फ़िलीस्तीन पर दो कविताएं……..

फ़िलीस्तीन
कई बार
तब्दील हो जाती हूं मैं
पूरी की पूरी फ़िलीस्तीन में.
तुम कहते हो तुम्हारा
कोई वज़ूद नहीं
फ़िलीस्तीन हम औरतों की
तरह है एकदम.
सदियों से
अपने वज़ूद की
लड़ाई लड़ता हुआ
हरदम…..

उल्फ़त
बेपनाह मोहोब्बत करते थे
हमारे अम्मी और अब्बू.
अब्बू ने बहुत उमग कर
अम्मी के होठों पर दर्ज़ की थी
एक आयत.
उसके ठीक एक साल बाद
मैं पैदा हुयी ….
बहुत खुलूस से
उन्होंने मेरा नाम रखा
उल्फ़त……
मेरे रोंए रोंए से नूर छलकता था…..
मिरी अम्मी कहा करती थीं
ये नूर मेरे वतन का नूर है.
मेरा वतन फ़िलीस्तीन है,
जो दर्ज़ नहीं है
दुनिया के नक्शे में कहीं
पर हमारा वतन मौजूद है
हरेक बच्चे के रोंए रोंए में
तभी तो मिरी अम्मी कहा करती थीं
कि मेरे बदन से छलकता हुआ नूर
मेरा वतन है…..मेरा फ़िलीस्तीन है……..
आज अचानक
रौशनी का एक बहुत बड़ा गोला
मेरी आंखों के सामने गिरा
मेरे शरीर का नूर बुझ गया.
मेरी अम्मी मुझे बाहों में
लेकर कर रही हैं स्यापा……..
…….मेरी उल्फ़त मार दी गई…..
…….मेरी उल्फ़त जिसके बदन से
……वतन का नूर छलकता था…..
……मार दी गई……
……आज मैं बेनूर हो गई…….
……बेवतन हो गई……
अब्बू ने अम्मी के कन्धे पे रखा हाथ
और कहा
हमारी उल्फ़त नहीं मर सकती कभी.
वो देखो वहां
उफ़क तक लड़ रहे हैं
हमारे वतन के लोग.
उनकी लड़ाई से छ्लक रहा है
हमारे वतन का नूर
ठीक वैसे ही ….
जैसे छलका करता था
हमारी उल्फ़त के बदन से.
हमारी उल्फ़त ज़िन्दा है,
हमारा वतन ज़िन्दा है….
ज़िन्दा रहेगा
मरते दम तलक……….
कृति

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