी शब्दावली से परिचित ना होने वाला व्यक्ति भी इसे आसानी से समझ सकता है। इस बातचीत में जूलियन असांज के अलावा जैकब अपेलबाम, एण्डी मूलर और जेरेमी जिमरमान ने भाग लिया। यह किताब पिछले साल के अन्त में प्रकाशित हुई थी।
जब मैने इस किताब को पढ़ना शुरु किया तो इसी बीच संयोग से अमरीकन खूफिया तंत्र का सबसे बड़ा खुलासा सामने आया। अमरीकी खुफिया तंत्र के ही एक भूतपूर्व कर्मचारी स्नोडेन ने अमरीकी खूफिया एजेन्सी एन एस ए [जिसके अस्तित्व का बहुत समय तक लोगो को पता ही नही था। इसी कारण बाद में इसका निक नेम पड़ गया-no such agency] की प्रिज्म नामक प्रोजेक्ट का खुलासा किया। प्रिज्म प्रोजेक्ट के तहत अमरीका गूगल, याहू, फेसबुक, माइक्रोसाफ्ट सहित दुनिया की नौ बड़ी इन्टरनेट कम्पनियों के सर्वर से सभी जानकारियां अपने पास इकट्ठा कर रहा है [जाहिर है इन कम्पनियों की सहमति से]। यानी दुनिया भर के उन सभी लोगों की जानकारियां अमरीका के पास इकट्ठा हो रही हैं जो जी मेल, याहू मेल, हाट मेल, गूगल, या फिर फेसबुक का इस्तेमाल करते है। दुनिया भर के ज्यादातर देशों के आधिकारिक काम भी इन्ही कम्पनियों के मेल पर होते है। जिसमें जाहिर है कि संवेदनशील सूचनायें भी होती है। यही कारण है कि ‘यूरोपियन यूनियन’ सहित कई देशों ने अमरीका से कड़ा जवाब मांगा है। और प्रिज्म नामक प्रोजेक्ट को तत्काल बन्द करने की मांग की है। भारत सरकार ने भी औपचारिक विरोध दर्ज कराया है। प्रिज्म नामक प्रोजक्ट में शामिल गूगल, याहू, फेसबुक जैसी कम्पनियां बैकफुट पर आ गयी है। और उन्हे कोई जवाब नही सूझ रहा है।
इसी से जुड़े एक अन्य खुलासे में पता चला कि अमरीका अपने देश के सभी नागरिको की सभी फोन कालो का सम्पूर्ण रिकार्ड अनिश्चित काल के लिए रखता है। इसके अलावा अमरीका से बाहर जाने वाली और अन्दर आने वाली सभी फोन कालों का रिकार्ड रखा जाता है। दिलचस्प बात यह है कि 1978 में एक कानून द्वारा यह सुनिश्चित कर दिया गया था कि किसी के फोन काल को रिकार्ड करने या उसका ‘लाग’ रखने के लिए कोर्ट की मंजूरी आवश्यक होगी। अमरीका का उपरोक्त व्यवहार अपने ही बनाये कानून का खुला उल्लंघन है।
सवाल यह है कि इन्टरनेट कम्पनियां और देशों की सरकारें यह ‘डाटा माइनिंग’ क्यो कर रही है, जो कि आज पागलपन की हद तक जा पहुचा है। जूलियन असांज की इस किताब में एण्डी मूलर ने बताया कि ‘यूरोपियन डाटा प्रोटेक्शन एक्ट’ के तहत जब कुछ लोगो ने फेसबुक पर यह दबाव बनाया कि फेसबुक पर उनसे संबन्धित जो भी जानकारी है उसे उन्हे दिखाया जाय। और जब फेसबुक ने उन्हें जानकारी सौपी तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहा किसी एक व्यक्ति के बारे में न्यूनतम जानकारी भी 350 एमबी से अधिक है। जूलियन असांज ने सही कहा है कि फेसबुक और गूगल आपके बारे में आपसे अधिक जानते है । इसे एक दिलचस्प उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। मान लीजिए आप अपनी ‘प्रेगनेन्सी’ टेस्ट कराने किसी क्लिीनिक पर गयी हैं, वहां डाॅ. ने आपसे कहा कि वो आपकी रिपोर्ट शाम तक आपको आपके इमेल पर भेज देगा। यदि आपका मेल ‘जीमेल’ पर है तो यकीन जानिये आपसे पहले जीमेल को यह पता चल जायेगा कि आप प्रेगनेन्ट हैं। जीमेल तुरन्त यह जानकारी किसी दवा कम्पनी को बेच देगा। और हो सकता है कि आपके मेल खोलने से पहले ही उस दवा कम्पनी का एजेन्ट आपके दरवाजे पर खड़ा हो और आपको प्रेगनेन्सी के दौरान पौष्टिक गोलियां खरीदने की सिफारिश कर रहा हो। यह नही भी हुआ तो आपके मेल पर आपके सोशल साइट्स पर इससे सम्बन्धित प्रचार तो आने शुरु ही हो जायेंगे। भारत के लिए भले ही यह कहानी कल्पनातीत हो लेकिन अमरीकी समाज की यह सच्चाई है।
यानी नेट पर छोड़ी गयी या छूट गयी आपकी जानकारियो से आपका प्रोफाइल तैयार किया जाता है और फिर इसे बिना आपसे पूछे विभिन्न कम्पनियों को बेचा जाता है। यानी आपकी निजता का कोई मतलब नहीं है. कुछ समय पहले भी इससे जुडी एक दिलचस्प घटना घटी थी. अमेरिका में एक आदमी अपने आँगन में नंगा लेटा था. किसी अन्य आदमी ने गूगल अर्थ पर कुछ सर्च करते हुए उसे नंगा लेटा देख लिया . और उसकी तस्वीर नेट पे डाल दी. यानी आप अपने आँगन में भी अपनी निजता सुरक्षित नहीं रख सकते. बाद में विवाद बढने पर गूगल को उस आदमी को हर्जाना देना पड़ा.
ये जानकारियां जब उस देश की सरकारें जुटाती है तो उनका मकसद दूसरा होता है। दरअसल किसी भी देश के शासक वर्ग के लिए यह जरुरी है कि उसका उस समय की अत्याधुनिक टेक्नोलाजी पर नियंत्रण हो। टेक्नोलाजी एक हथियार की तरह है। वह जिसके पास होगी उसे ताकतवर बनायेगी। यही कारण है कि दुनिया के तमाम परमाणु सम्पन्न देश यह नही चाहते कि उनके अलावा किसी और देश के पास यह तकनीक जाये। और जाये भी तो उसका नियंत्रण उनके हाथ में रहे। ‘इन्टरनेट’ के बारे में भी यही सच है। आज इन्टरनेट की लगभग सभी बड़ी कम्पनियों के सर्वर अमरीका में है। दुनिया में 80 प्रतिशत पैसों का लेन देन तीन बड़ी कम्पनियों ‘मास्टर कार्ड’, ‘पेपाल’, और ‘वीसा’ के जरिये होता है। और तीनो के ही सर्वर अमरीका में है। इसलिए अमरीका के लिए पूरी दुनिया की जासूसी करना बहुत आसान है। हमे यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यह सूचनाएं अमरीका अपने सहयोगी देशों से भी साझा करता है। इसलिए उन्हे भी इसका लाभ मिलता है।
दूसरा बड़ा कारण है तेजी से बढ़ता सर्विलांस उपकरण बनाने का उद्योग। इनका व्यापार आज बिलियन बिलियन डालर में है। ये उपकरण पिछले दशक में तेजी से सस्ते हुए हैं। आलम यह है कि आज 10 से 12 मिलियन डालर खर्च करके आप 20 से 25 करोड़ की जनसंख्या वाले देशो के सभी फोन काल्स पर नजर रख सकते है। इसलिए तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों की सरकारें इन उपकरणों का अन्धाधुन्ध इस्तेमाल कर रही हैं। मिस्र, ट्यूनीशिया, टर्की, बांग्लादेश तथा अरब के अन्य देशो की तानाशाही सरकारों ने इन उपकरणों का प्रयोग करके आन्दोलनो को दबाने का भरपूर प्रयास किया था।
दूसरे देशों की सरकारे भी यह बात अच्छी तरह जानती है कि देर सबेर उन्हे भी जन असंतोष का सामना करना ही पड़ेगा। इसलिए अमरीकी मदद से अभी से ही इसकी तैयारी कर रही हैं। और इसी तैयारी का यह भाग है कि ज्यादा से ज्यादा जानकारी अपने देश के लोगों के बारे में जुटाया जाय ताकि भविष्य में किसी भी आन्दोलन को नेतृत्व विहीन किया जा सके।
लेकिन मिस्र और ट्यूनीशिया जैसे देशों में शासकों का यह प्रयोग सफल नही हुआ। क्योकि जर्मन कवि बर्तोल्त बेख्त ने बहुत पहले ही इसकी असफलता की घोषणा अपनी निम्न कविता में कर दी थी। वह कविता आज भी प्रासंगिक है। और यह कविता ‘स्नोडेन’ जैसे लोगो को सलाम भी है।
सेनाधीश, तुम्हारा टैंक एक शक्तिशाली वाहन है
यह जंगलों को कुचल देता है और सैकड़ों लोगों को भी।
पर उसमें एक खोट है:
उसे एक चालक की ज़रूरत होती है।
सेनाधीश, तुम्हारा बमवर्षी बहुत ताकतवर है,
यह तूफ़ान से भी तेज़ उड़ता है और एक हाथी से ज़्यादा वज़न ले जा सकता है।
पर उसमें एक खोट है:
उसे एक मेकैनिक की ज़रूरत होती है।
सेनाधीश, आदमी बड़े काम की चीज़ है।
वो उड़ सकता है और मार सकता है।
पर उसमें एक खोट है:
वो सोच सकता है।