पूंजीपतियों,बैंकों के बड़े अधिकारियों,नौकरशाहों और नेताओं के बीच की मिलीभगत जगजाहिर है। लेकिन भारत में इस पर शायद ही कोई साहित्य हो। भारत में इस गठजोड़ पर सबसे उम्दा किताब ‘दी पालिस्टर प्रिन्स’ है। लेकिन यह किसी भारतीय ने नही लिखी है। बल्कि एक आस्ट्रेलिया पत्रकार ने लिखी है। शुरुआत में इसे बैन कर दिया गया था।
तहलका के पिछले अंक में ‘राहुल कोटियाल’ की एक स्टोरी छपी है। कायनेटिक समूह के मालिकों ने बैंक के अधिकारियों और नेताओं से मिलीभगत के माध्यम से कैसे देश को करोड़ों का चूना लगाया है, इसे राहुल ने परत दर परत उधाड़ा है। इसे हम तहलका से साभार ले रहे है।
उत्तराखंड के टिहरी जिले का एक गांव है सिंजल. बीते दिनों आई आपदा में यहां के कई घर जमींदोज हो गए. हरी सिंह इस गांव के उन लोगों में से हैं जिन्होंने आपदा में अपना सब कुछ खो दिया. लगभग एक महीने बाद सरकार ने आपदा राहत की रकम बांटी तो हरी सिंह को भी दो लाख रुपये का चेक मिला. उन्होंने यह चेक बैंक की स्थानीय शाखा में जमा करवाया. कुछ दिनों बाद जब वे पैसे निकालने बैंक पहुंचे तो पता चला कि बैंक ने इनमें से 33 हजार रुपये काट लिए हैं. पूछताछ करने पर हरी सिंह को बताया गया कि उन्होंने कुछ साल पहले बैंक से कर्ज लिया था इसलिए बैंक ने बकाया राशि राहत के लिए उन्हें मिली रकम में से काट ली है. इस तरह बैंक ने बेघर हो चुके हरी सिंह से उसके घर बनाने के पैसे वसूल कर अपना नुकसान बचा लिया.
हरी सिंह की यह कहानी सिर्फ उन्हीं तक सीमित नहीं है. देश में ऐसी कई कहानियां हैं जहा बैंक आसानी से उन लोगों से अपना बकाया वसूल लेते हैं जो इसके बाद आत्महत्या करने तक को मजबूर हो जाते हैं. लेकिन वहीं दूसरी तरफ विजय माल्या जैसे अरबपति भी हैं जो बैंक से कर्ज लेते हैं, कंपनी को डुबाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते और ऐसा हो जाने के बाद अपने हाथ खड़े कर देते हैं. ऐसे लोग इसके बाद भी अरबपति ही रहते हैं, लेकिन बैंक फिर भी उन्हें दिया हुआ कर्ज नहीं वसूल पाते. वे हजारों करोड़ रुपये का नुकसान खुद ही झेल जाते है. सरकारी बैंकों के इस पैसे के डूब जाने का बोझ अंततः आम जनता के ऊपर पड़ता है. बैंकों के करोड़ों रुपये गायब कर जाने की ऐसी ही एक कहानी देश की प्रतिष्ठित कंपनी काइनेटिक के मालिक अरुण फिरोदिया और उनकी बेटी सुलज्जा फिरोदिया मोटवानी की भी है.
इस कहानी की शुरुआत होती है 80 के दशक से. भारत सरकार उदारवाद के नाम पर विदेशी कंपनियों के लिए सारे दरवाजे खोलने की तैयारी में थी. ‘काइनेटिक इंजीनियरिंग लिमिटेड’ नाम की एक कंपनी उस दौर में गाड़ियों के पुर्जे बनाया करती थी. सन 84 में इस कंपनी ने जापान की ‘होंडा मोटर कंपनी’ के साथ मिलकर ‘काइनेटिक होंडा’ नाम से नई कंपनी स्थापित की. इस कंपनी ने दुपहिया वाहन बनाना शुरू किए. भारत दुपहिया वाहनों के क्षेत्र में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है. इसका एक कारण यह भी है कि यहां विकसित देशों की तरह दुपहिया सिर्फ शौक की नहीं बल्कि जरूरत और मजबूरी की भी सवारी है. काइनेटिक होंडा ने जल्द ही बाजार में अपनी मजबूत पकड़ बना ली. एक समय ऐसा भी आया जब दुपहिया वाहनों के इस विशाल बाजार के 12 फीसदी से भी ज्यादा पर सिर्फ इसी कंपनी का कब्जा हो गया. काइनेटिक के मालिकों के सपने अब और बड़े होने लगे. इन सपनों को पूरा करने लिए उन्होंने दुपहिया वाहनों के निर्माण के अलावा कई छोटी-छोटी फाइनैंस कंपनियां खोलना भी शुरू किया. 30 अगस्त, 1990 को उन्होंने मुंबई की एक कंपनी ‘ट्वेंटीथ सेंचुरी फाइनैंस कॉरपोरेशन लिमिटेड’ और ‘काइनेटिक इंजीनियरिंग लिमिटेड’ को मिलाकर ‘ट्वेंटीथ सेंचुरी काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड’ का गठन किया. इसके साथ ही ‘इंटीग्रेटेड काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड’ और ‘काइनेटिक कैपिटल फाइनैंस लिमिटेड’ जैसी कंपनियां भी स्थापित की गईं. इन सभी कंपनियों का काम काइनेटिक की गाड़ियों के लिए खरीददार तैयार करना और उनको लोन देना था.
अरुण फिरोदिया, उनकी बेटी सुलज्जा फिरोदिया और उनकी कंपनी को कई बैंकों द्वारा करोड़ों रुपयों का ‘विलफुल डिफॉल्टर घोषित किया गया था
90 के दशक के अंत तक काइनेटिक होंडा देश की एक प्रतिष्ठित कंपनी बन चुकी थी. देश भर में हजारों लोग इसमें काम कर रहे थे. इन्हीं में से एक थे संदीप कपूर. संदीप उत्तर भारत के रीजनल हेड (सेल्स) के तौर पर काइनेटिक में काम कर रहे थे. 2004 में कंपनी की मालिक सुलज्जा फिरोदिया ने संदीप को बिना कोई नोटिस दिए ही नौकरी से निकाल दिया. संदीप बताते हैं, ‘मेरी पूरी नौकरी के दौरान मुझ पर कोई आरोप नहीं थे. लेकिन 2004 में अचानक ही कंपनी की मालिक सुलज्जा फिरोदिया ने मुझे 15 दिन की छुट्टी पर जाने को कहा. इसके बाद मुझे हेड ऑफिस में किसी नए प्रोजेक्ट पर भेजने को कहा गया था. मैं जब वापस आया तो मुझे कहा गया कि आपको अब नौकरी पर नहीं रख सकते.’
तहलका ने जब इस बारे में कंपनी की मालिक सुलज्जा फिरोदिया से बात की तो उनका कहना था, ‘संदीप कपूर पर यह आरोप था कि वे लोगों की नियुक्तियों के बदले पैसे की मांग कर रहे थे.’ लेकिन संदीप को कभी भी उन पर लगे आरोपों के संबंध में कोई लिखित नोटिस नहीं दिया गया. वे बताते हैं, ‘मुझे बस यह कहा गया कि तुम अपना इस्तीफा दे दो.’ कई कोशिशों के बाद भी जब संदीप को नौकरी पर नहीं रखा गया तो उन्होंने कोर्ट जाने का फैसला किया. कोर्ट से उन्हें न्याय तो मिला लेकिन इसमें कई साल लग गए. 2012 में जाकर कोर्ट ने कंपनी को निर्देश दिया कि संदीप को बिना नोटिस के निकाले जाने के एवज में तीन महीने की पगार और अन्य भत्ते दिए जाएं. इसके बाद संदीप को एक लाख 35 हजार रुपये का भुगतान हुआ.
काइनेटिक के साथ इतने सालों की अपनी लड़ाई के दौरान संदीप को कंपनी की कई गड़बड़ियां पता चलीं. अपना बकाया वसूलने के लिए जब संदीप हरसंभव कोशिश कर रहे थे उस दौरान उन्हें पता लगा कि कंपनी को सिर्फ उनका ही नहीं बल्कि कई बैंकों का भी बकाया चुकाना है. संदीप ने ‘क्रेडिट इनफॉर्मेशन ब्यूरो (इंडिया) लिमिटेड’ (सिबिल) से फिरोदिया की कंपनियों की जानकारी निकाली. सिबिल में भारतीय वित्तीय प्रणाली से संबंधित लगभग सभी महत्वपूर्ण सूचनाएं दर्ज होती हैं. यहां से मिली जानकारी ने संदीप को भी हैरत में डाल दिया. अरुण फिरोदिया, उनकी बेटी सुलज्जा फिरोदिया और उनकी कंपनी को कई बैंकों द्वारा करोड़ों रुपयों का ‘विलफुल डिफॉल्टर’ घोषित किया गया था. कई सालों से इनका नाम लगातार उन लोगों की सूची में दर्ज था जिन्होंने जान-बूझकर बैंकों का पैसा वापस नहीं किया था. इस जानकारी के बाद संदीप ने भारत सरकार के कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय से भी फिरोदिया परिवार की कंपनियों से जुड़ी जानकारियां मांगीं. धीरे-धीरे संदीप को पता लगा कि फिरोदिया परिवार ने कुल 200 करोड़ रु से भी ज्यादा का घपला किया है. इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह थी कि इतने बड़े घपले के बाद भी ये लोग न सिर्फ बेदाग घूम रहे थे बल्कि भारत के सर्वोच्च संस्थानों में सदस्यता और सम्मान भी पा रहे थे.
संदीप कपूर ने जब फिरोदिया परिवार और उनकी कंपनी के घोटालों से संबंधित पर्याप्त जानकारियां हासिल कर लीं तो उन्होंने कई विभागों और मंत्रालयों को इस बारे में सूचित किया. भारतीय रिजर्व बैंक, कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय, सीबीआई, केंद्रीय सतर्कता आयोग, प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति तक को संदीप ने फिरोदिया परिवार के घोटालों से अवगत कराया. कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय के ‘गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय’ ने इस शिकायत पत्र का संज्ञान भी लिया. विभाग की संयुक्त निदेशक ऋचा कुकरेजा ने इस शिकायत पत्र को 19 सितंबर, 2012 को आगे बढ़ाते हुए इस पर कार्रवाई की संस्तुति की. मगर यह कार्रवाई ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाई. ऐसे ही अन्य विभागों को भेजी गई शिकायतों का भी कोई खास असर नहीं हुआ. लेकिन केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने इस मामले को गंभीरता से लिया. जितने भी बैंकों का रिश्ता इस घोटाले से था, उन सभी को सीवीसी ने मामले की जांच के आदेश दिए. कई बैंकों के मुख्य सतर्कता अधिकारियों द्वारा इस मामले की जांच की गई. इन्हीं में से एक सतर्कता अधिकारी ने जांच रिपोर्ट अपने बैंक को सौंपने के साथ ही सीवीसी की एक सहायक संस्था को भी एक रिपोर्ट भेजी. इसकी प्रतिलिपि तहलका के पास मौजूद है. इस रिपोर्ट के साथ ही जब तहलका ने अन्य स्रोतों से जुटाए गए दस्तावेजों की पड़ताल की तो परत-दर-परत फिरोदिया परिवार के पूरे घोटाले का खुलासा होता गया. इस घोटाले के संबंध में इलाहाबाद बैंक ने इसी साल 24 मई को पुणे के विश्रामबाग पुलिस थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट भी दर्ज करवाई है. इस रिपोर्ट में काइनेटिक कंपनी के मालिक अरुण फिरोदिया और सुलज्जा फिरोदिया पर भारतीय दंड संहिता की धारा 403, 406, 417, 420, 421, 422 और 34 के तहत आपराधिक मुकदमा दर्ज करने की मांग की गई है. इसकी प्रतिलिपि भी तहलका के पास मौजूद है.
बैंकों के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वे 150 करोड़ की विशाल धनराशि पूरे देश में फैले लगभग 50-60 हजार ग्राहकों से वसूलने के बारे में सोच भी सकतेअब बात करते हैं कि कैसे यह पूरा घोटाला किया गया.
दुपहिया वाहनों के बाजार में काइनेटिक का नाम स्थापित होने के बाद जैसा कि पहले बताया जा चुका है, फिरोदिया परिवार के लोग छोटी-छोटी फाइनेंस कंपनियां खोलने लगे थे. चूंकि इन कंपनियों के साथ काइनेटिक का नाम जुड़ा था, इसलिए ये सभी कंपनियां भी कम समय में ही अच्छा प्रदर्शन करने लगीं. 90 के दशक के अंत में अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने इन सभी छोटी-छोटी फाइनैंस कंपनियों को एक करना शुरू किया.
फिरोदिया परिवार का ऐसा करने के पीछे क्या कारण था इसका खुलासा सतर्कता अधिकारी की जांच रिपोर्ट में किया गया है. रिपोर्ट बताती है कि इन छोटी-छोटी कंपनियों के कई मालिक थे. भले ही इन सभी का नियंत्रण पूरी तरह से फिरोदिया परिवार के हाथ में था लेकिन अब वे कुछ बड़ा करने की फिराक में थे इसलिए उन्हें एक बड़ी कंपनी चाहिए थी.
14 मार्च, 2001 को इन छोटी कंपनियों के विलय के बाद ‘काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड’ नाम की एक बड़ी फाइनैंस कंपनी स्थापित हुई. अरुण फिरोदिया इस कंपनी के संस्थापक और चेयरमैन बने तो सुलज्जा फिरोदिया संस्थापक के साथ ही प्रबंध निदेशक बनीं. काइनेटिक के दुपहिया वाहनों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अब इस अकेली फाइनैंस कंपनी को भी भारी पूंजी की जरूरत थी. इस जरूरत को पूरा करने के लिए कंपनी के मालिकों ने अलग-अलग बैंकों से संपर्क किया. काइनेटिक अब तक एक ऐसा नाम बन चुका था कि हर बैंक इससे जुड़ने को तैयार था. कई बैंक इसे लोन देने के लिए सामने आए. 20 दिसंबर, 2001 को कुल 21 बैंकों के एक समूह से काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड का अनुबंध हो गया. यह अनुबंध कुल 144.56 करोड़ रुपये की धनराशि के लिए हुआ था और इस समूह का नेतृत्व भारतीय स्टेट बैंक कर रहा था. इस लोन के अलावा काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड ने कुछ ही समय बाद अन्य बैंकों से भी लगभग 50 करोड़ रुपये लिए. ये रुपए नॉन कनवर्टिबल डिबेंचर्स जारी करके लिए गए थे.
सतर्कता अधिकारी की रिपोर्ट और इलाहाबाद बैंक द्वारा की गई एफआईआर यह भी बताती है कि फिरोदिया परिवार ने इतना बड़ा लोन मात्र 10 करोड़ रुपये की संपत्ति गिरवी रखकर और अपनी व्यक्तिगत गारंटी देकर ही हासिल कर लिया था. जाहिर है इतने बड़े उद्योगपतियों की व्यक्तिगत गारंटी पर कोई भी बैंक लोन देने को तैयार हो जाता. काइनेटिक का नाम भी इतना बड़ा था कि हर बैंक इस समूह का हिस्सा बनने को उत्सुक था. लेकिन रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि यह लोन देते वक्त बैंकों के समूह ने भारी गलती की. लोन की कुल धनराशि की तुलना में गिरवी रखी गई संपत्ति सिर्फ सात प्रतिशत थी. हालांकि लोन देते वक्त यह भी तय हुआ कि इससे जो भी संपत्ति काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड अर्जित करेगी उसे बेचकर भी बैंक अपना पैसा वसूल सकते हैं. लेकिन इस शर्त का धरातल पर उतर पाना लगभग असंभव था. काइनेटिक फाइनैंस बैंक के इस पैसे से अपने ग्राहकों को लोन देती थी. यह लोन ज्यादा से ज्यादा 35 से 40 हजार रुपये का ही था. इस तरह से देखा जाए तो बैंकों से लिए गए पैसों से काइनेटिक ने लगभग 50 हजार से भी ज्यादा ग्राहकों को लोन दिया होगा. ऐसे में बैंकों के लिए यह मुमकिन नहीं था कि वे 150 करोड़ रुपये की विशाल धनराशि पूरे देश में फैले लगभग 50-60 हजार ग्राहकों से वसूलने के बारे में सोच भी सकते.
बहरहाल, लोन देने के बाद भी सभी बैंक बेफिक्र थे. काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड और बैंकों के समूह की नियमित अंतराल पर बैठकें भी हो रही थीं. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि ये सभी बैठकें बड़े-बड़े पांच सितारा होटलों में बड़ी धूम-धाम से हुआ करती थीं. अरुण और सुलज्जा फिरोदिया बैंकों के प्रतिनिधियों को खुश रखने का हर संभव प्रयत्न कर रहे थे. इन बैठकों के लिखित विवरणों को जांचने के बाद जांच अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ‘काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड के उज्जवल भविष्य के कई सपने बैंकों को दिखाए जाते थे और कभी भी किसी बैंक ने इस पर सवाल नहीं किए. इस तरह से फिरोदिया परिवार ने सभी बैंकों को पूरी तरह अपने विश्वास में ले लिया था.’
बैंकों के विश्वास का इस परिवार ने पूरा फायदा उठाया. एफआईआर और जांच रिपोर्ट के अनुसार कंपनी मालिकों ने कुछ समय बाद बैंकों के समूह का नेतृत्व कर रहे भारतीय स्टेट बैंक के प्रतिनिधियों से मुलाकात की. इस मुलाकात में उन्होंने लोन के बदले दी गई अपनी व्यक्तिगत गारंटी को हटाए जाने का अनुरोध किया. भारतीय स्टेट बैंक इसके लिए तैयार भी हो गया. बाद में इसे आधार बनाकर फिरोदिया परिवार ने अन्य बैंकों से भी अपनी व्यक्तिगत गारंटी निरस्त करवा दी. हालांकि तहलका से बात करते हुए सुलज्जा फिरोदिया बताती हैं, ‘हमने कभी भी बैंकों को अपनी व्यक्तिगत गारंटी नहीं दी थी.’ लेकिन तहलका को मिली एफआईआर में स्पष्ट लिखा है कि ‘अरुण फिरोदिया और सुलज्जा फिरोदिया की व्यक्तिगत गारंटी पत्र संख्या WZ/ADV/MF-90/464 द्वारा निरस्त कर दी गई थी.’ उस वक्त सभी बैंकों को फिरोदिया परिवार पर पूरा भरोसा था और जब समूह का नेतृत्व कर रहे स्टेट बैंक ने ही उनकी व्यक्तिगत गारंटी हटा दी तो बाकी बैंक भी इसके लिए तैयार हो गए. कंपनी के मालिकों को बस इसी वक्त का इंतजार था.
जिनकी व्यक्तिगत गारंटी के चलते कभी इस कंपनी को लोन मिला और यह स्थापित हुई थी, उन्हीं अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने इस कंपनी से इस्तीफा दे दिया
अपनी व्यक्तिगत गारंटी हट जाने के बाद अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने बैंकों की बैठकों में शामिल होना बंद कर दिया. इसके बाद से जो काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड अब तक बहुत अच्छा प्रदर्शिन कर रही थी वह अचानक ही घाटे में जाने लगी. जांच रिपोर्ट के अनुसार अगले ही वित्तीय वर्ष में कंपनी ने अपना कुल मुनाफा सिर्फ 6.5 करोड़ रुपये दर्शाया जो पिछले वित्तीय वर्ष में 56 करोड़ रुपये था. फाइनैंस कंपनी के जरिये अपने वाहनों के लिए लोन उपलब्ध कराने का जो मॉडल भारत में अन्य सभी कंपनियों पर खरा उतर रहा था वही अचानक काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड के लिए बेकार हो गया. इस बारे में पूछे जाने पर सुलज्जा फिरोदिया कहती हैं, ‘जो हुआ वह एक बिजनेस मॉडल का फेल होना था. इसके लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं. बैंकों को भी लोन देते वक्त यह एहसास होता है कि बिजनेस में रिस्क भी होता है.’ सभी बैंकों को अपने पैसे डूबने का एहसास होने लगा था. अगली ही बैठक में बैंकों ने फिरोदिया परिवार को सवालों से घेर लिया. इस बैठक में फिरोदिया परिवार ने सिटीग्रुप के साथ मिलकर व्यापार का एक नया मॉडल पेश किया. एफआईआर में साफ तौर पर यह भी लिखा है कि ऐसा सिर्फ बैंकों को कुछ समय तक शांत करने के मकसद से ही किया गया था.
बैंकों को व्यापार का नया मॉडल शुरू करने के फेर में उलझा कर फिरोदिया परिवार एक अलग ही खेल रच रहा था. 29 नवंबर, 2003 को हुई काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड की वार्षिक बैठक में उन्होंने कंपनी का नाम बदलने का प्रस्ताव पारित करवा दिया गया. ऐसा इसलिए किया गया कि यह कंपनी अब बदनामी की ओर बढ़ रही थी. फिरोदिया यह जानते थे कि यदि इस कंपनी से ‘काइनेटिक’ नाम अलग न किया गया तो इसका असर उनके समूह की अन्य कंपनियों पर भी पड़ेगा. इसी के चलते काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड का नाम बदल कर ‘एथेना फाइनैंशियल सर्विसेज लिमिटेड’ कर दिया गया. कंपनी का नाम बदलने के बाद अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने अपनी सबसे महत्वपूर्ण चाल चली. जिनकी व्यक्तिगत गारंटी के चलते कभी इस कंपनी को लोन मिला और यह स्थापित हुई थी, उन्हीं अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने इस कंपनी से इस्तीफा दे दिया. कंपनी में छह नए निदेशकों को नियुक्त कर दिया गया. तहलका की तहकीकात में यह भी सामने आया कि ये सभी नव-नियुक्त निदेशक काइनेटिक ग्रुप के ही पुराने लोग थे. इस तरह से बैंकों की 200 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की रकम लौटाए बिना अरुण और सुलज्जा फिरोदिया अपनी ही कंपनी से अनजान बन गए.
सभी बैंक अब तक फिरोदिया परिवार की चाल समझ चुके थे. अगली ही बैठक में बैंकों ने काइनेटिक फाइनैंस लिमिटेड के खातों की जांच के लिए स्पेशल इन्वेस्टीगेशन ऑडिट (एसआईए) करवाने का फैसला किया. कुछ ही समय बाद 20 फरवरी, 2004 को एसआईए की रिपोर्ट तैयार हो गई. इस रिपोर्ट में सामने आया कि कैसे कंपनी के मालिक पिछले काफी समय से बैंकों को धोखा दे रहे थे. इस ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया, ‘कंपनी पिछले काफी समय से ज्यादा से ज्यादा लोन हासिल करने के लिए अपने खातों में झूठे मुनाफे दर्ज कर रही थी. कंपनी के खातों में कई नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स यानी अनर्जक संपत्तियां पाई गई हैं जिनमें से कई तो दस-बारह साल से भी पुरानी हैं. ऐसी अनर्जक संपत्तियों को कंपनी ने बैंकों से छुपाए रखा.’ ऑडिट रिपोर्ट में ऐसे कई झूठ सामने आए जो फिरोदिया पिछले लंबे समय से बैंकों से बोलते आ रहे थे. जांचकर्ताओं ने पाया कि पिछले कुछ समय में इस कंपनी से काफी धनराशि और संपत्तियां काइनेटिक ग्रुप की अन्य कंपनियों के खाते में भी जमा कराई गई थीं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि कंपनी मालिकों द्वारा किए गए अपराध भारतीय दंड संहिता की धारा 403, 405, 415, 420, 421 और 424 के अंतर्गत दंडनीय हैं और इन पर कार्रवाई होनी चाहिए .
सतर्कता अधिकारी की जांच रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि ‘अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने अपनी आखिरी चाल के रूप में कंपनी की बची हुई संपत्ति को भी अपनी अन्य कंपनियों के खातों में जमा कर दिया. दोनों फिरोदिया इस कंपनी को ऐसे कर्जे के साथ छोड़ गए जिसे चुकाने की जिम्मेदारी लेने वाला अब कोई नहीं था. जाने से पहले उन्होंने लगभग 10 करोड़ रुपये की उस संपत्ति को भी गलत तरीकों से बेच दिया जो बैंकों के पास गिरवी थी.’
ऑडिट रिपोर्ट में जो बातें सामने आईं उससे सभी बैंकों को एहसास हो गया था कि उनका पैसा अब डूब चुका है. अगली ही बैठक में कुछ बैंकों ने अरुण और सुलज्जा फिरोदिया के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की बात कही. यह बात बैठक के लिखित विवरण में आज भी दर्ज है. लेकिन स्टेट बैंक एवं अन्य बड़े बैंकों ने इसका विरोध किया और एफआईआर दर्ज करने के बजाय दीवानी मुकदमा दाखिल करने की बात कही. सभी बैंक इसके लिए तैयार हो गए और उन्होंने मिलकर एक संयुक्त मुकदमा दाखिल कर दिया. इस मुकदमे का खर्च सभी बैंकों ने लोन में अपने-अपने हिस्से के अनुपात में बांट लिया. साथ ही ऋण वसूली अधिकरण में भी यह मामला दर्ज करवाया गया. सभी बैंक अब अपना-अपना हिस्सा बचाने की फिक्र में थे. इन्हीं में से एक बैंक के प्रतिनिधि नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘फिरोदिया परिवार ने बैंकों के समूह में आपसी फूट डालने के लिए उनसे अलग-अलग संपर्क किया. उन्होंने कुछ बैंकों से वादा किया कि यदि वे उनके खिलाफ कोई आपराधिक मुकदमा दायर न करें तो वे उनका हिस्सा लौटाने को तैयार हैं. इस समूह के सभी बड़े सरकारी बैंकों को अरुण और सुलज्जा फिरोदिया ने शांत कर दिया था.’ बैंकों का संयुक्त मुकदमा कोर्ट में चल ही रहा था कि अचानक एक दिन स्टेट बैंक इससे भी पीछे हट गया. उसने अगली बैठक में यह घोषणा कर दी कि वह अब इस मुकदमे में बैंकों का नेतृत्व नहीं करेगा. इसके बाद कोई अन्य बैंक भी 22 बैंकों के इस विशाल समूह का नेतृत्व करने आगे नहीं आ पाया. लिहाजा बैंकों का यह समूह उस दिन भंग कर दिया गया. इससे फिरोदिया परिवार की मुश्किलें कम हो गई थीं. उन्हें अब एक बड़े समूह के मुकाबले बैंकों से अलग-अलग निपटना था.
भारतीय रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार इस मामले में कुल धनराशि एक करोड़ रुपये से अधिक होने के कारण सभी बैंकों को इस घोटाले की सूचना सीबीआई एवं पुलिस को देनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सिर्फ पांच निजी क्षेत्र के बैंकों ने फिरोदिया के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज किए. इन बैंकों में भी सबसे पहले बैंक ऑफ राजस्थान ने फिरोदिया के खिलाफ मामला दर्ज किया. केस संख्या 1391/2005 के तौर पर यह मामला पुणे के न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) की अदालत में दर्ज हुआ. कोर्ट ने इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 403, 406, 417, 420, 421 और 424 के अंतर्गत कार्रवाई करने के आदेश दे दिए. फिरोदिया परिवार ने इस आदेश को जिला जज की अदालत में चुनौती दी. लेकिन 11 अक्टूबर, 2005 को जिला जज ने इस चुनौती को खारिज कर दिया. इसके बाद फिरोदिया बॉम्बे उच्च न्यायालय पहुंचे. लेकिन उच्च न्यायालय में भी न्यायाधीश बीएच मरलापल्ले द्वारा नौ अक्टूबर, 2007 को उनकी याचिका खारिज कर दी गई.
बैंक ऑफ राजस्थान की ही तरह लॉर्ड कृष्णा बैंक, डीसीबी बैंक, आईएनजी वैश्य और जेएंडके बैंक ने भी फिरोदिया पर आपराधिक मुकदमे दर्ज किए. कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार इन पांचों बैंकों का लोन में कुल हिस्सा 37.73 करोड़ रुपये था. इन बैंकों द्वारा दर्ज किए गए मुकदमों को निरस्त करवाने के लिए फिरोदिया कई बार उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गए, लेकिन हर बार कोर्ट ने बैंकों को सही पाया और फिरोदिया को मुंह की खानी पड़ी. 26 फरवरी, 2010 को तो सर्वोच्च न्यायालय में जस्टिस आफताब आलम और जस्टिस बीएस चौहान की संयुक्त पीठ ने भी फिरोदिया की याचिका को खारिज कर दिया.
इसके बाद फिरोदिया समझ गए थे कि कोर्ट से उन्हें कोई राहत नहीं मिलने वाली. अब उन्होंने कोर्ट के बाहर ही इससे निपटने के इंतजाम किए. इन पांचों मामलों में बैंक का पक्ष बहुत मजबूत था और सर्वोच्च न्यायालय तक ने उनका समर्थन किया था. लेकिन इस सबके बावजूद ये सभी मुकदमे बीच में ही इसलिए बंद कर दिए गए कि बैंकों की तरफ से मामले की कोई पैरवी ही नहीं हो रही थी. इन पांच बैंकों में से चार के केस पुणे के ‘अभय नवेगी ऐंड एसोसिएट्स’ के पास थे. तहलका ने जब उनसे संपर्क करके इस बारे में जानना चाहा तो उन्होंने अपने क्लाइंट के साथ गोपनीयता की शर्त का उल्लेख करते हुए टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
इस तरह से फिरोदिया सैकड़ों करोड़ रुपये की लूट के बाद भी साफ बच निकले. इस लूट में जितना हाथ फिरोदिया परिवार का है उतना ही बड़े सरकारी बैंकों का भी है. स्टेट बैंक इस समूह का नेतृत्व कर रहा था और सबसे बड़ी रकम इसी ने काइनेटिक को दी थी. इसके बावजूद बैंक ने इस घोटाले से संबंधित कोई मुकदमा दाखिल नहीं किया. अब इतने साल बीतने के बाद इलाहाबाद बैंक ने फिरोदिया के खिलाफ कार्रवाई करने का मन बनाया है. कुछ समय पहले बैंक की लक्ष्मी रोड (पुणे) स्थित शाखा के मैनेजर जी राजेश्वर रेड्डी ने फिरोदिया के खिलाफ संबंधित थाने में एफआईआर दर्ज करवाई. लेकिन बैंक का बकाया एक करोड़ रुपये से अधिक होने के चलते थाने से इस मामले को सीबीआई में दर्ज करवाने के निर्देश दिए गए. इसी बीच रेड्डी का तबादला हो गया. उनकी जगह आए नए मैनेजर सोमप्पा एमएन बताते हैं, ‘मेरे संज्ञान में यह मामला आया है. मैं जल्द ही सारी औपचारिकताएं पूरी करके सीबीआई में एफआईआर दर्ज करवाने जा रहा हूं.’
अरुण और सुलज्जा फिरोदिया आज लगभग 30 से ज्यादा कंपनियों के मालिक हैं. अकेले काइनेटिक ग्रुप की ही दर्जनों कंपनियां भारतीय बाजार में फल-फूल रही हैं और अरुण फिरोदिया देश के सम्मानित उद्योगपतियों में गिने जाते हैं. दूसरी तरफ बैंक ऑफ इंडिया, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद, यूटीआई (म्यूचुअल फंड) और बैंक ऑफ महाराष्ट्र समेत कई बैंक उन्हें सालों से ‘विलफुल डिफॉल्टर’ घोषित करते आ रहे हैं. पिछले कई सालों से सिबिल और केंद्र सरकार के कॉरपोरेट कार्य मंत्रालय में उनका नाम बतौर डिफॉल्टर दर्ज है. इस सबके बाद भी उन्हें पिछले साल देश के सर्वोच्च सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया. इसकी भी एक कहानी है.
साल 2012 के पद्म पुरस्कारों के लिए बनाई गई चयन समिति में कई लोग ऐसे थे जिनसे अरुण फिरोदिया के काफी नजदीकी रिश्ते रहे हैं. इसमें कुछ तो ऐसे भी थे जिन्हें अरुण पहले ही ‘एचके फिरोदिया अवॉर्ड’ से सम्मानित कर चुके हैं. यह अवॉर्ड उन्होंने ने अपने पिता के नाम पर साल 1996 से शुरू किया था. भारत में किसी भी व्यक्ति को पद्म पुरस्कार से सम्मानित करने से पहले कई विभागों और संस्थाओं से उसकी जांच करवाई जाती है. इनमें इंटेलीजेंस ब्यूरो, सीबीआई, सेंट्रल बोर्ड ऑफ डाइरेक्ट टैक्सेस, डायरेक्टरेट ऑफ रिवेन्यू इंटेलीजेंस, सेंट्रल एक्साइज इंटेलीजेंस, रॉ और सेबी जैसे संस्थान शामिल हैं. क्या यह मुमकिन हो सकता है कि इतने विभागों द्वारा जांच के बाद भी यह बात सामने न आई हो कि अरुण फिरोदिया पिछले कई सालों से एक घोषित ‘विलफुल डिफॉल्टर’ हैं? लेकिन इसके बाद भी उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. इतना ही नहीं, फिरोदिया को पद्मश्री मिलने के बाद बैंक ऑफ महाराष्ट्र ने उनके लिए अलग से एक सम्मान समारोह भी रखा. यह वही बैंक है जिसके 15 करोड़ से भी ज्यादा की रकम अरुण फिरोदिया ने नहीं चुकाई और जिसने उनकी कंपनी को विलफुल डिफॉल्टर घोषित कर रखा है. बैंकों और बड़े पूंजीपतियों की मिलीभगत को इस बात से भी समझा जा सकता है.
एक तरफ फिरोदिया को लगातार डिफॉल्टर घोषित किया जा रहा था तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार उन्हें पद्मश्री पुरस्कार और महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति दे रही थी
केंद्र सरकार का फिरोदिया परिवार पर उपकारों का सिलसिला सिर्फ पद्मश्री तक सीमित नहीं है. सुलज्जा और अरुण फिरोदिया को कई महत्वपूर्ण संस्थानों में नियुक्तियां देकर भी सरकार ने कई बार उन्हें उपकृत किया है. जहां एक तरफ घोटालों के बाद फिरोदिया को लगातार डिफॉल्टर घोषित किया जा रहा था वहीं दूसरी तरफ केंद्र सरकार उन्हें ‘वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद’ (सीएसआईआर) में नियुक्ति दे रही थी.
सीएसआईआर की गवर्निंग बॉडी में सदस्यों को तीन साल के लिए नियुक्त किया जाता है. वर्ष 2007 से 2010 तक सुलज्जा फिरोदिया को इसमें नियुक्ति दी गई थी. इसके बाद वर्ष 2010 से 2013 तक के लिए अरुण फिरोदिया को यहां नियुक्त कर दिया गया. अरुण फिरोदिया की नियुक्ति तब की गई जब अमित मित्रा के जाने के बाद एक सदस्य की जगह खाली हुई. इस जगह को भरने के लिए सीएसआईआर के डायरेक्टर- जनरल ने अन्य सदस्यों की सलाह से प्रोफेसर देवांग खाखर का नाम सुझाया था. देवांग उस वक्त आईआईटी बॉम्बे के निदेशक थे. इस पर अंतिम मोहर सीएसआईआर का अध्यक्ष होने के नाते प्रधानमंत्री को लगानी थी. लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस सुझाव को वापस भेज दिया. दूसरी बार जब सीएसआईआर द्वारा सुझाव भेजे गए तो उसमें अरुण फिरोदिया का नाम सबसे ऊपर था. इसी नाम पर 28 जुलाई, 2011 को प्रधानमंत्री कार्यालय की मोहर लगी.
आज फिरोदिया ग्रुप की कंपनियां 3000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की हैं. इसके बाद भी बैंक उनसे अपने पैसे नहीं वसूल पा रहे. या शायद इसीलिए बैंक उनसे पैसे नहीं वसूल पा रहे कि वे इतने बड़े साम्राज्य के मालिक हैं? राजनीतिक लोगों से भी उनके अच्छे संबंध हैं. उनके भाई अभय फिरोदिया को शरद पवार का काफी नजदीकी माना जाता है. उनके बेटे अजिंक्य फिरोदिया भी सुरेश कलमाड़ी के छोटे भाई श्रीधर कलमाड़ी के साथ जेडएफ स्टीयरिंग गियर इंडिया लिमिटेड नाम की कंपनी के निदेशक हैं. जिस तरह से केंद्र सरकार द्वारा उन्हें कई तरीकों से उपकृत किया गया, उससे भी उनके राजनीतिक दखल को समझा जा सकता है.
कॉरपोरेट लूट की ये कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं कि एक बड़े उद्योगपति ने सैकड़ों करोड़ रुपयों का घोटाला किया. ये कहानी इसकी भी है कि कैसे इस लूट के बाद भी वह जेल जाने की बजाय लगातार सम्मानित होता रहा.