26 फरवरी की रात 2012 को अमेरिका के ‘फ्लोरिडा’ नामक शहर में ‘ट्रायवान मार्टिन’ नामक व्यक्ति को ‘जिम्मरवान’ नामक व्यक्ति ने गोली मार दी। मार्टिन की मौके पर ही मौत हो गयी। इस घटना का खास एंगल यह था कि मरने वाला ‘ब्लैक’ था और मारने वाला ‘गोरा’ व्यक्ति था।
घटना के बाद जिम्मरवान को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन आश्चर्यजनक रुप से महज पांच घंटे बाद ही छोड़ दिया गया। कहा गया कि उनके पास कोई सबूत नही है। इसके बाद अमरीका के कई शहरों में विशेषकर ब्लैक्स के और मानवाधिकार संगठनों के बड़े बड़े प्रदर्शन हुए। तब जाकर जिम्मरवान के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया है। और इसी 13 जुलाई को कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया और जिम्मरवान को इस आधार पर बरी कर दिया कि उसने आत्मरक्षा में मार्टिन पर गोली चलायी। जबकि मुकदमें के दौरान खुद कोर्ट ने भी यह माना कि मार्टिन निहत्था था, जबकि जिम्मरवान के पास हथियार था।
इस घटना ने एक बार फिर इस बहस को तेज कर दिया कि दुनिया के ‘सबसे विकसित देश और सबसे पुराने लोकतंत्र’ में नस्लवाद अभी भी कितनी गहराई तक घंसा हैं।
इन सब खबरों से गुजरते हुए कई संदर्भ दिमाग में आने लगे। अमरीकी जेलों में काले लोगों की संख्या अपने जनसंख्या अनुपात से कही अधिक है।
ब्लैक्स के लोकप्रिय नेता ‘मुमिया अबू जमाल’ पिछले 20 सालों से जेल में है। पूरी दुनिया में उनके समर्थन में आवाजें उठ रही है। लेकिन उन्हे अभी तक रिहा नही किया गया है।
इसी संदर्भ में बहुत पहले पढ़ी एक किताब शिद्दत से याद आयी। 1961 में प्रकाशित इस किताब का नाम है- ब्लैक लाइक मी। इसके लेखक हैं ‘जान हावर्ड ग्रीफिन’। ब्लैक्स के साथ सहानुभूति रखने वाले ग्रीफिन उनके बीच रहकर उनकी वास्तविक स्थिति जानना चाहते थे। लेकिन उनकी गोरी चमड़ी इसमें बाधक थी। इस बाधा को दूर करने के लिए उन्होने नायाब लेकिन जोखिम भरा रास्ता निकाला। यह रास्ता था – मेडिकल साइन्स के सहयोग से अपनी चमड़ी का रंग काला कर लेना और फिर कुछ समय के लिए उनके बीच बस जाना। उनके दोस्त मित्रों ने उन्हे इसके सामाजिक और शारीरिक खतरों से आगाह कराया। लेकिन वे अपनी जिद पर अड़े रहे। अंततः उन्होने कालों के बीच कालों की तरह रहकर उस जलालत और अपमान को सीधे महसूस किया जो काले लोग सदियों से सहते आ रहे थे। इसके बाद अपने इसी अनुभव के आधार पर उन्होने बहुत ही मर्मस्पर्शी किताब लिखी- ‘ब्लैक लाइक मी’।
इस किताब के माध्यम से दुनिया को जब लेखक के इस ‘प्रोजेक्ट’ के बारे में पता चला तो गोरे लोगों और काले लोगों के बीच उनके समान रुप से दुश्मन पैदा हो गये। गोरो को लगा कि कालो के बीच काले के रुप में रहकर ग्रीफिन ने सभी गोरों का अपमान किया है। दूसरी ओर कुछ काले लोगो को लगा कि ग्रीफिन ने अपना रंग छुपा कर उन्हे धोखा दिया है और उन्हे अपमानित किया है।
इसी किताब पर आधारित इसी नाम से फिल्म भी बनी है। इस फिल्म के अंतिम दृश्य में इस बहस के दौरान लेखक कहता है कि उसने यह ‘प्रोजक्ट’ सिर्फ अपने लिए किया है। उसे हक है यह जानने का कि देश की इतनी बड़ी आबादी आखिर किन स्थितियों में अपना जीवन गुजारती है।
भारत में जाति समस्या की तुलना अक्सर अमरीका के इस नस्लवाद से की जाती है। वहां के ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज पर यहां ‘दलित पैंथर’ भी बन चुका है। लेकिन उपरोक्त घटना के संदर्भ में मै सोच रही थी कि क्या यहां कोई यह प्रयोग कर सकता है। यहां तो आपकी पहचान आपकी जाति से है। चमड़ी का रंग तो बदला जा सकता है लेकिन जाति कैसे बदली जायेगी। यहां तक कि धर्म परिवर्तन के बाद भी जाति का साथ नही छूटता। यानी जाति तो आप इस जनम में तो क्या सात जनम में भी नही बदल सकते। इस सन्दर्भ में एक रोचक प्रसंग संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ में आया है। भिखारी ठाकुर सपना देखते हैं कि अगले जन्म में वे ब्राहमण हो गये है और उनका खूब आदर सत्कार हो रहा है। एक जजमान के यहां से जब वे दान दक्षिणा लेकर निकल रहे थे, तभी दरवाजे तक छोड़ने आये जजमान ने भिखारी ठाकुर के कान में कुछ कहा और उस वाक्य को सुनते ही भिखारी ठाकुर की नींद खुल गयी। जजमान ने उनके कान में कहा था – ‘का हो पिछले जनम में त तू नाई रहलअ न!’
मैं रो पड़ा…