राजेन्द्र यादव: एक हंस अकेला

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‘राजेन्द्र यादव’ हिन्दी साहित्य की अकेली ऐसी शख्सियत हैं, जिनसे आप प्यार और नफरत एक साथ कर सकते हैं। उनका एक संपादकीय आपके विचारों और आपकी चिन्ताओं के साथ मजबूती से खड़ा नजर आयेगा तो अगले माह की संपादकीय आपको या तो निराश कर देगी या आपको उनके प्रति गुस्से से भर देगी। इस रुप में देखे तो राजेन्द्र यादव हिन्दी साहित्य के सबसे अविश्वस्त लेखक हैं। यही उनकी कमजोरी है और यही उनकी ताकत है।
यह बात एकदम सही है कि राजेन्द्र यादव ने कभी अपने विचारों से समझौता नही किया। जो उन्हे ठीक लगा वही लिखा।
हिन्दी साहित्य में हमेशा से ही अमूर्त चिन्ताएं हावी रही है। कभी शब्द को बचाने की लड़ाई लड़ी जाती है तो कभी संवेदना के खत्म होने का रुदन होता है तो कभी व्यक्ति अपने अस्तित्व को लेकर ही उलझन में होता है। ज्यादा ठोस चिन्ताएं हुई तो मामला बाजार तक आ जाता है। बाजार सभी चीजों को लील रहा है इससे कैसे निपटा जाये। इस घटाटोप में अपने संपादकीय और अपने संपादकीय चयन के माध्यम से राजेन्द्र यादव ने साहित्य में ठोस चिन्ताएं और ठोस सामाजिक समस्याएं सामने लायी। ‘दलित विमर्श’ और ‘नारी विमर्श’ इसी का नतीजा था। इसके अलावा राजेन्द्र यादव उन गिने चुने साहित्कारों में से हैं जिन्हे भारतीय समाज के संरचनात्मक संकट का गहरा अहसास था। और इस पर उन्होने कई बार बहुत शिद्दत से लिखा। आश्चर्य है कि 84 की उम्र में भी उन्हे देश दुनिया की हलचलों की अच्छी जानकारी थी। नक्सलवाद को वह जिस तरह से देख रहे थे वह दृष्टि हिन्दी साहित्य में विरल है।
उनका दूसरा परिचय ‘नयी कहानी’ आन्दोलन के प्रमुख कहानीकार के रुप में है। उनकी अधिकांश श्रेष्ठ कहानियां या उपन्यास इसी दौर के हैं। उनकी अधिकांश रचनायें जहां एक ओर तत्कालीन नव मध्य वर्ग की चेतना के अन्तरविरोधों को बहुत प्रामाणिक तरीके से सामने लाती हैं, वही इन अन्तरविरोधों में दम भी तोड़ देती है। ‘जहां लक्ष्मी कैद है’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है।
इसलिए मुझे लगता है कि कहानीकार राजेन्द्र यादव पर संपादक राजेन्द्र यादव भारी है। भविष्य में भी मुझे लगता है कि उन्हे कहानीकार से ज्यादा एक संपादक के रुप में याद रखा जायेगा।
राजेन्द्र यादव ने अपनी संपादकीय में कुछ मूर्खतापूर्ण गलतियां भी की हैं। उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान उन्होने मुलायम सरकार का पक्ष लिया और 2 अक्टूबर के दिन दिल्ली में प्रदर्शन के लिए जा रहे हजारों प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी तक कह डाला। इस प्रस्तावित प्रदर्शन को रोकने के लिए तत्कालीन मुलायम सरकार ने मुजफ्फरनगर के नजदीक उन प्रदर्शनकारियों पर अन्धाधुन्ध गोलियां चलायी और कई लोगो को अपनी जान गवानी पड़ी। इसके अलावा कई महिलाओं के साथ बलात्कार भी किया गया। इस घटना ने आग में घी का काम किया। आन्दोलन और तेज हो गया।
उत्तराखंड बनने के बाद भी राजेन्द्र यादव ने अपने इस गलत स्टैण्ड के लिए और प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी कहने के लिए कभी माफी नही मांगी। इसलिए उत्तराखंड के ज्यादातर साहित्यकार हंस और राजेन्द्र यादव का आज भी बहिस्कार करते हैं।
‘नारी विमर्श’ पर उनकी चिन्ताएं और उनके संपादकीय चयन कभी भी मध्यवर्ग की सीमाओं को लांघ नही पाये। और यहां भी उनका जोर इसके सिर्फ एक आयाम यानी इसके ‘दैहिक आयाम’ पर ही रहा। ‘होना सोना एक खूबसूरत औरत के साथ’ जैसे लेख उनकी भीतर की कुंठा और इस विषय पर उनकी विकृत सोच को ही सामने लाते हैं।
‘दलित आन्दोलन’ और ‘दलित साहित्य’ को भी उन्होने कभी भी वर्गीय नजरिये से नही देखा। इस तरह से कहे तो हंस और राजेन्द्र यादव दलितों के बीच के मध्य वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
लेकिन जहां हिन्दी साहित्य का बड़ा हिस्सा ‘पितृसत्ता’ और ‘ब्राहमणवाद’ में जकड़ा हो, वहां ये प्रयास भी काफी मायने रखते हैं।
अंत में एक शब्द में कहें तो राजेन्द्र यादव का व्यक्तित्व और उनके विचार ‘अन्तरविरोधों का एक गुच्छा’ [Bundle of Contradictions] हैं। लेकिन ये अन्तरविरोध गतिमान हैं मृत नहीं। यही कारण है कि अपने अन्तिम समय तक हम पाठकों के लिए राजेन्द्र यादव प्रांसगिक और ‘जीवित’ बने रहे।

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